गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

स्वागत है आगत का

स्वागत है आगत का
नव हो प्रभात
उज्जवल गात
तरु नव, नव पल्लव
नव हो साँझ नव रात
निर्झर सी हंसी प्रफुल्लित ललाट
प्रेम रस पगा हो जीवन
दुःख न आये पास
आओ हिलमिल करें प्रार्थना
सुखमय हो सबका जीवन
मंगलमय हो नववर्ष नवप्रभात
* सतीश एलिया डॉ अपर्णा एलिया

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

ये जीना भी कोई जीना है लल्लू

इन दिनों दो दशक पुराना एक गाना मेरे अवचेतन में लगातार गूँज रहा है। फिल्म थी मिस्टर नटवरलाल। इसमें बच्चन बाबू लीड रोल में थे लीड रोल क्या वही अकेले थे। उनने बच्चों के लिए गाना भी गया था। मेरे पास आओ मेरे दोस्तों एक किस्सा सुनो। इस किस्से में वे कहते हैं मुझे मारकर बेरहम खा गया। तो मासूम बच्चे पूछते हैं लेकिन आप तो जिंदा हैं। वे गाते हुए ही डायलाग मारते हैं ये जीना भी कोई जीना है लल्लू। तो यही लल्लू वाला जुमला मेरे कानों में गूंजता है इन दिनों। क्योंकि पेट्रोल ६० रूपये लीटर प्याज भी ६० रूपये किलो। बाकी चीजें भी आकाशगामी भावों पे हैं। एसे में इस देश की ८० फीसदी जनता जैसे जी रही है उस जीने पे तो यही कहियेगा न कि ये जीना भी कोई जीना है लल्लू। सोनिया राहुल मनमोहन अभिषेक सिंघवी मनीष तिवारी सत्यव्रत चुर्वेती दिग्विजय सिंह वगेरह मजे में हैं। अपना क्या है अपन तो लल्लू ही भले.

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

गंध की याद

एक गंध बसी है मन में
गेंदे के फूल की ।

एक याद बसी है मन में
गुलाब की ।

एक अहसास बसा है मन में
कमसिन उम्र में
दिनरात किसी को देखने की चाह का।

गंध, याद, चाह के इस अनवरत सिलसिले में
शामिल है कुछ बेमतलब सी
गंधें ,यादें और अहसास भी
जैसे एचसीएल की गंध लैब में
प्रक्टिकल करते वक़्त की।
जैसे प्यार का इज़हार करने के एन मौके पर
जुबान को काठ मार जाने की याद की।

जैसे कुछ बिसर गया
जो याद नही आता लाख कोशिश पर भी
इस सतत अहसास की
बस यही एक अहसास भारी है
हर अहसास पर।

* सतीश एलिया
ये पंक्तियाँ जनवरी २००७ के राशन के बिल के पीछे लिखी गयी थीआज रद्दी समझ लिए गये कागजों की भीड़ में मिली तो यहाँ भी पोस्ट कर दें

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

जोशी जी ७५ के हो गये

आज सुबह सुबह आये फोन से पता चला जोशीजी ७५ के और उनकी पत्रकारिता ५५ साल की हो गयी। उन्होंने इस मौके पे अपने घर बुलाया है, यह सन्देश सुनकर ख़ुशी मिश्रित आश्चर्य हुआ। आश्चर्य इसलिए की वे ७५ के तो कतई नही लगते। सदा सफारी सूट में एकदम फिट तंदुरस्त नज़र आने वाले जोशी की उर्जा किसी नोजवान से कम नही है। जी हाँ में मदनमोहन जोशी जी की बात कर रहा हूँ। कई बार आज के नोजवान पत्रकारों से ज्यादा ही लगती है, बल्कि होती है। मुझे याद है २ साल पहले विधानसभा में भारी हंगामे के बाद हम अध्यक्ष के कमरे के बाहर खड़े थे, जोशी जी वहां मौजूद थे। उनके जमाने के और उनसे पत्रकारिता में ३० साल जूनियर भी खुद को तुर्रम समझते हैं और कितना भी महत्वपूर्ण घटनाक्रम क्यों न हो मोके पर नही जाते। मैंने अवसर का लाभ लिया और उनसे हंगामों का इतिहास पल भर में जान लिया। अगले दिन अखवारों में मेरी खबर सबसे उम्दा थी।
जोशीजी करीब ५ साल मेरे सम्पादक रहे। तुनक मिजाज और कभी कभी मुनि दुर्वाषा के अवतार बन जाने वाले जोशीजी थोड़ी ही देर में सहज और सामान्य हो जाते थे। मुझे याद है जब मैंने दैनिक नई दुनिया ज्वाइन किया था तारीख थी २ सितम्बर १९९५। तो पहली मीटिंग में रिपोर्टिंग टीम और उसके इंचार्ज से मेरा परिचय कराया गया। वरिष्ठों और गरिष्ठो ने कहा हम इन्हें सब समझा और सिखा देंगे। जोशीजी ने कहा मैंने इनकी लिखी खबरें पड़ी हैं। ये तो सब सीखे हुए हैं, आप में से कई लोगों से अच्छी भाषा और समझ है इनकी। मेरे लिए बड़ा कम्प्लिमेंट था ये।
तीसरा वाकया २ साल पहले का है। मध्यप्रदेश समेत ६ राज्यों के विधानसभा चुनाव के मतदान का दिन था। आकाशवाणी ने मुझे चुनाव विश्लेषण के लिए बुलाया। लाइव कार्यक्रम था। स्टूडियो में पहुचा तो पैनल में जोशी जी और नई दुनिया में जोशीजी के सह सम्पादक रहे अग्रज शिवअनुराग पटेरियाजी मौजूद थे। इस प्रोग्राम में जोशीजी ने मुझ कनिष्ठ को बातचीत में सहज बनाये रखा। २ घंटे के प्रोग्राम में एनी राज्यों की राजधानियों से जाने माने पत्रकार और दिल्ली स्टूडियो में मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी भी मोजूद थे। जोशीजी ने मुझे ज्यादा बोलने और सवाल करने के मौके दिए। पटेरियाजी तो खैर सदा ही मुझे आगे बढाते रहे हैं। इसके अगले ही दिन मुझे दूरदर्शन पर पैनल डिस्कसन में बुलाया गया। संयोग से इस पैनल डिस्कसन में हिंदुस्तान तिमेस के एडिटर श्री एनके सिंह थे जो दैनिक भास्कर में मेरे संपादक रह चुके थे। उन्ही के वक़्त में मैंने भास्कर ज्वाइन किया था। इस परिचर्चा में भास्कर के मेरे साथी सुनील शुक्लभी थे। आकाशवाणी के डिस्कसन का मुझे इस चर्चा में लाभ मिला।
शब्द गढने के माहिर पत्रकार जोशीजी के प्रशंसकों की तरह आलोचकों की भी कमी नही है। लेकिन आलोचक भी उनकी लेखनी की तारीफ़ से खुद को रोक नही पाते। वैसे कहा भी जाता है की आपके आलोचक न हों तो कई दफा आपकी सक्रियता की कमी भी इसकी वजह होती है। जोशी जी का पत्रकारिता से इतर योगदान भी उल्लेखनीय है भोपाल में केंसर अस्पताल उनकी देन है। जोशीजी सक्रिय बने रहें, यही कामना है।

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

पत्रकारिता के हमाम में.....

मेरे एक पत्रकार साथी इन दिनों सदमे में हैं। वजह है वे जिस महान पत्रकार के फैन बन गए थे और जिसका गुणगान वे ठीक उसी तरह करते थे जैसे कि भोपाल में ही एक दीक्षितजी माधुरी दीक्षित के प्रख्यात फैन के नाते करते हैं। जी हां, मैं उसी पदमश्री महिला पत्रकार और उसके फैन की कर रहा हूं, जिनका नाम हाल ही में 2 जी स्पेक्ट्रम के सिलसिले में कारपोरेट लाबिस्ट के संपर्क सूत्र के तौर पर चर्चा में आया है। तो जो हमारे साथी पत्रकार हैं वे इन मोहतरिमा पत्रकार के न केवल फैन बन गए थे बल्कि उन्हें भोपाल बुलाकर हम जैसे नाचीजों को उनके साथ डिनर कराने के सब्जबाग भी दिखा चुके थे। मंशा अच्छी थी, वे आदमी भी अच्छे हैं और पत्रकारिता में रहकर धन भी नहीं कमाया है। दिल्ली की लॉबिंग पत्रकारिता के बारे मंे तो मैं कोई खास जानकारी नहीं रखता लेकिन भोपाल के पत्रकारिता के हमाम के कई स्नानरतों और पूर्व स्नानरतों को जानता हूं। एक साब तो एक भ्रष्ट मंत्री के धन से डेली अखबार खोलने की तैयारी में हैं। एक पत्रकार करीब डेढ दशक पहले एक समाचार पत्र से बकायदा फोटो छापकर निकाले गए थे, वे इस श्रेणी में अपनी तरह के इकलौते पत्रकार कहे जा सकते हैं। हाल ही में उन्होंने एक जलसा किया, उसका जाहिर कारण नितांत व्यक्तिगत था लेकिन जलसे में तीन चार मंत्री, तीन चार आईएएस अधिकारी और पांच सात आईपीएस अधिकारियों ने शिरकत की, इस तरह आयोजन सफल रहा। इन सज्जन की खूबियां सब जानते हैं, लेकिन इन्हीं विशेषताओं के चलते वे धडल्ले से चल रहे हैं। जब उमा भारती मप्र की मुख्यमंत्री बनीं तो आधा दर्जन पत्रकार उनके खास उल खास बन गए थे। कुछ तो फर्श से अर्श पर जा पहुंचे, कुछ पाले बदलने की चेष्टा में लगे हैं। गौर मुख्यमंत्री बने तो सरकारी संस्थानों और समितियों में पत्रकारों को जगह मिलने लगी, यहां तक कि राष्ट्रीय स्तर के मध्यप्रदेशीय सम्मान और फेलोशिप भी रेबडी बन गए। शिवराज आए तो सरकारी संस्थानों में नियम कायदे दरकिनार कर सेवक पत्रकार उपक्रत होने लगे। मैं एक ऐसे पत्रकार को जानता हूं जो विधानसभा की रिपोर्टिंग कितनी गैर संजीदगी से करते थे, उन्हें श्रेष्ठ संसदीय रिपोर्टिंग का पुरस्कार मिल गया जबकि उसके ठीक पहले के सत्र में वे एक भी दिन विधानसभा कवरेज पर नहीं गए थे। एक संपादक स्तर के पत्रकार के बारे में सुना है कि उनका उस टॉवर में बेनामी फ्लेट बुक हुआ जिसमें एक पूर्व मुख्यमंत्री के पोते का भी है, कीमत महज एक करोड रूपए बताई गई है। इस टॉवर को बनाने वाले बीयर भी बनाते हैं और वे आयकर महकमे के हत्थे चढे तो टॉवर की बात भी सामने आई। भोपाल में पत्रकारिता के दलाल, बिचौलिए, भूमाफिया तक के रंग से बाखबर मेरे पत्रकारिता साथी को दिल्ली की पत्रकार की भूमिका के बारे में पता चलते ही दुख पहुंचा है। दुखी तो और लोग भी होंगे, क्योंकि 90 फीसदी लोग बेईमान नहीं हैं। हां 10 प्रतिशत दलाल ईमानदारों पर भारी जरूर पढ रहे हैं पद में, वेतन में, गाडी बंगलों में, पुरस्कारों में, सत्ता के करीब होने में, सार्वजनिक तौर पर कथित रसूख में। लेकिन वे रोज आईना तो देखते ही होंगे। कोई दूसरों को अपनी कलाकारी से बेवकूफ बना सकता है खुद को कैसे बना सकता है। फिर सबको सबकी खबर रहती है, इससे कोई बेखबर रहना चाहे तो क्या। उम्मीद की जाना चाहिए, नेताओं, अधिकारियों और कारपोरेट वर्ल्ड से लेकर तमाम संस्थानों में दाग ढूढकर उजागर करने वाले पत्रकार अपनी बिरादरी की कालिख की तरफ भी तवज्जो देंगे। आमीन

रविवार, 28 नवंबर 2010

शालिग्राम जी जैसा मैंने जाना

शुक्रवार की शाम को मैं अपने ऑफिस में रोजाना की तरह कमकाज निपटा रहा था। व्यस्तता के बीच अभाविप के राष्ट्रीय महामंत्री विष्णुदत्त शर्मा का फ़ोन आया। उन्होंने जो सूचना दी पत्रकार के रूप में मेरे लिए केवल सिंगल कालम खबर थी लेकिन उसके बाद काम में मेरा मन नहीं लगा। आरएसएस के एक वरिष्ठ प्रचारक शालिग्राम तोमर का निधन हो गया। यह खबर मिलते ही मैं १९८९ में पहुँच गया। जब अभाविप कार्यकर्ता के रूप में मैं उनसे मिला था। उज्जैन अधिवेशन की तय्यारियों की बैठक में उन्होंने कहा हमे उज्जैन उस ट्रेन से जाना है जिसमे कम पैसे देकर ज्यादा देर ट्रेन में बैठने को मिले। हलके फुल्के अंदाज़ में अपनी बात कहना और अपने से आधी उम्र के युवाओं के साथ घुलमिल जाना यही उनकी विशेषता थी। कभी उन्होंने अनुशासन थोपा नहीं बल्कि हमारी आदत मे आ गया। इसी उज्जैन अधिवेशन मे जब भोजन व्यवस्था कुछ बिगड़ी तो वोह खुद पूरियां तलने बैठ गए। हम हल्ला मचाने वालों ने जब यह देखा तो चुप होगये और खुद पर शर्म आ गई। कार्यकता उनसे कितना प्यार करते थे इसका भी एक उदहारण उनके बीमार पड़ने पर मालिश करने और सेवा करने के लिए होड़ लगती थी। अभाविप के नए और पुराने कार्यकर्ता अपनी बारी का इंतजार करते थे। आरएसएस के इन प्रचारक के बारे मे एक बात जो चकित करती है वोह विवाहित प्रचारक थे। लेकिन परिवार उनके लिए कभी परिवार प्राथमिकता मे नहीं रहा। आज मप्र मे भाजपा के जितने भी नेता स्थापित हैं ओर मुख्यमंत्री और मंत्री हैं सबको उनका भरपूर प्यार मिला। शालिग्राम जी ने सबको दिया लेकिन किसी से कुछ भी उम्मीद नहीं की। ऐसे राष्ट्रऋषि को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
-मनोज जोशी

शनिवार, 27 नवंबर 2010

बीजेपी का गौरव दिवस मतलब क्या

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह बतौर सीऍम ५ साल पूरे होने पर जलसा आयोजित करवा रहे हैं। वे दूसरी दफा इस पद पर हैं। पहली बार तो उमा भारती के नेत्रत्व में प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई बीजेपी ने कर्नाटक के ईदगाह मामले में सम्मान की वजह से उमा को हटा कर बाबूलाल गौर को मुख्यमंत्री बनाया और फिर उमा की वापसी के दबाब में गौर को हटाकर शिवराज की सीऍम बना दिया। जनता ने उमा के नाम पे बीजेपी को २३० में से १७३ सीट दी थीं। जब २००८ में फिर चुनाव हुआ तो शिवराज के नेत्रत्व में हुआ और सीटें घटकर १४१ रह गयीं। इतना ही नही लोकसभा चुनाव में बीजेपी की आधा दर्जन सीटें चली गयीं। वोट प्रतिशत भी कम हुआ। मजे की बात ये है की उमा को पार्टी के आनोदलन की वजह से मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दिलवाने वाली बीजेपी शिवराज के खिलाफ डम्पर खरीदी मामले में मामला दर्ज होने के वावजूद उनके ५ साल पूरे होने पर गौरव दिवस मना रही है। डम्पर उन्होंने पार्टी के लिए नही बल्कि पत्नी के नाम पे जानकारी छुपाकर खरीदा था। मामला उजागर होने पे पहले तो नकारते रहे फिर उन्हें स्वीकारना पड़ा। यह सच है की शिवराज सरकार की कई योजनायें पापुलर हुईं' मसलन लाडली लक्ष्मी । योजनायें तो उमा सरकार की भी खूब चल रही हैं। मसलन स्कूली लड़कियों को साईकिल देने की तोजना बिहार में भी हित रही। शिवराज उनके सिहसालर और दिल्ली में बैठी आका उमा भारती की बीजेपी में वापसी को टालने में अब तक सफल रहे हैं। नीतीश की दूसरी पारी और नरेंद्र मोदी की तीसरी पारी बड़ी बात है विरत बहुमत वाली हैं। लेकिन शिवराज के मुख्यमंत्री रहती मध्यप्रदेश में बीजेपी कमजोर हुई है। विधानसभा से लोकसभा तक सीटें घटी है। इसलिए बीजेपी को रिअलिटी में विचार करना होगा क्योंकि कांग्रेस की कमजोरी के शेयर नैया पार लगते रहना गोरव की बात नही है,

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

सुदर्शन का आभार माने कांग्रेसी

हजारों करोड़ का कामनवेल्थ घोटाला और कारगिल के शहीदों के वेवाओं के फ्लैट कि बंदरबांट पर बुरी तरह घिरी कांग्रेस को पूर्व संघ प्रमुख सुदर्शन का आभार मानना चाहिए जो उन्होंने बीजेपी के हाथ से भ्रष्टाचार का यह जलता मुद्दा अपने बयान के गरम पानी में बुझा डाला। जनता के मुद्दों पे मौन साढ़े बैठे काग्रेसियों को संघ के बहाने बीजेपी पे भारी पड़ने का मोका हाथ लग गया। बचाव की मुद्रा में आये संघ और बीजेपी को अब कुछ दिन ठहर के एक बार फिर कॉमनवेल्थ और कारगिल के शहीदों कि विधवाओं के फ्लैट खाने का मामला ताकत से उठाना चाहिए। इसलिए नही कि संघ बदला ले। बल्कि इसलिए कि दोनों ही घोटाले अक्षम्य हैं। कॉमनवेल्थ का भ्रष्टाचार दुनिया भर में भारत कि बदनामी का कारण बना और आदर्श सोसायटी का मामला जन जन की भावना का अपमान है। जब कारगिल वार हुआ था तब लोगों ने रक्तदान किया था और महाराष्ट के मुख्यमंत्री ने अपनी सास को फ्लैट दे डाला। फिलहाल यह देखना रोचक होगा कि बंद किले कि राजनीति से मैदान कि राजनीति में आते hi maand
mein ghusne को मजबूर हुए संघ और संघ पुत्री बीजेपी अब क्या रणनीति बनाते हैं। कांग्रेसी फिलहाल १ गोल से आगे हैं और ये गोल संघ के पूर्व कप्तान ने अपनी ही टीम के खिलाफ किया है। यही तो राजनीति का रंग है एक कदम आपकी साडी रणनीति को चोपट कर देता है।

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

एक दीप धरें मन की देहरी पर

आप सभी को सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। दीप पर्व पर मेरी अपनी एक कविता सुधिजनों को समर्पित है।
एक दीप धरें मन की देहरी पर

धीरे धीरे घिरता है तम,
ग्रस लेता जड़ और चेतन को
निविड़ अंधकार गहन है ऐसासूझ न पड़ता
हाथ को भी हाथ
क्या करें,
कैसे काटें इस तम को
यह यक्ष प्रश्न
विषधर साकर देता किंकर्तव्यविमूढ़
तो जगती है एक किरनउम्मीद की
टिमटिमातीकंपकंपाती दीप शिखा सी
आओ लड़ें तिमिर अंधकार से,
एक दीप धरें मन की देहरी परप्रेम की जोत जगाएं हम
मिटे अंधियारा
बाहर काभीतर का भी,
आओ दीपमालिका सजाएं,
दीपावली बनाएंएक दीप धरें मन की देहरी पर।।
- सतीश एलिया- Dr. aparana aliya

रविवार, 31 अक्तूबर 2010

५४ का हुआ मेरा मध्यप्रदेश

मेरा राज्य मध्यप्रदेश १ नवम्बर को ५४ साल का हो रहा है। दस बरस पहले इसका एक हिस्सा अलग होकर नया राज्य ३६ गढ़ बन चुका है। १९५६ में विंध्यप्रदेश, मध्यभारत, सीपी एंड बरार का हिस्सा ३६ गढ़ और महाकौशल अंचल मिलकर मध्यप्रदेश बना था। इसमें राजस्थान की टोंक रियासत के सिरोंज और लटेरी को भो शामिल किया गया। इन ५६ सालों में एक प्रदेश का जैसा भाव जागना था नही जाग पाया। प्रदेश ने प्रगति तो की लेकिन जैसी हो सकती थी नही हो पायी। जयादातर वक़्त कांग्रेस की सरकारें रहीं करीब १२ साल जनता पार्टी और बीजेपी की सरकार के रहे। आरोप प्रत्यारोप की बात नही है, लेकिन यह सच है की भरपूर संसाधन और मेहनती जनता के बाबजूद देश के नक़्शे पे मध्यप्रदेश पिछड़ा राज्य बना रहा। हमें इसे अगड़ा बनाने के लिए काम करने की जरूरत है। प्रदेश के प्रतिभाशाली राज्य के बहार सफलता का परचम लहराते रहे हैं, लहरा रहे हैं। क्रन्तिकारी चंद्रशेखर आजाद, स्वर कोकिला लता मंगेशकर, अप्रतिम गायक किशोरकुमार.अभिनेता अशोककुमार रज़ा मुराद, शरद सक्सेना, प्रेमनाथ, जया भादुरी,चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसेन, सैयद हैदर रज़ा, सरोद साधक उस्ताद अमजद अली, संगीत समराट तानसेन, सलीम जावेद की जोड़ी के सलीम, साहित्यकार पत्रकार पंडित माखनलाल चतुर्वेदी, राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी इसी धरा की संताने हैं। जनप्रिय अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर शंकरदयाल शर्मा तक और हाकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद तक मध्यप्रदेश के लालों की श्रंखला है। पहली दफा किसी सरकार ने अपना मध्यप्रदेश का भाव जगाने की शुरुआत की है। मध्यप्रदेश गान बना है। पार्श्व गायक शांतनु मुखर्जी यानि शान ने इसे सुर दिया है और मध्यप्रदेश के सपूत जबलपुर के संगीतकार आदेश श्रीवास्तव ने धुन बनाई है। इसे लिखा है पत्रकार महेश श्रीवास्तव ने। मधुर गीत जनता की जुबान पे चढ़ भी गया है। माँ की गोद पिता का आश्रय, शुभ का ये सन्देश है, सुख का दाता सबका साथी मेरा मध्यप्रदेश है॥ मध्यप्रदेश दिवस पे राज्य देश और विदेश में मौजूद सभी मध्य्प्रदेशियों को मेरी बधाई और ढेरों शुभकामनाएं।

सोमवार, 23 अगस्त 2010

आया है मुझे फिर याद वो जालिम.......



मुकेश जी का गाया ये गीत इस पूरे महीने से मेरे जेहन में गूंज रहा है। आया है मुझे फिर याद वो जालिम गुजरा जमाना बचपन का.......। इस बार सावन करीब करीब सूखा बीता है लेकिन फिर भी उसका असर तो है ही, यह महीना, यह गाना हमें सावन के महीने और राखी के त्योहार की सुखद स्म्रतियों में ले जाता है। जब हम छोटे थे और घर में, मोहल्ले में और पूरे शहर में त्योहार का माहौल फिजां से लेकर हमारे दिलों तक पर पूरी शिददत से अपना साम्राज्य कर लेता था। लडकियां मेंहदी की झाडियों से पत्ते खुद चुनकर लाती थीं और सहेलियां या बहनें मिलकर उसे पीसती थीं, घर के लडके भी उनका हाथ बंटाते थे। मेरी तो पांच में से तीन बहनें बडी हैं और इकलौते भाई का जलवा किसी राजकुमार से कम न था। पूरे मोहल्ले में सबसे ज्यादा राखी बंधवाने वाले चंद सुपर स्टार्स में हम भी थे। हाथ कंधे तक भर जाता था। फिर पिताजी को राखी बांधने के समय बुआजी भी हमें राखी बांधती थीं। हम तो जगत भैया थे, पिताजी अम्मा भी मोहल्ले वाले भी और घर के किरायेदार भी सभी के भैया। दोस्तों की संख्या इतनी की अब याद करते हैं तो लगता है, क्या बेहतरीन दिन थे। सावन के महीने में भौंरे यानी लकडी के लटटू जिन्हें डोरी मढकर फिर उसे खींचकर जमीन पर नचाया जाता था। पूरे मोहल्ले के लडके रंग बिरंगे लटटू लेकर कौन कितना भौंरा घुमाता है, जमीन से भौंरे को घूमते हुए ही हथेली पर लेने में महारथ हासिल करने वाला इस प्रदर्शन में प्रिंस की तरह सम्मान पाता था। हमने भी भारी प्रेक्टिस के बाद यह गुर सीख ही लिया था। चकरी, जिसमें धागा या तांत की डोरी होती थी, उसे उंगली में फंसाकर घंटो फिराते रहते थे लडकों के हुजूम। लडकियां झूला झूलने और चपेटे खेलने में मग्न रहती थीं। हम जैसे ठसियल लडके चपेटे खेलने में भी पीछे नहीं रहते थे। बेचारी बहनें अपनी सहेलियों के साथ चपेटे खेलने में अपने प्रिय भाई के ठसने से खूब नाराज होतीं थी लेकिन रोने के सिवाय कुछ कर नहीं पाती थीं। सभी बहनों और भाईयों के बीच इस किस्म के झगडे लगे रहते थे। लडकियों का एक डायलाॅग लडकों को मूलतः लडकियों के माने जाने वाले खेलों से भगाने के लिए रामबाण का काम करता था। वे समवेत स्वर में कहती थीं- मोडियों में मोडा खेले वाको बाप चपेटा खेले। लेकिन जब वे चपेटे के खेल में ऐसा कहती थीं तो ढीट बनते हुए लडके कहते बाप नहीं हम खुद ही खेल रहे हैं चपेटे, लो हम चपेटे ही फेंके देते हैं। लडकियांे में चीख पुकार गुहार मच जाती है- ये भैया चपेटे फेकियो मत। चपेटे लाख के मिलते थे बाजार में लेकिन लडकियां पत्थरों को चोकोर घिसकर खुद बनाने में ज्यादा यकीन करती थीं। हमारे मोहल्ले में झूले डालते थे हम लोग लेकिन बहनें ज्यादा झूलती थीं, हम लोगों का मूड हुआ तो लडकियांे को फिर हटना ही पडता था, उन बिचारियों को घरों में मांओं के साथ पकवान बनाने की तैयारी भी करना पडती थी। मेंहदी लडके भी हाथों में रचवाते थे बहनों से। जिन लडकियों को खूब रचती वे कहती भैया खूब चाहता है हमें इसलिए रचती है, और भाई कहते हमारी बहनें खूब चाहती हैं इसलिए देखो खूब सुर्ख रची है मेंहदी। जिनको न रचती तो उनसे कहते अच्छी नहीं थी मेंहदी, अब हाथ में चूना लगा लो फिर तेल मल लेना, मेंहदी का रंग गहरा हो जाएगा। अनगिनत यादें हैं, अनगिनत अनुभव हैं सावन और राखी त्योहार के। दोस्तों के भाई बहनों के खेल खिलौनों के मेंहदी के झूले के राखी के चकरी के भौंरों के चपेटों के। बहनें अब भी हैं, राखी अब भी बंधती है, दोस्त अब भी मिलते हैं, लेकिन न अब वो झूले हैं, न वो चकरी भौंेरे हैं, न मेहंदी की पत्तियां तोडना पीसना रचाना है, न घर में वैसे पकवान बनते हैं और न ही राखी के दूसरे दिन की भुजरिया यानी कजलियों का उत्सव है। लगता है अब सब कुछ मशीनी या औपचारिकता होता जा रहा है, न बच्चों में उस शिददत वाला उत्साह दिखता है। लेकिन बाजारों मंे बसों में रेलों में भीड हैं लोगों को त्योहार मनाने की दिलचस्पी बरकरार है। सब बहनों को सब भाईयों को राखी का पर्व शुभ हो यही कामना है।

ये पोस्ट बीते साल लिखी गयी थी इस साल भी सावन मप्र में सूखा ही है.इसलिए फिर दी है

शनिवार, 14 अगस्त 2010

इस आजादी से तो गुलामी भली....

तिरसठ बरस पहले देश के बंटवारे को स्वीकार कर हमें जो मिला था उसे हम भूलवश आजादी मान बैठे। अगर ऐसा नहीं है तो फिर कॉमनवेल्थ गेम्स का तमाशा हम क्यों आयोजित कर रहे हैं? उसमंे भी भ्रष्टाचार का कॉमन वेल्थ कर करोड रूपए डकारे जा रहे हैं और बेशर्मी की हद ये है कि सरकार इस मामले में कुछ कहती और करती नहीं दिख रही है। दिख रहा है तो इसे राजनीतिक फायदे में बदलने का भाजपा का प्रयास। हालांकि कॉमनवेल्थ के भ्रष्टाचार में वे लोग भी शामिल हैं जो भाजपा और उसके नेताआंे से जुडे हुए हैं और दिल्ली में इन गेम्स की तैयारियों में ठेकेदारी कर जेबें भर रहे हैं। संसद पर हमले के दोषी अफजल को फांसी देने में केंद्र सरकार की मक्कारी देश को आजाद कराने के लिए फांसी के फंदे पर खुशी खुशी झूल गए भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू की शहादत को नकारने जैसा ही है। लेकिन इस मुददे को भी वो भाजपा नेता बार बार कांग्रेस पर हमले के लिए उठाते हैं जिनके राज में केंद्रीय मंत्री की बेटी को छुडाने आतंकवादियों को सम्मान काबुल ले जाया गया था। कोई दूध का धुला नहीं है राजनीति कीचड हो चुकी है। जिन राज्योंमंे भाजपा की सरकारें हैं वहां भी जमीनों के घोटाले, रिश्वतखोरी चरम पर है। संघ से जुडे नेता और कार्यकर्ता भी कांग्रेसियों को मात देने के अभियान में निकल पडे लगते हैं। मध्यप्रदेश में दर्जनों नहीं सैकडों उदाहरण सामने आ चुके और लगातार आते ही जा रहे हैं। पत्रकारिता को चौथा खंबा कहा जाता है लेकिन विज्ञापन की शक्ल में खबरें छापकर जनता के भरोसे को तार तार किया जा रहा है। खबर अब वो है जो बिक सके। ऐसे पत्रकारों की संख्या में भी लगातार इजाफा हो रहा है जिनके यहां इंकम टैक्स का छापा पडता है, जिनके खिलाफ काले धंधों में काम करने के आरोप लगते हैं। जनता की आदिवासियों की हिमायत करने वालों को नक्सली बताकर एनकाउंटर कर दिया जाता है। भूमाफिया, पुलिस, भ्रष्ट नेता और अफसर जनता और उसकी संपत्ति को इस कदर लूट रहे हैं कि अंग्रेज भी शरमा जाएं, क्योंकि उन्होंने दूसरे मुल्कों को लूटा और हम अपने ही मुल्क और लोगों को लूटने में लगे हैं। एक तरफ महंगाई की मार है दूसरी तरफ भ्रष्टाचार किसान आत्महत्याएं करने को मजबूर हैं और सरकार अरबों रूपए फूंककर कॉमनवैल्थ गेम्स कराने पर आमादा है। गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं है, खुले में अनाज सड रहा है और दूसरी तरफ लोग भूख से मर रहे हैं। क्या खूब आजादी आई है और इन 63 सालों में हमने क्या खूब प्रगति की है। करीब इतने ही सालों में जापान आर्थिक ताकत बन गया और अब हमारे पडोसी चीन ने आर्थिक ताकत बनने में जापान की बराबरी करने के बाद उसे पछाडने का लक्ष्य हासिल कर लिया है और हम.. इस बात पर खुश हैं कि आखिर हमने अपनी मुद्रा का पहचान चिन्ह खोज लिया है। उम्मीद है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कल लाल किले की प्राचीर से महंगाई के खात्मे की सरकारी कोशिशों का बखान करेंगे और देश को ताकत बनाने का अहद दोहराएंगे जो नेहरू, इंदिरा, नरसिंहराव से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक कहते आए और आगे भी मनमोहन या कोई और प्रधानमंत्री कहेंगे ही। लेकिन क्या कोई देश को वाकई ताकतवर बनाने, गरीबी, भुखमरी, बेईमान, भ्रष्टाचार रोकने के लिए कुछ करेगा। फिलहाल तो कोई उम्मीद की किरण दिखाई नहीं देती। मुझे लगता है कि मैं गुलामी के दौर में पैदा हुआ होता तो देश पर कुर्बान होकर मरने का लक्ष्य तो होता लेकिन अब अपने ही देश में जिसे हम आजाद कहते हैं गुलामी के से हालात में जीना पड रहा है। दोस्तो आओ कुछ सोचें विचारें, दीवारें गिराकर कोई नई राह निकालें, मिलकर सोचें और कर गुजरें कि हम वाकई आजाद हों, मुल्क आजाद हो और ताकतवर बने; जयहिंद।

शनिवार, 17 जुलाई 2010

नोजवानों को आगे नही पीछे धकेल रही है बीजेपी

भाजपा की युवा विंग भाजयुमो को एमपी में आखिर युवा अध्यक्ष क्यों नहीं मिला? वह भी तब जबकि न सिर्फ पूरी पार्टी बल्कि संघ परिवार में युवा नेतृत्व उभारने का भूत सवार है। भाजपा में संघ परिवार के प्रतिनिधि संगठन महामंत्री रामलाल के निर्देशों का उल्लंघन कर 37 साल के विधायक जीतू जिराती को मोर्चे का अध्यक्ष क्यों बनाना पड़ा? इस के पीछे गणित चाहे जो हों, लेकिन संघ कि गाइड लाइन का उल्लंघन हुआ और मप्र भाजपा में संघ के प्रतिनिधि प्रदेश संगठन महामंत्री माखन सिंह और उनके दोनों सहयोगी मौन रहे? वास्तव में पिछले एक दशक से भाजपा जिस रास्ते पर चल रही है, यह उसी का नतीजा है। एक समय था जब पार्टी में संघ की परंपरा से तपे हुए नेता आते थे, उन्हें सत्ता और संगठन में तरजीह मिलती थी। स्वयं मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और उनकी टीम के ज्यादातर सदस्य विद्यार्थी परिषद से युवा मोर्चा में आए और राजनीति में इस मुकाम पर पहुंचे। कालेज और यूनिवर्सिटी में चुनाव लड़ कर यह लोग पहले छात्र नेता, फिर युवा नेता और अब पूरे प्रदेश के नेता बने। अब हालत यह है कालेज और यूनिवर्सिटी में डायरेक्ट इलेक्शन नहीं होते, ताकि युवा नेतृत्व न उभर जाए। बीते एक दशक में भाजपा से जो लोग जुड़े उनमें संघ और संघ परिवार के कार्यकर्ताओं की संख्या बहुत कम है। जो आए उन्हें भी पार्टी में नया माना गया। संघ या परिवार संगठन में किये गए कम को पार्टी ने तवज्जो नहीं दी गई। अब तो स्थिति यह है कि भाजपा नेता संघ का नाम उसी तरह से लेते नजर आते हैं जैसे कांग्रेसी गांधी जी का । यानी वे उनके सिद्धांतों का पालन तो नहीं करते लेकिन नाम का लाभ लेना चाहते हैं। इतना ही नहीं एक बड़ा वर्ग ऐसा खड़ा हो गया है जो संघ और संघ परिवार से सिर्फ इसलिए जुड़ता है कि वह संघ का लेबल लगा राजनीति में लाभ उठा सके । भाजपा का संघ से रिश्ता कितना रह गया है अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भाजपा कार्यकर्त्ता , नेता और यहां तक कि संघ के प्रतिनिधि प्रदेश संगठन महामंत्री शाखाओं में नजर नहीं आते।... माफ कीजिये अब तो शाखाएं भी नजर नहीं आती। अब ऐसे में यदि भाजपा 37 साल उम्र के ऐसे विधायक को युवा इकाई की कमान सौंपती है जिसने कालेज का मुंह भी नहीं देखा और जिस पर कई अपराध दर्ज हैं तो कैसा आश्चर्य और किस बात का हल्ला?
मनोज जोशी भोपाल मध्यप्रदेश

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

शिवराज से तनातनी भारी पडी अटलजी के भांजे अनूप मिश्रा को

भाजपा की प्रदेश कार्यसमिति में अनंत कुमार के संदेश को सुनहरा अवसर बनाकर मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने स्वास्थ्य मंत्री अनूप मिश्रा को मंत्रिपरिषद से बाहर कर दिया। असल में जल संसाधन विभाग छिन जाने से अनूप मिश्रा शिवराज से नाराज थे और उनकी अनदेखी तक कर रहे थे। करीब एक साल से वे उच्च स्तरीय बैठकों और कैबिनेट तक में भाग लेने में रूचि नहीं ले रहे थे। इतना ही नहीं अनूप मिश्रा के तेवर इस कदर तीखे थे कि सीएम, साथी मंत्रियों, विधायकों, अफसरों से लेकर पत्रकारों तक को उनसे अडचन होती थी। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के भांजे होने की वजह से ही शिवराज सिंह चौहान को उमा भारती के सिपहसालार रहे अनूप मिश्रा को मंत्री बनाना पडा था। बेलागांव हत्याकांड में अनूप, उनके बेटे और अन्य संबंधियों का नाम आने के तत्काल बाद ही पार्टी आलाकमान के इस संदेश कि दागियों को अलग करो, से शिवराज को मौका मिल गया। वे इससे पहले स्वास्थ्य महकमे में एक राज्य मंत्री रखकर, ग्वालियर जिले के ही मंत्री नरोत्तम मिश्रा को ज्यादा विभाग और सरकार का अधिक्रत प्रवक्ता बनाकर अनूप के पर कतरने का नमूना दिखा चुके थे। ग्वालिअर के एक मंत्री नारायण कुशवाह उसी जाति के हैं जिसकी मिश्रा परिवार की ओर से हुई गोलीबारी में मौत हुई है। नारायण इस जाति से अकेले बीजेपी विधायक और मंत्री है। हालाँकि वे भी उमा भारती की कृपा से पहली दफा विधयक बनते ही मंत्री बने थे। शिवराज को जातीय समीकरणों के चलते उन्हें मंत्री बनाना पड़ा था। लेकिन ग्वालियर में अनूप मिश्रा ओर बीजेपी महासचिव नरेन्द्र तोमर की ही चलने से कुशवाह खासे नाराज हैं। कांग्रेसियों के धरने के चलते उनके भाई को सही इलाज न मिलने से मौत के बाद से वे खुद धरने पे बैठने का एलन कर चुके है। वे २ माह भोपाल भी नही आये थे। खैर अब देखना ये है कि उमा भारती की भाजपा में वापसी की अटकलों के बीच अनूप का इस्तीफा क्या गुल खिलाता है! अन्य दागी कहे जाने वाले मंत्रियों को हटाने में शायद शिवराज इतनी तत्परता न दिखाएं। क्योंकि वे मंत्री आपराधिक मामलों के आरोपों से नहीं घिरे हैं। भ्रष्टाचार के मामलों में शिवराज से लेकर अनंत कुमार और प्रभात झा तक यह दोहरा ही रहे हैं कि दोष सिद्ध होने पर ही सजा दी जाना चाहिए, पहले नहीं।

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

शिवराज को ये किस मुसीबत में फंसा गए अनंत..

कुछ बातें कहने सुनने में अच्छी लगती हैं लेकिन अमल में नहीं लाई जातीं। अर्थात हाथी के दांत.. वाली कहावत। मप्र में भाजपा की सरकार में मंत्रियांे की दादागिरी, उनके खिलाफ दर्ज हो रहे भ्रष्टाचार के इतर मामलों की जैसे बाढ आई हुई है। ऐसे में महासचिव अनंत कुमार की मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को यह सीख कि दागियांे को बाहर करो, सुनने में अटपटी ही लग रही है। क्योंकि खुद मुख्यमंत्री पर डंपर खरीदी मामले में गलत जानकारियां देने और फिर स्वीकार कर लेने का मामला है। यह मामला तब उमा भारती के सिपहसालार प्रहलाद पटेल ने उठाया था, जो शिवराज से मित्रता के चलते कभी के भाजपा में लौट आए हैं और अब इस मामले में चुप हैं। खैर शिवराज दागियों पर कार्रवाई करें तो कैसे। एक तो वे खुद आरोपों से घिर चुके हैं, दूसरे दागी श्रेणी के मंत्रियों की पूरी फौज है। विश्नोई हटाए ही इसीलिए गए थे लेकिन वे फिर मंत्री बना लिए गए, हाइकमान के इशारे पर ही। नरोत्तम मिश्रा भी इसीलिए दूसरी पारी में पहले मंत्री नहीं बनाए गए थे, लेकिन बाद में न केवल मंत्री बन गए बल्कि इस वक्त वे शिवराज सरकार के आधिकारिक प्रवक्ता और संसदीय, विधि विधायी के अलावा आवास एवं पर्यावरण विभाग के आधे हिस्से आवास के भी मंत्री हैं। कैलाश विजयवर्गीय भले लाख आरोपों से घिरे हों लेकिन वे भी शिवराज के प्रिय हैं, हाल ही में 11 दिन की विदेश यात्रा में साथ रहे। जयंत मलैया भी लोकायुक्त में आरोपित हैं लेकिन उनके पास जलसंसाधन और आवास पर्यावरण विभाग है। नागेंद्र सिंह और अनूप मिश्रा अपने परिजनों की हिंसक दादागिरी के चलते निशाने पर हैं। बाबूलाल गौर भी पटवा सरकार के वक्त नगरीय प्रशासन मंत्री रहते जमीनों के मामले में चर्चा में रहे थे, उनके खिलाफ जगत्पति कमेटी ने प्रतिकूल टिप्पणियां की थीं, लेकिन वे मुख्यमंत्री तक बन चुके हैं, अब भी मंत्री हैं और उनकी पुत्रवधु भोपाल की महापौर हैं। विजय शाह आरोपों के चलते पहले तो दोबारा मंत्री नहीं बनाए गए थे और बाद मैं न केवल मंत्री बने, उनकी पत्नी खंडवा से महापौर बनीं। लुब्बे लुआव ये कि शिवराज दागियों पर कार्रवाई करें तो आखिर कैसे। रही बात कांग्रेस की तो उसकी सरकार के वक्त में दागियों की पूरी फौज थी। अर्जुन सिंह गैस कांड मामले में एंडरसन की सुरक्षित वापसी मामले में बुरी तरह से घिरे हैं, जिसकी आंच राजीव गांधी के घराने अर्थात कांग्रेस आला हाईकमान तक को झुलसा रही है। ऐसे में जनता किस पर विश्वास करे, अनंत कुमार पर, शिवराज पर, दागियों पर, कांग्रेेसियों पर या ईश्वर पर ही जो कि इकलौता सहारा है गरीब जनता का। मनमोहन सरकार लगातार महंगाई को परवान चढा रही है और बाकी सब सरकारें भी कमोबेश जनता के साथ यही कर रही हैं। सरकारें चलाने वाले अगर दागी बनने में रूचि लेने के बजाय जनता का वाकई कल्याण करते होते तो नक्सलियों को सहयोग और पांव जमाने का मौका क्यांेकर मिल पाता।

गुरुवार, 24 जून 2010

मानसून की भोपाल में दस्तक

आज शाम ६ बजे मानसून के बादलों ने भोपाल में दस्तक दे दी। दिन में भारी उमस थी पारा ३७ पार पहुचा। लोग बेहाल थे। ढलती शाम में घिर आये बदरा बरसे तो मन हर्ष से झूम उठे। बादल अब भी आसमान पे फेरे लगा रहे हैं। मस्त हवा चल रही है। लोग ताल किनारे मौसम का लुत्फ़ लेने उमड़ पड़े हैं। उम्मीद है बादलों की मेहरवानी बनी रहेगी आमीन

सोमवार, 14 जून 2010

गडे मुर्दे ही तय करते हैं राजनीति की दिशा

राजनीति में मुर्दे सबसे ज्यादा काम की चीज होते हैं। गडे हुए मुर्दे उखाडे जाते हैं और वे ही राजनीति के भविष्य की दिशा तक तय करते हैं। यकीन नहीं हो रहा मेरी बात को तो भोपाल गैस मानव संहार के मामले को ही ले लीजिए। एक जमाने में इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी के निकटतम सिपहसालार अर्जुन सिंह के मामले को ही बतौर नजीर लीजिए। गैस हादसे के वक्त उनकी भूमिका के मुर्दे न केवल उखडे। हैं बल्कि वे अखबारों, विवाद पिपासु न्यूज चैनलों, राजनीतिक गलियारों, दफतरों में तांडव कर रहे हैं। प्रणव मुखर्जी से लेकर सत्यव्रत चतुर्वेदी तक और मोइली से लेकर पचौरी तक सब अर्जुन सिंह को ललकार रहे हैं। अर्जुन के पुराने शिष्य दिग्विजय सिंह भी इस मामले में निशाने पर आ गए हैं, क्योंकि वे मुर्दों की बोली को अनसुना कर गुरू ऋण उतारने की चेष्टा कर रहे थे। राजनीति या प्रशासन का महज ककहरा जानने वाला भी यह नहीं मान सकता कि अर्जुन सिंह जैसा चतुर सुजान ओर घनघोर चंट राजनेता बिना तत्कालीन कांग्रेस हाईकमान की सहमति के वारेन एंडरसन को सुरक्षित भोपाल से दिल्ली भेजता। जाहिर है राजीव गांधी की सहमति के बिना वारेन बाहर नहीं गया था। लेकिन अर्जुन और सोनिया दोनों ही मौन हैं, मुखर हैं तो सोनिया को प्रसन्न करने की कोशिश में और जबरिया वानप्रस्थ में धकेल दिए गए अर्जुन सिंह से बेपरवाह बिना जनाधार वाले नेता। कांग्रेस की गुटबाजी और कलह इस मामले में कहां खत्म होगी, कहा नहीं जा सकता। हो सकता है अर्जुन सिंह का मौन टूटे या फिर बोफोर्स मामले की वजह से सालों मौन रहीं और राजनीति में आने से कतराती रहीं सोनिया ही मौन तोडें। कांग्रेस की चिंता कांग्रेस करे और विपक्ष इस मुददे पर कितना क्या लाभ ले सकता है, यह वह जाने। कटघरे में तो जनता का विश्वास और लोकतंत्र की जिम्मेदारी तथा मर्यादा है। आखिर सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह, खुदीराम बोस, चंद्रशेखर आजाद से लेकर तिलक, गोखले, गांधी किस आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे? हमारे देश के नेता मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, जनता को सामूहिक नरसंहार के मुहं में झौंक देने के षडयंत्र में शाामिल होंगे और नरसंहार के जिम्मेदारों को बचाएंगे, यह दिन देखने के लिए आजादी के दीवानों ने संघर्ष किया था? अर्जुन सिंह दो दफा मप्र के मुख्यमंत्री रहे और कई दफा केंद्रीय मंत्री, सदन के नेता और राज्यपाल भी रहे उन्होंने सत्यनिष्ठा की शपथ दर्जनों बार ली होगी? क्या उन्हें वह शपथ नहीं कचोट रही है, उनका मौन बडा ही खतरनाक है और देश में लोकतंत्र पर सवालिया निशान की तरह है। जिस भोपाल शहर में उनके नाम पर अर्जुन नगर, बेटे के नाम पर राहुल नगर, पत्नी के नाम पर बिटटन मार्केट है, अपनी केरवां कोठी है। सी टाइप का सरकारी बंगला सी 19 है, जिसके नाम का भी भोपाल में कभी जलाल हुआ करता था, उसी शहर के 15 हजार लोगों की मौत एक रात में होने के मामले में वे अब मौन ही रहना चाहते हैं। बाबरी ढांचा गिरने के बाद फूट फूटकर रोना क्या स्वांग नहीं था? भारतीय परंपरा के अध्ययन को भगवाकरण नाम देकर राजनीति में शब्दों को उनकी पहचान से विलग कर अपमानित करने में माहिर अर्जुन सिंह को 26 बरस से जारी मौत के मामले में मौन तोड.कर भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में सच्चाई की एक मिसाल कायम नहीं करनी चाहिए? कांग्रेस की राजनीति में वे हाशिए पर पड़े हैं, बेटे की भी लगभग नगण्य हैसियत है, बेटी को टिकिट दिला नहीं पाए, जीवन की सांझ में अपनी अंतरात्मा को जाग्रत कर वे सच सामने रखें, शायद उनका मामला भविष्य में प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों से लेकर सरपंचों तक में सच की अलख जगा जाए। क्या ऐसा करेंगे अर्जुन?

सोमवार, 7 जून 2010

ये तो तय ही था हमने कानून ही ऐसे बनाये हैं

भोपाल गैस कांड के २६ साल बाद सीजेमसी कोर्ट ने आज फैसला सुनाया। जैसा कि होना ही था मामूली सजा और ६ आरोपियों को जमानत मिल गयी। क्योंकि हमने कानून ही ऐसे बना रखे हैं। १५ हजार से ज्यादा मौतों और सतत जारी हादसे में ऐसा होना दुखद है। गौर किया जाये तो हमारी सरकारों ने नरसंघार के गुनहगारों को बचाने का काम किया। इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या होगी कि वारेन anderson को न केवल भारत से भागने दिया गया बल्कि उसे वापस लाने में नाकामी कि हमे कोई शर्म नही है। असल में सजा न केवल anderson और यूनियन कार्बाइड के अन्य करता धर्ताओं को मिलना चाहिए थी बल्कि मध्यप्रदेश के तत्कालीन सत्ताधीशों को भी सजा मिलना चाहिए क्योंकि हादसे के लिए वे भी उतने ही जिम्मेदार हैं जितना anderson एंड कम्पनी।

शुक्रवार, 4 जून 2010

नया अवतार आने को है....

जी नहीं, मैं कोई सनसनीखेज खुलासा नहीं कर रहा हूं. क्योंकि मैं कोई न्यूज चैनल नहीं हूं और इंडिया टीवी तो कतई नहीं हूं। मैं तो कोई और ही खबर आपको दे रहा हूं। जैसे अमिताभ बच्चन को, फिल्मों में बतौर हीरो के तौर पर राकेश रोशन को और अब नए जमाने के हिमेश रेशमिया को आपने जुल्फों में देखा है और अगर वे बिना बिग के नजर आएं तो आपको अटपटा लगेगा। वैसे ही ब्लॉग जगत के एक जाने माने हस्ताक्षर को आप आज से नए लुक में देखंेगे अर्थात अल्पकेशी से जुल्फिकार अली बन गए हैं हमारे एक ब्लॉगर डा. महेश परिमल। आप अभी उन्हें मेरे ब्लॉग पर समर्थको में नंबर ६ पर देख सकते हैं। लंबे समय तक खुद ही अपने अत्यल्प केशों को लेकर परिहास करते रहे डा. परिमल ने वीबिंग कराने का न केवल निर्णय लिया बल्कि छुटटी के दिनों में इसका सफल प्रयोग कर चुके हैं। वे घर से दुपहिया वाहन पर हेलमेट लगाकर निकलते और कुछ दूर जाकर हेलमेट उतारकर नए लुक में शहर में घूमकर देख चुके हैं। बताते हैं कि नए लुक में वे युवा नजर आ रहे हैं। इन दिनों वे छुटटी पर हैं और बेखौफ और बेफिक्र होकर अपने नए नवेले बालों और लुक का लुत्फ ले रहे हैं। जब वे अवकाश से लौटेंगे अर्थात भोपाल में पुनरागमन करते ही स्थाई रूप से नए लुक में उपलब्ध होंगे। हो सकता है ब्लॉग पर भी अपने नये लुक वाली तस्वीर का अवतरण करें। मुझसे उन्होंने बीते माह इस मामले में मशविरा किया था। मैंने अपने दो तीन मित्रों के इस संबंध में पॉजिटिव रिस्पांस के मददेनजर डा. परिमल को भी यह बदलाव करने का सुझाव दिया था। डा. परिमल को जानने वालों से आग्रह है कि वे ब्लॉग पर या साक्षात नए लुक में उन्हें देखें तो जो भी प्रतिक्रिया हो उससे मुझे भी अवगत कराएं तो अच्छा लगेगा। क्योंकि इस अंदाज परिवर्तन में मेरा समर्थन भी शामिल है।

गुरुवार, 3 जून 2010

गमक उठी माटी की सौंधी गंध

भोपाल में अभी रात ठीक नौ बजे बारिश की बूंदे धरती पे गिरी और सौंधी खुसबू महक उठी सभी को बधाई.

मंगलवार, 1 जून 2010

पापुलर होने का मतलब ज्ञानी नहीं होता भगतजी

अंग्रेजी में पल्प फिक्शन लिखकर नव अंग्रेजीदां लोगों में मशहूर होने के बाद लगता है चेतन भगत हर किसी विषय पर विद्वता हासिल कर चुके हैं। कुछ दिन पहले उनका अंग्रेजी में ही एक लेख आया गोत्र को नकारने वाला। इसका अनुवाद हिंदी अखबारों में भी छपा था। इसका पूरा स्वर इस दिशा में था कि बात देश क्यों, पिता क्यों, नाम, उपनाम क्यों, यानी हर तरह की पहचान की खिलाफत। अंग्रेजी में फिक्शन लिखने से हुई कमाई से महानगरीय जीवन उनके लिए मुफीद हो जाने से उन्हें गोत्र बेमानी भले लगे लेकिन हिंदुस्तान के सवा अरब लोगों को तो गोत्र जरूरत है। अब अपनी और अपने समुदाय से पहचान का गुण सूत्र है। भगतजी का ताजा मामला गुलजार सरीखे नामवर शायर, गीतकार, फिल्मकार और हरदिल अजीज
शख्स से मुंहजोरी का है। वे गुलजार साहब की हंसी उडाने की जुर्रत कर बैठे, मजाक उडाने के अंदाज में उनके गीत- कजरारे कजरारे... की तारीफ करने लगे। आखिर कोई भी प्रसंशा और व्यंग्य का फर्क समझ सकता है, फिर गुलजार साब जैसे संवेदनशील गीतकार जो भगत की तरह एक किताब से प्रसिद्ध नहीं हुए, वे कैसे न समझ पाते। गुलजार साब ने चेतन से उलटा ही सवाल कर डाला, जाहिर है चेतन निरूत्तर हो गए। पापुलर होने से कोई विद्वान नहीं हो जाता, यह बात चेतन भगत और उन जैसे सभी नवप्रसिद्ध नवधनाढयों को समझना चाहिए। चेतन एक दफा भोपाल आए थे तो हमारे एक साथी के सवाल पर उनका ही उत्तर था कि हम तो वो लिखते हैं जो बिकता है। इस देश में प्रेमचंद, टैगोर, राहुल सांस्क्रत्यायन, गांधी, नेहरू, बंकिमचंद्र, शरतचंद्र, रेणु, नागार्जुन, बाबू देवकीनंदन खत्री जैसे महान लेखकों और व्यक्तित्वों की श्र्रंखला है। कोई भी अपने अग्रजों से इस तरह का व्यवहार नहीं करता जैसा करने की चेष्टा भगतजी कर रहे थे। न ही उनकी तरह कोई गोत्र के खिलाफ इस तरह अतार्किक होकर बोला और न ही लिखा। चेतन भगत सामाजिक बुराई किसी चीज को मानते भी हैं तो ऐसे लिखने से तो आग में घी डालने जैसा ही है, जो कोई भी कर सकता है। समाज सुधार राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, महात्मा गांधी की तरह ही किया जा सकता है, जो पैसे के लिए नहीं लिखते थे। बदलाव के लिए हर संभव कार्य करते थे, लिखना उनमें से एक उपाय था। वे आधुनिक जीवन शैली के लिए प्रचुर धन पाने के लिए नहीं लिखते थे। लिखे का असर तभी होता है जब हम वैसे हों और धन कमाने के लिए न लिख रहे हों। धन कमाने के लिए लिखना है तो फिर एक ..... में और लेखक में फर्क ही क्या है?

शनिवार, 22 मई 2010

मन के भीतर भी खिलता है कोई फूल जैसे गुलमोहर

चिलचिलाती धूप हो कि संघर्षों की तपन,
बैचेन होता है तन और मन भी हो जाता है उदास
कि मिल जाए कहीं छांव सजर की
कि मिल जाए छांव आंचल की
तपती दुपहरी में बैचेन मन को सुकून देती हैं यादें
वो पल वो लम्हे जो कभी बीते थे स्नेह की, प्रेम की छांव में।

ऐसे ही संघर्ष पथ के पथिक को
चिलचिलाती धूप में भी
होती है इक उम्मीद
कि मिल जाएगा अभी कुछ ही देर में सायेदार पेड
जो दे देगा पिता की तरह भरोसा
बेटा संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता,
चलते रहो चलते रहो इसी तरह

अलसायी सी दोपहर में जब सूर्य होता है रौद्र रूप में
बरसते हैं अंगारे आसमान से
तो अमराई में आम के पेड के तले
दोस्तों के संग लेटे लेटे
लगते हैं भले लू के थपेडे भी
काश! कि लौट आएं वे दिन
पूरी दुपहरी बिता दें आमों तले
करें जमकर हंसी ठिठोली

वे दिन जब हॉस्टल की खिडकी पर
हरी हरी शाखें सजर की करतीं थीं बातें सी
और जैसे जैसे चढता था सूरज का ताप
उनमें खिलने लगते थे चटक लाल रंग के फूल
मन भी हो जाता था खिला खिला,
उदासी भी हो जाती थी जाने कहां तिरोहित
आज सोचता हूं वे भी क्या दिन थे
खिलता है अब भी सजर गुलमोहर का
पर रंग अब उतने चटक नहीं लगते
उदासी अब तिरोहित नहीं हो पाती
जाने क्या बात है, सजर भी अब उदास है
दरअसल यह सब तभी भाता है मन को
जब बाहर की तरह मन के भीतर भी
खिलता है कोई सूर्ख फूल जैसे गुलमोहर
-सतीश एलिया

शनिवार, 15 मई 2010

एक साल.. और सैकड़ा हुआ पार.. शुक्रिया मेहरवानी, करम


दोस्तों ठीक एक साल पहले 15 मई 2009 की दोपहर इस ब्लॉग बेबाकवाणी का जन्म हुआ था। आज पहली सालगिरह है। 365 दिन में सौ पोस्ट आपकी अदालत में पेश हो चुकी हैं। इसमें सामयिक, राजनीतिक टिप्पणियां ज्यादा हैं। वजह है मेरा खबरनवीस होना। हालांकि कविताएं और दिल की बातें भी यदा कदा लिखता रहा। मेरा अनुभव है कि अखबार में भी और ब्लॉग पर अब लोग राजनीतिक बातों को उतना पसंद नहीं करते। मेरी अब तक की पोस्ट की अलग अलग पाठक संख्या भी इस निष्कर्ष की ताईद करती है। लोग दिल की बातें न केवल पढते हैं बल्कि उन्हें संवेदना के धरातल पर महसूस भी करते हैं। राजनीतिक टिप्पणियों में वे ही पोस्ट ज्यादा पढी गईं जिनमें मानवीय मूल्यों की तरफदारी करते हुए जनता को बेवकूफ बनाने वालों को शब्दों के झापड मारे गए। मेरी सबसे ज्यादा पढी गई पोस्ट रही- अब आई लालू की अक्ल ठिकाने...। रही जबकि मप्र के मुख्यमंत्री के बारे में पोस्ट- भाभीजी की तबियत अब कैसी है...। दूसरे नंबर पर रही। बहरहाल संतोष है कि पाठक संख्या साढ.े तीन हजार पार कर चार हजार की तरफ अग्रसर है। समय समय पर टिप्पणी करने वाले मित्रों को धन्यवाद, शुक्रिया, मेहरबानी, करम। ऐसा ही साथ बनाए रखिए और बेबाकवाणी के बारे में बेबाक टिप्पणी देते रहिए।

रोने भी नही दोगे तो कहां जायेंगे

माया महाठगिनी हम जानी .. कि जगह राजनीति महाझूटी हम जानी कहा जाये तो ज्यादा सटीक होगा। मध्यप्रदेश में भाजपा और कांग्रेस में जो तमाशा चल रहा है। वो जनता के साथ तो मजाक सा तो बन ही गया है अब भावनाओं कि मानवीय अभिव्यक्ति को भी इस प्रहसन में शामिल कर हंसी उड़ाई जा रही है। भाजपा विधायक ललिता यादव को विधानसभा जाते वक़्त कांग्रेस विधायकों कि फब्तियों का सामना करना पड़ा। जब उन्होंने यह बात विधानसभा में बताई तो स्पीकर रोहानी रो पड़े। इस वाकये को कांग्रेस ने अपनी संगोष्ठी में १९ साल पुरानी घटना से जोड़ कर कांग्रेस विधायक अजय अर्जुन सिंह भी रो पड़े। यहाँ तक तो ठीक है लेकिन शुक्रवार को कांग्रेस नेताओं ने चोराहे पे रास्ता रोककर जनता को भरी गर्मी में रास्ते भटकने पे मजबूर किया। दूसरी तरफ विधयाकों ने खली बाल्टी लेकर प्रदर्शन किया। इसमें भी गोविन्द राजपूत रोने लगे। रोने को मजाक बना दिए जाने के यह प्रहसन उस वक़्त चल रहे थे जब मंडला में करंट लगने से २८ लोग बस में खाक हो रहे थे। सरकार विधानसभा में प्रतिपक्ष कि गैर्मोजूदगी में मध्यप्रदेश को स्वर्णिम बनाने कि योजनाओं पे खुद ही घोषणा कर अपनी ही पीठ थपथपा रही थी। जनता विधायक चुनती है। जनहित के काम करने के लिए ना कि आपस में तमाशे कि होड़ के लिए। ये नेता जनता को दुःख तकलीफ में रोने भी नही चाहते। इनका नारा है तकलीफें तुम्हे हसने नही देंगी और हम तम्हे रोने नही देंगे.

शुक्रवार, 14 मई 2010

वे भी और ये भी.. कर रहे हैं नाटक

खोखले नारों से विकास और थोथे विरोध प्रदर्शन भारतीय राजनीति को प्रहसन से ज्यादा पहचान नहीं देते, नतीजा आजादी के पैंसठ बरस बाद भी बुनियादी समस्याएं जस की तस हैं। लोगों में नागरिक जिम्मेदारी का भाव है ही नहीं। मध्यप्रदेश विधानसभा में चार दिन का विशेष सत्र बुलाया गया, घोषित लक्ष्य था मप्र को स्वर्णिम बनाने के एक सूत्रीय एजेंडे पर चर्चा कर रोडमैप बनाना था। लेकिन सामान्य सत्रों मंे ही प्रदेश के विकास पर न पक्ष और न ही विपक्ष की खास रूचि नजर आती है, ऐसे में विशेष सत्र पर राजनीतिक खींचतान अवश्यंभावी थी। विपक्ष ने पहले तो सत्र पर हामी भर दी और फिर सत्र को असंवैधानिक करार देकर उसका वहिष्कार कर धरना, समानांतर संगोष्ठी और मसखरे अंदाज में सरकार की खिल्ली उडाई। असल में 10 साल दिग्विजय सिंह के नेत्रत्व में कांग्रेस की सरकार रही और मप्र को बीमारू राज्य का तमगा मिलना ही इकलौती उपलब्लिध रही, इसी वजह से जनता ने भाजपा को मौका दिया। लेकिन जिन वादों पर सरकार बनी थी उसे पहले पांच साल और दूसरी बार सरकार बनने के करीब डेढ साल में कुछ खास नहीं निभाया जा सका। मसलन बिजली के मामले में हालात लगभग वैसे ही हैं। गांवों में 18 घंटे और शहरों में दो से 12 घंटे तक बिजली गुल रहती है। हां सडकों के मामले में हालात अच्छे हो गए हैं। भ्रष्टाचार के मामले दिग्विजय सरकार की तुलना में अब ज्यादा सामने आए हैं, भाजपा भ्र्रष्टाचार को मुददा बनाती रही और अब उसके राज में कई मंत्रियों के अलावा खुद मुख्यमंत्री तक आरोपों से घिरे हुए हैं। लेकिन विपक्षी दल कांग्रेस कई गुटों में बंटी होने की वजह से ऐसा कुछ नहीं कर पाई है कि लोग उसके दस सालों के कुशासन को भूल कर भाजपा को अपदस्थ करने में कांग्रेस को विकल्प के तौर पर देखने लगें। कांग्रेस और दिग्विजय सिंह को जिन उमा भारती के नेत्रत्व में भाजपा ने अपदस्थ किया था, उनकी घर वापसी की प्रबल संभावनाओं के बीच अपना दबदबा बनाए रखने की कोशिश में शिवराज ने स्वर्णिम मप्र के नाम पर विशेष सत्र बुलाने की जो रणनीति बनाई वह उनके लिए मुसीबत ही बनती नजर आई। विशेष सत्र भाजपा का कार्यक्रम बनकर रह गया। ऐसे में जनता को यह समझ नहीं आ रहा है कि लगातार दो बार मप्र के विकास के नाम पर जनादेश देने के बाद अब भाजपा सरकार को मप्र को स्वर्णिम बनाने से आखिर रोक कौन रहा है? विशेष सत्र की जरूरत क्यों पड़ी ? कांग्रेस के सदन से दूर रहकर बाहर प्रहसन पर भी जनता जानना चाहती है कि आखिर उन्होंने 10 साल में कुछ क्यों नहीं किया था, अब आखिर किस योग्यता पर उन्हें फिर से अवसर मिलना चाहिए?

रविवार, 9 मई 2010

तुमने जो सिखाया माँ

जब भी लगती है कोई चोट
चड़ता है ताप
लगती है कसके भूख
सूख जाता है प्यास से कंठ
लगता है डर भव्तिव्य्ताओं से
लोग लगातार करते है परेशान
तो बरबस याद आता है कौन
तुम तुम तुम -- और कौन
हाँ माँ तुम
में जानता हूँ तुम नही दे सकतीं मुझे
येंसी कोई सलाह जिससे काट फेंकू में
षड्यंत्रों का जाल
तुम कहोगी सब भगवन पे छोड़ दे बेटा
जब तुमने किसी का बुरा नही किया तो
कोई तुमारा बुरा नही कर पायेगा
लेकिन मेरी भोली माँ
किसी का बुरा नही करना ही बन गया हे इस दौर में बुराई
जो दूसरों कि राह में बो रहे हैं कांटे उनको ही मिल रहे हैं फूल
तुम ही बताओ माँ
कहाँ कमी रही गई
तुमने सिखाया सच बोलना डरना मत
किसी का दिल मत दुखाना
थोड़े में संतोष रखना
यही सब करता हूँ हार जाता हूँ माँ
तुम्हारी सीख को गलत साबित करने में
लगा है जमाना
बहुत बहुत अकेला पड़ जाता हूँ माँ
कल रात फिर सपने में देखा तुम्हे
आके गले लगा लो ना माँ
...........




सतीश एलिया

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

वे बो रहे हैं मप्र की पहली महिला वाइस चांसलर की राह में कांटे

कांग्रेसअध्यक्ष, यूपीए चेयरपर्सन महिला, लोकसभा में अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष सभी महिलाएं, महिला आरक्षण बिल पर यादव त्रयी को छोडकर सभी पक्ष विपक्ष एक साथ। टीवी पर, अखबार में, हवाई जहाज में, नासा में अंतरिक्ष में सभी जगह महिलाओं ने अपनी ताकत दिखा दी है। मप्र के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर ने बरकतुल्ला विश्वविद्यालय भोपाल में प्रो.निशा दुबे को कुलपति बनाकर राज्य की पहली महिला वाइस चांसलर की नियुक्ति की। इस बात की तारीफ मीडिया में जमकर हुई। लेकिन जब सोमवार को प्रो. दुबे विवि में कुलपति पद का काम सम्हालने पहुंचीं तो उनको विवि प्रशासन के अफसरों से लेकर उन प्रोफेसरों तक ने कोई तवज्जो नहीं दी जो अब तक के सभी कुलपतियों के लिए गुलदस्ते लेकर उनके निवास से लेकर कुलपति कार्यालय के द्वार तक पलक पांवडे बिछाए खडे होते आए थे। आइएएस,आइएफएस और आईपीएस अफसर भी इस विवि में कुलपति रहे और इनमें से कोई भी ऐसा नहीं रहा जिसे भारी विवाद, झगडों टंटों के बाद विदा न होना पडा हो। कार्यवाहक कुलपतियों की भी लंबी परंपरा है बल्कि हर कार्यवाहक नए कुलपति की चयन की सूची में शामिल होता रहा। निशा दुबे को हत्सोसाहित करने का माहौल केवल इसलिए नहीं बना कि कार्यवाहक कुलपति प्रो. पीके मिश्रा की नियुक्ति तय मानी जा रही थी और फिर भी नहीं हुई। इसकी असल वजह प्रो. दुबे का महिला होना है, यह ठीक वैसा ही जैसा भाजपा में उमा भारती के साथ हुआ, क्योंकि वे मायावती या जयललिता नहीं हैं। निशा दुबे को कुलपति बनाने वाले लोगों की मंशा नारी सशक्तिकरण की दिशा में एक और कदम उठाया गया साबित करने की थी और वह साबित भी हुई लेकिन बरकतुल्ला विवि प्रशासन और प्राध्यापकों ने साबित करने की कोशिश की है कि वे किसी महिला को कुलपति पद पर सफल नहीं होने देंगे। आश्चर्य तो इस बात का है कि मीडिया ने प्रदेश की पहली महिला कुलपति की नियुक्ति को पॉजीटिव मानते हुए भरपूर तवज्जो दी लेकिन जब वे फीके माहौल में कार्यभार ग्रहण कर रही थीं तक कुछ पत्रकार बाहर खडे होकर यह चर्चा कर रहे थे कि मैडम चल नहीं पाएंगी। यह जुमले विवि प्रशासन के जिम्मेदार पदों पर सालो से जमे हुए और विभागों में जडें जमाए बैठे लोग भी बोलते सुने गए थे। अब देखना ये है कि महिला को कुलपति बनाने वाले और खुद प्रो. निशा दुबे विवि में जमे कॉकस का तिलिस्म किस तरह तोड. पाते हैं। नई कुलपति को नजदीक से जानने वाले बताते हैं कि उनका कम्युनीकेशन और एडमिनिस्ट्रेटिव पॉवर स्ट्रांग है, देखना ये है कि बरकतुल्ला विवि सही अर्थ में विवि की गरिमा हासिल कर पाता है या नहीं।

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

क्रिकेट ke हर्षद ललित मोदी के बाद अब क्या

फटाफट क्रिकेट के हर्षद मेहता ललित मोदी को गरजते हुए भी पैवेलियन लौटा दिया गया है। लेकिन ग्लेमर , पैसा, जलवे के इस अरीना में अब भी मोदी के भरपूर मात्रा में मौजूद हैं। आईपीएल सर्कस के रिंग मास्टरों की फौज में राजनीति वाले आका तो अब भी खेल में और सरकार में बने ही हुए हैं। सिने तारिका से लेकर धन लक्ष्मियों तक के लाडले मोदी अब क्या करेंगे इस पर सब की नजर है। नजर सरकार और बीसीसीआई पर भी है कि वे मोदी उपकृतों को बख्शने के लिए सेफ पैसेज के लिए क्या बहाने गढते हैं। चुनाव कि तारीखों में परीक्षाओं कि तारीखों पर चुनाव आयोग में बहस करने वाले राजनीतिक दलों ने आईपीएल तमाशे की तारीखों में भी एगजाम्स डेट का ध्यान नहीं रखा। पढाई के लिए और सिंचाई के लिए बिजली भले न मिले लेकिन क्रिकेट धनवर्षा के लिए चकाचौंध का भरपूर इंतजाम बनाए रखने वाली सरकार के कर्ताधर्ताओं को और भी कई सवालों के जवाब देने हैं। भरपूर विज्ञापन बटोरने वाले मीडिया ने भी इससे पहले आईपीएल को लेकर जनता के सवाल नहीं उठाए। उन्हें भी आत्म अवल कन कर लेना चाहिए।

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

यह तो होना ही था इस सुरूर का

आखिरकार संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अतिरिक्त महासचिव शशि थरूर अब पूर्व विदेश राज्य मंत्री हो गए। यह तो होना ही था, प्रधानमंत्री विदेश यात्रा के दौरान ही इसके संकेत दे चुके थे। आखिर कांग्रेस को भारत में राजनीति करना है और थरूर, सरकोजी के अंदाज और मिजाज वाले आदमी हैं। पश्चिम की जनता ऐसे आदमी को नेता मान लेती है लेकिन भारतीय मानस और दल ऐसा नहीं कर सकते। सोनिया गांधी को इटालियन होते हुए भी आज भारत के सभी वर्गों और लोगों यहां तक कि मजबूरी में ही सही दलों में भी सम्मान प्राप्त है, तो इसलिए कि उन्होंने भारतीय महिला के संस्कार किसी भारतीय महिला से एक कदम आगे रहकर अपनाकर दिखाए हैं। थरूर पश्चिमी रंग ढंग में और उस पर भी पार्टी और सरकार के अनुशासन से उपर उठकर चलने वालों में से हैं। इस देश में आज भी महात्मा गाँधी ही आदर्श हैं। यहाँ तक कि ओबाबामाहैं के भी। आईपीएल की कोच्चि टीम, सुनंदा पुष्कर को लाभ दिलाने जैसे कारण तो सतह पर हैं। हालांकि वे हैं वे इतने गंभीर हैं कि सरकार चाहती तो भी थरूर का आईपीएल और सुनंदा का सुरूर झेल नहीं पाती। आखिर सरकार की महिला बिल के मामले में हालत यह है कि उसे यूपीए को तो साधे ही रखना है विपक्षी दलों खासकर भाजपा को भी गुडविल में रखना है। थरूर के सुरूर का तो ये अंत हुआ। अब बडबोले और मनमाने ढंग से आईपीएल क्रिकेट के पिच, बॉल, बल्ला, विकिट और स्टेडियम बन बैठे ललित मोदी की बारी है। राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के मुंहलगे होने की वजह से क्रिकेट के किंग बनने का सफर पूरा कर सके ललित के जाने की उलटी गिनती भी शुरू हो गई है। अपने रिश्तेदारों को भरपूर लाभ देने, क्रिकेट एसोसिएशन के सदस्यों को डिक्टेट करने और मीडिया से बदतमीजी करके उन्होंने जो बोया है उसे वे काट भी नहीं पाएंगे बल्कि बोया हुआ और उनकी तथाकथित प्रतिष्ठा खाक होने ही वाली है। उनके जलवों की कई पर्तें अब धीरे धीरे खुलेंगी और कम से कम दो तीन महीने तो सुर्खियों में बने रहेंगे। मीडिया के पास अब हिसाब चुकाने का सुनहरा मोका है और अब तक के अनुभव बताते हैं कि इसमें मीडिया कोई चूक नही ही करेगा।

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

ऑनर किलिंग की जड़ गलत कानून में है

हरियाणा मेंं खाप पंचायतों के ऑनर किलिंग वाले फैसलों के खिलाफ मीडिया और तथाकथित आधुनिकतावादी जो स्यापा कर रहे हैं, वे समस्या की जड़ में जाने की जहमत क्यों नहीं उठा रहे हैं। मैं यहां स्पष्ट कर दूं कि किसी भी तरह की हत्या को जस्टीफाइ नहीं किया जा सकता, क्योंकि सजा के सभ्य तरीके भी होते हैं। लेकिन अब जबकि मप्र के इंदौर में भी सगोत्र विवाह करने का मामला सामने आया है और उसमें बहिष्कार की सजा तजवीज की गई है तो मैं इस मामले पर गंभीरता से अपनी बात कहना चाहता हूं। हिंदुओं की कई जातियों और उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम भारत के हिंदुओं में विवाहों को लेकर अलग अलग रिवाज हैं। हिंदू मैरिज एक्ट में इनका पूरी तरह ध्यान नहीं रखा गया। मसलन आंध्र और तमिलनाडु में मामा का भांजी से विवाह श्रेष्ठ माना जाता है और मप्र,उप्र, बिहार, राजस्थान, हरियाणा,उत्तराखंड में यह पाप की श्रेणी में है। इसी तरह समूचे उत्तर भारत में अपने गोत्र में और यहां तक की मामा, नाना के गोत्र में भी विवाह संबंध नहीं हो सकते। यह मान्य परंपरा है। हमारे यहां शादी के लिए कुंडली मिलान की पहली शर्त ही यह होती है कि खुद का और मामा का गोत्र अलग अलग हो तो ही बात आगे बढ़ती है। सगोत्र विवाह निषेध न केवल शास्त्र सम्मत है बल्कि मेडिकल साइंस के लिहाज से भी ऐसे विवाह जेनेटिकली डिसआर्डर की तरफ जाते हैं। हरियाणा और पश्चिमी उप्र में सगोत्र लडक़े लड़कियों के प्रेम होने और फिर समाज के भय के बावजूद विवाह होने के पीछे लडक़े और लड़कियों की संख्या में फर्क होना एक बड़ा कारण है। दूसरा बड़ा कारण है मप्र, उप्र, बिहार, राजस्थान समेत अन्य उत्तर भारतीय राज्यों के लोगों ने गोत्र को बचाते हुए समान जातियों और उपजातियों में क्षेत्र और राज्य के बाहर जाकर विवाह करने का रास्ता स्वीकार कर लिया। इस वजह से अन्य इलाकों में सगोत्र विवाह की मजबूरी और फिर गोत्र बचाने की खातिर हत्या जैसे जघन्य कदम उठाए जाने की नौबत नहीं आई। मेरी समझ में तो न बच्चे गलत हैं और नही गोत्र के तरफदार। असल समस्या को समझकर खाप पंचायतों, बिना राजनीतिक नफा नुकसान का गणित लगाए राजनीतिक दलों, सरकारों, आधुनिकता की अंधी रौ में बहने वाले मीडिया और कानूनविदों को रास्ता खोजना होगा। अन्यथा सामाजिक तानाबाना यूं ही बिखरता रहेगा, पिता, भाई ,मामा हत्यारे बनते रहेंगे और मासूम बच्चे मारे जाते रहेंगे।

रविवार, 4 अप्रैल 2010

9/११ से अमेरिका ने सबक लिया हमने मुंबई से क्यों नहीं

जम्मू कश्मीर और आसाम के पूर्व राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा इतवार को भोपाल में थे। पत्रकारिता विस्वविध्यालय में व्याख्यान में उन्होंने कई बातें बताईं। उन्होंने बताया की कश्मीर में कश्मीरी मुसलमान ४३ परसेंट हैं यानि बहुमत नही है। देश में २६ परसेंट लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं जबकि कश्मीर में महज ३.७ प्रतिशत लोग ही इस श्रेणी में हैं. कश्मीर की प्रति व्यक्ति आय अन्य राज्यों की तुलना में १० गुना ज्यादा है. घाटी का मीडिया ज्यादा भारत विरोधी है पाकिस्तानी मीडिया उससे काफी कम। श्री सिंहस ने कहा की भारत की पाकिस्तान पर सैनिक स्रेस्ठता पूरे महाद्वीप के लिए जरूरी है.
श्री सिन्हा ने कहा की २६/११ के बाद अमेरिका ने जिस तरह के कदम उठाये थे भारत सरकार ने २६/११ के बाद नही उठाये। अमरीकी एजेंसियों ने मुंबई हमले के मामले में यहाँ आकर जांनकारी ली लेकिन अब हैडली देने से मना कर दिया। दो देशों के बीच गैर बराबरी के रिश्ते किस काम के।

रविवार, 28 मार्च 2010

अमिताभ बाबु और दोगली राजनीति

अमिताभ बच्चन की फिल्म डॉन में एक गाना था किशोर दा का गाया- ई है बंबई नगरिया तू देख बबुआ..। इसके एक अंतरे में आता है कोई बंदर नहीं है फिर भी नाम बांदरा। बबुआ अमिताभ बच्चन जब बांद्रा वर्ली सी लिंक के उदघाटन समारोह में लोक निर्माण मंत्री के न्यौते पर विशेष अतिथि बने तो कांग्रेस की दो तरह की राजनीति का झंडा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने उठा लिया। कार्यक्रम में अमिताभ से गुफ्तगू की और बाद में सोनिया गांधी को खुश करने और अपनी पार्टी में अपने विरोधियों को मुददा बनाने से रोकने कह दिया की अमिताभ के आने का पता होता तो मैं न आता। बांद्रा एरिया के सिपाही से बड़ापाव वाले तक को मालूम था मेगा स्टार अमिताभ बच्चन पहुंच रहे हैं, भोले मुख्यमंत्री को नहीं पता था? क्या खूब हैं चव्हाण साब की मासूमियत, क्या इतने ही अनभिज्ञ मुख्यमंत्री की जरूरत किसी भी प्रदेश को होती है? अगर नहीं तो फिर चव्हाण कैसे जमे हुए हैं, देशमुख को बेदखल करवाकर. अमिताभ बाबू ने भी गजब पलटवार किया है। क्यों भाई रतन टाटा नैनो प्लांट बंगाल से गुजरात में लगाते हैं तो बायकाट क्यों नहीं करते चव्हाण, बच्चन गुजरात के ब्रांड एंबेसेडर हैं तो उन्हें महाराष्ट्र सरकार के बुलावे पर भी नहीं जाना चाहिए क्या.शिवसेना के बूढ़े शेर चुनाव में पिटे पिटाये बाल ठाकरे ने अमिताभ का पक्ष लेने में फिर शाहरूख को मोहरा बनाने की कोशिश की है। यह भी बदनीयती है। महाराष्ट्र या मुंबई से बाहर वाले सब चले भी जाएं और ठाकरे से लेकर चव्हाण तक की मंशा पूरी भी हो जाए तो कल्पना कीजिये की क्या होगा, आमची मुंबई और जय महाराष्ट्र का .अच्छी बात ये है की महाराष्ट्र में बहुमत जनता वैसा नहीं सोचती जैसा ठाकरे कुनबा या congress के नेता सोचते हैं। हां मुलायम सिंह के सीटी वाले फूहड़ coment का जया भादुड़ी बचाव करती नजर आ रही हैं, यह जरूर शेमफुल है। आखिर बच्चन परिवार राजनीति और उनके नेताओं में इस तरह क्यों रूचि लेता है की उनके विरोध और समर्थन में सच बात भी ढंकने की कोशिश की जाती है। भोपाल में शत्रुघ्न सिन्हा ने जरूर पते की बात कही कि बच्चन बाबू हाजमोला से लेकर तेल मालिश, बोरो प्लस और बांद्रा वर्ली सी लिंक समारोह में आखिर क्यों नजर आते हैं? यह व्यक्ति कि स्वतंत्रता कि बात है जो संविधान में हम आपकी तरह अमिताभ को भी हासिल है। लेकिन अमिताभ बच्चन मेगा स्टार, मिलिनियम स्टार जैसे दर्जनों तमगो से नवाजे जा चुके हैं, उन्हें गरिमा बनाए रखने पर विचार करना होगा। क्या हम कलाम साहब को विधानसभा चुनाव लड़ते या अटलजी को पार्षद उम्मीदवार बनते देख सकते हैं, अमिताभ असल में विज्ञापनों में पैसा बटोरते ऐसे ही लगते हैं। उन्हें सिलेक्टिव तो होना चाहिए, क्योंकि वे आज भी लाखों लोगों के चहेते हैं, उनका स्तर गिरते देख अच्छा नहीं लगता।
उन्हें पैसे के लिए कुछ भी करेगा स्लोगन त्याग देना चाहिए और कुछ क्रिएटिव करना चाहिए देश के लिए.

शनिवार, 27 मार्च 2010

अर्थ आवर मूवमेंट में मप्र अव्वल

बड़ी अच्छी बात है कि दुनिया भर में आज रात एक घंटे बिजली बंद कर धरती और पर्यावरण को बचाने की मुहिम चलाई जाएगी। निश्चित ही काबिले तारीफ है यह अभियान। दुनिया भर में पर्यावरण बचाने की कई तरह की कोशिशों में से एक यह अर्थ आवर मूवमेंट भी है। बिजली गुल करने से पर्यावरण बचाने में हमारा हिंदुस्तान दुनिया के विकासशील देशों को तो छोडि़ए विकसित देशों में भी अव्वल है। इसमेंं भी हमारा मप्र तो सिरमौर ही कहा जाना चाहिए। क्योंकि यहां जिला मुख्यालयों में रोज चार घंटे, तहसील मुख्यालय वाले छोटे शहरों में 11 घंटे और संभाग मुख्यालय वाले शहरों में एक घंटे रंोज घोषित कटौती होती है। अघोषित बिजली गुल होने के घंटे अलग से हैं जो तय नहीं हैं। औसतन दो से 18 घंटे तक बिजली गुल करने वाला हमारा मप्र अर्थ आवर मूवमेंट वालों के लिए आदर्श हो सकता है। दस साल तक कांग्रेसी मुख्यमंत्री दिगिवजय सिंह ने यह मूवमेंट चलाया। बिजली गुल होने को मुददा बनाकर कांग्रेस को सत्ता से हटाने वाली भाजपा सरकार के तीन मुख्यमंत्रियों उमा भारती, बाबूलाल गौर और अब लगातार दूसरी दफा सीएम बने शिवराज सिंह चौहान के राज में भी मप्र में बिजली कटौती के घंटे करीब करीब उतने ही हैं। भारत में अर्थ आवर मूवमेंट के समर्थकों और मीडिया से अनुरोध है कि आज 27 मार्च को वे मप्र के योगदान को भी याद रखें और जब मौका लगे हमारे प्रदेश की सरकार और उसके कर्ताधर्ताओं को सम्मानित भी करें। क्योंकि उन्होंने भरपूर बिजली का चुनावी वादा पूरा करने के बजाय अर्थ आवर मूवमेंट को नया अर्थ देकर खासा सपोर्ट देने का रास्ता चुना है। चुनावी वादों का क्या है, अगले चुनाव में फिर नया वादा कर देंगे, धरती और पर्यावरण बचना चाहिए, सो वे बचा रहे हैं।

रविवार, 7 मार्च 2010

क्या क़तर में न्युड बना पाएंगे मकबूल मियां


कतर के नागरिक और अप्रवासी भारतीय हो गए एमएफ हुसैन को लेकर इन दिनों पूरे देश में और अंतरराष्टीय कला जगत में चर्चा है। हमारे मप्र में इंदौर में जन्मे पले बढ.े मकबूल भाई ने जो कदम उठाया है, उसके समर्थन में अब तक तो किसी ने कोई बयान नहीं दिया है। क्योंकि उन्होंने कतर जैसे देश की नागरिकता ली है, जो उनके जैसे स्वच्छंद पेंटर के विचारों वाला देश तो कतई नहीं है। वे फ्रांस, जर्मनी या अमेरिका की नागरिकता पा लेते तो बात समझ में भी आती। क्योंकि वहां चित्रकार की स्वतंत्रता और काफी हद तक समर्थन मिलता है लेकिन कतर! जाहिर है वे वहां वो सब नहीं कर पाएंगे जिसकी वजह से वे मकबूल हुए हैं। उन्हें सेलिब्रिटी पेंटर भारत की जनता ने ही बनाया और माना है, जाहिर है भारत कोई अनडेमोक्रेटिक और कटटर मुल्क नहीं है इसीलिए यह संभव हो पाया। कटटर पंथी और प्रतिक्रियावादी किस देश में नहीं होते सो भारत में भी हैं, और उन्हें भी विरोध का हक है। हुसैन ने सरस्वती, दुर्गा और भारतमाता को जिस ढंग से चित्रित किया और अपनी खुद की मां की जो तस्वीर बनाईं उनका फर्क लोगों की नाराजगी की मूल वजह है। देवी देवताओं को नग्न चित्रित करना और मां को सहज चित्रित करने की बात लोगों को दोगलापन लगी, और उन्होंने गलत तरीके से विरोध किया। इन तरीकों का न तो मुखयधारा का भारतीय समाज समर्थन करता है और न ही कानून। तो फिर इंदौर के मकबूल फिदा हुसैन क्या हासिल करने कतरी हो गए! विरोध शाहरूख खान का भी हुआ और सचिन तेंदुलकर को भी फतवे सुनाए गए लेकिन पूरा देश इन सेलिब्रिटी के साथ उठ खड.ा हुआ, फतवे कूड.ा हो गए। इस देश में कटटरपन ज्यादा नहीं चलता, यह बात कभी जलालुददीन मोहम्मद अकबर ने समझी थी, भाजपा ने थोडा बहुत समझने की चेष्टा की है, शिवसेना और उसी कुनबे के राज ठाकरे खुद को खत्म करने की तरफ बढ रहे हैं। मकबूल भाई ने सरस्वती और दुर्गा को जिस ढंग से चित्रित किया था उससे मेरे जैसे करोडों लोग अप्रसन्न हुए थे लेकिन हम लोग ठाकरे या ऐसे ही किसी कटटरपंथी के साथ नहीं हैं, कानून अपना काम करेगा। मकबूल मियां को यहां वापस लौटकर कानून के निजाम को मानना चाहिए था, कटटरपंथी न शाहरूख का कुछ कर पाए और न वे हुसैन का कुछ कर पाएंगे।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

यारो,वो भी राहुल है और एक ये भी राहुल

साब आजकल टीवी देखने का तो धरमई नईं बचा, जाने कैसे कैसे नाटक आते हैं, एक जमाना था बुनियाद, हम लोग, दाने अनारे के, मिर्जा गालिब, गणदेवता, कब तक पुकारूं, चाणक्य जैसे सीरियल आते थे। भोपाल बीना पैंसेजर के जनरल डिब्बे में दो युवा उम्र को पार कर अधेड अवस्था की दहलीज पर खडे लोग टाइम पास कर रहे थे। दूसरे ने बोला अब साब एकता कपूर के सीरियलों से मुक्ति मिल गई है कुछ ग्रामीण प्रष्ठभूमि वालेे सीरियल बालिका वधू जैसे और प्यार न होगा कम जैसे हम मध्य वर्ग वालों की बात कहने वाले सीरियल आने लगे हैं। लेकिन साब ये जो स्वयंवर टाइप के फूहड अफसाने शुरू हुए हैं, ये तो बिल्कुल नहीं झेले जा सकते। तीसरे ने चर्चा में हिस्सेदारी करने की कोशिश की। पहले सज्जन बोले- अरे अब एक और स्वयंवर शुरू हुआ है, आइटम गर्ल राखी सावंत की नोटंकी के बाद नया अवतार। इसमें भाजपा के महान नेता प्रमोद महाजन के नालायक पुत्र राखी की जगह स्वयंवर रचाने उतर रहे हैं। तीसरे सज्जन इस पर नाराज होते हुए कहने लगे-अरे जिस लडके ने अपने पिता की अस्थियों का कलश सामने रखकर शराब और स्मेक का नशा किया पिता के पीए की मौत हुई उस घटना में, इसके चंद रोज बाद अपनी मर्जी से लव मैरिज की ओर पत्नी बनी प्रेमिका को पीटा, तलाक हो गया; अब उसका स्वयंवर ये टीवी वाले करवा रहा है, हद है ये तो। दूसरे सज्जन ने कहा जो घटिया है वही बिकता है, मीडिया और मनोरंजन वाले इसी फार्मूले पे चलते हैं। तीसरे महाशय फिर बोले साब यही छिछोरे राहुल महाजन फिल्म एक्टर सचिन के साथ मंच पर जज बनकर भी बैठते रहे हैं। अरे साब ये तो संस्कार की बात है, राहुल गांधी को देख लो और इन राहुल महाजन को देख लो दोनों में कितना अंतर है। राहुल ने मंत्री पद नहीं लिया, देश भर में युवाओं को लोगों को जानने के लिए घूमता रहता है। कभी बडी बडी और झूठी बातें नहीं करता। यह बातचीत चल रही थी कि चैथे सज्जन कूद पडे चर्चा में। तनिक गुस्से में बोले- आप तो भाई साब कांग्रेसी लग रहे हैं, इसलिए राहुल बाबा की तारीफ कर रहे हैं। इस माहौल में एक बुजुर्ग बोले देखो साब अपना स्टेशन आने में पांच मिनिट हैं, राजनीति की बात मत करो, तबियत पहले से ही ठीक नहीं है, और खराब हो सकती है। इस पर बाकी सब यात्री एक सुर में बोले हां भाई राजनीति की बातें तो करो ही मत, यही तो सब गडबड की जड है। बंबई में हिंदी वालों को मारने वाले ठाकरे कुनबे को न ये कांग्रेसी कुछ कह पाते हैं और न ही भाजपा वाले, बस पाकिस्तान को गालियां दिलवा लो, हरकतें उसकी भी बंद नहीं कर पाते और इन ठाकरे परिवार की गुंडागर्दी को ही रोक पाते। मुझे विदिशा उतरना था, चर्चा में भाग ले रहे चार में से दो भी उतर गए। ट्रेन चलने को ही तो चर्चा बंबई की शुरू हो गई।

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

अरे खां अपना सैफू तक पदमसिरी हो गया


एक दिन सुबह सुबह में भोपाल की सब्जी मंडी पहुंच गया, गरज थी आसमान पर टंगे सब्जी के भाव मंडी में थोडे से नीचे नजर आ जाते हैं। महंगाई का रोना नहीं सुनाउंगा, वो सुनिए जो मैंने वहां सुना। एक सब्जी वाले ने दूसरे से कहा- सुनो खां अपना सेफू पदमसिरी हो गया है। दूसरे ने कहा कौन सेफू! पहला बोला अरे वो फिलमों में आता है हैगा, अपने नब्बाव पटौदी का बेटा, राजकपूर की बोती का नाम गुदवा कर घूमता हैगा। दूसरे ने पूछा अरे खां ये पदमसिरी क्या होता हैगा, कोई नई फिलिम बना रिया है क्या पटौदी का पूत। पहला बोला- अमां इसीलिए तो केते हैंगे कुछ पेपर वेपर पढाकरो, देनिक भासकर नईं पढा आज का, उसमे छपा है पदमसिरी इस साल किस किसको मिला है, सुनते हैं बडे काम और नाम वालों को मिलता है, ईडियट, तारे जमीन पे बनाई तो आमिर खान को भी पदम वाला इनाम मिला है, लेकिन सेफू से छोटा वाला। दूसरा बोला अमां पदम फदम तो हम नई जानते ये .....महंगाई मारे डाल रई है, सरकार आंखों में पटटी बांधकर ओर कानों में रूई फसाके बैठ गई है। पहले ने सुर मिलाकर कहा मियां के तो सई रए हो, ये ....सरकार ....करे डाल रई है। दोनों सब्जी वाले ग्राहकी में जुट गए और हम हर सब्जी पर चार आठ आने बचाने की जददोजहद में लग गए, पदम सिरी का मसला खत्म हो गया।
सुना है पदमश्री बांटने वालों को इससे मतलब नहीं होता कि कौन किस क्षेत्र में दिग्गज है, या उसका क्या अवदान है, उन्हें तो बस इससे मतलब होता है कि एप्रोच किसकी लगी है। सब जानते हैं सैफ अली पटौदी कैसे और किस दर्जे के कलाकार हैं, फिल्मों में उनका क्या योगदान है, सामाजिक तौर पर वे कितने जिम्मेदार हैं, उनके पिताजी अर्थात टाइगर पटौदी को भोपाल से कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में उतारा था, भोपाल नवाब के नवासे पटौदी को भोपाल के मतदाताओं ने लाखों वोटों से हरा दिया था, कांग्रेस अब भी निभा रही है, पटौदी पुत्र को पदमश्री से नवाजा गया। कहते हैं पुरस्कार की आबरू पुरस्कार पाने वाले से बढती है, अब कोई ढंग का आदमी पदम पुरस्कार न मिल जाए इससे बचता फिरने लगे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। रही बात ठाकरे की तो वे महाराष्ट में साइड लाइन हो गए हैं, देश की उन्हें चिंता होती तो बाकी 25 राज्यों के नागरिकों से पाकिस्तान टाइप व्यवहार उनकी पार्टी और उनके भतीजे की पार्टी नहीं करती, ठाकरे से तो अपना टेटू वाला सेफू ही भला, बेचारा किसी को भाषा, प्रांत के आधार पर पीटने का आव्हान तो नहीं कर रहा, रही बात पदम पुरस्कारों की तो जो वाकई समाज में कुछ करना चाहते हैं, करते हैं पुरस्कारों के मोहताज नहीं होते।

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

मध्यप्रदेश राजपथ से फिर गायब

भले ही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आज अमरकंटक में आओ बनाएं अपना मप्र यात्रा शुरू कर रहे हों और वे राष्ट्रीय खेल हॉकी की दुर्दशा की भी चिंता कर रहे हैं लेकिन राष्ट्रीय गणतंत्र दिवस समारोह में लगातार दूसरी बार मप्र की झांकी शामिल नहीं हुई है। राजपथ पर हृदयप्रदेश की झांकी नहीं होने के बीच जिम्मेदार अफसरों की लापरवाही उजागर होती है। सूत्रों के मुताबिक पिछले साल की तरह इस साल भी करीब 15 लाख रुपए लैप्स हो जाएंगे, जो राजपथ पर शानदार झांकी के लिए खर्च किए जाना थे। झांकी शामिल होने के लिए चयन प्रक्रिया में कई स्तरों पर श्रेष्ठता सिद्ध करना होती है, लेकिन स्वर्णिम मप्र का राग अलाप रही सरकार के जिम्मेदार अफसरों की इसमें रूचि नहीं है। उल्लेखनीय है कि पिछली बार की तरह आज भी राजपथ पर पूर्वोत्तर और दक्षिण के छोटे छोटे राज्यों की झांकियां शान से निकलीं लेकिन देश के दूसरे सबसे बड़े राज्य मप्र की उपस्थिति नहीं थी। मप्र के पड़ोसी राजस्थान की झांकी पहले नंबर पर थी, मणिपुर की दूसरे नंबर पर, तीसरे नंबर पर बिहार, चौथे पर पड़ोसी महाराष्ट्र की, कर्नाटक, मेघालय,मिजोरम त्रिपुरा, जम्मू कश्मीर, की झांकियों ने खूब मन मोहा। छत्तीसगढ़ की झांकी आई तो मप्र के विदिशा की सांसद सुषमा स्वराज अत्यंत प्रसन्न आईं। केरल की मनोहर झांकी अदभुत थी। उत्तराखंड के कुंभ मेले का दृश्य आस्था की झलक दिखा गया। लेकिन टीवी स्क्रीन पर अपना प्रदेश देखने को आतुर मप्र के नागरिकों को अपने प्रदेश की झांकी देखने को नहीं मिलने से वे बेहद मायूस हुए। देखना ये है कि मुख्यमंत्री इस बार इस मामले में कोई कदम उठाते हैं या नहीं, या मप्र में ही मप्र बनाओ यात्रा से ही संतुष्ट रहते हैं।

बुधवार, 20 जनवरी 2010

बसंत कलेंडर पर लिखी तारीख नहीं


बसंत कैलेंडर पर लिखी तारीख नहीं,
न ही यह सूर्य और चंद्रग्रहण की तरह खगोलीय घटना हैँ
बसंत पेड.की डाली पर खिला फूल है, हवा की सरसराहट है,
बच्ची की किलकारी है, चिडियों की चहचहाट है,
पति की प्रतीक्षा है, पत्नी के विरह का स्वर है,
मिलन का राग है, उल्लास का फाग है
बसंत कलेंडर पर लिखी तारीख नहीं।
-सतीश एलिया

सोमवार, 11 जनवरी 2010

नेपाल की टीम आई कश्मीर की नही

भोपाल में शुरू हुए राष्ट्रीय ग्रामीण खेलों में भाग लेने देश के 22 राज्यों के अलावा पड़ोसी देश नेपाल से भी टीम आई है लेकिन हमारे अपने ही राज्य जम्मू कश्मीर की टीम नहीं आई। यह आयोजन मप्र सरकार के स्कूल शिक्षा महकमे ने किया है लेकिन कश्मीर के नहीं आने की किसी को चिंता नहीं है। प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और गृह मंत्री उमाशंकर गुप्ता को हाल ही में जम्मू में आयोजित समारोह में पनुन कश्मीर संस्था ने सम्मानित भी किया था। कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग कहते नहीं थकने वाली भाजपा की सरकार में कश्मीर की ग्रामीण खेल टीम का नहीं आना, और उस पर कोई गौरोफिक्र नहीं होना किस बात को दर्शाता है? क्या कश्मीर में गांव नहीं हैं?सवाल यह है कि जब कश्मीर के सेबफल से लेकर शॉल तक मप्र की गली गली में आ सकते हैं तो टीम क्यों नहीं आई? स्कूल शिक्षा विभाग के अफसर यह जरूर कह रहे हैं कि हमने तो सभी राज्यों को न्यौता भेजा था, जम्मू कश्मीर भी इनमें शामिल है।

शनिवार, 2 जनवरी 2010

थ्री नहीं, मैनी मोर हैं वे तो भैया

कहावतें इतनी ठोक और बजकर स्थापित होती हैं, कि उनके लेखक को लेकर कभी विवाद नहीं होता और नहीं उनका प्रमोशन करना पडता। जैसा कि तीन में से एक इडियट को ज्यादा बाकी को केवल हाथ भर लगाने लायक करना पड रहा है। शुक्रवार को यह साबित हो गया कि तीन इडियट वे नहीं जो पोस्टरों मंे या हर टीवी चैनल में प्रोमो में दिख रहे हैं, उनमें से एक ही असल तीन में शामिल हैं, बाकी तो प्रेस कान्फरेंस में विधु विनोद चोपडा और राजकुमार हिरानी ने भी साबित कर दिया कि हम भी इसी असल नाम और पहचान वाले हैं। गांधीगिरी पर फिल्म बनाकर वाहवाही लूट चुके विनोद और हीरानी ने बता दिया कि गांधीगिरी फिल्म तक ही सीमित है, यानी दूसरों को सीख देने के लिए हम तो बदतमीजी करेंगे। धन कमाने के मूल उददेश्य से चलने वाले विषय तलाशने में माहिर यह धंधेबाज ये कैसे समझ सकते हैं कि दूसरों की जिज्ञासाएं पूरी करना वह भी प्रेस कानफरेंस में उनकी न केवल जिम्मेदारी है, भले वे स्टार हों कि नेब्युला। अगर आप ने चेतन भगत की किताब को चुराया नहीं है तो यह बात शांति से भी बताई जा सकती थी, लेकिन यहां फिर कहावत हमारी मदद को हाजिर है चोर की दाडी में तिनका। अब पत्रकार तिनके की तरफ इशारा करेंगे तो भला आमिर, राजकुमार और विधु विनोद झल्लाएं नहीं क्या! आखिर फिल्म का नाम भी तो थ्री इडियटस है भाई। फिल्म चूंकि हिट हो चुकी है और इसमें मीडिया की भी मेहरबानी है तो ये तीनों अब इस मेहरबानी को और क्यों झेलें तो बोल दिया शटअप। नेता भी तो यही करते हैं अपना काम बनता भाड में जाए जनता। वर्ना कौन नहीं जानता कि बच्चों के लिए तारे जमीन पर बनाने वाले आमिर खान अपने बीबी बच्चों को छोडकर दूसरी शादी कर चुके हैं और टूटे हुए परिवार के दर्द पर कभी फिल्म कभी नहीं बनाना चाहेंगे, कोई अपने गिरेबां में झांकता है भला। रही बात फिल्म वालों की बदतमीजी की तो उसमें सन्नी देवल से लेकर सलमान खान तक कौन शामिल नहीं है। अब मीडिया वाले भी इस में किसी से कहां पीछे हैं, जार्ज डब्ल्यु बुश और चिदंबरम से पूछिए पत्रकारों के बारे में उनकी दिली राय क्या है। फिर भी सार्वजनिक जीवन में वह चाहे फिल्म, राजनीति, साहित्य, पत्रकारिता कोई क्षेत्र क्यों न हो सहिष्णुता होनी ही चाहिए, आखिर हमारे भारत की हजारों साल की तहजीब के बचे रहने का यही इकलौता बडा कारण है, वर्ना मिस्त्र, रोम और न जाने कितनी सभ्यताएं जमींदोज हो चुकी है। आमिर, हीरानी और उनके मुखिया विधु विनोद चोपडा के बारे में अपनी बात में एक कहावत से ही खत्म करता हूं कि ...तियों के अलग से गांव नहीं बसते, न ही उनके चार कान और छह हाथ ही होते हैं, वे हमारे आपके बीच में ही मौजूद रहते हैं, हम उनके साथ ही रहना है बकौल कवि कुल तिलक गोस्वामी तुलसीदास जी- तुलसी या संसार में भांति भांति के लोग सब संग हिल मिल चालिए, नदी नाव संजोग। इसका एक देसी तर्जुमा भी दिलजलों ने बनाया हुआ है, उसे में यहां नहीं बताउंगा समझदार तो समझ ही जाएंगे, बाकी सबक ये है कि ईडियटयस थ्री नहीं अनंत हैं। फिर भी फिल्म देखने लायक है, चेतन भगत साहब की थीम पर बनी है, यह अगर सच है तो उन्हें धन्यवाद। उन्हीं के मुताबिक अंग्रेजी वाले तो यह बात पहले से ही जानते हैं अब हिंदी वालों को भी जानना चाहिए, लेकिन चेतन भगतजी अंग्रेजी में लिखकर आप महान हो जरूर गए हैं लेकिन ईडियटगिरी से बचना है तो अपनी भाषा में सोचने और लिखने की जहमत उठाइए फिर देखिए कि इस देश की माटी की महक अपनी भाषा में कैसे रंग लाती है। आमीन!