गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

ऐसी भी क्या जल्दी थी सरकार !

                                                          शरद सत्र विश्लेषण- सतीश एलिया

विपक्ष के सहयोग से पहले ही दिन प्रश्नकाल चलने देने के शुभ संकेत से आगाज हुए शरदकालीन सत्र का समापन तय वक्त से दो दिन पहले ही विपक्ष की नाराजगी भरे माहौल में हुआ। चौदहवीं विधानसभा के दो साल के दौरान हुए शुरूआती और विशेष सत्र को छोड़ दें तो यह आठवां सत्र इस मायने में पहला और स्वागत योग्य रहा कि विपक्ष ने न केवल सदन की कार्यवाही में भाग लिया बल्कि विधायी कार्यों पर चर्चा भी हो सकी। यह बात दीगर है कि पक्ष-विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप वॉकआउट और बहिष्कार के भी अवसर आए लेकिन यह तो संसदीय व्यवस्था का अंग है, पक्ष-प्रतिपक्ष की अपनी अपनी प्राथमिकताएं होती हैं। सत्र 10 बैठकों वाला था और उसे भी दो दिन छोटा कर देना विपक्ष को इसलिए भी अखर गया क्योंकि सूखे जैसे पूरे प्रदेश को प्रभावित करने वाले मुद्दे पर नियम 139 के तहत तय चर्चा ही नहीं हुई, जबकि उसे मंगलवार तक कार्यसूची में शामिल किया जाता रहा। आखिरी दिन की कार्यसूची में इसे शामिल किए बिना सरकारी कामकाज निपटाकर संसदीय कार्य मंत्री के प्रस्ताव पर सत्रावसान कर दिया गया। संसदीय परंपरा में विधायी कार्य के लिए सत्र बुलाए जाते हैं लेकिन वे केवल इसी के लिए नहीं बुलाए जाते, विपक्ष और जनता के मुद्दे भी उतने ही आवश्यक हैं। बाकी बचे दो दिन में सूखे पर चर्चा क्यों नहीं हो सकती थी? विपक्ष का यह सवाल आखिर जनता का सवाल भी तो है। 
सत्र के दौरान विधेयक पारित हुए, मुख्यमंत्री ने आगे बढ़कर कई सवालों के न केवल जबाव दिए बल्कि घोषणाएं भी कीं। विधानसभा अध्यक्ष डा. सीतासरन शर्मा दो साल में पहली दफा बतौर अध्यक्ष ज्यादा प्रभावी, फैसले लेने वाले और विपक्ष का हित संरक्षण करते नजर आए। मगर आखिरी दिन बहुजन समाज पार्टी के पांच विधायकों का यह कहकर सदन से उठकर चले जाना कि दो साल में एक भी दफा उन्हें ध्यानाकर्षण सूचना का मौका नहीं मिला, जनप्रतिनिधियों की निराशा का प्रतीक है। आखिर वे जनता के ही तो मुद्दे उठाना चाहते होंगे। 
इन आठ दिनों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह रही कि नाफरमान अफसरों, भ्रष्टाचार, बेलगाम पुलिस के खिलाफ पक्ष-विपक्ष के विधायकों ने पार्टी लाइन से ऊपर उठकर एकजुटता दिखाई। इसे मप्र की सियासत और जनता की हित चिंता के लिहाज से शुभ संकेत ही माना जाना चाहिए। यह उम्मीद भी की जाना चाहिए कि जनतंत्र की ताकत से बेलगाम अफसरों पर लगाम लगेगी और संवेदनहीन तंत्र की तंद्रा टूटेगी। बेहतर होता सूखे पर भी चर्चा हो जाती ताकि विपक्ष ने जिस तरह सत्रारंभ के दिन सहयोग दिखाया था वह समापन बेला में भी बना रहता। इस अप्रिय समापन का असर अगले सत्र में दिखेगा। अगला सत्र बस डेढ़ महीना दूर ही तो है। 

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

व्यर्थ ही धन गंवायो....

आप अपनी पत्नी को खुश करने के लिए जो जो कर सकते हैं, उनमें से एक काम एक साफ सुधरी पारिवारिक सोद्देश्य फिल्म दिखाना भी है, जिसमें पर्याप्त मात्र में इमोशन हों, संगीत हो, सजधज हो। राजश्री प्रोडक्शन की तमाम फिल्में देख चुका मैं और मेरी पत्नी भी ताराचंद बड़जात्या के पुत्र सूरज की फिल्म जिसमें फोक्स समेत न जाने कितने पार्टनर हैं, के ताजा प्रोडक्ट प्रेम रतन धन पायो देखने जा पहुंचे एक मॉल में। दो टिकट चार सौ रुपए के मिले। टिकट खिड़की पर एक भी दर्शक नहीं होने का मतलब हमने लगाया कि फिल्म शुरू हो चुकी है और हाऊसफुल के कारण अब शायद ही टिकट मिले। मगर हम गलत थे, न केवल टिकट मिला बल्कि मनचाही सीट भी मिली और हॉल में महज 25 दर्शक ही थे। वह भी फिल्म रिलीज होने के पांचवें दिन। खैर शाहरुख खान की कंपनी रेड चिली इंटरटेनमेंट जिसके वे खुद स्टार हैं, के ट्रेलर से लेकर कई अन्य ट्रेलर और दर्जनों विज्ञापनों के बाद फिल्म शुरू हुई और पूरी फिल्म में जो एक सातत्य रहा वह एक पल को भी नहीं टूटा यानी बोरियत और झुंझालहट। पत्नी को झपकियां आती रहीं। मेरी अगली कतार में बैठी एक लड़की ने सेलफोन निकालकर चैटिंग को फिल्म देखने से बेहतर काम समझा और वह पूरी फिल्म में यही करती रही। उसके साथ बैठे लड़के भी मोबाइल से तो कभी आपस में बतियाते रहे। किसी जमाने में फिल्म दीवाना और पत्रकारिता में आने के बाद एक सैकड़ा फिल्मों की अखबार में समीक्षा लिख चुका मैं भी यह समझने की कोशिश करता रहा कि इस फिल्म में एकाध तुक की बात मिल जाए। आखिर तक ऐसा नहीं हुआ।
सलमान खान ने जैसे ठान लिया था कि उन्हें स्टारडम दिखाना है, एक्टिंग की क्या जरूरत। वे जरूरत से ज्यादा मोटे लगे और न हास्य में सुहाए और न ही गुस्से में। मंझे हुए अभिनेता अनिल कपूर की पुत्री सोनम न तो सुंदरी राजकुमारी लगीं और न ही अभिनेत्री। स्टोरी और सीक्वेंस बेहद सतही थे। अभिनय तो केवल अनुपम खेर ने ही किया, उनके हिस्से जो आया उन्होंने शिद्दत से निभाया। सईद जाफरी की कमी नहीं खलेगी हिंदी सिनेमा को क्योंकि इंडस्ट्री के पास अनुपम खेर हैं। गानों का कोई तुक नहीं, ज्यादातर धुन हिमेश रेशमिया ने यहां वहां से इंस्पायर होकर उठाई हैं, ऐसा लगता है। हां, पलक मुछाल की आवाज गानों में बेहद कर्णप्रिय लगती है। जिस रियासत की यह कहानी बताई गई है, वह भी स्थापित नहीं होती। कभी राजस्थानी तो कभी गुजराती का प्रयोग कर न जाने डायरेक्टर फिल्म बेचने के लिहाज से क्या क्या ठूंसता चला गया है। महलों के भव्य दृश्य और फाइटिंग की सिंघम शैली रोहित शेट्टी की पहचान है, यह राजश्री की फिल्म में मिसफिट लगती है। फिल्म का नाम प्रेम रतन धन पायो भी महज तुकबंदी ही लगता है। फिल्म का क्लाईमैक्स बेहद लचर और बेअसर है। कुल मिलाकर तीन घंटे की बर्बादी और पत्नी का ये कहना- अपन इन 400 रुपए से कुछ खरीद लेते तो बेहतर होता। मुझे बेहद आश्चर्य हो रहा है कि आखिर अखबारों में तीन दिन में 140 करोड़ रुपए का कारोबार करने वाली फिल्म में पांचवें दिन के शो में महज 25 दर्शक क्यों थे? पत्नी ने एक जोरदार संवाद थिएटर से निकलते ही कहा- व्यर्थ ही पैसा गंवायो।

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

गौ ग्रास बनाम गौ का ही ग्रास


             
जब से दादरी में एक मुसलमान की गौवध करने, गौमांस रखने और खाने के सुबहे की बिना पर हत्या कर दी गई, पूरे देश में गौेमांस खाने या न खाने पर सियासी उबाल आया हुआ है। विकास की बातें और विश्व महाशक्ति देखने वाले एक देश के लिए यह विवाद सामाजिक या मजहबी या धार्मिक नहीं बल्कि पूरी तरह सियासी हैं। यह बेहद शर्मनाक बात है कि एक उन्मादी भीड़ ने एक इंसान की जान ले ली और उसकी राजनीतिक प्रतिक्रिया में सरेआम गौमांस की पार्टियां दी जाने जैसी घटनाएं हो रही हैं। मांसाहार बनाम शाकाहार के मुद्दे पर नफा-नुकसान की बात हो तो समझ में भी आती है, लेकिन बकरे को मारना गलत नहीं है, गाय को मारना गलत है, इस पर बहस पूरी तरह मूर्खता से भरी है। आखिर जो मांसाहार या जीव हत्या के खिलाफ हैं वे पूरी तरह से जीव हत्या के पक्ष में खड़े क्यों नहीं होते। जो कुर्बानी के नाम पर बकरे या किसी और जानवर की बलि देते हैं और समाज को कोई आपत्ति नहीं होती, उनसे केवल गाय को बक्श देने की उम्मीद करना एक तरह की बेईमानी ही है। जैसे गाय नहीं बोल सकती, वैसे दूसरे जानवर भी अपनी हत्या को रोकने के लिए इंसानोें से न्याय की गुहार नहीं लगा सकते। ये मनुष्य की नृशंसता और स्वार्थ ही हैं जो अन्य जीव को मारकर खाने के बहाने तलाशते हैं और इससे कहीं ज्यादा बेईमानी इस बात में है कि किसी जीव विशेष की रक्षा के लिए मरने मारने पर उतारू होने वालों को अन्य जीवों की हत्या पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
मैं अपनी बात अपने ही सामाजिक अनुभव के जरिए कहना चाहता हूं। मैं मध्यप्रदेश के जिस ग्रामीण और कस्बाई समाज जीवन में जन्मा, पला, बढ़ा और पढ़ा लिखा हूं, उसमें गाय का अपने आप में अत्यंत महत्व है। लोग कसम खाने के लिए भी गाय को ईश्वर की तरह पवित्र मानते हैं, जैसे भगवान और अन्न की कसम खाई जाती हैं वैसे भी गऊ यानी गाय की कसम भी सत्य बोलने की गारंटी की तरह मानी जाती है। गाय को खाने से ज्यादा बड़ा पाप शायद ही कोई और माना जाता हो। यहां तक कि मनुष्य की हत्या से ज्यादा गौहत्या का दोष समाज मानता है। मुझे अपने बाल्यकाल का वो वक्त याद है जब में तीन या चार साल का रहा होऊंगा, मेरी मां के नानाजी अत्याधिक गुस्से में होते थे तो किसी के लिए गाली गौखाने यानी गाय खाने वाला कहकर व्यक्त करते थे। ऐसा कोई घर नहीं होता जहां पंगत या श्राद्ध भोज की पंगत में बैठा हर व्यक्ति ईश्वर को अर्पित भोग गौ ग्रास अर्थात गाय को भोजन कराने के लिए नहीं निकालता हो। अभी मेरी बुआजी के निधन के बाद छह अक्टूबर को उनका त्रयोदशी संस्कार था यानी तेरहवीं और गंगापूजन। पूजा के बाद भोज था। इसमें भी गौ ग्रास निकाला गया। एक तरफ अपने भोजन से पहले गाय के भोजन का ग्रास निकालने और हर रोज पहली रोटी गाय के लिए बनाने वाला समाज है और दूसरी तरफ गाय को ही भोजन बनाने वाली मानसिकता लेकिन क्या गाय की हत्या या अन्य किसी जीव की हत्या करने वालों की हत्या को जायज ठहराया जा सकता है? जाहिर है नहीं, यह भारतीयता नहीं है। हां गाय की हत्या करने वाले या गौमांस भक्षण करने वाले को भारतीय समाज खासकर जो सनातनी है यानी बोलचाल की भाषा में हिंदू है वह सम्मान नहीं कर सकता बल्कि उसे सहजता से भाईचारगी के साथ नहीं ले सकता। यह तथ्य उनको भी समझना चाहिए जो बहुलतावाद के नाम पर सब कुछ चलाना चाहते हैं और उन्हें भी समझना चाहिए जो गौहत्या के शक में किसी इंसान को मार देने की तरफदारी करने की कोशिश कर रहे हैं। एक दूसरे की भावना, परंपरा को समझकर जीवन व्यवहार करना ही असल में बहुलवादी समाज की जरूरत और ताकत है। गौ ग्रास निकालने के बाद ही भोजन करने वाले और गौ को ही ग्रास बनाने और उनकी तरफदारी करके आधुनिक बनने का ढोंग करने वालों को यह बात समझनी ही होगी।
                                                                                                         - सतीश एलिया 

शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

मध्यप्रदेश पीसीसी से उठा सवाल क्या वाकई कांग्रेस धर्म निरपेक्ष है?

                               - सतीश एलिया

क्या कांग्रेस वाकई धर्म निरपेक्ष पार्टी है? यह सवाल जिस शिद्दत से आजादी के आंदोलन के वक्त उठता रहा था, उससे कहीं ज्यादा जवाब तलब प्रश्न अब बनता दिख रहा है। उस वक्त कांग्रेस को हिंदुओें की जमात प्रचारित कर मुस्लिम लीग न केवल ताकतवर बनी बल्कि देश का बंटवारा करवाकर ही मानी। हाल ही में महाराष्टÑ में पयुर्षण पर्व पर मांस बिक्री पर प्रतिबंध लगाए जाने और उसके बाद पंजाब और छत्तीसगढ़ सरीखे राज्यों में अनुकरण किए जाने से धर्म निरपेक्षता पर नई बहस शुरू हुई है, हालांकि कोर्ट ने भाजपा के बहुमत वाली महाराष्टÑ सरकार की मंशा को खारिज कर दिया लेकिन बहस अब भी जारी है। इसमें अंदरूनी विवाद भाजपा-शिवसेना-मनसे के बीच वोट बैंक का भले हो लेकिन सवाल संविधान में दी गई धार्मिक स्वतंत्रता और पंथ निरपेक्षता की सियासत को लेकर भी उठ रहे हैं। ऐसे में मध्यप्रदेश में कमजोर विपक्ष साबित हो रही कांग्रेस के अपने घर में धर्म निरपेक्षता का सवाल एक अलग ही अंदाज में पैदा हुए विवाद से सामने आया है। भारतीय जनता पार्टी के कार्यालयों और कार्यक्रमों में हिंदुओं की पूजा पाठ और पर्व मनाए जाने की ही तर्ज पर कांग्रेस कार्यालयोें में भी यही परंपरा शुरू हुई है। भोपाल के प्रदेश कांग्र्रेस कार्यालय जिसे इंदिरा भवन कहा जाता है, गणेशोत्सव मनाए जाने पर अब तक किसी ने सवाल नहीं उठाया था, लेकिन सचिव स्तर के एक पूर्व पदाधिकारी ने बकरीद मनाने का ऐलान कर समूची कांग्रेस में सवाल को भूचाल सा बना दिया है। इस पूर्व पदाधिकारी हैदरयार का सवाल है कि अगर कांग्रेस धर्म निरपेक्ष पार्टी है और गणेशोत्सव इत्यादि मनाती है तो बकरीद के मौके पर बकरे की कुर्बानी वहां क्यों नहीं दी जा सकती। यह विवाद अब प्रदेश कांग्रेस के गुटीय विवाद से ऊपर उठकर राष्टÑीय स्तर पर कांग्रेस के लिए सवाल के रूप में सामने आने को बैचेन है। वह भी ऐसे वक्त में जब पार्टी के युवराज राहुल गांधी उपाध्यक्ष के तमगे से ऊपर उठकर पार्टी की अध्यक्षता सम्हालने के लिए बैचेन हैं। वे पार्टी के देश के लगभग हर राज्य में लगातार खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लिए बगैर उसे फिर से सर्व स्वीकार्य बनाने के प्रयास में जुटे हैं। सोमवार को मथुरा में उन्होेंने चिंतन शिविर में पार्टी को एप्पल कंपनी की तरह चलाने की मंशा भले जताई हो वे बांके बिहारी मंदिर गए और भाल पर केसर तिलक लगवाकर बाहर निकले। राजनीतिक प्रेक्षक इसे कांग्रेस की हिंदुओं में उसकी स्वीकार्यता को फिर कायम करने की दिशा में उठाया गया कदम तक बता रहे हैं। ऐसा ही कदम उठाकर उनके पिता राहुल गांधी ने अयोध्या में विवादित स्थल पर पूजा के लिए ताले खुलवाए थे। यह बात और है कि उनका यह कदम बाद में बाबरी विध्वंश, भाजपा के उभार और कांग्रेस के हाशिए पर खिसकते जाने का आधार भी बना। कांग्रेस की धर्म निरपेक्षता पर उठी संदेह की उंगलियोंं ने धीरे धीरे भाजपा को लोकसभा में अपने बूते बहुमत लाने तक और कांग्रेस को 44 के उस आंकड़े तक धकेल दिया जिसमें वह मान्यता प्राप्त विपक्ष भी नहीं बन पाई। ऐसे वक्त में जब पांच साल पहले बिहार चुनाव में अपने पहले चुनाव टेस्ट में फेल साबित हुए राहुल गांधी एक बार फिर बिहार के साथ ही किसी जमाने में कांग्रेस की सबसे मजबूत जमीन उप्र में बहुसंख्यकों को रिझाने की कोशिश शुरू कर रहे हैं, मप्र में धर्म निरपेक्षता के सवाल ने नए अंदाज में दस्तक दी है। देखना ये है कि मप्र में प्रदेश कांग्रेस कार्यकारिणी के असंतुलन से पैदा हुआ और धर्म निरपेक्षता के सवाल तक जा पहुंचा विवाद पार्टी में किसी नई बहस या आत्ममंथन की तरफ जाएगा या फिर कांग्रेस जिस रास्ते पर जा रही है, उसी पर चलती जाएगी। जाहिर है बकरीद पर प्रदेश कांगे्रस दफ्तर में उठे कुर्बानी के इस विवाद ेसे लगातार चुनावी जीत दर्ज कराती जा रही भाजपा के लिए यह प्रसन्नता का कारण ही बनेगा, भले ही वह जाहिर तौर पर इसे जताए न।   

रविवार, 26 जुलाई 2015

हमने सुनी मोदी जी. आप भी सुनिए मोदी जी मन की बात

आज पहली दफा रेडियो पर मोदी जी के मन की बात सुनी, अच्छा लगा। नागपुर के रेल कर्मी की पेंटिंग, हरदा के शौचालय अभियान, रोड सेफ्टी, नार्थ ईस्ट, दीनदयाल ज्योति की बात की। १५ अगस्त के भाषण के लिए सुझाव माँगे। माननीय प्रधानमंत्री जी भ्रष्टाचार पर भी बोलिए, मन की बात में भी और लाल किले की प्राचीर से भी। व्यापमं,ललित गेट समेत हर भ्रष्टाचार पर। किसी को मत बख्शिए। ये धर्मेयुद्ध है, कोई अपना पराया नहीं, कोई अपनी पराई पार्टी नहीं होनी चाहिए। हमारा देश मानव विकास सूचकांक में १९९१ में १३५ वें नंबर पर था, २०१४ में भी वहीं १३५ नंबर पर खड़े हैं, क्यों? जबकि जी में हम ७ वें स्थान पर आ गए हैं। तो किसके जेब में गया विकास?  मित्रों लखपतियों. करोड़पतियों की संख्या बढ़ रही है हमारे देश में, गरीब भी बढ़ रहे हैं आबादी व्रद्धि से भी ज्यादा गति से। वजह एक ही है,भ्रष्टाचार। कभी इस पर भी बोलिएगा प्रधानमंत्री जी। वैसे अच्छी लगी आज की आपके मन की बात।

गुरुवार, 25 जून 2015

इस व्हाट्सअप गिरी से तो गंवारपन भला




मित्रों, छह महीने पहले मैंने गंवारपन की श्रेणी में मान लिए गए अपने
व्हाट्सएप पर न होने का रोना आपके समक्ष रोया था। जब में यह जलालत न सह
सका और मेरी पत्नी के सौजन्य से मुझे फिर एंड्रायड फोन सुलभ हो गया तो
मैं न न करके व्हाट्स पर आ ही गया। लेकिन अब मेरा दुख नए सिरे से उभर आया
है, वजह है यह व्हाट्स एप की ग्रुपबाजी फूहड़ चुटकुलों, कट पेस्ट के गटर
और भ्रमित करने वाले नकारा पत्रकारों की अफवाहबाजी के रूप में मेरे माथे
पर है। जो कुछ भी नहीं थे, कुछ भी नहीं हैं और कुछ भी हो सकने की जिनमें
तनिक सी भी संभावना नहीं है, वे इस एप के जरिए अच्छे अच्छे पत्रकारों को
नचा रहे हैं। तर्क यह दिया जाता है कि यह सूचना के आदान प्रदान का साधन
तो है। है भाई इससे इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन उस पर दिया क्या जा
रहा है? हर ग्रुप में लगभग वही चुटकुले, वहीं वीडियो, वही स्टिकर। हमारे
एक ग्रुप में तो एक सदस्य ने ऐसा कुछ डाल दिया कि सब शर्मसार हुए। ग्रुप
से रवानगियां हो गर्इं, जिसे लेफ्ट करना कहा जाता है। मुख पुस्तिका की ही
तरह व्हाट्स एप भी हमारे एक पुराने क्राइम रिपोर्टर साथी के जुमले- बंदर
के हाथ में उस्तरा, अब तू मुस्करा। की तरह इस्तेमाल हो रहा है। इधर देश
में आलम ये है कि बात बात में ट्वीट करने वाली एक मादाम ट्वीटर से ेलेकर
फेसबुक और व्हाट्सएप पर जो फेस कर रही हैं, उसके बचाव में विश्व की
सर्वाधिक सदस्यों वाली पार्टी और हिंदुस्तान में तूफानी बहुमत से बनी
सरकार के उतरने के बावजूद उनकी खुद की हिम्मत ट्वीट कर सफाई देने की नहीं
हो रही। तो मित्रों में छह साल पहले ट्वीटर, फेसबुक, ब्लॉक और इसी साल
मार्च में व्हाट्सएप पर आ गया लेकिन मुझे न जाने क्यों ऐसा लग रहा है कि
मेरा गंवारापन ही ठीक था, इन आधुनिक संचार माध्यमों से लैस लोगों से तो
घबराहट होने लगी है। मेरे जेहन में लगातार श्री अमिताभ बच्चन अभिनीत और
श्रद्धेय किशोर दा के गाए एक गीत का अंतरा गूंज रहा है- जाने कौन घड़ी में
पड़ गया पढ़े लिखों से पाला...।

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

शिवराज के श्रम को वोटर का सलाम, अब विकास करो नगर सरकार

- सतीश एलिया
मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लोकप्रिय नेतृत्व में चार नगर निगमों के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की तूफानी जीत ने एक बार फिर उन्हें अपराजेय नेता की तरह स्थापित कर दिया है। निकाय चुनाव में शिवराज के गली गली घूमने पर तंज कस रही कांग्रेस की बोलती इन नतीजों ने बंद कर दी है। इंदौर, भोपाल और जबलपुर में भाजपा के महापौर प्रत्याशियों की जीत के विशाल अंतर ने साबित कर दिया है कि कांग्रेस की रूचि अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने तक में नहीं है। भोपाल में एक दफा लोकसभा और बीते साल अपने गृह क्षेत्र भोजपुर में विधानसभा चुनाव हारे सुरेश पचौरी के प्रिय पात्र कैलाश मिश्रा की शिवराज के प्रिय मित्र आलोक शर्मा के हाथों 86 हजार से ज्यादा वोटों से शिकस्त और इंदौर में दस साल के मुख्यमंत्री कार्यकाल से कांग्रेस की बदहाली की इबारत लिख चुके दिग्विजय सिंह की समर्थक अर्चना जायसवाल की भाजपा विधायक मालिनी गौेड़ से करीब ढाई लाख वोटों से हार ने साबित कर दिया है कि कांग्रेस भाजपा से तो लगातार हार ही रही है, उसके अपने खंड खंड बंटे गुटों की भी इसमें बड़ी भूमिका है। ऐसा नहीं है कि भोपाल, इंदौर और जबलपुर में बीते पांच साल से भाजपा के मेयर होने की वजह से जनता की समस्याओं का अंत हो चुका था और वहां एंटी इंकंवेंसी फैक्टर भाजपा के खिलाफ हथियार नहीं बन सकता था। कांग्रेस के आधा दर्जन क्षत्रपों ने पार्टी के प्रत्याशियों और कार्यकर्ताओं को अनुशासनवद्ध और संगठन आधारित भाजपा से पिटने के लिए छोड़ दिया है। यही कांग्रेस कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता पंचायत चुनाव में भाजपा में भारी पड़ रहे हैं, क्योंकि बकौल दिग्विजय सिंह पंचायत चुनाव में टिकट नहीं बंटते। चार नगर निगमों के चुनाव नतीजे भाजपा की संगठनात्मक कुशलता की वजह से तो हैं ही वे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता और प्रदेश के विकास पर एक बार फिर मुहर लगने का सबब भी हैं। इतना ही नहीं इस पूरे चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के बरकरार रहने की तस्दीक भी हुई है, क्योंकि भाजपा ने जनता को बताया कि केंद्र में मोदी सरकार, प्रदेश में भाजपा सरकार और अब आपके नगर में भी भाजपा सरकार आपकी समस्याओं को खत्म कर देगी। विकास की नई इबारत लिखी जाएगी और मप्र के शहर अब र्स्माट सिटी बन सकेंगे। भाजपा के संगठन और सरकार पर यह महती जिम्मेदारी है कि वे इन वादों को नारों से जमीन पर उतार कर दिखाएं और कांग्रेस के लिए यह सबक है कि अब भी नहीं चेते तो भाजपा के मिशन कांग्रेस मप्र और कांग्रेस रहित भारत को कांग्रेस के नेता ही सफल कर देंगे। जनता ने अपना मेंडेंट और संदेश दे दिया है कि उसे लफ्फाजी नहीं विकास चाहिए, अब बारी केंद्र, राज्य और नगर सरकारों की है कि वे प्रदेश के महानगरों को अच्छा ट्रैफिक सिस्टम, पार्किंग सुविधा, पानी, सड़क और तरतीब से बसी कॉलानियां दें। गलत करने वालों को सजा दें और विकास में सहभागी बनने वाले सभी वर्गों को सुविधाएं हैं। उम्मीद की जाना चाहिए कि जीत के संदेश को सत्ताधारी दल भाजपा सही अर्थ में लेगी और हार के तल्ख संदेश को ग्रहण कर कांग्रेस भी विपक्ष की भूमिका में शिद्दत से उतरेगी।