शुक्रवार, 12 जून 2009

भाजपा की समस्या क्या है?

भारतीय जनता पार्टी मं एक बार फिर शीर्ष स्तर पर लोकसभा चुनाव की पराजय को लेकर एक दूसरे के माथे पर ठीकरा फुटौव्वल जारी है। ऐसा लगता है कि कोई भी नेता खुद को जिम्मेदार मानने के बजाय दूसरे नेता को या गुट के सर दोष मढकर खुद को पाक साफ मानने में जुटा है। लडाई पार्टी फोरम के मीडिया के जरिए लडी जा रही है। बंदूक चलाने वाले मीडिये के कांधे का इस्तेमाल कर रहे हैं और मीडिया वालों को भी इसमें मजा आ रहा है। लेकिन सवाल ये है कि क्या वाकई जनता ने भाजपा को नकार और कांग्रेस को स्वीकार किया है? या फिर जनता के न चाहते हुए भी नेताओं की आपसी रार से नतीजे भाजपा के खिलाफ चले गए हैं। वर्तमान में भाजपा में चल रहे संघर्ष के दो प्रमुख दिखाई देने वाले कारण नजर आ रहे हैं। एक तो सुधींद्र कुलकर्णी जो एलके आडवाणी के लिए इतने खास हैं कि उनके लिखे भाषण को पाकिस्तान में पढकर आडवाणी जी जिन्नावादी का तमगा हासिल कर चुके हैं और वह झटका उनके कैरियर के साथ अब तक चिपका हुआ है। लेकिन कुलकर्णी साहब भी आडवाणीजी के लिए अब भी उतने ही अजीज बने हुए हैं। दूसरा कारण अरूण जेटली जैसे नेता हैं, जिनकी अगुवाई में इंडिया शाइनिंग पांच साल पहले के लोकसभा चुनाव में अंधेरे में तब्दील हो गया था। वे अब राज्यसभा में भाजपा के नेता हो गए हैं। इस पूरे मामले में हार के कारणों का राज्यवार ईमानदारी से आकलन करने के बजाय मीडिया के जरिए यादवी संघर्ष में भाजपा नेता जुटे हैं। याद करिए उमा भारती का भाजपा से निलंबन। उस पूरे घटनाक्रम के पीछे भाजपा के सेकंड लाइन के नेताओं का मीडिया के जरिए जमीन से जुडे नेताओं के खिलाफ अभियान ही था। वह अभियान चलाने वाले और इंडिया शाइनिंग चलाने वाले एक ही ही थे। एक अभियान सफल रहा और दूसरा असफल। दोनों से ही पार्टी कमजोर हो गई। मेरा मकसद उमा भारती, कल्याण सिंह, गोविंदचार्य या ऐसे ही भूतपूर्व भाजपा नेताओं की पेरोकारी नहीं है। लेकिन भाजपा के लगातार मजबूत होती चली जाने के जो कारण थे, उनके ठीक उलट चलने से पार्टी लगातार कमजोर होती चली जा रही है। ऐसा नहीं है कि पार्टी जमीन नेताओं और पिछडे वर्गों के प्रतिनिधियों को दरकिनार करने भर से लगातार हार रही है। इसकी वजहों में मूल मुददों से भटकना भी है। इसका एक उदाहरण मैं अपने अनुभव से देना चाहूंगा। करीब दो साल पहले भोपाल में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिनी बैठक हुई। इसमें पारित प्रस्तावों में से एक रामसेतु पर था। इस सत्र के बाद डा. मुरली मनोहर जोशी की प्रेस कांन्फरेंस हुई। इसमें जोशी जी ने केंद्र सरकार पर जमकर प्रहार किए और रामसेतु को भारतीय अस्मिता का प्रतीक बताया, ठीक उसी तरह जिस पार्टी राम मंदिर को बताती रही है। जब मैंने उनसे सवाल पूछा कि क्या रामसेतु भाजपा का चुनावी मुददा बनेगा, जैसा कि राममंदिर का निर्माण था? इस पर भाजपा के पूर्व अध्यक्ष डा. जोशी का उत्तर था कि राम मंदिर भाजपा का मुददा कभी नहीं था, रामसेतु भी नहीं होगा। हम तो बस राम सेतु को बचाने के लिए बनी समिति का समर्थन करेंगे, जैसा राम मंदिर के आंदोलन के लिए किया था। अब आप ही सोचिए भाजपा जब राममंदिर को अपना मुददा नहीं मानती और इससे साफ इंकार करती है कि यह कभी उसका मुददा था भी, तो जनता में इस पाटी्र की साख नहीं गिरेगी क्या? डा. जोशी प्रेस कान्फरेंस में मेरे इस सवाल के बाद सवालों की बौछार से घिर गए तो प्रेस कान्फरेंस खत्म कर चल दिए। जब वे गन मेनों से घिरे हुए मेरे करीब से गुजरे तो मैंने उनका हाथ पकड.कर उन्हें रोक लिया, और उनसे कहा- जोशी जी राम मंदिर कभी आपका मुददा नहीं था, ये क्या कह दिया आपने? हम लोग तो तब स्टूडेंट थे और पढाई से ज्यादा कश्मीर से धारा 370 हटाने, राम मंदिर बनाने, देश में एक नागरिकता एक कानून मुददों के समर्थन में बहस करते थे। पूरी एक पीढी आपके जिन मुददों पर निहाल हुई थी, वह क्या मूर्ख थी? जोशी इस पर जबाब नहीं दे पाए थे और उनके गनमैन संवाददाताओं को परे हटाकर रास्ता बनाने में जुट गए थे। अब भाजपा की केंद्र में सरकार नहीं बनने पर सबसे पहले बयान देने वालों में डा. जोशी ही अव्वल रहे। हार पर मीडिया में चर्चा करने वाले दूसरे शख्स जसवंत सिंह के राजस्थान में भाजपा की दुर्गति में उनका क्या योगदान नहीं है? हर राज्य में भाजपा के पिटने के कुछ कारण अलग भले हो सकते हैं, लेकिन एक कारण बहुत साफ है कि नेता एक दूसरे को नीचा दिखाने, हराने और खुद का पाक साफ बताने में लगे रहते हैं, नतीजा सामने है। असल में जनता जिन वजहों से कांग्रेस से छिटकी थी, वही सब भाजपा के नेता, मुख्यमंत्री और मंत्री से लेकर पार्षद और कार्यकर्ताओं ने अपना लिया है। जनता को यह समझ आ गया है कि कांग्रेस और भाजपा में कोई फर्क नहीं रह गया है। कांग्रेस में भले ही वंशवाद कह लीजिए लेकिन सर्वोच्च स्तर पर नेता की वजनदारी बरकरार है, वही भाजपा पर भारी पड गई। भाजपा के बाद अटलजी के बाद कोई और जी न तो हरदिल अजीज हैं जनता में और न ही कार्यकर्ताओं में। भाजपा को यादवी रार से उपर उठकर हार के वास्तविक कारणों को स्वीकार कर कमियों को दुरूस्त करना होगा क्योंकि देश के लोकतंत्र को दो मजबूत राष्ट्रीय दलों की दरकार है। अन्य दलों के दलदल को कम करना स्थायित्व के लिए जरूरी है। उम्मीद है कि वातानुकूलित कक्षों के अभ्यस्त भाजपा के ताकतवर नेता तपती गर्मी का अहसास कर जनता का वास्तविक संदेश समझ पाएंगे।

3 टिप्‍पणियां:

रंजन ने कहा…

सुधिन्द्र कुलकर्णी जी का आलेख बहुत सटिक था.. भाजपा उसे सम्झने के बजाय उनको समस्या मान उनसे किनारा करने लगी है.. यही approach उसकी समस्या है..

Science Bloggers Association ने कहा…

जब बहुत दिनों तक कोई दल सत्‍ता से दूर रहता है, तो उसके कुनबे में ऐसी ही कलह होती है।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Unknown ने कहा…

waah waah
bahut khoob !