बुधवार, 10 जून 2009

हबीब तनवीर के नाटकों को याद करते हुए भाग-2

मित्रो, गांव की माटी की छुअन, लोकमंच की सुगंध को समेटकर नया थिएटर से भारतीय रंगमंच को नया मकाम देने वाले हबीब तनवीर यहां भोपाल में मंगलवार की शाम सुपुर्दे खाक हो गए। रंगमंच के अलावा टीवी सीरियल कब तक पुकारूं और प्रहार जैसी फिल्म में उनकी उपस्थिति भी आपको याद होगी। मैंने उनके दो नाटकों के प्रदर्शन की समीक्षा पिछले अंक में आपको पेश की थी, दूसरी किश्त में अब दो और नाटकों की बात पेश है, इनमें हबीब साब के चरणदास चोर की प्रस्तुति भी है।
अपनी ही आशंका को सच किया हबीब तनवीर ने
देशबंधु, भोपाल 17 फरवरी 1993स्थानः भारत भवन का अंतरंगमौकाः भारत भवन की सालगिरह का समारोह
आज भारत भवन के अंतरंग में हबीब तनवीर के निर्देशन में खेला गया नाटक कामदेव का अपना, बसंत ऋतु का सपना, न तो कामदेव से संबंधित है और न ही बसंत ऋतु से। यह शेक्सपियर के नाट अ मिडसमर नाइटस ड्रीम्स का लचर रूपांतरण भर बन पाया, दर्शकों ने भी इसे कमजोर माना। शेक्सपियर के नाटक के जो द्रश्य श्री तनवीर ने लिए हैं, उनमें भी रूपांतरण ने खलल ही डाला है। एथेंस के डयूक थीसस का अपनी मंगेतर से प्रणय वाला द्रश्य भी कामेडी बन गया और देशीपन डालने के उददेश्य से बस्तर का न्रत्य भी दर्शक को बांध नहीं पाया। जंगल में परियों की रानी और राजा वाले प्रसंग में राजा द्वारा रानी को छकाना जरूर कुछ हास्य पैदा करता है। एथेंस के मजदूरों द्वारा डयूक को प्रसन्न करने नाटक और उसकी रिहर्सल दर्शकों को मसखरी का मजा देती है। छत्तीसगढ अंचल की नौटंकी से मिलता जुलता और आदिवासी बोली का ज्यादा प्रयोग नायक को मसखरा बनाता है। नाटकों में काॅमेडी भी दर्शकों को अलग दुनिया में ले जाती है, और मानवीय भावों का विवेचन करती है लेकिन कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना, यह असर नहीं छोडता।द्रश्यांतर और द्रश्यों में आए गीत अपभी लय और संगीत के कारण भले लगते हैं। संवादों का जोर जोर से बोलना नाटक में खटकता है। हबीब तनवीर के ही शब्दों में हाल में कुछ नाटय रूपांतरण किए जो अधिकतर गद्य रूप में हैं और कुछ मूल में अत्यंत बेढंगे और अधकचरे। यहां तक कि पद्य में किए गए अनुवाद भी अक्सर कुद ऐसी गीतात्मकता लिए होते हैं, जो अतिभावुक कविता के लक्षणों के करीब ठहरती है। उनका यह नाटय प्रदर्शन शेक्सपियर के नाटक का यही हाल करता लगता है। - सतीश एलिया
दर्शकों ने सर आंखों पर लिया हबीब के चरणदास चोर को
दैनिक नई दुनिया

भोपाल, 1997 की कोई तारीखस्थानः रवींद्र भवनमौकाः चरणदास चोर का मंचन
भोपाल को देश के नक्शे पर सांस्कृतिक राजधानी बनाने की गरज से अस्सी के दशक में कला और सांस्कृतिक आयोजनों के अतिरेक के बाद नब्बे के दशक में इस क्षेत्र में उतर आया शून्य और सन्नाटा अब टूटने लगा है। खासकर रंगकर्म के क्षेत्र में तो दर्शक की लगभग अनुपस्थिति का कडवा सच अब उसकी उपथिति से मीठे सच में तब्दील हो रहा है। भारत भवन के अंतरंग में उषा गांगुली के नाटक रूदाली और आज रवींद्र भवन में हबीब तनवीर के नाटक चरणदास चोर के प्रदर्शन में दर्शकों की मौजूदगी से भोपाल में नाटक के जी उठने की उम्मीद बंधी है। थिएटर का मर्सिया पढने वालों को आज रवींद्र भवन में होना चाहिए था, जब दर्शकों की तालियां थमने का नाम नहीं ले रही थीं। आज दर्शक न केवल आए बल्कि इस कदर आए कि हालत यह हो गई कि आयोजकों को फुल हाउस का बोर्ड लगाना पडा। सांस्कृतिक संस्था सूत्रधार के हफते भर के नाटय समारोह का आगाज हबीब तनवीर के विख्यात नाटक चरणदास चोर से हुआ। उनके नया थिएटर की इस प्रस्तुति में छत्तीसगढ की लोक नाटय, लोकन्रत्य और लोकगान शैली की पुरअसर छाप के साथ नाटक की वर्तमान पहुंच ने दर्शकों को दो घंटे बांधे रखा। कथ्य के बीचबी में कोरस गान और पंथी न्रत्य की सधी लय ताल ने चरणदास चोर के संदेश को सही ढंग से दर्शकों तक पहुंचाया। बात रवींद्र भवन में हबीब के निर्देशकीय कौशल और उनके लोकरंग से जुडाव को दर्शकों ने सर आंखों पर लिया।चरणदास चोर का कथ्य लोककथा पर आधारित है, जिसमें चोर अपने गुरू को झूठ न बोलने का वचन देता है और प्राण तजकर भी उसे निभाता है। चरणदास गुरू को हाथनी पर न बैठने, सोने की थाली में न खाने, रानी से ब्याह न करने तथा सत्ता न स्वीकारने का वचन देता है और उसे निभाता भी है। हास्य व्यंग्य शैली में समाज, धर्म, राजनीति और सत्ता की कुटिलताओं को बयान करते चलते इस नाटक में चरणदास बने चैतराम, गुरू बने भुलवाराम, रानी बनी अंगेश नाग और हवलदार के रूप में खुद हबीब तनवीर ने जीवंत अभिनय किया। अन्य सहयोगी कलाकारों ने नाटक की गति को बरकरार रखा और पंथी न्रत्य दल ने तो जैसे दर्शकांे को साधे रखा।नाटक का क्लाइमैक्स चरणदास चोर की अपनी सत्य निष्ठा पर पा्रण न्यौछावर करने से होता है। चरणदास की लाश को उठाकरन ले जाने का द्रश्य हबीब तनवीर के दूसरे ख्यात नाटक जिस लहौर नई वेख्या ओ जन्म्याई नईं की तरह दर्शकों को सनाके में छोडता है। लेकिन यहां हबीब सत्य की समाधि बनवा देते हैं और उसकी पूजा करवा देते हैं, इससे नाटक का क्लाइमैक्स दर्शकों के सामने छोडे सवाल के असर को कुछ कमजोर कर जाता है। आज की प्रस्तुति में संगीत पक्ष सशक्त रखा खासकर हारमोनियम से स्रजित पाश्र्व संगीत। आज की प्रस्तुति में नया थिएटर, चरणदास चोर और दर्शकों के बीच कुछ खटका तो रवींद्र भवन का हाॅल। हाॅल में मंच से ध्वनि दर्शकों तक पहुंचने में अपना असर खो रही थी और उमस से भरे खचाखच हाॅल में पंखे तक नहीं चल रहे थे। एक अच्छे नाटक को देखने में दर्शकों को गर्मी, उमस झेलना पडे। इसी वजह से मध्यांतर में कुछ दर्शक चले भी गए। -सतीश एलिया

2 टिप्‍पणियां:

sanjeev persai ने कहा…

हबीब को शायद इससे अच्छी श्रद्दांजलि हो नहीं सकती,
चरणदास चोर पर आपकी समीक्षा बिलकुल सटीक थी, जिस शो की आप बात का रहे है
मैं स्वयं उसमें मौजूद था, वाकई उस शो को देखकर लगा था की थियेटर फिर जीवित होंगे.
खुद हबीब ने भी इसे एक शुरुआत माना था.
आपके दोनों पोस्ट शानदार हैं, चरणदास चोर की समीक्षा पढ़कर एक एक दृश्य ताजा हो गया,
अत्यंत रुचिकर
धन्यवाद

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

शायद इससे अच्छी श्रद्दांजलि हो नहीं सकती।