सोमवार, 1 जून 2009

पावस दो क्षण

कहां हो तुम
छाए नभ में बादल चहुंओर
गरज उठे घन घनघोर
दमक उठी दामिनी
कंपित हुआ हृदय
कहा- प्रिया कहां हो तुम

(एक जून 1989 गंजबासौदा)

न डर है न अंधेरा है
बादलों का घेरा है,
चहुंओर अंधेरा है।
गरजता है बादल,
चमकती है बिजली
डरता है मन,
सूझता न पथ है,
जिस बिजली से कांपता है मन
वही दिखाती है पथ भी,
बादलों के शोर में सुनो संगीत
चमकती बिजली में पा लो उजास
तो फिर न अंधेरा है
न मन में डर,
सामने है बरखा है
उसकी निर्झर और आनंद का डेरा है।
- सतीश एलिया बेबाक
(दो जून 1998 भोपाल)

1 टिप्पणी:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

तेज़ गर्मी में पावस के ये दो क्षण ठंडक पहुंचा गए...बहुत अच्छी रचना...
नीरज