मंगलवार, 16 जून 2009
विरोध करने के लिए विरोध की मानसिकता
हमारे यहां चर्चा, संगोष्ठïी, सेंमिनार बहुत होते हैं, देश में बातूनी लोगों की भरमार है, खासकर जब हमारी जबावदेही कुछ न हो लेकिन हम दूसरों की जवाबदेही पर बहस करने के लिए स्वतंत्र हों। लेकिन संगोष्ठिïयों में भी तय विषय से ज्यादा बात उन विषयों पर होती है, जो न तो एजेंडे में होते हैं और न ही जिन पर बात करने का उस वक्त कोई मतलब होता है। इसी इतवार की बात है भोपाल के स्वराज संचालनालय में दो संस्थाओं ने मिलकर संगोष्ठïी की। विषय था गुड गवर्नेंस यानी सुशासन। यह विषय शायद इसलिए चुना गया था कि कुछ ही रोज पहले केंद्र सरकार के कार्मिक मंत्रालय और मप्र सरकार के सुशासन स्कूल यानी स्कूल ऑफ गुड गवर्नेंस ने भी इसी विषय पर सेमिनार किया था। जाहिर है बाद की संगोष्ठïी को पहले हुए सेमिनार से प्रेरणा मिली होगी। संगोष्ठïी में तीन दर्जन लोग मौजूद थे, जिनमें 90 प्रतिशत सेवानिवृत्त प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी थे। सबने अपने कार्यकाल के दौरान के अनुभव सुनाए। कुछ ने अपने साथ हुए कथित अन्याय की चर्चा करते हुए उनकी आवाज न उठाने के मीडिया पर बिके होने का आरोप मढने की कोशिश की। जिसका वहां मौजूद मीडिया के इक्का दुक्का लोगों ने अपनी अपनी तरह से विरोध किया। लुब्बे लुआब ये कि गुड गर्वनेंस के लिए क्या हो रहा है, होना चाहिए इस पर चर्चा के बजाय अपने संस्मरण सुनाने और सरकार की निंदा करने में तीन घंटे लग गए। इस गोष्ठïी में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े एक सज्जन ने तो गुड गवर्नेंस के बजाय सरकारी योजनाओं का शिलान्यास, भूमिपूजन होने और सरकारी दफतरों में धार्मिक प्रतीक लगाए जाने का विरोध करना शुरू कर दिया। चूंकि दो मे से एक आयोजक भी इसी पार्टी से जुडे हुए हैं, सो वे भी इसी सुर में बोलने लगे। उन्होंने गरीबों की बेटियों के कल्याण की मप्र सरकार की पॉपुलर योजना लाडली लक्ष्मी और बारिश का पानी सहेजने की योजना जलाभिषेक के नाम की आलोचना करना शुरू कर दिया। उनका कहना था कि लक्ष्मी धार्मिक नाम है और अभिषेक तो शिवजी का होता है, धर्म निरपेक्ष राज्य में सरकार को ऐसे नाम नहीं रखना चाहिए, भूमि पूजन और शिलान्यास तो बिल्कुल नहीं होना चाहिए। मंत्रियों को धार्मिक प्रतीकों से दूर रहना चाहिए। प्रदेश स्तर के एक व्यापार संघ के एक पदाधिकारी बेचारे गुड गवर्नेस पर कुछ सीख मिलने की गरज से यहां पहुंचे थे, इस बौद्धिक कबड्डïी से दुखी हो गए। उन्होंने कहा धार्मिक प्रतीकों का विरोध तो आज की गोष्ठïी का विषय नहीं था, कृपया विषय पर बात करें, धार्मिकप्रतीकों की निंदा करना ही है तो किसी और दिन इसी मुददे पर गोष्ठïी बुला लें। लेकिन आयोजक भी अपनी धर्म निरपेक्षता साबित करने पर अड़ गए। मैं इस गोष्ठïी को देखने सुनने गया था, तय करके गया कि अपन इसमें कुछ बोलेंगे नहीं। लेकिन धैर्य भी आखिर कब तक रखा जाए भला? सो मैंने मूल सवाल उठाने वाले और धार्मिक प्रतीकों का विरोध कर रहे सज्जन से मैंने सवाल किया कि- आपका धार्मिक प्रतीकों से क्या मतलब है? क्या डा. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं इसलिए पगड़ी पहनना छोड़दें? क्या आपके कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत सिखों के धार्मिक प्रतीक नहीं अपनाए हुए थे? इन सवालों का उनके पास कोई जवाब नहीं था। गोष्ठïी में विषय से भटकने पर आपत्ति करने वाले सज्जन से मैंने कहा आदरणीय गुड गवर्नेंस और धर्म निरपेक्षता का आयोजकों के हिसाब से यह मतलब है कि प्रधानमंत्री बनने के बात कोई मनमोहन नाम नहीं रख सकता, यदि आपका नाम राधेश्याम या सीताराम है तो कलेक्टर बनने के बाद आपका नाम यह नहीं रह सकता। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो गुड गवर्नेंस भी नहीं आ सकती। शोर इतना हो रहा था कि मेरी आवाज भी इसमें शामिल होकर रह गई। दोपहर के करीब दो बज रहे थे और आयोजक पहले ही कह चुके थे कि उन्होंने लंच का इंतजाम नहीं किया है, ज्यादा लोग पैंसठ से अस्सी साल उम्र वाले थे, फ्रूटी के सहारे कब तक बैठते, गोष्ठïी का निष्कर्ष करने की बात शुरू होने तक आधा दर्जन लोग भी नहीं बचे। मुख्य आयोजक निष्कर्ष लिखने लगे, तब तक हॉल खाली हो चुका था। मुझे लगा विरोध करने के लिए विरोध करने से ही कुछ लोगों की दुकान चलती रहती है, बाकी इसमें मुहरे बनते हैं, आपका क्या सोचना है, बताइएगा जरूर।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 टिप्पणी:
एलिया जी आपने एक दम सही मुआईना किया है | भारतीय समाज में यह प्रवृति कितने समय से है यह मैं नहीं जानता लेकिन अगर आप किसी भी समाचार टीवी चेनेल के चर्चा प्रोग्राम को देखें तो यही वातावर्ण दिखाई देता है | और तो और टीवी चेनेल भी एसे लोगों को प्रोत्साहन देते हैं - शायद लोगों को यह प्रदर्शन पसंद आता है | संसद भवन में भी तो यह ही माजरा है | एक समय ऐसा विश्वास था की संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण करने से सांसदों के आचरण में शिष्ता आएगी पर हुआ एक दम उल्टा !
इधर-उधर
एक टिप्पणी भेजें