शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

यादवी रार में ये तो होना ही था

उत्तरप्रदेश के वर्तमान ‘राजपरिवार’ में शुक्रवार को जो हुआ, उससे शायद ही कोई आश्चर्यचकित हुआ होगा। तकनीकी रूप से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पार्टी की आधिकारिक प्रत्याशी सूची के बावजूद अपनी अलग से सूची जारी कर अनुशासनहीनता की हो लेकिन सियासी धरातल पर उनके प्रशंसक या समर्थक उनसे ऐसे ही बागी तेवरों की उम्मीद इस कुनबे में लंबे अर्से से चल रही ‘यादवी रार’के हर अंक में चाह रहे थे। अब चूंकि 2017 के विधानसभा चुनाव की दुंदिभि बजने को ही है तो यह तो होना ही था। यादवी संघर्ष की अगली चालें विधानसभा अध्यक्ष और राज्यपाल की भूमिका से तय होंगी। केंद्र सरकार का भी इसमें अहम रोल होगा, जाहिर है भाजपा इस पूरे वाकये को अपनी बढ़त में इजाफे में कोरकसर नहीं छोड़ेगी।
लोकतंत्र में दलों के अपने नियम कायदे होते हैं लेकिन हमारे देश में व्यक्तियों, कुंटुबों और परिवारों के दलों में एक ही व्यक्ति या उसके इर्द गिर्द वाले चंद लोगों के ही कायदे चला करते हैं। शिवपाल बनाम अखिलेश यानी चाचा बनाम भतीजा असल में पिता-पुत्र की लड़ाई बन गई है। इस जंग का अब उप्र की सियासत में किसको फायदा और किसको नुकसान होगा, यह सवाल अहम है। जो दिख रहा है उससे बनते दिख रहे समीकरणों की दिशा को समझें तो यह हालात मोदी के नेतृत्व में चुनाव में उतर रही भाजपा के लिए मुफीद हैं। कांग्रेस के सामने सवाल होगा कि वह बागी अखिलेश से हाथ मिलाए या भाजपा के खिलाफ राष्टÑीय स्तर पर लामबंदी के लिहाज से मुलायम सिंह से दोस्ती करे। जातीय राजनीति के प्रदेश उत्तरप्रदेश में इस विभाजन और संभावित गठबंधनों के बावजूद सबसे अहम जातीय समीकरण ही होगा। यह भाजपा भी समझ रही है और बसपा और कांग्रेस भी इसी गणित को साधने की भरसक कोशिश में जुटे हैं। भाजपा का मुकाबला अब दो तरह की सपा और एक बसपा के अलावा दशकों से हाशिए पर मौजूद कांग्रेस से होगा। फिलहाल एडवांटेज भाजपा के पक्ष में लग रहा है। सियासत में स्थाई निष्कर्ष निकालना बेमानी ही होता है, सो उप्र में जारी प्रहसन के अगले एपिसोड्स का इंतजार करना लाजिमी होगा, फिलहाल भगवा दल नोटबंदी से नुकसान की आशंका के बावजूद अपनी लोकसभा चुनाव की बढ़त बरकरार रखने को लेकर मुतमईन हो सकता है।
                                                                                            -सतीश एलिया

सोमवार, 19 दिसंबर 2016

अनुपम मिश्र का जाना........जैसे रीत गया कोई खरा तालाब


      अनुपम मिश्र नहीं रहे। आज जब यह खबर आई तो जिसने भी सुना यही कहा अरे ! फिर अवाक। लगा जैसे कोई लहलहाता तालाब रीत गया। वे ठीक वैसे ही थे, जैसा उनकी जगत प्रसिद्ध किताब का शीर्षक था ‘आज भी खरे हैं तालाब’। उतने ही खरे जितने तालाब होते हैं और उतने ही खरे जैसे पहली दफा मिलते ही लगे थे और हर बार उतने ही खरे लगे और रहे। आदमी का खरापन देखने, समझने और गुनने के वे जैसे पैमाने ही थे। सादगी की मिसाल थे वे और कैंसर जैसी बीमारी ने उन्हेंं चपेट में ले लिया था। वे 68 वर्ष की वय में हमारे बीच से चले गए। यह अपूरणीय क्षति है। एक नहीं कई अर्थों में उनके जाने से रिक्तता आई है। मैं उनसे पहली दफा 25 बरस पहले भोपाल में ही मिला था। तब में माखनलाल चतुर्वेदी राष्टÑीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पहले बैच (1991-92) का विद्यार्थी था और विवि में मेरे सखा जेठू सिंह भाटी जो राजस्थान के जैसलमेर के थे, मुझे एक कार्यक्रम में ले गए थे। जेठू सिंह अनुपम जी को राजस्थान में अपने गांव से ही जानते थे। वे पूरे राजस्थान, मप्र और महाराष्टÑ के हजारों गांवों में पानी को सहेजने के तरीके और जल संस्कार की गवेषण के लिए जा चुके थे। भाटी ने मुझे उनसे मिलवाया तो उनकी सादगी से तो प्रभावित हुआ ही और इसलिए भी अभिभूत हुआ कि वे हमारे मप्र के कविश्रेष्ठ पं. भवानी प्रसाद मिश्र के सुपुत्र थे। गांधीवाद की प्रतिमूर्ति अनुपम भाई ने अपने झोले में से निकालकर मुझे अपनी किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ दी। सप्रेम हस्ताक्षर भी किए। वह किताब में उसी रात एकबारगी पढ़ गया। पानी सहेजने के पुराने तौर तरीके, संस्कार और पानीदार समाज की जो जीवंत तस्वीर उन्होंने उतारी वह किसी और के लिए शायद असंभव ही है। इस किताब को पढ़कर आपके अंदर पानीदार होने का संस्कार पनप उठता है और आप तालाबों, बावलियों और कुओं की बदहाली से छटपटाने लगते हैं। अनुपम जी से इसके बाद दो बार और मुलाकात हुई वैसे ही मिले, लगे जैसे कि पहली दफा लगे और मिले थे। वे मप्र, राजस्थान और महाराष्टÑ के अलावा देश भर के प्राचीन जलस्त्रोतों के बारे में जानकारी के मानो एनसाइक्लोपीडिया ही थे। मसलन वे बातचीत में कह रहे थे कि लोग दिल्ली में यमुना नदी के प्रदूषण की तो चिंता करते हैं, करना ही चाहिए लेकिन क्या आपको पता है एक वक्त में दिल्ली में आठ सौ तालाब भी थे। ऐसी ही जानकारी वे मप्र के किसी भी जिले के बारे में बता देते थे। मप्र में जब दिग्विजय सिंह की सरकार थी तो जल संरक्षण की मुहिम शुरू हुई थे। तब वे भी कई कार्यक्रमों में आते रहे थे। तब भी मेरी बतौर पत्रकार उनसे मुलाकात हुई और हर बार उनसे नई और जानने लायक जानकारी मिली।
अनुपम मिश्र मप्र के होशंगाबाद के टिगारिया के थे लेकिन उनका जन्म गांधीवाद की प्रमुख प्रयोग स्थली वर्धा में हुआ था। दिल्ली में वे गांधी शांति प्रतिष्ठान में पर्यावरण कक्ष में रहते थे और गांधी मार्ग पत्रिका के संपादक थे। गांधीवाद के जीवंत प्रतिमान अनुपम जी का स्थाई घर नहीं था, वे पूरे देश को ही अपना घर मानते थे। सादगी इतनी की वे अपने बालों की कटिंग तक खुद करते थे। जल और पर्यावरण संरक्षण के काम में वे लगातार देशाटन करते रहे थे। मैगसेस प्राप्त जलपुरुष राजेंद्र सिंह की संस्था तरुण भारत से जुडे रहे और चंडी प्रसाद भट्ट के चिपको आंदोलन से भी। अनुपम जी ने जल संरक्षण के पारंपरिक तरीकों और उनकी वैज्ञानिकता को लेकर जो अध्ययन किया और उनकी किताबें आज भी खरे हैं तालाब और राजस्थान की रजत बूंदों ने न केवल भारत बल्कि दुनिया भर की जल बिरादरियों को एक दिशा दी थी। यही वजह है कि सुदूर अफ्रीका के कई देशों में लोगों ने उनकी किताबें पढ़कर अपने यहां जल संरक्षण के प्राचीन भारतीय तरीके अपनाए और जल संकट से जूझने की ताकत हासिल की। यह दुर्भाग्य की ही बात है कि हमारे बीच अनुपम मिश्र सरीखे जलपुरुष की मौजूदगी के बावजूद न समाज और न ही सरकारों ने पारंपरिक जलस्त्रोतों को बचाने के लिए कोई गंभीर जतन किए। मप्र में ही हजारों गांवों और कस्बों, छोटे बड़े शहरों में वे बावलियां, कुएं खत्म हो गए हैं या खत्म किए जा रहे हैं जो सदियों से भीषण गर्मी में भी शीतल जल उपलब्धता कराते रहे थे। करोड़ों रुपए खर्च कर चलाई जा रही नल जल योजनाओं ने पारंपरिक जलस्त्रोतों को लील लिया है और इस बलि के बावजूद हर साल भीषण जल संकट न केवल गहराता है बल्कि साल-दर-साल और विकट होता जाता है। पानी एक जगह से दूसरी जगह ढोया जाता है और धन की बर्बादी होती है। यह बर्बादी होती ही नहीं अगर हम अपने प्राचीन जल स्त्रोतों को मरने नहीं देते याकि मार नहीं डालते। याद कीजिए अपने बचपन या अपने पिता से पूछिए उनके बचपन में उनके गांव में या मोहल्ले में कितने जलस्त्रोत थे? कितनी बावलियां, कुएं थे। वे अब कहां हैं। भोपाल, जबलपुर, रीवा, सागर, सतना और अन्य ऐसे ही बड़े, मंझौले या छोटे शहरों कस्बों में अब इलाकों के नाम तालाबों पर हैं, लेकिन वे तालाब अब कहां हैं? तालाबों को पाटकर इमारतें खड़ी करने की हवस ने हमारे समाज को गैर पानीदार समाज में बदल दिया। अनुपम मिश्र इसी के विरुद्ध हमें चेताते और जगाते रहे थे, उनके जाने के बाद भी उनकी किताबें यह काम करती रहेंगी। पानीदार समाज बनने की दरकार अब और ज्यादा है और हम अब भी चेत गए और अपने पारंपरिक जलस्त्रोतों का जलाभिषेक कर पाए तो पानी का संकट और भयावह नहीं होगा। यह मैं कह रहा हूं लेकिन यह बात मुझे सिखाई अनुपम मिश्र ने है, वे तालाब से ही खरे थे और उनके जाने से ऐसा लगा फिर रीत गया गया कोई तालाब....।                                                                          - सतीश एलिया

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

उम्र से लम्बा हादसा

ग्यारह हजार 680 दिन यानी दो लाख 80 हजार 320 घंटे बीत चुके हैं भोपाल में बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कारबाइड से जहरीली गैस रिसने से शुरू हुई सतत त्रासदी को। हादसे के वक्त और तब से अब तक  हजारों लोग इस नासूर का शिकार हो चुके हैं। राहत, पुनर्वास और मुआवजे की लंबी त्रासद प्रक्रिया, राजनीति के घटाटोप में पीड़ितों को न्याय और दोषियों को बाजिब सजा मिलने की संभावना कहीं गुम हो गई है। सामूहिक नरसंहार के बदले भारत सरकार ने यूनियन कारबाइड से जो 750 करोड़ रुपए लिए थे, उसका उचित रूप से बंटवारा नहीं हो सका। साढ़े सात लाख मुआवजा दावे थे, उनमें से सबका निपटारा तक नहीं हो सका। समूचे भोपाल को गैस पीड़ित घोषित करने की मांग पर ढाई दशक तक राजनीति जारी रही। यह दिल्ली में कांग्रेस सरकारों के वक्त इस मुद्दे को सर्वाधिक उठाते रहे भाजपा नेता बाबूलाल गौर दो दफा गैस त्रासदी राहत मंत्री और एक दफा मुख्यमंत्री भी बन चुके हैं, लेकिन उन्होंने यह मुद्दा सत्ता मिलते ही छोड़ दिया।
इधर भोपाल शहर में करोड़ों की लागत से बनीं भव्य इमारतें जिन्हें अस्पताल नाम दिया गया है, में करोड़ों रुपए खर्च कर विदेशों से लाई गई मशीनें धूल खा रही हैं। अगर इन अस्पतालों में सब कुछ ठीक से चलने लगे तो भोपाल देश का सर्वाधिक स्वास्थ्य सुविधा संपन्न शहर हो सकता है। लेकिन दो दशक में ऐसा होने के बजाय हालात और बदतर हो गए हैं। दवाएं खरीदने के नाम पर घोटालों के बीच अपने सीने में घातक गैस का असर लिए गैस पीड़ित आज भी तिल तिलकर मर रहे हैं। दवाओं का टोटा न अस्पतालों में नजर आता है और न ही आंकड़ों में। लेकिन लोग दवाओं के लिए भटकते रहते हैं।
विश्व की सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी का तमगा हासिल कर चुके इस भोपाल हादसे के मुजरिमों को न केवल तत्कालीन सरकारों ने भाग जाने दिया बल्कि बाद की सरकारों ने नाकाफी हजार्ना लेकर समझौता करने से लेकर आपराधिक मामले में धाराएं कमजोर करने जैसे अक्षम्य अपराध कर कानूनी पक्ष को कमजोर किया। इससे प्राकृतिक न्याय की मूल भावना कमजोर हुई। आर्थिक हजार्ना कभी मौत के मामले में न्याय नहीं हो सकता, फिर यह तो सामूहिक नरसंहार का मामला है। उच्चतम न्यायालय ने 13 सितंबर 1996 के फैसले में यूनियन कारबाइड से जुड़े अभियुक्तों के खिलाफ आईपीसी की दफा 304 के स्थान पर 304- ए के तहत मुकदमा चलाने का निर्देश दिया। इसके तहत यूका के खिलाफ फैसला होने पर अभियुक्तों को दो वर्ष कैद और पांच हजार रुपए जुमार्ने की सजा होगी। इस मामले में यूनियन कारबाइड के तत्कालीन अध्यक्ष वारेन एंडरसन, यूका ईस्टर्न हांगकांग तथा यूका इंडिया लिमिटेड के तत्कालीन अध्यक्ष केशव महिंद्रा समेत 10 अन्य अभियुक्त बनाए गए थे। एंडरसन प्रमुख अभियुक्त होने के बावजूद भारत में अदालत के सामने पेश नहीं हुआ। उसकी मौत हो चुकी है और अब जाकर उस वक्त उसे सेफ पैसेज देने के मामले में तत्कालीन कलेक्टर मोती सिंह के खिलाफ केस दर्ज हुआ है। लेकिन उन्होंने जिनके आदेश पर यह सब किया उनके खिलाफ कुछ नहीं हो सका। उस वक्त के प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी अब इस दुनिया में नहीं हैं। कांड के दोषी और उन्हें बचाने के दोषी भी काल कवलित हो गए और हादसे में काल कवलित हुए बेकसूरों के खून का इंसाफ नहीं हो सका। भाजपा की सरकार ने भी एक और आयोग बनाया लेकिन यह भी लगातार त्रासदी झेल रहे लोगों के किसी काम न आ सका। गैस पीड़ितों की मदद में 32 साल पहले उठे हाथ अब चंद पीड़ितों के हाथों में मोमबत्ती की रस्म पूरी करने तक सीमित रह गए हैं। गैस पीड़ितों के झंडाबरदार संगठनों की संख्या बढ़ती गई और उनके बीच भी झंडारबरदारी की आरोप प्रत्यारोप की सियासत तल्ख हो चुकी है। आलम ये है कि भोपाल के एडीएम ने तीन दिसंबर को त्रासदी के रोज सरकारी छुट्टी पर सवालिया निशान लगा दिया है। न सरकार, न गैर पीड़ित जनता और न ही झंडाबरदारों, सियासतदानों को कोई फिक्र है। भोपाल हादसे से किसी भी तरह का सबक नहीं लिया गया है। आज भी भोपाल में और देश भर में घनी आबादियों के बीच घातक कारखाने धड़ल्ले से चल रहे हैं। हर कहीं हर कभी छोटे छोटे भोपाल घट रहे हैं। ढाई दशक बाद न भोपाल ने न मप्र ने न भारत ने और न ही दुनिया ने भोपाल से कोई सबक लिया है।