गुरुवार, 30 जुलाई 2009

शर्म मगर हमको नही आती .........


शर्म-अल-शेख में नापाक इरादों वाले मुल्क पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गिलानी से गच्चा खाकर लौटे हमारे माननीय प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह जी का संसद में वक्तव्य यह बताने की कोशिश से भरा था कि पाकिस्तान ने अपने देश के किसी आतंकी संगठन का भारत में हुए हमले में हाथ स्वीकार किया है। हकीकत ये कि पाकिस्तान की सरकारी एजेंसी आईएसआई का मुंबई हमले में था। जिसे पाकिस्तान ने लगातार न केवल नकारा है बल्कि हफीज सईद को बेकसूर बताने की कोशिश करते हुए भारत से फिर सुबूत मांगे हैं। शर्म अल शेख में पाकिस्तान ने अपने मुल्क में खुद के बोए आतंक के कांटे भारत के नाम दर्ज कर साझा बयान मनमोहन जी से दस्खत करा लिया। पूरी दुनिया जानती है कि सीआईए बरास्ता आईएसआई पोषित आतंकवाद ही पाकिस्तान के ग्रह यु़़द्ध का कारण है, मुंबई मामले में बेशर्मी धारण के बाद उलटे भारत पर बलूचिस्तान में आतंकी घटनाएं कराने का आरोप मढने में कामयाब हो गए गिलानी मनमोहन पर भारी पड गए। अब यूपीए सरकार और कांग्रेस इस नाकामयाबी को छुपाने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। बेहद अफसोस की बात ये है कि हमारे देश में करीब पचास साल तक सत्ता में रही कांग्रेस की विदेश नीति ने यह हाल बना दिए है कि हमारा कोई भी पडोसी हमारा मित्र नहीं है। पाकिस्तान से तो उम्मीद करना बेमानी है ही लेकिन जिस बांग्लादेश की मुक्ति हमने कराई, जिस नेपाल को सदा मदद की वे भी हमारे मित्र नहीं है। चीन से दोस्ती करने का नतीजा खुद नेहरू ने जिंदा रहते देख लिया था। जिसका दंश हम आज तक भोग रहे हैं। बर्मा उर्फ म्यांमार हो श्रीलंका हो कोई भी हमारे साथ नहीं है। आतंकवाद के मुददे पर विश्व समुदाय के दवाब आ गया पाकिस्तान अब शर्म अल शेख मंे भारत को पटखनी देकर इस दवाब से आसानी से बाहर निकलता दिख रहा है, हमारी सरकार संसद में और कांगे्रस संसद के बाहर लीपापोती करने में लगी है। जनता ने पांच साल के लिए कांग्रेस को मौका दे दिया है, शर्म अल शेख की बेशर्मी अगले चुनाव तक पुरानी हो चुकी होगी, क्योंकि हमारी जनता ऐसे मुददों को ज्यादा देर तक याद नहीं रखती। वो तो प्याज के दाम या ऐसे ही किसी तात्कालिक मुददे पर वोट दे डालती है और फिर उसे भी भूल जाती है। क्योंकि सरकार को तो आती ही नहीं है, शर्म हमें भी नहीं आती।

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

गर्भ परीक्षण जैसे चर्चित मुद्दे पर नहीं चर्चा, विस सत्र खत्म

शडडोल जिले में मुख्यमंत्री कन्यादान योजना में विवाह के मंडप में बैइीं 14 वधुओं को गर्भवती पाए जाने जैसे चर्चित मुद्दे, प्रदेश में कानून व्यवव्था के हालात और बिजली संकट जैसे मुद्दों पर चर्चा किए बिना ही मप्र विधानसभा का बजट सत्र आज खत्म हो गया। सत्र बुलाया तो 6 जुलाई से 4 अगस्त के लए था, लेकिन इसे पहले ही खत्म करने का निर्णय विधानसभा की कार्य मंत्रणा समिति ने ले लिया था। आखिरी दिन से एक दिन पहले यानी सोमवार की कार्यसूची में बिजली और कानून व्वस्था के मामलों पर चर्चा शामिल थी। लेकिन नहीं हो सकी थी। मंगलवार की कार्यसूची में यह विषय फिर शामिल किए गए थे। इन पर चर्चा होने से पहले ही प्रमुख विपक्षी दल कांगेस ने कार्यवाही का बहिष्कार कर दिया। जबकि अध्यक्ष के आश्वासनों के बावजूद शहडोल का गर्भ परीक्षण मामला कार्य सूची में नहीं लिया गया। विपक्ष इस मुद्दे पर चर्चा की मांग पूरे सत्र के दौरान लगभग हर दिन करता रहा और अध्यक्ष ने इस पर विचार का हर बार आश्वासन दिया था। कानून व्यवस्था की स्थिति पर तो विपक्ष का जोर इसलिए भी था क्योंकि विधानसभा चुनाव के दौरान मतदान वाले दिन तत्कालीन भाजपा विधायक सुनील नायक की हत्या के आरोप के चलते कांग्रेस के निर्वाचित विधायक ब्रजेंद्र राठौर अब तक शपथ नहीं ले पाए हैं। वे सुनील नायक हत्याकांड में फरार आरोपी हैं। कांग्रेस के विधायक माखनलाल जाटव की भी हत्या लोकसभा चुनाव के दौरान हुइ्र्र थी। विधानसभा के 22 दिन चले सत्र में जतना के इन महत्वपूर्ण मामलों पर चर्चा न हो पाना क्या दर्शाता है? अफसोस की बात ये भी है कि सत्र के दौरान पक्ष विपक्ष के लोग गंभीर मुददोंं पर चर्चा से ज्यादा हंसी मजाक में मशगूल होने में ज्यादा रूचि लेते नजर आए। उम्मीद की जाना चाहिए कि जनता की चिंताओं, उनकी समस्याओं को प्रतिबिंबित करने वाली पंचायतें बन पाएंगी और उनके हल भी तलाशेंगी।

शनिवार, 25 जुलाई 2009

नेपाल से ही ले लीजिए सीख


नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने उपराष्ट्रपति परमानंद झा की शपथ को खारिज करते हुए उन्हें फिर से शपथ लेने का आदेश दिया है। वजह झा ने देश की राष्ट्रभाषा नेपाली के बजाय हिंदी में शपथ ली थी। नेपाल में राष्ट्रपति रामबरन यादव भारतीय मूल के हैं और उपराष्ट्रपति भी भारतीय मूल के हैं, वह भी हिंदी भाषी। यादव ने खुद भी नेपाली में शपथ ली थी और झा को भी दिला रहे थे लेकिन झा ने उसे हिंदी में दोहराया। नेपाली सुप्रीम कोर्ट का फैसला तारीफे काबिल है। आप या हम कोई भी भाषी हों लेकिन किसी भी संप्रभु राष्ट्र की एक ही आधिकारिक राष्ट्रभाषा होना चाहिए है, होती भी है। लेकिन हमारे यहां राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्री स्वतंत्र हैं कि वे राष्ट्रभाषा हिंदी में चाहें तो शपथ लें और चाहें तो न लें। हमारे यहां गैर हिंदी भाषी और कई बार हिंदी भाषी भी अंग्रेजी में शपथ लेते हैं। जो देश के किसी भी हिस्से की भाषा नहीं है, जो उनकी राष्ट्रभाषा है जिन्होंने हमें दो सदी गुलाम रखा, हम उसमें शपथ लेते हैं और कोई शर्म भी महसूस नहीं करते। नेपाल भले छोटा देश हो और लोकतंत्र भी वहां अभी नन्हीं उम्र का हो लेकिन राष्ट्रभाषा के मामले मंे तो वह विश्व के सबसे बडे लोकतंत्र का दम भरने वाले भारत से श्रेष्ठ ही साबित हुआ है। विश्व मंच पर चीनी राष्ट्रपति, जापानी राष्ट्रपति, इटली, फ्रांस और रूस के राष्ट्रपति जब अपने देश की राष्ट्रभाषा में बोलते हैं तो उनकी बात पूरी ताकत से सुनी जाती है। लेकिन हमारे सत्ता प्रमुख अंग्रेजी में बोलते हैं और सोचते हैं हम अंतरराष्ट्रीय हो गए हैं। अंग्रेजों की गुलामी से सौ साल के संघर्ष के बाद आजाद हुए 62 साल बाद भी हमें भाषा के मामले में कोई शर्म नहीं आ रही है, यह कैसी गुलामी हमने गले में बांध ली है, जिसका कोई अंत नजर नहीं आता। जब अंग्रेजी से कोई गुरेज नहीं तो भैया अंग्रेजों से संघर्ष क्यों किया। यह कुतर्क जरूर दिए जाते हैं कि विकास करना है तो अंग्रेजी अपनाना होगी। अपनाओ न भैया, लेकिन क्या आप 62 साल में चीन और जापान से ज्यादा विकसित हो गए हो? अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय भाषा सरीखा दर्जा पा चुकी है, इसमें कोई दो राय नहीं है और न ही उसकी खिलाफत करना ही कोई समझदारी है। लेकिन हम अपनी राष्ट्रभाषा से उपर रखें उसे यह तो शर्मनाक ही है। हमारे नीति निर्धारकों को, संविधान में सैकडों संशोधन कर चुकी संसद को नेपाल से सब लेकर यह व्यवस्था करना चाहिए कि शपथ राष्ट्रभाषा में ही होगी, अंग्रेजी में तो कतई नहीं होगी। हिंदी दिवस, हिंदी पखवाडा बनाने का सालाना क्रियाकर्म पर लाखों रूपए खर्च करने वाली सरकार, सरकारी उपक्रमों में करोडों रूपए खर्च कर सफेद हाथी की तरह राजभाषा विभाग चलाने वाली सरकार नेपाल की तरह संविधानिक व्यवस्था कर राष्ट्रभाषा को यथोचित सम्मान दिलाएगी! सुन रहे हैं सांस्क्रतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा प्रतिपक्ष के नेता माननीय लालक्रष्ण आडवाणी जी, सुषमा जी, लिखित मं ही सही जोरदार हिंदी में भाषण देने में पारंगत हो चुकीं यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी जी, हाल ही में गिलानी से शर्म अल शेख में कूटनीतिक पटखनी खाकर लौटे सरदार मनमोहन सिंह जी, शरद यादव जी, मुलायम सिंह जी, लालूप्रसाद यादव जी, और तमाम महानुभाव जो संसद को सुशोभित करते हैं।

बुधवार, 22 जुलाई 2009

लो टपकने लगी 72 करोड़ में बनी विधानसभा

७२ करोड़ रुपए से ज्यादा लागत से बने मध्यप्रदेश विधानसभा भवन के मुख्य गुंबद से पानी टपकने लगा है। इस इमारत की डिजाइन विख्यात अक्र्कीटेक्ट चाल्र्स कोरिया ने बनाई है। इस खूबसूरत इमारत को बनाने में शुरूआती बजट 12 करोड़ रुपए था , लेकिन जब यह करीब दस साल में बनकर तैयार हुई तो खर्च 72 करोड रुपए को पार कर चुका था। इस इमारत को एशिया की श्रेष्ठï वास्तु इमारत का आगा खां अवार्ड मिला था। खास बात ये है कि यह भवन बना तब मप्र से 36 गढ़ राज्य अलग नहीं हुआ था। विधायकों की संख्या 320 थी। चार बरस बाद जब 36 गढ़ राज्य बन गया तो बाकी मप्र में 220 विधायक रह गए। पूर्व ब्नौकरशाह महेश नीलकंठ बुच ने सुझाव दिया था कि इसे फाइव स्टार होटल में बदल दिया जाए। लेकिन विधानसभा भवन में विधानसभा ही लग रही है। कांग्रेस के राज में संपुट की तरह विधान परिषद गठित किए जाने पर विचार किए जाने की घोषणाएं होती रहती थीं। इसलिए विधान परिषद के लिए भी सदन बना दिया गया। जो किसी अभिशप्त थिएटर की तरह बंद रहता है। इस भवन के बनने से पहले मप्र की विधानसभा राजभवन के सामने की उस इमारत में लगती थी, जिसे मिंटो हाल कहा जाता है। वह इसलिए कि नबाबी दौर में तत्कालीन ब्रिटिश गर्वनर जनरल लार्ड मिंटो की अगवानी इसी हाल में की गइ्र्र थी। मूलत: यह इमारत भोपाल की नबाब ने कालेज के लिए बनवाई थी। जिन लोगों ने मनोज वाजपेयी अभिनीत फिल्म शूल देखी होगी, उन्हें बता दें कि विधानसभा का दृश्य भोपाल के इस पूर्व विधानसभा भवन अर्थात मिंटो हॉल में ही शूट किया गया था। मिंटो हाल अब भी विधानसभा की ही मिल्ििकयत है और इसमें मप्र विधानसभा के पहले अध्यक्ष पं. कुंजीलाल दुबे के नाम पर संसदीय विद्यापीठ चलता है। लेकिन ज्यादातर दिनों में यह विशाल इमारत सुनसान ही रहती है। इसे सेमिनार इत्यादि के लिए किराये पर दिया जाता है। स्टार न्यूज के जनता वाले कुछ कार्यक्रम भी यहां हो चुके हैं। यहां उद्योग विभाग कन्वेंशन सेंंटर बनाने का इरादा रखता है। पास ही स्थित मछलीघर को तोड़कर फाइव स्टार होटल बनाने की योजना है। इस पर जनता की नाराजी भी अखबारों के जरिए सामने आ चुकी है। फिलहाल योजना खटाई में है। तो मंगलवार को जब प्रदेश की राजधानी सावन की झड़ी से तरबतर थी। उस वक्त विधानसभा की बैठक चल रही थी। कांग्रेस विधायक श्रीकांत दुबे ने सदन में अध्यक्ष ईश्वरदास रोहाणी से कहा कि उनके ऊपर पानी टपक रहा है। श्री रोहाणी ने कहा कि इस समस्या का हल सत्र के बाद करेंगे। इस बीच कांग्रेस पक्ष से किसी सदस्य ने कहा- बारिश में टपके का डर शेर से भी ज्यादा होता है। अध्यक्ष ने कहा कि पूरे प्रदेश में वर्षा हो रही है, इंद्र भगवान का आभार व्यक्त करें। कांग्रेस विधायक रामनिवास रावत ने कहा कि श्योपुर में बारिश नहीं हुई है। अध्यक्ष ने सुझाव दिया कि पूजा पाठ कराएं। विंध्य क्षेत्र के किसी सदस्य ने कहा कि सीधी, सतना में भी बारिश नहीं हुई है। अध्यक्ष ने कहा कि वहां भी पूजा पाठा कराओ। जबलपुर में तो सात इंच बारिश हुई है।

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

लगी आज सावन की फिर वो झडी है

सोमवार की रात से मध्यप्रदेश खासकर राजधानी भोपाल पर बादल खासे मेहरबान हैं, सावन की झड.ी लगी है। वो स्कूल के शुरूआती दिन, कई कई दिन की झड.ी टपकता स्कूल वरदान बनता था और खूब छुटटी होती थी। जिस के पास नया और रंगीन छाता होता वही राजकुमार बनता था, दोस्तों के बीच। निक्कर पहने डेढ दर्जन बच्चों की कतार गलियों में दौड. लगाती तेज बारिश में नहाने का मजा लेती फिरती थी। नालियों में लबालब और तेज रफतार pani में कागज की नाव, कोई छडी कोई खाली बोतल बहाना और उसके संग संग नाले के छोर तक दौडते जाना, वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी... वो भी क्या दिन थे। किसी चबूतरे पर बैठना दोस्तों के बीच गप्प कहानी, किस्से चुटकुले मिमिक्री और जमकर ठहाके। मन हुआ तो झमाझम बारिश में फुटबाल का आनंद। वो भी क्या दिन थे। बारिश में दोपहर भर दोस्तों के साथ ऐसे ही बिताना, घर वालों की पुकारों पर सबके सब अनुसुनी करने में माहिर, दूसरे के यहां से आवाज आई तो बाकी सब ठहाके लगाते थे। किसी के भी पिताजी की आवाज आई तो फिर जाना ही पड.ता था। मांएं तब भी चिंता करती थीं, भीग रहे हो, बीमार पड. जाओगे, लेकिन बारिश का आनंद इस कदर था और बीमार भी शायद ही हमारे दोस्तों में कभी कोई पड.ा हो। बील, पीपल और नीम के पेड. पर झूले, उंची उंची पींगें, और अपनी बारी के लिए झगड.े। वे भी क्या दिन थे। अब न बच्चे बारिश में गलियों में दौड.ते दिखते हैं और न ही उनके हुजूम बारिश में जमा होकर गपियाते नजर आते हैं। न कोई फुटबाल खेलता दिखता है, रेनी सीजन का अपना मजा था, लेकिन अब वो कहां। हायर सेकंडरी के जमाने में बारिश का इंतजार घर से निकलने के लिए करते थे, जमकर भीगते थे और तबियत मस्त हो जाती थी। कई सालों बाद लगी सावन की झडी ने मन को भी भिगो दिया है, याद आ रहे हैं बचपन के वे दिन, वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी, वो फुटबाल, वो गलियों में भीगते हुए दौडें लगाना। वे सब दोस्त राकेश, बलवीर, ईश्वर सिंह, उमाशंकर, बबलू, देवेंद्र लंबी फेहरिश्त है। मन दौड. लगाते हुए भीगने का हो रहा है, लेकिन अब वो बात कहां, वो इरादे पक्के कहां, वो दोस्त यार कहां, वो सावन कहां। फिर भी झड.ी लगी है सावन की तो मन सावन सावन हो आया है। आप भी भीगे क्या! बताईएगा जरूर।

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

भोपाल के ताल में एक दिन में बढ़ गया आधा फुट पानी

भोपाल के लोग यानी भोपाली दो चीजों का बेसब्री से इंतजार करते हें और दो ही चीजों से सर्वाधिक खुश होते हैं। एक तो बड़े तालाब के लबालब होने पर भदभदा के मोरे यानी गेट खुलने से और दूसरे गैस कांड के मुआवजे की किश्त जारी होने की खबर से। भोपाल की पहचान पहले ताल से थी और अब ताल और गैस कांड दोनों से होती है। तो खबर ये है कि बुधवार और गुरूवार की झमाझम से भोपाल के ताल में आधा फुट पानी बढ़ गया है। सो सभी भोपालियों की तरह अपन भी खुश हैं। अपने इतिहास में सर्वाधिक गंभीर सूखे का सामना कर रहे ताल में पानी की धाराएं फूटती और समाती देखना अपने आप में इस कदर खुश करने वाला पल है कि इसे महसूस ही किया जा सकता है, बयान करना मुश्किल है। बुधवार को जब में विधानसभा की कार्यवाही के कवरेज में था तो जब चाय पीने प्रेस रूम मंं पहुंचा तो चाय की तलब भूल ही गया। क्योंकि बाहर जो नजारा दिख रहा था, जन्नत से कम नहीं था। झमाझम बारिश में भोपाल शिमला से भी ज्यादा हसीन दिख रहा था। बड़ा ताल भी पानी की धाराओं का इस्तकबाल कर रहा था। मप्र का विधानसभा भवन एशिया की सर्वश्रेष्ठï इमारत का वास्तु पुरस्कार जीत चुका है। उसे आगा खां अवार्ड करीब दस साल प हले मिला था। इस भवन से भोपाल शहर को जो नजरा दिखता है, उससे कोई भी अभिभूत हो सकता है। बारिश में तो मुहं से अपने आप ही सुभान अल्लाह निकल पड़ता है। यहां से बड़ा ताल, छोटा ताल, एशिया की सबसे बड़ी मस्जिद ताजुल मसाजिद से लेकर हर खूबसूरत नजारा दिखता है। विधानसभा भवन से सटा हुआ बिरला मंदिर है। तो जनाब हमारे भोपाल ताल में पानी की आमद उम्मदा हो रही है। नजारा बेहतरीन है। लोगों ने हवन किये, दुआएं कीं, अब इंशा अल्लाह बारिश झमाझ हो रही है। बस इल्तिजा यही है कि इस झमाझम को किसी की नजर न लगे।
पुन:श्चहमारे यहां कुछ लोग बड़े तालाब को बड़ी झील कहते हैं। हालांकि यह झील नहीं है। तालाब को झील कहतना कब शुरू हुआ, इसका ठीक ठीक अंदाज किसी को नहीं है। लेकिन इसकी वजह अंग्रेजी के अखबार और फिर नकलची हिंदी के अखबार हैं। अंग्रेजी अखबारों ने बड़े तालाब को अपर लेक लिखन शुरू किया और फिर यह हिंदी अखबारों में बड़ी झील में तब्दील हो गया। जबकि यह स्पष्टï है कि तालाब मानव निर्मित और झील प्राकृतिक होती है। भोपाल का तालाब राजा भोल ने बनवाया था यह ऐतिहासिक तथ्य है। फिर भी लोग झील कहते हैं तो क्या किया जाए। लेकिन ताल कहें या झील, यह भोपाल की शान, जान और पहचान है। इन दिनों बारिश से यह भर रहा है।

सोमवार, 13 जुलाई 2009

गर्भाधान परीक्षण का विरोध क्यों?

मध्यप्रदेश के शहडोल जिले में पिछले दिनों मुख्यमंत्री कन्यादान योजना में ऐसी 14 लड़कियों को ढूंढ निकाला गया जो पहले से ही न केवल विवाहित थीं, बल्कि गर्भवती भी थीं। सरकार की इस योजना में हर जोड़े को विवाह में छह हजार रुपए मिलते हैं। इस लालच में कई दफा विवाहित जोड़े भी सामूहिक विवाह समारोह में शामिल हो जाते हैं। कई दफा सरकारी कर्मचारी या नेता टाइप के लोग कमीशन लेकर जान बूझकर ऐसे लोगों का इस योजना में विवाह करा देते हैं। लेकिन शहडोल में गर्भवती महिलाओं के विवाह में शामिल होने की बात सामने आने से अलग अलग तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं। कुछ अखबारों के संपादकों ने जांच के खिलाफ विशेष संपादकीय तक लिख डाले हैं। सोमवार को विधानसभा में विपक्षी दल कांग्रेस के विधायक हुकुम सिंह कराड़ा ने शहडोल की घटना के लिए सरकार की निंदा की। उनका कहना है कि इस तरह का परीक्षण शर्मनाक है। महिला एवं बाल विकास मंत्री रंजना बघेल और भाजपा की महिला विधायकों ने इस पर यह कहते हुए ऐतराज जताया कि गलत लोग योजनाओं का लाभ लें तो उसकी जांच नहीं की जाएगी तो क्या किया जाएगा। असल में न सरकारी पक्ष और न ही विपक्ष इस घटना की जड़ में जा रहे हैँ। वह है गरीबी और सरकारी तंत्र में शामिल भ्रष्टï अधिकारी और कर्मचारी। जो अच्छी मंशा से बनी किसी भी सरकारी योजना का यही हश्र करते हैं कि कुपात्र को लाभ मिलता है और ज्यादातर दफा सुपात्र भटकते रहते हैं। कुपात्रों से आसानी से कमीशन में आधी रकम तक मिल जाती है। मेरे खयाल से गर्भाधान परीक्षण को कौमार्य परीक्षण की तरह मानकर उसका विरोध करना भी एक तरह से दकियानूसी है। आखिर जांच में ही तो गड़बड़ी पकड़ी गई। इसका विरोध विपक्ष तो सियासत के तहत कर रहा है लेकिन अखबार वाले क्यों ऐसा कर रहे हैं।

रविवार, 5 जुलाई 2009

कमबख्त, कमीने..

जब कोई किसी से कमबख्त और कमीने कह दे तो उसकी हत्या तक हो सकती है, थप्पड़ खाने का इंतजाम तो जरूर हो सकता है। सामने वाला पीटने की हैसियत न रखता हो तो पलटकर गालियां तो दे ही सकता है, या हो सकता है पत्थर दे मारे और भाग जाए। कुछ भी हो सकता है किसी को कमीने और कमबख्त कहने में। इन दिनों कोई भी टीवी चैनल खोलिए, एएफ रेडियो आपकी कार में बज रहा हो, यही दो लफ्ज लगातार सुनने को मिल रहे हैं लेकिन हम किसी को पीट नहीं सकते। क्योंंकि ये हालीवुड की उतरन बालीवुड के दो ताजातरीन शाहकार हैं। उनके एक्टर देश भर में घूम घूमकर कमबख्ती और कमीनेपन को देखने की गुहार कर रहे हैं। क्या जमाना आ गया फिल्मों में भी, एक वक्त था अमर प्रेम, प्रेम पुजारी, मोहबबत, महबूबा, प्रेम तपस्या नाम से फिल्में बनतीं थी और अब आलम ये है कि फिल्म का नाम लेने पर से आप पिट सकते हैं। कुछ वक्त पहले एक गाना खूब बजा था- मुश्किल कर दे जीना, इश्क कमीना। इश्क प्रेम या प्यार कमीना होता है, इसी गाने से पता चला थाा। गाना हिट हुआ था इसका मतलब है लोगों को भरोसा हो गया था कि हां इश्क कमीना हो सकता है और जीना मुश्किल भी कर सकता हैँ। चचा गालिब भी कह गए हैं- इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया वर्ना हम थे आदमी काम के। मतलब बेरोजगारी का ताल्लुक भी इश्क से है। अगर कोई शै आपको बेरोजगार कर दे, फाकामस्ती पर ले आए , अर्थात भिखमंगा तक बना डाले तो वह चीज कमीनी और कमबख्त भी लग सकती है। खैर ईएमआई, संकट सिटी, मेट्रो, मार्निंग वॉक इत्यादि अंग्रेजी नाम वाली हिंदी फिल्मों की फेहरिश्त में कम से कम हिंदी नाम वाली फिल्में तो आईं। भले ही उनके नाम कमीने और कमबख्त इश्क ही क्यों न हों। तो दोस्तों पता नहीं आपने कमीने और कमबख्त इश्क देखीं हैं या नहीं या देखना तय किया या नहीं, मैंने तो तय कर लिया है कि मैं कमीने और कमबख्त इश्क नहीं देखूंगा। क्योंकि इस किस्म के लोगों से मेरे रोज ही साबका पड़ता है जिन्हें सुबह ओ शाम यही संबोधित करने को जी चाहता है, जी तो पीटने का भी चाहता है। लेकिन चाहने से क्या होता है, हिम्मत भी होना चाहिए। ऐसी हिम्मत के लिए बेअक्ली भी होना चाहिए सो अपने पास फिलहाल बेअक्ली नहीं है, इसलिए कमीने और कमबख्तों के दौर में भी अपन सबसे दुआ सलाम करके वक्त काट रहे हैं। आपका क्या ख्याल है, बताइएगा जरूर । ्रपुन:श्च
फिर से इसलिए क्योंकि इन दो लफ्जों कमीने और कमबख्त के बारे में तो मैं आपसे बात कर ही नहीं पाया। असल में अर्थ के लिहाज से यह दोनों करीब करीब समानार्था हैं। कमबख्त कहा जाता है उस इंसान को जो मां के गर्भ में भी पर्याप्त समय नहीं रहा और वक्त से पहले आकर मां को परेशान किया , खुद परेशान हुआ और फिर दुनिया को परेशान करता है। कमीने भी मुझे लगता है कम महीने में जन्म लेने से ही बना होगा। वैसे विशेषज्ञ गण मेरे विश£ेषण पर अपनी सहमति जता सकते हैं, न जताएं तो भी अपनी राय जरूर बताइएगा।

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

mohammad शाह रंगीले को याद करते हुए

दिल्ली के रंग जुदा हैं, कहा जाता है कि दिली तो बेदिल वालों की है, इसका मतलब हुआ है कि दिल वालों के लिए नहीं है दिल्ली या दिल्ली दिल वालों की नहीं है। कुछ भी हो महाभारत की जन्म भूमि हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ भी दिल्ली है और गुलाम वंश, लोदी वंश, मुगलों की भी रही है दिल्ली तो अंग्रेज prbhu की भी थी और फिर नहीं रही दिल्ली। लुटियंस की बसाई दिल्ली से पूरा देश चलता है लेकिन यह दिल्ली भी पूरे देश की नहीं है और खुद अपनी भी नही है। राजनीति की माया निराली है। हमारा मकसद यहां दिल्ली के बारे में व्याख्यान देने की कतई नहीं है और ही राकयेश ओमप्रकाश मेहरा की तरह दिल्ली-6 के बाद सात या आठ बनाने का कोई इरादा है। हम तो दिल्ली के एक बादशााह को याद करते हुए याद करना चाहते हैं। ऐसे ही नहीं असल में आज वह बादशाह प्रासंगिक हो गया लग रहा है। मोहम्मद शाह रंगीले को नादिर शाह ने दिल्ली के तख्त से केवल बेदखल किया था बल्कि दिल्ली में कत्लो गारत का वो मंजर पेश किया था कि कहा जाता है कि सालों तक दिल्ली की गलियों में खून की गंध बसी रही थी। असल में रंगीले का जिक्र इसलिए क्योंकि उसके दरबार में जलवा था हिजड़ों और उस किस्म के लोगों का जिन्हें आज समूची दुनिया में गे या समलैंगिक कहा जा रहा है। जिनकी परेडें साओ पाओलो से लेकर इटली और अब पांच हजार साल पुरानी संस्कृति पर गर्व करने वाले भारतवर्ष की राजधानी दिल्ली तक में निकल रही हैं। तो मोहम्मद शाह रंगीले के निजाम में हिजड़ों और गे साहिबान की तूती बोलती थी या इसे यों कहें कि वही निजाम थे। गुरूवार को दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध मानने की अवधारणा को एक मामले में खारिज कर , हिंदुस्तान के समलैंगिकों को मानो तोहफा दे दिया है। समलैंगिकता कोई नई चीज नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे कि एक से ज्यादा विवाह करना, रखैल रखना, बलात्कार होना, डाके, डलना, चोरी होना और जुआ सटटा इत्यादि होना। देश काल परिस्थिति के मुताबिक कोई कृत्य अपराध या सर्व स्वीकार्य होता है। सरकारें और समकालीन कानून में परिभाषा बदलती रहती है। हस्तिनापुर में जुआ खेलना और उसमें पत्नी को भी दांव पर लगाना गैर कानूनी नहीं था, यहां तक की राजा भी यही कर रहे थे। लेकिन आज भारतीय दंड संहिता में जुआ खेलना गुनाह है। देश भर में पुिलस स्वेच्छा से जुआ खेलने वालों को केवल पकड़ती और मारती पीटती है, बल्कि उनके पैसे जीम जाती है। खैर अब हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को गैर कानूनी होने के अभिशाप से मुक्त कर दिया है, तो देर सबेर देश के जुआरियों, सटोरियों और अन्य स्वेच्छा और सहमति वाले कर्मों को भी कानूनी मान्यता मिल ही जाएगी, एसी उम्मीद की जा सकती है। यह बात और है कि समाज में यह सभी स्वेच्छा वाले कर्म अराजकता फैलाते हैं। समलैंगिकता भी ऐसा ही स्वैच्छिक आचरण है। जिसे भारतीय जनमानस में कभी भी swikar nhi किया जाएगा, जैसा जुआ, परस्त्रीगमन, वेश्यागमन, जुआ खेलना, शराबखोरी इत्यादि को नहीं माना जाता। कोर्ट के निर्णय का भले ही भारतीय गे और उनके हिमायती भले ही स्वागत करें, लेकिन यह अच्छे संकेत नहीं हैं। उम्मीद की जाना चाहिए कि जय हो ब्रिगेड और भगवा ब्रिगेड इस मुददे पर देश की संस्कृति के हित में क्या कदम उठाते हैं, फिलहाल तो गे वाले गाना ga रहे हैं जय हो आप क्या कहते हैं, बताइएगा जरूर।