मंगलवार, 31 जुलाई 2012

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

सतपुड़ा की राजकुमारी मढ़ई से मिलना न भूलें

| Email  Print Comment
सतीश एलियाशीर्षक देखकर चैंकिए मत, हम राजे-रजवाड़ों की बात नहीं कर रहे हैं! उनका जमाना गुजरे तो पैंसठ बरस हो गए। हां किस्से-कहानियों में राजा, रानी, राजकुमार, राजकुमारी अब भी हैं। लेकिन हम यहां किस्सागोई नहीं बल्कि आपको हकीकत से रूबरू कराने जा रहे हैं। पहेलियां बुझाना खत्म, आपको बता ही देते हैं हम एक ऐसी जगह चल रहे हैं जहां वातावरण शांत है, कल-कल बहती नदी का किनारा है और प्रकृति के आंचल में विचरते वन्य जीव हैं, देशी विदेशी पंक्षियों का कलरव है। अन्य टूरिस्ट स्पॉट की तरह पर्यटकों की रेलमपेल नहीं है। हम बात कर रहे हैं होशंगाबाद जिले के टूरिस्ट स्पॉट मढ़ई की। पचमढ़ी को सतपुड़ा की रानी कहा जाता है। पचमढी रानी है, तो मढ़ई सतपुड़ा की राजकुमारी। भोपाल से करीब 130 किलोमीटर दूर मढ़ई सतपुडा नेशनल पार्क का हिस्सा है। डेढ हजार वर्ग किलोमीटर में फैले विशाल सतपुड़ा के जंगल में इस राजकुमारी मढ़ई का साम्राज्य करीब डेढ सौ वर्ग किलोमीटर में है।
भोपाल से पचमढी के रास्ते में सोहागपुर से पहले एक भारतीय आत्मा पं. माखनलाल चतुवेर्दी का गांव माखननगर यानी बाबई पड़ता है। बाबई से आगे बढ़ने पर मुख्य मार्ग से दाहिनी तरफ का रास्ता मढ़ई को जाता है। करीब 20 किलोमीटर चलने पर एक खूबसूरत नजारा आपके सामने होता है, यह मढई है। ईको टूरिज्म स्पॉट। कल कल बहती देनवा नदी और दूर पहाडियों का नजारा, नदी में लहराती सरपट भागती वोट घाटी से ऐसी दिखती है मानो नीले आसमान में राकेट रफ्तार भर रहा हो। नदी के उस पार वन विभाग का गेस्ट हाउस है। इस पार रिसॉर्ट और कुछ होटल भी बन गए हैं। घाट पर ही आपको सतपुडा टाइगर रिजर्व के काउंटर में भुगतान करने पर बोट, गेस्ट हाउस और भ्रमण के प्रवेश पास मिल जाते हैं। बोट आपको उस पार छोड देती है। गेस्ट हाउस के कक्ष भी मढई को घेरे तीन नदियों देनवा, सोनभद्र और नागद्वारी के नाम पर हैं। गर्मियों मेंं भी इन नदियों को सदानीरा बनाए रखने के लिए तवा डेम से पानी छोड़ा जाता है। देनवा नदी किनारे शाम का अदभुत सौंदर्य आपको स्तब्ध कर देता है, प्रसन्नता से स्तब्ध। चीतल के छौने परिसर में घूमते आपके आगे-पीछे किसी मासूम बच्चे की तरह दुलार करते हैं, नीलगाय आपसे पूछती सी लगती है, हमें क्या लाए हैं?
यहां ढलती शाम और धीरे धीरे आती रात और मोबाइल नेटवर्क का अभाव आपको सुकून से भर देता है। शुभ्र चांदनी रात में मैदान में या फिर गेस्ट हाउस की छत पर आप प्राकृतिक एकांत के सुकून से सराबोर हो जाते हैं। गेस्ट हाउस में सौर उर्जा से चलित धवल रोशनी के छोटे छोटे बल्व और गेस्ट हाउस के किचन में चूल्हे पर बना सौंधे स्वाद वाला भोजन आपकी निशा को विश्राम से पहले तसल्ली से भर देता है। आपका गाइड बता देता है आपको कितने बजे उठकर सफारी पर जाना है। फारेस्ट गार्ड दीपिका सलाह देती हैं अलसुबह यानी सूर्योदय से डेढ दो घंटे पहले जाइए तो बेहतर है। गर्मियों में टाइगर इस वक्त दिख सकता है।

मढई के वन प्रांतर में तफरीह की सफारी तीन तरह की हैं। जिप्सी में गाइड के साथ 22 किमी, 45 किमी या फिर दिन भर का फेरा। हाथी की सफारी है। आधा रास्ता जिप्सी से और फिर टाइगर के दीदार के लिए हाथी पर सवार होकर रास्ता छोड़ वन प्रांतरों की सैर। तीसरी सफारी बोट की है। देनवा नदी में लंबा फेरा शायद टाइगर इस रास्ते से दिख जाए। हम झुटपुटे में ही तैयार होकर गेस्ट हाउस से बाहर आ गए। कुक मोहन यादव ने चाय पिलाकर सफारी की रवानगी के लिए मानो हरी झंडी दिखाई हम चल पड़े, गहन वन की ओर। जिप्सी की सधी चाल कई दफा उंचे नीचे रपटीले उबड़-खाबड़ हो जाने वाले रास्ते पर जरा भी टेड़ी नहीं होती। गाइड और वाहन चालक में गजब का तालमेल। कभी गाइड को तो कभी ड्रायवर को कुछ ऐसा दिखा जो टूरिस्ट को दिखाना है, फौरन आहिस्ता से जिप्सी बैक कर बताते हैं। ये देखिए जंगली गिलहरी, वो सबसे उंचे पेड़ की सबसे उंची टहनी पर, साढ़े तीन फुट की गिलहरी। हमारी निगाह टिक जाती है, इस गिलहरी पर। पल-पल में एक पेड़ से दूसरे पर बंदर से भी तेज गति से छलांग लगाती, कभी काला तो कभी सुनहरा रंग बदलती।
गाइड बताता है यह गिलहरी केवल यहीं सतपुडा के जंगलों में ही पाई जाती है। कुछ आगे बढे तो पगमार्क देखकर गाइड फिर रुका, ये देखिए हमारे आने से पहले ही यहां से भालू गुजरा है। तरह तरह के पंक्षियों के कलरव से गूंजती सुबह, सीधे लंबे और चीकने पात वाले सागवान और साल वृक्षों से भरा जंगल, मादक गंध बिखेरते फूलों और फलों से लदे महुए के पेड़। घाटी उतरते हुए नजर आया पानी से भरा पोंड, यह वन्यजीवों के लिए बनाया गया है। गाइड बताता है, तेंदुआ यहां पानी पीने आता है, परसों कुछ पर्यटकों को दिख गया था। गर्मियों में तेंदुआ और टाइगर कम ही नजर आते हैं। वे अंदर घने वनों में ही रहना पसंद करते हैं।
कुछ और आगे बढेÞ तो चट्टानों के बीच एक ढूंढ पर बैठी नन्हीं रंग-बिरंगी चिड़िया दिखी, अपनी ही दुनिया में खुश। अब गाइड हमें वहां ले जा रहा है, जहां सफारी के लिए हाथियों का डेरा है। छह मादा और एक नर सिद्धनाथ। सिद्धनाथ और प्रिया की बेटी लक्ष्मी अभी 24 अप्रैल को एक बरस की हुई है। डेरे में कोई नहीं है, पांच हथिनियां और महावत काम पर गए हैं, टूरिस्टस को तेंदुए और बाघ के दर्शन कराने की मुहिम पर। प्रिया अपनी बेटी के पास है, छुटटी पर। चौकीदार लक्ष्मी को हमसे मिलवाने लिवा लाया। लक्ष्मी किसी नन्हीं बच्ची की तरह आपसे लाड़ करने लगती है, दूर खडी मां प्रिया निश्चिंत है, सब बेटी को प्यार जो करते हैं। लक्ष्मी अपनी नन्हीं सूंड से आपको दुलार करती है मानो पूछ रही है हमें क्या लाए? वो बिस्किट भी खाती है और टॉफी भी। अपने हिस्से का दुलार मिलते ही फिर मां के पास दौड़ जाती है।
हमारी सफारी का सारथि और पथप्रदर्शक हमें अब आगे ले चला। ये सोनभद्र नदी का किनारा है, अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य सामने है। नदी का कल कल पानी और उस पार लंबे लंबे वृक्षों की कतार। अरे यह कौन से पक्षियों का झुंड है? गाइड बताता है ये प्रवासी पक्षी है यानी दूसरे मुल्कों से आए परिंदे। हर साल आते हैं, बिना किसी न्यौते के। बाकी मेहमान विदा हो चुके हैं, बस ये बचे हैं ब्लैक आइरिश कहते हैं इन्हें।
नदी घाटी के मोड पर वाहन फिर रुका, ये देखिए नीलकंठ एक नहीं कई सारे, ठूंठों पर बैठे हुए। दशहरे पर नीलकंठ का दिखना शुभ माना जाता है, वाहन चालक हमें याद दिला देता है। हमें भी बचपन में रटी पंक्ति याद आती है-नीलकंठ तुम नीले रहियो, हमरी बात भगवान से कहियो, सो रहे हों तो जगाकर कहियो। जब भी नीलकंठ हमें दिखता तो यह यह पंक्ति दोहराते थे।
नीलकंठ के दर्शन के साथ ही सामने दिखी सागौन के सैकडों ठूंठों की कतार। वृक्षों की बेरहम कटाई के गवाह ये ढूंढे दो से तीन दशक के दौरान के हैं। याद आती है पं. भवानी प्रसाद मिश्र की प्रसिद्ध कविता- सतपुडा के घने जंगल, उंघते अनमने से जंगल, घुस सको तो घुसो इनमें, हवा तक धंस पाती नहीं, कास चुप है, पलाश चुप हैं। कभी वाकई इतने ही घने रहे होंगे ये जंगल। प्रकृति के विनाश के स्मारक देखकर मन व्यथित हो जाता है। गाइड मानो ढांढस बंधाता है, साब अब नहीं कट पाते जंगल। तीन तरफ नदी और पहरेदारी है, पेड़ काटकर ले जाना अब आसान नहीं। काश ये सच हो।
प्रकृति के सानिध्य में हमारी सफारी आगे बढ़ी सामने है अपनी मस्ती में घास चरता नर चीतल, ठिठक कर हमें देखता है और फिर कुलांचे भरकर हमें दूर भाग जाता है। थोडी दूर चले तो गाइड वाहन चालक को गाडी घुमाने को कहता है। गाडी रुकी, कहीं कुछ भी तो नहीं। गाइड दायीं तरफ सूखी घास की ओर इशारा करता है, ये देखिए सघाना नाइटपार यानी छपका चिड़िया। अरे वही जो रात में चलते वाहनों के विंड स्क्रीन से टकरा जाती है। एकदम घास के रंग में एकमेक चिडिया, साथ में नन्हां बच्चा, मां से चिपका हुआ। कुछ और आगे बढ़े तो जंगली भैंसा यानी गौर का समूह नजर आया। चालक ने रास्ता बदला आगे फिर गति धीमी की, ये देखिए जंगली सुअर, रात भर बाघ से लडने का माद्दा रखता है। जिसे देखने के लिए पर्यटकों की धडकनें बढ़ती रहती हैं, वो कहीं नहीं दिखा, जी हां टाइगर नजर नहीं आया। गाइड कहता है- सतपुडा टाइगर रिजर्व में 46 टाइगर हैं, एरिया डेढ हजार वर्ग किमी है, दिख जाए तो सौभाग्य की बात है। हां अक्टूबर से फरवरी के बीच हर दूसरे तीसरे दिन मढ़ई में बाघ दिखता ही दिखता है। आगे बढेÞ जंगली बिल्ली शिकार की मुद्रा में किसी जंतु पर झपटटा मारती दिख गई। मन को तसल्ली देने मैंने गाइड से कहा टाइगर न सही टाइगर की मौसी तो दिखी।
अब हमारी सफारी का सफर वापसी की राह पर था, चीतलों का समूह यात्रा की शुरूआत में दिखा था, फिर सामने था, इस सीजन में भी इतनी हरी घास, सामने छोटी सी झील कमल कमलिनी खिले हुए। हम गेस्ट हाउस लौट आए। चीतल के छोटे से छौने ने फिर हमें छुआ, नीलगाय भी करीब आ गई। कुक ने चंद मिनिटों में ही नाश्ता और चाय पेश की। डिप्टी रेंजर मिश्राजी मुस्कराते हुए हाल पूछने आए, कैसा लगा मढई। हमने कहा पुरसूकन। आपका स्टाफ और गेस्ट हाउस इस सुकून को और बेहतर बना देते हैं। हमने सामान पैक किया और नाव से देनवा नदी पार की। हमारा वापसी का सफर शुरू हुआ। लेकिन मन में एक पुरसूकन यात्रा की याद है, जब भी मौका मिलेगा फिर मढई जाएंगे। आप भी एक बार मिलिएगा जरूर सतपुड़ा की राजकुमारी से।