शुक्रवार की शाम को मैं अपने ऑफिस में रोजाना की तरह कमकाज निपटा रहा था। व्यस्तता के बीच अभाविप के राष्ट्रीय महामंत्री विष्णुदत्त शर्मा का फ़ोन आया। उन्होंने जो सूचना दी पत्रकार के रूप में मेरे लिए केवल सिंगल कालम खबर थी लेकिन उसके बाद काम में मेरा मन नहीं लगा। आरएसएस के एक वरिष्ठ प्रचारक शालिग्राम तोमर का निधन हो गया। यह खबर मिलते ही मैं १९८९ में पहुँच गया। जब अभाविप कार्यकर्ता के रूप में मैं उनसे मिला था। उज्जैन अधिवेशन की तय्यारियों की बैठक में उन्होंने कहा हमे उज्जैन उस ट्रेन से जाना है जिसमे कम पैसे देकर ज्यादा देर ट्रेन में बैठने को मिले। हलके फुल्के अंदाज़ में अपनी बात कहना और अपने से आधी उम्र के युवाओं के साथ घुलमिल जाना यही उनकी विशेषता थी। कभी उन्होंने अनुशासन थोपा नहीं बल्कि हमारी आदत मे आ गया। इसी उज्जैन अधिवेशन मे जब भोजन व्यवस्था कुछ बिगड़ी तो वोह खुद पूरियां तलने बैठ गए। हम हल्ला मचाने वालों ने जब यह देखा तो चुप होगये और खुद पर शर्म आ गई। कार्यकता उनसे कितना प्यार करते थे इसका भी एक उदहारण उनके बीमार पड़ने पर मालिश करने और सेवा करने के लिए होड़ लगती थी। अभाविप के नए और पुराने कार्यकर्ता अपनी बारी का इंतजार करते थे। आरएसएस के इन प्रचारक के बारे मे एक बात जो चकित करती है वोह विवाहित प्रचारक थे। लेकिन परिवार उनके लिए कभी परिवार प्राथमिकता मे नहीं रहा। आज मप्र मे भाजपा के जितने भी नेता स्थापित हैं ओर मुख्यमंत्री और मंत्री हैं सबको उनका भरपूर प्यार मिला। शालिग्राम जी ने सबको दिया लेकिन किसी से कुछ भी उम्मीद नहीं की। ऐसे राष्ट्रऋषि को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
-मनोज जोशी
रविवार, 28 नवंबर 2010
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