स्वागत है आगत कानव हो प्रभात
उज्जवल गात
तरु नव, नव पल्लव
नव हो साँझ नव रात
निर्झर सी हंसी प्रफुल्लित ललाट
प्रेम रस पगा हो जीवन
दुःख न आये पास
आओ हिलमिल करें प्रार्थना
सुखमय हो सबका जीवन
मंगलमय हो नववर्ष नवप्रभात
* सतीश एलिया डॉ अपर्णा एलिया
एक गंध बसी है मन में
आज सुबह सुबह आये फोन से पता चला जोशीजी ७५ के और उनकी पत्रकारिता ५५ साल की हो गयी। उन्होंने इस मौके पे अपने घर बुलाया है, यह सन्देश सुनकर ख़ुशी मिश्रित आश्चर्य हुआ। आश्चर्य इसलिए की वे ७५ के तो कतई नही लगते। सदा सफारी सूट में एकदम फिट तंदुरस्त नज़र आने वाले जोशी की उर्जा किसी नोजवान से कम नही है। जी हाँ में मदनमोहन जोशी जी की बात कर रहा हूँ। कई बार आज के नोजवान पत्रकारों से ज्यादा ही लगती है, बल्कि होती है। मुझे याद है २ साल पहले विधानसभा में भारी हंगामे के बाद हम अध्यक्ष के कमरे के बाहर खड़े थे, जोशी जी वहां मौजूद थे। उनके जमाने के और उनसे पत्रकारिता में ३० साल जूनियर भी खुद को तुर्रम समझते हैं और कितना भी महत्वपूर्ण घटनाक्रम क्यों न हो मोके पर नही जाते। मैंने अवसर का लाभ लिया और उनसे हंगामों का इतिहास पल भर में जान लिया। अगले दिन अखवारों में मेरी खबर सबसे उम्दा थी।
आप सभी को सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। दीप पर्व पर मेरी अपनी एक कविता सुधिजनों को समर्पित है।धीरे धीरे घिरता है तम,
ग्रस लेता जड़ और चेतन को
निविड़ अंधकार गहन है ऐसासूझ न पड़ता
हाथ को भी हाथ
क्या करें,
कैसे काटें इस तम को
यह यक्ष प्रश्न
विषधर साकर देता किंकर्तव्यविमूढ़
तो जगती है एक किरनउम्मीद की
टिमटिमातीकंपकंपाती दीप शिखा सी
आओ लड़ें तिमिर अंधकार से,
एक दीप धरें मन की देहरी परप्रेम की जोत जगाएं हम
मिटे अंधियारा
बाहर काभीतर का भी,
आओ दीपमालिका सजाएं,
दीपावली बनाएंएक दीप धरें मन की देहरी पर।।
- सतीश एलिया- Dr. aparana aliya
मेरा राज्य मध्यप्रदेश १ नवम्बर को ५४ साल का हो रहा है। दस बरस पहले इसका एक हिस्सा अलग होकर नया राज्य ३६ गढ़ बन चुका है। १९५६ में विंध्यप्रदेश, मध्यभारत, सीपी एंड बरार का हिस्सा ३६ गढ़ और महाकौशल अंचल मिलकर मध्यप्रदेश बना था। इसमें राजस्थान की टोंक रियासत के सिरोंज और लटेरी को भो शामिल किया गया। इन ५६ सालों में एक प्रदेश का जैसा भाव जागना था नही जाग पाया। प्रदेश ने प्रगति तो की लेकिन जैसी हो सकती थी नही हो पायी। जयादातर वक़्त कांग्रेस की सरकारें रहीं करीब १२ साल जनता पार्टी और बीजेपी की सरकार के रहे। आरोप प्रत्यारोप की बात नही है, लेकिन यह सच है की भरपूर संसाधन और मेहनती जनता के बाबजूद देश के नक़्शे पे मध्यप्रदेश पिछड़ा राज्य बना रहा। हमें इसे अगड़ा बनाने के लिए काम करने की जरूरत है। प्रदेश के प्रतिभाशाली राज्य के बहार सफलता का परचम लहराते रहे हैं, लहरा रहे हैं। क्रन्तिकारी चंद्रशेखर आजाद, स्वर कोकिला लता मंगेशकर, अप्रतिम गायक किशोरकुमार.अभिनेता अशोककुमार रज़ा मुराद, शरद सक्सेना, प्रेमनाथ, जया भादुरी,चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसेन, सैयद हैदर रज़ा, सरोद साधक उस्ताद अमजद अली, संगीत समराट तानसेन, सलीम जावेद की जोड़ी के सलीम, साहित्यकार पत्रकार पंडित माखनलाल चतुर्वेदी, राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी इसी धरा की संताने हैं। जनप्रिय अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर शंकरदयाल शर्मा तक और हाकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद तक मध्यप्रदेश के लालों की श्रंखला है। पहली दफा किसी सरकार ने अपना मध्यप्रदेश का भाव जगाने की शुरुआत की है। मध्यप्रदेश गान बना है। पार्श्व गायक शांतनु मुखर्जी यानि शान ने इसे सुर दिया है और मध्यप्रदेश के सपूत जबलपुर के संगीतकार आदेश श्रीवास्तव ने धुन बनाई है। इसे लिखा है पत्रकार महेश श्रीवास्तव ने। मधुर गीत जनता की जुबान पे चढ़ भी गया है। माँ की गोद पिता का आश्रय, शुभ का ये सन्देश है, सुख का दाता सबका साथी मेरा मध्यप्रदेश है॥ मध्यप्रदेश दिवस पे राज्य देश और विदेश में मौजूद सभी मध्य्प्रदेशियों को मेरी बधाई और ढेरों शुभकामनाएं।

तिरसठ बरस पहले देश के बंटवारे को स्वीकार कर हमें जो मिला था उसे हम भूलवश आजादी मान बैठे। अगर ऐसा नहीं है तो फिर कॉमनवेल्थ गेम्स का तमाशा हम क्यों आयोजित कर रहे हैं? उसमंे भी भ्रष्टाचार का कॉमन वेल्थ कर करोड रूपए डकारे जा रहे हैं और बेशर्मी की हद ये है कि सरकार इस मामले में कुछ कहती और करती नहीं दिख रही है। दिख रहा है तो इसे राजनीतिक फायदे में बदलने का भाजपा का प्रयास। हालांकि कॉमनवेल्थ के भ्रष्टाचार में वे लोग भी शामिल हैं जो भाजपा और उसके नेताआंे से जुडे हुए हैं और दिल्ली में इन गेम्स की तैयारियों में ठेकेदारी कर जेबें भर रहे हैं। संसद पर हमले के दोषी अफजल को फांसी देने में केंद्र सरकार की मक्कारी देश को आजाद कराने के लिए फांसी के फंदे पर खुशी खुशी झूल गए भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू की शहादत को नकारने जैसा ही है। लेकिन इस मुददे को भी वो भाजपा नेता बार बार कांग्रेस पर हमले के लिए उठाते हैं जिनके राज में केंद्रीय मंत्री की बेटी को छुडाने आतंकवादियों को सम्मान काबुल ले जाया गया था। कोई दूध का धुला नहीं है राजनीति कीचड हो चुकी है। जिन राज्योंमंे भाजपा की सरकारें हैं वहां भी जमीनों के घोटाले, रिश्वतखोरी चरम पर है। संघ से जुडे नेता और कार्यकर्ता भी कांग्रेसियों को मात देने के अभियान में निकल पडे लगते हैं। मध्यप्रदेश में दर्जनों नहीं सैकडों उदाहरण सामने आ चुके और लगातार आते ही जा रहे हैं। पत्रकारिता को चौथा खंबा कहा जाता है लेकिन विज्ञापन की शक्ल में खबरें छापकर जनता के भरोसे को तार तार किया जा रहा है। खबर अब वो है जो बिक सके। ऐसे पत्रकारों की संख्या में भी लगातार इजाफा हो रहा है जिनके यहां इंकम टैक्स का छापा पडता है, जिनके खिलाफ काले धंधों में काम करने के आरोप लगते हैं। जनता की आदिवासियों की हिमायत करने वालों को नक्सली बताकर एनकाउंटर कर दिया जाता है। भूमाफिया, पुलिस, भ्रष्ट नेता और अफसर जनता और उसकी संपत्ति को इस कदर लूट रहे हैं कि अंग्रेज भी शरमा जाएं, क्योंकि उन्होंने दूसरे मुल्कों को लूटा और हम अपने ही मुल्क और लोगों को लूटने में लगे हैं। एक तरफ महंगाई की मार है दूसरी तरफ भ्रष्टाचार किसान आत्महत्याएं करने को मजबूर हैं और सरकार अरबों रूपए फूंककर कॉमनवैल्थ गेम्स कराने पर आमादा है। गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं है, खुले में अनाज सड रहा है और दूसरी तरफ लोग भूख से मर रहे हैं। क्या खूब आजादी आई है और इन 63 सालों में हमने क्या खूब प्रगति की है। करीब इतने ही सालों में जापान आर्थिक ताकत बन गया और अब हमारे पडोसी चीन ने आर्थिक ताकत बनने में जापान की बराबरी करने के बाद उसे पछाडने का लक्ष्य हासिल कर लिया है और हम.. इस बात पर खुश हैं कि आखिर हमने अपनी मुद्रा का पहचान चिन्ह खोज लिया है। उम्मीद है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कल लाल किले की प्राचीर से महंगाई के खात्मे की सरकारी कोशिशों का बखान करेंगे और देश को ताकत बनाने का अहद दोहराएंगे जो नेहरू, इंदिरा, नरसिंहराव से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक कहते आए और आगे भी मनमोहन या कोई और प्रधानमंत्री कहेंगे ही। लेकिन क्या कोई देश को वाकई ताकतवर बनाने, गरीबी, भुखमरी, बेईमान, भ्रष्टाचार रोकने के लिए कुछ करेगा। फिलहाल तो कोई उम्मीद की किरण दिखाई नहीं देती। मुझे लगता है कि मैं गुलामी के दौर में पैदा हुआ होता तो देश पर कुर्बान होकर मरने का लक्ष्य तो होता लेकिन अब अपने ही देश में जिसे हम आजाद कहते हैं गुलामी के से हालात में जीना पड रहा है। दोस्तो आओ कुछ सोचें विचारें, दीवारें गिराकर कोई नई राह निकालें, मिलकर सोचें और कर गुजरें कि हम वाकई आजाद हों, मुल्क आजाद हो और ताकतवर बने; जयहिंद।
भाजपा की प्रदेश कार्यसमिति में अनंत कुमार के संदेश को सुनहरा अवसर बनाकर मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने स्वास्थ्य मंत्री अनूप मिश्रा को मंत्रिपरिषद से बाहर कर दिया। असल में जल संसाधन विभाग छिन जाने से अनूप मिश्रा शिवराज से नाराज थे और उनकी अनदेखी तक कर रहे थे। करीब एक साल से वे उच्च स्तरीय बैठकों और कैबिनेट तक में भाग लेने में रूचि नहीं ले रहे थे। इतना ही नहीं अनूप मिश्रा के तेवर इस कदर तीखे थे कि सीएम, साथी मंत्रियों, विधायकों, अफसरों से लेकर पत्रकारों तक को उनसे अडचन होती थी। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के भांजे होने की वजह से ही शिवराज सिंह चौहान को उमा भारती के सिपहसालार रहे अनूप मिश्रा को मंत्री बनाना पडा था। बेलागांव हत्याकांड में अनूप, उनके बेटे और अन्य संबंधियों का नाम आने के तत्काल बाद ही पार्टी आलाकमान के इस संदेश कि दागियों को अलग करो, से शिवराज को मौका मिल गया। वे इससे पहले स्वास्थ्य महकमे में एक राज्य मंत्री रखकर, ग्वालियर जिले के ही मंत्री नरोत्तम मिश्रा को ज्यादा विभाग और सरकार का अधिक्रत प्रवक्ता बनाकर अनूप के पर कतरने का नमूना दिखा चुके थे। ग्वालिअर के एक मंत्री नारायण कुशवाह उसी जाति के हैं जिसकी मिश्रा परिवार की ओर से हुई गोलीबारी में मौत हुई है। नारायण इस जाति से अकेले बीजेपी विधायक और मंत्री है। हालाँकि वे भी उमा भारती की कृपा से पहली दफा विधयक बनते ही मंत्री बने थे। शिवराज को जातीय समीकरणों के चलते उन्हें मंत्री बनाना पड़ा था। लेकिन ग्वालियर में अनूप मिश्रा ओर बीजेपी महासचिव नरेन्द्र तोमर की ही चलने से कुशवाह खासे नाराज हैं। कांग्रेसियों के धरने के चलते उनके भाई को सही इलाज न मिलने से मौत के बाद से वे खुद धरने पे बैठने का एलन कर चुके है। वे २ माह भोपाल भी नही आये थे। खैर अब देखना ये है कि उमा भारती की भाजपा में वापसी की अटकलों के बीच अनूप का इस्तीफा क्या गुल खिलाता है! अन्य दागी कहे जाने वाले मंत्रियों को हटाने में शायद शिवराज इतनी तत्परता न दिखाएं। क्योंकि वे मंत्री आपराधिक मामलों के आरोपों से नहीं घिरे हैं। भ्रष्टाचार के मामलों में शिवराज से लेकर अनंत कुमार और प्रभात झा तक यह दोहरा ही रहे हैं कि दोष सिद्ध होने पर ही सजा दी जाना चाहिए, पहले नहीं।
कुछ बातें कहने सुनने में अच्छी लगती हैं लेकिन अमल में नहीं लाई जातीं। अर्थात हाथी के दांत.. वाली कहावत। मप्र में भाजपा की सरकार में मंत्रियांे की दादागिरी, उनके खिलाफ दर्ज हो रहे भ्रष्टाचार के इतर मामलों की जैसे बाढ आई हुई है। ऐसे में महासचिव अनंत कुमार की मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को यह सीख कि दागियांे को बाहर करो, सुनने में अटपटी ही लग रही है। क्योंकि खुद मुख्यमंत्री पर डंपर खरीदी मामले में गलत जानकारियां देने और फिर स्वीकार कर लेने का मामला है। यह मामला तब उमा भारती के सिपहसालार प्रहलाद पटेल ने उठाया था, जो शिवराज से मित्रता के चलते कभी के भाजपा में लौट आए हैं और अब इस मामले में चुप हैं। खैर शिवराज दागियों पर कार्रवाई करें तो कैसे। एक तो वे खुद आरोपों से घिर चुके हैं, दूसरे दागी श्रेणी के मंत्रियों की पूरी फौज है। विश्नोई हटाए ही इसीलिए गए थे लेकिन वे फिर मंत्री बना लिए गए, हाइकमान के इशारे पर ही। नरोत्तम मिश्रा भी इसीलिए दूसरी पारी में पहले मंत्री नहीं बनाए गए थे, लेकिन बाद में न केवल मंत्री बन गए बल्कि इस वक्त वे शिवराज सरकार के आधिकारिक प्रवक्ता और संसदीय, विधि विधायी के अलावा आवास एवं पर्यावरण विभाग के आधे हिस्से आवास के भी मंत्री हैं। कैलाश विजयवर्गीय भले लाख आरोपों से घिरे हों लेकिन वे भी शिवराज के प्रिय हैं, हाल ही में 11 दिन की विदेश यात्रा में साथ रहे। जयंत मलैया भी लोकायुक्त में आरोपित हैं लेकिन उनके पास जलसंसाधन और आवास पर्यावरण विभाग है। नागेंद्र सिंह और अनूप मिश्रा अपने परिजनों की हिंसक दादागिरी के चलते निशाने पर हैं। बाबूलाल गौर भी पटवा सरकार के वक्त नगरीय प्रशासन मंत्री रहते जमीनों के मामले में चर्चा में रहे थे, उनके खिलाफ जगत्पति कमेटी ने प्रतिकूल टिप्पणियां की थीं, लेकिन वे मुख्यमंत्री तक बन चुके हैं, अब भी मंत्री हैं और उनकी पुत्रवधु भोपाल की महापौर हैं। विजय शाह आरोपों के चलते पहले तो दोबारा मंत्री नहीं बनाए गए थे और बाद मैं न केवल मंत्री बने, उनकी पत्नी खंडवा से महापौर बनीं। लुब्बे लुआव ये कि शिवराज दागियों पर कार्रवाई करें तो आखिर कैसे। रही बात कांग्रेस की तो उसकी सरकार के वक्त में दागियों की पूरी फौज थी। अर्जुन सिंह गैस कांड मामले में एंडरसन की सुरक्षित वापसी मामले में बुरी तरह से घिरे हैं, जिसकी आंच राजीव गांधी के घराने अर्थात कांग्रेस आला हाईकमान तक को झुलसा रही है। ऐसे में जनता किस पर विश्वास करे, अनंत कुमार पर, शिवराज पर, दागियों पर, कांग्रेेसियों पर या ईश्वर पर ही जो कि इकलौता सहारा है गरीब जनता का। मनमोहन सरकार लगातार महंगाई को परवान चढा रही है और बाकी सब सरकारें भी कमोबेश जनता के साथ यही कर रही हैं। सरकारें चलाने वाले अगर दागी बनने में रूचि लेने के बजाय जनता का वाकई कल्याण करते होते तो नक्सलियों को सहयोग और पांव जमाने का मौका क्यांेकर मिल पाता।
में मुर्दे सबसे ज्यादा काम की चीज होते हैं। गडे हुए मुर्दे उखाडे जाते हैं और वे ही राजनीति के भविष्य की दिशा तक तय करते हैं। यकीन नहीं हो रहा मेरी बात को तो भोपाल गैस मानव संहार के मामले को ही ले लीजिए। एक जमाने में इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी के निकटतम सिपहसालार अर्जुन सिंह के मामले को ही बतौर नजीर लीजिए। गैस हादसे के वक्त उनकी भूमिका के मुर्दे न केवल उखडे। हैं बल्कि वे अखबारों, विवाद पिपासु न्यूज चैनलों, राजनीतिक गलियारों, दफतरों में तांडव कर रहे हैं। प्रणव मुखर्जी से लेकर सत्यव्रत चतुर्वेदी तक और मोइली से लेकर पचौरी तक सब अर्जुन सिंह को ललकार रहे हैं। अर्जुन के पुराने शिष्य दिग्विजय सिंह भी इस मामले में निशाने पर आ गए हैं, क्योंकि वे मुर्दों की बोली को अनसुना कर गुरू ऋण उतारने की चेष्टा कर रहे थे। राजनीति या प्रशासन का महज ककहरा जानने वाला भी यह नहीं मान सकता कि अर्जुन सिंह जैसा चतुर सुजान ओर घनघोर चंट राजनेता बिना तत्कालीन कांग्रेस हाईकमान की सहमति के वारेन एंडरसन को सुरक्षित भोपाल से दिल्ली भेजता। जाहिर है राजीव गांधी की सहमति के बिना वारेन बाहर नहीं गया था। लेकिन अर्जुन और सोनिया दोनों ही मौन हैं, मुखर हैं तो सोनिया को प्रसन्न करने की कोशिश में और जबरिया वानप्रस्थ में धकेल दिए गए अर्जुन सिंह से बेपरवाह बिना जनाधार वाले नेता। कांग्रेस की गुटबाजी और कलह इस मामले में कहां खत्म होगी, कहा नहीं जा सकता। हो सकता है अर्जुन सिंह का मौन टूटे या फिर बोफोर्स मामले की वजह से सालों मौन रहीं और राजनीति में आने से कतराती रहीं सोनिया ही मौन तोडें। कांग्रेस की चिंता कांग्रेस करे और विपक्ष इस मुददे पर कितना क्या लाभ ले सकता है, यह वह जाने। कटघरे में तो जनता का विश्वास और लोकतंत्र की जिम्मेदारी तथा मर्यादा है। आखिर सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह, खुदीराम बोस, चंद्रशेखर आजाद से लेकर तिलक, गोखले, गांधी किस आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे? हमारे देश के नेता मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, जनता को सामूहिक नरसंहार के मुहं में झौंक देने के षडयंत्र में शाामिल होंगे और नरसंहार के जिम्मेदारों को बचाएंगे, यह दिन देखने के लिए आजादी के दीवानों ने संघर्ष किया था? अर्जुन सिंह दो दफा मप्र के मुख्यमंत्री रहे और कई दफा केंद्रीय मंत्री, सदन के नेता और राज्यपाल भी रहे उन्होंने सत्यनिष्ठा की शपथ दर्जनों बार ली होगी? क्या उन्हें वह शपथ नहीं कचोट रही है, उनका मौन बडा ही खतरनाक है और देश में लोकतंत्र पर सवालिया निशान की तरह है। जिस भोपाल शहर में उनके नाम पर अर्जुन नगर, बेटे के नाम पर राहुल नगर, पत्नी के नाम पर बिटटन मार्केट है, अपनी केरवां कोठी है। सी टाइप का सरकारी बंगला सी 19 है, जिसके नाम का भी भोपाल में कभी जलाल हुआ करता था, उसी शहर के 15 हजार लोगों की मौत एक रात में होने के मामले में वे अब मौन ही रहना चाहते हैं। बाबरी ढांचा गिरने के बाद फूट फूटकर रोना क्या स्वांग नहीं था? भारतीय परंपरा के अध्ययन को भगवाकरण नाम देकर राजनीति में शब्दों को उनकी पहचान से विलग कर अपमानित करने में माहिर अर्जुन सिंह को 26 बरस से जारी मौत के मामले में मौन तोड.कर भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में सच्चाई की एक मिसाल कायम नहीं करनी चाहिए? कांग्रेस की राजनीति में वे हाशिए पर पड़े हैं, बेटे की भी लगभग नगण्य हैसियत है, बेटी को टिकिट दिला नहीं पाए, जीवन की सांझ में अपनी अंतरात्मा को जाग्रत कर वे सच सामने रखें, शायद उनका मामला भविष्य में प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों से लेकर सरपंचों तक में सच की अलख जगा जाए। क्या ऐसा करेंगे अर्जुन?
भोपाल गैस कांड के २६ साल बाद सीजेमसी कोर्ट ने आज फैसला सुनाया। जैसा कि होना ही था मामूली सजा और ६ आरोपियों को जमानत मिल गयी। क्योंकि हमने कानून ही ऐसे बना रखे हैं। १५ हजार से ज्यादा मौतों और सतत जारी हादसे में ऐसा होना दुखद है। गौर किया जाये तो हमारी सरकारों ने नरसंघार के गुनहगारों को बचाने का काम किया। इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या होगी कि वारेन anderson को न केवल भारत से भागने दिया गया बल्कि उसे वापस लाने में नाकामी कि हमे कोई शर्म नही है। असल में सजा न केवल anderson और यूनियन कार्बाइड के अन्य करता धर्ताओं को मिलना चाहिए थी बल्कि मध्यप्रदेश के तत्कालीन सत्ताधीशों को भी सजा मिलना चाहिए क्योंकि हादसे के लिए वे भी उतने ही जिम्मेदार हैं जितना anderson एंड कम्पनी।
चिलचिलाती धूप हो कि संघर्षों की तपन,
खोखले नारों से विकास और थोथे विरोध प्रदर्शन भारतीय राजनीति को प्रहसन से ज्यादा पहचान नहीं देते, नतीजा आजादी के पैंसठ बरस बाद भी बुनियादी समस्याएं जस की तस हैं। लोगों में नागरिक जिम्मेदारी का भाव है ही नहीं। मध्यप्रदेश विधानसभा में चार दिन का विशेष सत्र बुलाया गया, घोषित लक्ष्य था मप्र को स्वर्णिम बनाने के एक सूत्रीय एजेंडे पर चर्चा कर रोडमैप बनाना था। लेकिन सामान्य सत्रों मंे ही प्रदेश के विकास पर न पक्ष और न ही विपक्ष की खास रूचि नजर आती है, ऐसे में विशेष सत्र पर राजनीतिक खींचतान अवश्यंभावी थी। विपक्ष ने पहले तो सत्र पर हामी भर दी और फिर सत्र को असंवैधानिक करार देकर उसका वहिष्कार कर धरना, समानांतर संगोष्ठी और मसखरे अंदाज में सरकार की खिल्ली उडाई। असल में 10 साल दिग्विजय सिंह के नेत्रत्व में कांग्रेस की सरकार रही और मप्र को बीमारू राज्य का तमगा मिलना ही इकलौती उपलब्लिध रही, इसी वजह से जनता ने भाजपा को मौका दिया। लेकिन जिन वादों पर सरकार बनी थी उसे पहले पांच साल और दूसरी बार सरकार बनने के करीब डेढ साल में कुछ खास नहीं निभाया जा सका। मसलन बिजली के मामले में हालात लगभग वैसे ही हैं। गांवों में 18 घंटे और शहरों में दो से 12 घंटे तक बिजली गुल रहती है। हां सडकों के मामले में हालात अच्छे हो गए हैं। भ्रष्टाचार के मामले दिग्विजय सरकार की तुलना में अब ज्यादा सामने आए हैं, भाजपा भ्र्रष्टाचार को मुददा बनाती रही और अब उसके राज में कई मंत्रियों के अलावा खुद मुख्यमंत्री तक आरोपों से घिरे हुए हैं। लेकिन विपक्षी दल कांग्रेस कई गुटों में बंटी होने की वजह से ऐसा कुछ नहीं कर पाई है कि लोग उसके दस सालों के कुशासन को भूल कर भाजपा को अपदस्थ करने में कांग्रेस को विकल्प के तौर पर देखने लगें। कांग्रेस और दिग्विजय सिंह को जिन उमा भारती के नेत्रत्व में भाजपा ने अपदस्थ किया था, उनकी घर वापसी की प्रबल संभावनाओं के बीच अपना दबदबा बनाए रखने की कोशिश में शिवराज ने स्वर्णिम मप्र के नाम पर विशेष सत्र बुलाने की जो रणनीति बनाई वह उनके लिए मुसीबत ही बनती नजर आई। विशेष सत्र भाजपा का कार्यक्रम बनकर रह गया। ऐसे में जनता को यह समझ नहीं आ रहा है कि लगातार दो बार मप्र के विकास के नाम पर जनादेश देने के बाद अब भाजपा सरकार को मप्र को स्वर्णिम बनाने से आखिर रोक कौन रहा है? विशेष सत्र की जरूरत क्यों पड़ी ? कांग्रेस के सदन से दूर रहकर बाहर प्रहसन पर भी जनता जानना चाहती है कि आखिर उन्होंने 10 साल में कुछ क्यों नहीं किया था, अब आखिर किस योग्यता पर उन्हें फिर से अवसर मिलना चाहिए?
कांग्रेसअध्यक्ष, यूपीए चेयरपर्सन महिला, लोकसभा में अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष सभी महिलाएं, महिला आरक्षण बिल पर यादव त्रयी को छोडकर सभी पक्ष विपक्ष एक साथ। टीवी पर, अखबार में, हवाई जहाज में, नासा में अंतरिक्ष में सभी जगह महिलाओं ने अपनी ताकत दिखा दी है। मप्र के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर ने बरकतुल्ला विश्वविद्यालय भोपाल में प्रो.निशा दुबे को कुलपति बनाकर राज्य की पहली महिला वाइस चांसलर की नियुक्ति की। इस बात की तारीफ मीडिया में जमकर हुई। लेकिन जब सोमवार को प्रो. दुबे विवि में कुलपति पद का काम सम्हालने पहुंचीं तो उनको विवि प्रशासन के अफसरों से लेकर उन प्रोफेसरों तक ने कोई तवज्जो नहीं दी जो अब तक के सभी कुलपतियों के लिए गुलदस्ते लेकर उनके निवास से लेकर कुलपति कार्यालय के द्वार तक पलक पांवडे बिछाए खडे होते आए थे। आइएएस,आइएफएस और आईपीएस अफसर भी इस विवि में कुलपति रहे और इनमें से कोई भी ऐसा नहीं रहा जिसे भारी विवाद, झगडों टंटों के बाद विदा न होना पडा हो। कार्यवाहक कुलपतियों की भी लंबी परंपरा है बल्कि हर कार्यवाहक नए कुलपति की चयन की सूची में शामिल होता रहा। निशा दुबे को हत्सोसाहित करने का माहौल केवल इसलिए नहीं बना कि कार्यवाहक कुलपति प्रो. पीके मिश्रा की नियुक्ति तय मानी जा रही थी और फिर भी नहीं हुई। इसकी असल वजह प्रो. दुबे का महिला होना है, यह ठीक वैसा ही जैसा भाजपा में उमा भारती के साथ हुआ, क्योंकि वे मायावती या जयललिता नहीं हैं। निशा दुबे को कुलपति बनाने वाले लोगों की मंशा नारी सशक्तिकरण की दिशा में एक और कदम उठाया गया साबित करने की थी और वह साबित भी हुई लेकिन बरकतुल्ला विवि प्रशासन और प्राध्यापकों ने साबित करने की कोशिश की है कि वे किसी महिला को कुलपति पद पर सफल नहीं होने देंगे। आश्चर्य तो इस बात का है कि मीडिया ने प्रदेश की पहली महिला कुलपति की नियुक्ति को पॉजीटिव मानते हुए भरपूर तवज्जो दी लेकिन जब वे फीके माहौल में कार्यभार ग्रहण कर रही थीं तक कुछ पत्रकार बाहर खडे होकर यह चर्चा कर रहे थे कि मैडम चल नहीं पाएंगी। यह जुमले विवि प्रशासन के जिम्मेदार पदों पर सालो से जमे हुए और विभागों में जडें जमाए बैठे लोग भी बोलते सुने गए थे। अब देखना ये है कि महिला को कुलपति बनाने वाले और खुद प्रो. निशा दुबे विवि में जमे कॉकस का तिलिस्म किस तरह तोड. पाते हैं। नई कुलपति को नजदीक से जानने वाले बताते हैं कि उनका कम्युनीकेशन और एडमिनिस्ट्रेटिव पॉवर स्ट्रांग है, देखना ये है कि बरकतुल्ला विवि सही अर्थ में विवि की गरिमा हासिल कर पाता है या नहीं।
आखिरकार संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अतिरिक्त महासचिव शशि थरूर अब पूर्व विदेश राज्य मंत्री हो गए। यह तो होना ही था, प्रधानमंत्री विदेश यात्रा के दौरान ही इसके संकेत दे चुके थे। आखिर कांग्रेस को भारत में राजनीति करना है और थरूर, सरकोजी के अंदाज और मिजाज वाले आदमी हैं। पश्चिम की जनता ऐसे आदमी को नेता मान लेती है लेकिन भारतीय मानस और दल ऐसा नहीं कर सकते। सोनिया गांधी को इटालियन होते हुए भी आज भारत के सभी वर्गों और लोगों यहां तक कि मजबूरी में ही सही दलों में भी सम्मान प्राप्त है, तो इसलिए कि उन्होंने भारतीय महिला के संस्कार किसी भारतीय महिला से एक कदम आगे रहकर अपनाकर दिखाए हैं। थरूर पश्चिमी रंग ढंग में और उस पर भी पार्टी और सरकार के अनुशासन से उपर उठकर चलने वालों में से हैं। इस देश में आज भी महात्मा गाँधी ही आदर्श हैं। यहाँ तक कि ओबाबामाहैं के भी। आईपीएल की कोच्चि टीम, सुनंदा पुष्कर को लाभ दिलाने जैसे कारण तो सतह पर हैं। हालांकि वे हैं वे इतने गंभीर हैं कि सरकार चाहती तो भी थरूर का आईपीएल और सुनंदा का सुरूर झेल नहीं पाती। आखिर सरकार की महिला बिल के मामले में हालत यह है कि उसे यूपीए को तो साधे ही रखना है विपक्षी दलों खासकर भाजपा को भी गुडविल में रखना है। थरूर के सुरूर का तो ये अंत हुआ। अब बडबोले और मनमाने ढंग से आईपीएल क्रिकेट के पिच, बॉल, बल्ला, विकिट और स्टेडियम बन बैठे ललित मोदी की बारी है। राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के मुंहलगे होने की वजह से क्रिकेट के किंग बनने का सफर पूरा कर सके ललित के जाने की उलटी गिनती भी शुरू हो गई है। अपने रिश्तेदारों को भरपूर लाभ देने, क्रिकेट एसोसिएशन के सदस्यों को डिक्टेट करने और मीडिया से बदतमीजी करके उन्होंने जो बोया है उसे वे काट भी नहीं पाएंगे बल्कि बोया हुआ और उनकी तथाकथित प्रतिष्ठा खाक होने ही वाली है। उनके जलवों की कई पर्तें अब धीरे धीरे खुलेंगी और कम से कम दो तीन महीने तो सुर्खियों में बने रहेंगे। मीडिया के पास अब हिसाब चुकाने का सुनहरा मोका है और अब तक के अनुभव बताते हैं कि इसमें मीडिया कोई चूक नही ही करेगा।
हरियाणा मेंं खाप पंचायतों के ऑनर किलिंग वाले फैसलों के खिलाफ मीडिया और तथाकथित आधुनिकतावादी जो स्यापा कर रहे हैं, वे समस्या की जड़ में जाने की जहमत क्यों नहीं उठा रहे हैं। मैं यहां स्पष्ट कर दूं कि किसी भी तरह की हत्या को जस्टीफाइ नहीं किया जा सकता, क्योंकि सजा के सभ्य तरीके भी होते हैं। लेकिन अब जबकि मप्र के इंदौर में भी सगोत्र विवाह करने का मामला सामने आया है और उसमें बहिष्कार की सजा तजवीज की गई है तो मैं इस मामले पर गंभीरता से अपनी बात कहना चाहता हूं। हिंदुओं की कई जातियों और उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम भारत के हिंदुओं में विवाहों को लेकर अलग अलग रिवाज हैं। हिंदू मैरिज एक्ट में इनका पूरी तरह ध्यान नहीं रखा गया। मसलन आंध्र और तमिलनाडु में मामा का भांजी से विवाह श्रेष्ठ माना जाता है और मप्र,उप्र, बिहार, राजस्थान, हरियाणा,उत्तराखंड में यह पाप की श्रेणी में है। इसी तरह समूचे उत्तर भारत में अपने गोत्र में और यहां तक की मामा, नाना के गोत्र में भी विवाह संबंध नहीं हो सकते। यह मान्य परंपरा है। हमारे यहां शादी के लिए कुंडली मिलान की पहली शर्त ही यह होती है कि खुद का और मामा का गोत्र अलग अलग हो तो ही बात आगे बढ़ती है। सगोत्र विवाह निषेध न केवल शास्त्र सम्मत है बल्कि मेडिकल साइंस के लिहाज से भी ऐसे विवाह जेनेटिकली डिसआर्डर की तरफ जाते हैं। हरियाणा और पश्चिमी उप्र में सगोत्र लडक़े लड़कियों के प्रेम होने और फिर समाज के भय के बावजूद विवाह होने के पीछे लडक़े और लड़कियों की संख्या में फर्क होना एक बड़ा कारण है। दूसरा बड़ा कारण है मप्र, उप्र, बिहार, राजस्थान समेत अन्य उत्तर भारतीय राज्यों के लोगों ने गोत्र को बचाते हुए समान जातियों और उपजातियों में क्षेत्र और राज्य के बाहर जाकर विवाह करने का रास्ता स्वीकार कर लिया। इस वजह से अन्य इलाकों में सगोत्र विवाह की मजबूरी और फिर गोत्र बचाने की खातिर हत्या जैसे जघन्य कदम उठाए जाने की नौबत नहीं आई। मेरी समझ में तो न बच्चे गलत हैं और नही गोत्र के तरफदार। असल समस्या को समझकर खाप पंचायतों, बिना राजनीतिक नफा नुकसान का गणित लगाए राजनीतिक दलों, सरकारों, आधुनिकता की अंधी रौ में बहने वाले मीडिया और कानूनविदों को रास्ता खोजना होगा। अन्यथा सामाजिक तानाबाना यूं ही बिखरता रहेगा, पिता, भाई ,मामा हत्यारे बनते रहेंगे और मासूम बच्चे मारे जाते रहेंगे।
जम्मू कश्मीर और आसाम के पूर्व राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा इतवार को भोपाल में थे। पत्रकारिता विस्वविध्यालय में व्याख्यान में उन्होंने कई बातें बताईं। उन्होंने बताया की कश्मीर में कश्मीरी मुसलमान ४३ परसेंट हैं यानि बहुमत नही है। देश में २६ परसेंट लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं जबकि कश्मीर में महज ३.७ प्रतिशत लोग ही इस श्रेणी में हैं. कश्मीर की प्रति व्यक्ति आय अन्य राज्यों की तुलना में १० गुना ज्यादा है. घाटी का मीडिया ज्यादा भारत विरोधी है पाकिस्तानी मीडिया उससे काफी कम। श्री सिंहस ने कहा की भारत की पाकिस्तान पर सैनिक स्रेस्ठता पूरे महाद्वीप के लिए जरूरी है.
अमिताभ बच्चन की फिल्म डॉन में एक गाना था किशोर दा का गाया- ई है बंबई नगरिया तू देख बबुआ..। इसके एक अंतरे में आता है कोई बंदर नहीं है फिर भी नाम बांदरा। बबुआ अमिताभ बच्चन जब बांद्रा वर्ली सी लिंक के उदघाटन समारोह में लोक निर्माण मंत्री के न्यौते पर विशेष अतिथि बने तो कांग्रेस की दो तरह की राजनीति का झंडा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने उठा लिया। कार्यक्रम में अमिताभ से गुफ्तगू की और बाद में सोनिया गांधी को खुश करने और अपनी पार्टी में अपने विरोधियों को मुददा बनाने से रोकने कह दिया की अमिताभ के आने का पता होता तो मैं न आता। बांद्रा एरिया के सिपाही से बड़ापाव वाले तक को मालूम था मेगा स्टार अमिताभ बच्चन पहुंच रहे हैं, भोले मुख्यमंत्री को नहीं पता था? क्या खूब हैं चव्हाण साब की मासूमियत, क्या इतने ही अनभिज्ञ मुख्यमंत्री की जरूरत किसी भी प्रदेश को होती है? अगर नहीं तो फिर चव्हाण कैसे जमे हुए हैं, देशमुख को बेदखल करवाकर. अमिताभ बाबू ने भी गजब पलटवार किया है। क्यों भाई रतन टाटा नैनो प्लांट बंगाल से गुजरात में लगाते हैं तो बायकाट क्यों नहीं करते चव्हाण, बच्चन गुजरात के ब्रांड एंबेसेडर हैं तो उन्हें महाराष्ट्र सरकार के बुलावे पर भी नहीं जाना चाहिए क्या.शिवसेना के बूढ़े शेर चुनाव में पिटे पिटाये बाल ठाकरे ने अमिताभ का पक्ष लेने में फिर शाहरूख को मोहरा बनाने की कोशिश की है। यह भी बदनीयती है। महाराष्ट्र या मुंबई से बाहर वाले सब चले भी जाएं और ठाकरे से लेकर चव्हाण तक की मंशा पूरी भी हो जाए तो कल्पना कीजिये की क्या होगा, आमची मुंबई और जय महाराष्ट्र का .अच्छी बात ये है की महाराष्ट्र में बहुमत जनता वैसा नहीं सोचती जैसा ठाकरे कुनबा या congress के नेता सोचते हैं। हां मुलायम सिंह के सीटी वाले फूहड़ coment का जया भादुड़ी बचाव करती नजर आ रही हैं, यह जरूर शेमफुल है। आखिर बच्चन परिवार राजनीति और उनके नेताओं में इस तरह क्यों रूचि लेता है की उनके विरोध और समर्थन में सच बात भी ढंकने की कोशिश की जाती है। भोपाल में शत्रुघ्न सिन्हा ने जरूर पते की बात कही कि बच्चन बाबू हाजमोला से लेकर तेल मालिश, बोरो प्लस और बांद्रा वर्ली सी लिंक समारोह में आखिर क्यों नजर आते हैं? यह व्यक्ति कि स्वतंत्रता कि बात है जो संविधान में हम आपकी तरह अमिताभ को भी हासिल है। लेकिन अमिताभ बच्चन मेगा स्टार, मिलिनियम स्टार जैसे दर्जनों तमगो से नवाजे जा चुके हैं, उन्हें गरिमा बनाए रखने पर विचार करना होगा। क्या हम कलाम साहब को विधानसभा चुनाव लड़ते या अटलजी को पार्षद उम्मीदवार बनते देख सकते हैं, अमिताभ असल में विज्ञापनों में पैसा बटोरते ऐसे ही लगते हैं। उन्हें सिलेक्टिव तो होना चाहिए, क्योंकि वे आज भी लाखों लोगों के चहेते हैं, उनका स्तर गिरते देख अच्छा नहीं लगता।

कहावतें इतनी ठोक और बजकर स्थापित होती हैं, कि उनके लेखक को लेकर कभी विवाद नहीं होता और नहीं उनका प्रमोशन करना पडता। जैसा कि तीन में से एक इडियट को ज्यादा बाकी को केवल हाथ भर लगाने लायक करना पड रहा है। शुक्रवार को यह साबित हो गया कि तीन इडियट वे नहीं जो पोस्टरों मंे या हर टीवी चैनल में प्रोमो में दिख रहे हैं, उनमें से एक ही असल तीन में शामिल हैं, बाकी तो प्रेस कान्फरेंस में विधु विनोद चोपडा और राजकुमार हिरानी ने भी साबित कर दिया कि हम भी इसी असल नाम और पहचान वाले हैं। गांधीगिरी पर फिल्म बनाकर वाहवाही लूट चुके विनोद और हीरानी ने बता दिया कि गांधीगिरी फिल्म तक ही सीमित है, यानी दूसरों को सीख देने के लिए हम तो बदतमीजी करेंगे। धन कमाने के मूल उददेश्य से चलने वाले विषय तलाशने में माहिर यह धंधेबाज ये कैसे समझ सकते हैं कि दूसरों की जिज्ञासाएं पूरी करना वह भी प्रेस कानफरेंस में उनकी न केवल जिम्मेदारी है, भले वे स्टार हों कि नेब्युला। अगर आप ने चेतन भगत की किताब को चुराया नहीं है तो यह बात शांति से भी बताई जा सकती थी, लेकिन यहां फिर कहावत हमारी मदद को हाजिर है चोर की दाडी में तिनका। अब पत्रकार तिनके की तरफ इशारा करेंगे तो भला आमिर, राजकुमार और विधु विनोद झल्लाएं नहीं क्या! आखिर फिल्म का नाम भी तो थ्री इडियटस है भाई। फिल्म चूंकि हिट हो चुकी है और इसमें मीडिया की भी मेहरबानी है तो ये तीनों अब इस मेहरबानी को और क्यों झेलें तो बोल दिया शटअप। नेता भी तो यही करते हैं अपना काम बनता भाड में जाए जनता। वर्ना कौन नहीं जानता कि बच्चों के लिए तारे जमीन पर बनाने वाले आमिर खान अपने बीबी बच्चों को छोडकर दूसरी शादी कर चुके हैं और टूटे हुए परिवार के दर्द पर कभी फिल्म कभी नहीं बनाना चाहेंगे, कोई अपने गिरेबां में झांकता है भला। रही बात फिल्म वालों की बदतमीजी की तो उसमें सन्नी देवल से लेकर सलमान खान तक कौन शामिल नहीं है। अब मीडिया वाले भी इस में किसी से कहां पीछे हैं, जार्ज डब्ल्यु बुश और चिदंबरम से पूछिए पत्रकारों के बारे में उनकी दिली राय क्या है। फिर भी सार्वजनिक जीवन में वह चाहे फिल्म, राजनीति, साहित्य, पत्रकारिता कोई क्षेत्र क्यों न हो सहिष्णुता होनी ही चाहिए, आखिर हमारे भारत की हजारों साल की तहजीब के बचे रहने का यही इकलौता बडा कारण है, वर्ना मिस्त्र, रोम और न जाने कितनी सभ्यताएं जमींदोज हो चुकी है। आमिर, हीरानी और उनके मुखिया विधु विनोद चोपडा के बारे में अपनी बात में एक कहावत से ही खत्म करता हूं कि ...तियों के अलग से गांव नहीं बसते, न ही उनके चार कान और छह हाथ ही होते हैं, वे हमारे आपके बीच में ही मौजूद रहते हैं, हम उनके साथ ही रहना है बकौल कवि कुल तिलक गोस्वामी तुलसीदास जी- तुलसी या संसार में भांति भांति के लोग सब संग हिल मिल चालिए, नदी नाव संजोग। इसका एक देसी तर्जुमा भी दिलजलों ने बनाया हुआ है, उसे में यहां नहीं बताउंगा समझदार तो समझ ही जाएंगे, बाकी सबक ये है कि ईडियटयस थ्री नहीं अनंत हैं। फिर भी फिल्म देखने लायक है, चेतन भगत साहब की थीम पर बनी है, यह अगर सच है तो उन्हें धन्यवाद। उन्हीं के मुताबिक अंग्रेजी वाले तो यह बात पहले से ही जानते हैं अब हिंदी वालों को भी जानना चाहिए, लेकिन चेतन भगतजी अंग्रेजी में लिखकर आप महान हो जरूर गए हैं लेकिन ईडियटगिरी से बचना है तो अपनी भाषा में सोचने और लिखने की जहमत उठाइए फिर देखिए कि इस देश की माटी की महक अपनी भाषा में कैसे रंग लाती है। आमीन!