रविवार, 14 जून 2009
देशज शब्द और उनकी द्रश्यात्मकताः जैसे लौलइयां और पीरे बादरों
मित्रों पिछले सप्ताह हमने मेहमान और बतर जैसे ग्राम्य शब्दों की बात की थी। इस रविवार भी हम गांव ही चलेंगे, हमारे पैत्रक गांव की यात्रा। जब हम गांव जाते थे तो बाज दफा ऐसे शब्द सुनने को मिलते थे बोलचाल की भाषा में जो हमने कस्बे और शहर में नहीं सुने थे। जिज्ञासावश उन शब्दों का मतलब पूछते और अर्थ पता लगता तो मन जिस सुखद आश्चर्य से अब से तीस बरस पहले भर जाता है, उसमें अब भी कोई कमी नहीं आई है। यह जरूर है कि अब गांवों की बोली में से भी कई शब्द गुम हो रहे हैं, शहरों से संपर्क और संपर्क के साधन लगातार बढ रहे हैं, ऐसे में कई शब्द भी अतीत हो रहे हैं। तो आज मैं जिन दो शब्दों की बात कर रहा हूं वे समय को प्रदर्शित करने वाले हैं। गांव में जब कोई सुबह बाहर जा रहा होता और उससे पूछा जाता कि वह संझा को कब तक लौट आएगा तो उत्तर मिलता था- लौलइयां लगे तक लौट आएंगे। मैंने अपनी ताई से पूछा- ये लौ लइयां क्या होता है! उन्होंने मुझे गोद में बिठाया और समझाया कि शाम को जब अंधेरा घिर आता है तो हम घर में दीया जलाते हैं, तो दीये में जब लौ लगती है, उस बेरां यानी समय को कहते हैं लौलइयां का बखत। न तो ये संझा है और न ही रात ही कह सकते हैं। मुझे यह शब्द बडा ही प्यारा लगा था, तब भी और अब भी लगता है, लेकिन अब यह शब्द हमारे गांव में भी बहुत की कम लोग बोलते होंगे। दूसरा शब्द पीरे बादरों है। यह भी अलसुबह या तडके जैसा शब्द है, जब सूर्य के आने से काफी देर पहले उसके आने का संदेश आसमान पर बिखर जाता है, आकाश पूर्व से लेकर पश्चिम तक पीला सिंदूरी हो उठता है, इस वक्त को गांव में कहते थे, पीरे बादरों उठकर खेत पर चला गया था। मुझे समय को दर्शाने वाले इन शब्दों का बोली में प्रयोग इतना प्यारा लगा था कि आज तीस बरस बाद भी उतना ही सुखद लगता है, जैसे मुझे अपनी ताई की गोद में बैठकर लगता था। मेरी बडी ताई 23 बरस पहले नहीं रही थीं, लेकिन इन शब्दों और ऐसे ही और कई ग्राम्य शब्दों में उनका प्यार बसा है, मेरे मन में। अगले इतवार को फिर ऐसे ही गांव की माटी और बुजुर्गों के प्यार से लबरेज शब्दों का जिक्र करूंगा, तब तक के लिए जयरामजी की।
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