शनिवार, 27 जून 2009
खंडूरी के उत्तराखंड में तीन दिन-1
मित्रो, पांच दिन गैर हाजिर रहा, इनमें से तीन दिन मैं उत्तराखंड में था, जी नहीं मेजर जनरल रिटायर भुवन चंद्र खंडूरी को मुख्यमंत्री पद से हटाने की कवायद और उसके सफल होने में मेरा कोई हाथ नहीं है। मैं इन दिनों में से डेढ दिन दिल्ली में था और पूरे तीन दिन हरिद्वार और ऋषिकेश में रहा। मेरी यात्रा पूरी तरह धार्मिक थी, लेकिन बतौर पत्रकार मैंने पाया कि खंडूरी सरकार इस देवभूमि उत्तराखंड का इंतजाम नहीं कर पा रही थी, इसके पहले के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के कार्यकाल में इंतजाम कैसा रहा होगा, इसका मुझे अनुभव नहीं है। लेकिन तीन दिनों में मैंने देखा कि समूचे देश से आने वाले श्रद्धालुओं को हर तरफ अव्यवस्थाओं का सामना करना पडता है। संयोग ही है कि यही तीन दिन खंडूरी के कार्यकाल के अंतिम तीन दिन बन गए। मैं हरिद्वार से मंगलवार की अलसुबह दिल्ली पहुंचा तो खंडूरी के हटने की खबर छप चुकी थी और रमेश पोखरियाल को मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय हो चुका था। खैर मेरा इरादा यहां भाजपा की राजनीति और उत्तराखंड की सरकार पर तपसरा करने का नहीं है। मैं तो बस अपनी तीन दिनी उत्तराखंड यात्रा का हाल आपको सुनाना चाहता हूं। शनिवार 20 जून को दोपहर डेढ बजे दिल्ली से हरिद्वार के लिए रवाना हुआ और सडक मार्ग से यह दूरी पांच घंटे में पूरी हो जाना चाहिए थी। एक तो मायावती के उत्तरप्रदेश में यातायात के बुरे हाल और फिर खंडूरी के उत्तराखंड के रूडकी में एक घंटे का रोड जाम, आखिरकार साढे छह पतित पावनी गंगा के हर की पौडी घाट पर पहुंच गए। गंगाजी की आरती हो रही थी, इस बहुश्रुत द्रश्य को देखने की लालसा में लगभग दौड ही लगा दी, साथ में माता पिता, पत्नी और उनकी माता थीं, बुजुर्गों ने भी आरती देखने की आस्था भरी लालसा में दौड लगाई। आरती के लिए उमडा जन सैलाव और गंगाजी का प्रवाह देखकर थकान दूर हो गई। निर्मल जलधारा में स्नान का मोह संवरण नहीं कर सका। इतना शीतल जल शरीर और आत्मा को दोनों को ही निर्मल कर गया। चंद मिनिटों में ही चंदा वसूलने वाले कार्यकर्ताओं का हुजूम पूरे घाट पर फेरी लगाने लगा। धक्का मुक्की और घाट पर सफाई के अभाव ने बदइंतजामी की झलक दिखा दी। घाट पर होटलें और लाॅजों की कतारें, जाहिर है उनका सीवेज गंगाजी में ही जाता होगा। हम नदियों को मां कहते हैं, उनकी पूजा और नित्य आरती तो करते हैं लेकिन उन्हें गटर बनाने पर कोई लगाम नहीं लगाते। यह सब देखकर मन दुखी हो गया। वाहन पार्किंग मंे भारी अव्यवस्था, अस्थाई दुकानों की रेलमपेल और खुले आम शौच और लघुशंका के नजारे देखकर बुरा लगा। खैर रात धर्मशाला नाम से चलने वाली एक लाॅज में बिताई। सुबह फिर आरती के दर्शन किए और दिन चढते ही भीड लगातार बढने के नजारे में गंदगी के कई गुना विस्तार से साबका पडा। यहां से बाजार से गुजरकर मंशादेवी के दर्शन के लिए उडन खटोले की राह पर रवाना हुए। बाजार में सडकों पर भी गंदगी और धूल का आलम। बाजारों में पीने के पानी के लिए बोतल बंद जल के अलावा कोई और उपाय नहीं, बोतल भी 12 के बजाय 15 और 20 रूपए में। रोप-वे से मंशा देवी के दर्शन के लिए पहुंचने में दो घंटे का इंतजार करना पडा। देवी के दरबार में पुजारियों का व्यवहार देखकर मन आक्रोश और ग्लानि से भर गया। वे हजारों मील से माता के दर्शन करने देश के कोने कोने से पहुंचने वाले श्रद्धालुओं ऐसे दुतकारते हैं, मानो वे मनुष्य ही नहीं हों। मैंने देखा कि 70 और 80 साल की बुजुर्ग महिलाओं तक को ये देवी के कथित पुजारी धक्के देकर हटा रहे थे। दस सेकंड भी दर्शन नहीं करने दे रहे थे। आखिर मुझे पुजारियों से झगडा करना पडा और हम लोगों ने पूरे दस मिनिट देवी के दर्शन किए। नीचे उतरते ही एक व्रक्ष पर महिलाएं मन्नत का धागा बांध रही थीं, धागा वहां मौजूद पुजारी 20-20 रूपए में बेच रहे थे। दीवारों पर जगह-जगह ट्रस्ट ने लिख रखा था, किसी को पैसे, रूपए न दें। यह भी लिख रखा था जेबकतरों से सावधान, महिलाएं भी जेबकतरी हो सकती हैं। पुजारी खुले आए 10 पैसे का धागा 20 रूपए में और दुकानदार 12 रूपए की पानी बोतल 20 रूपए में बेच रहे थे। मंदिर की उंचाई से रोप-वे में बैठकर लौटने पर गंगा की धाराओं और पहाडियों का सुंदर विहंगम द्रश्य दूर से भला लगा, इस सीन ने रोमांचित किया लेकिन ठीक नीचे नजर दौडाई तो पूरी पहाडी पर मंदिर के चारों तरफ पाॅलीथिन का कचरा बिखरा नजर आया। हालांकि सरकार ने जगह जगह पाॅलीथिन मुक्ति के नारे लिखवाकर मुक्ति पा ली है। यही आलम पूरे हरिद्वार शहर के बाजारों और गलियारों का है। ऐसा लगा मानो सफाई व्यवस्था नाम की कोई चीज यहां शायद नहीं है। इतवार की शाम को हरिद्वार से ऋषिकेश प्रयाण किया। सडक खाली मिली तो अच्छा लगा। कुछ ही किलोमीटर चलने के बाद पहाडों का खूबसूरत नजारा मिला जो ऋषिकेष तक जारी रहा, आंखों को सुकून मिला। लेकिन भारी यातायात और तंग सडकों ने चक्काजाम में फंसाया तो एक घंटे में वाहन छोड पैदल चलने पर ही मुक्ति मिली। यहां भी गंगा के घाट पर दो हजार रूपए प्रतिदिन पर कमरे देने वाले आधुनिक होटलों की श्रंखला बन गई है, जाहिर है सीवेज गंगाजी को मैला करता होगा। लक्ष्मण झूले से गुजरते हुए स्पीड और राफटिंग वोट को देखना रोमांचक लगता है। उस पार तेरह तेरह मंजिल के दो मंदिर कांप्लेक्स हैं। मंदिरों में सुंदर मूर्तियां के दर्शन और बालकनियों से गंगा के दर्शन सुखद लगते हैं। गंगा पार करने के लिए दो किलोमीटर आगे से राम झूला है, नाव से भी उस पार जा सकते हैं। नावें शाम सात बजे बंद हो जाती हैं। राम झूला के पहले प्रसिद्ध चोटीवाला का भोजनालय है, जहां एक व्यक्ति को बुत बनाकर बैठा दिया गया है जो लगातार घंटी बजाता रहता है। भोजन इस करीब साठ साल पुराने होटल की ख्याति के अनुरूप ही सुस्वादु मिला। राम पुल से गंगा पार की, यह राम झूला लक्ष्मण झूला से लंबा है, गंगाजी का पाट दो किलोमीटर दूर आकर और विशाल हो गया है। पुल से स्कूटर, मोटर सायकल, साइकिल, रिक्शा और ठेले आदमियों को ठेलते हुए आगे बढते रहते हैं। लक्ष्मण झूला और राम झूला दोनों में ही कोई स्तंभ नहीं हैं, वे लोहे मजबूत तारों पर टंगे हैं और झूले की तरह हिलते हैं, इनकी मजबूती गजब की है और आश्चर्य से भर देती है। पुल पारकर सारथी को तलाशने में आधा घंटे की मशक्कत हुई क्योंकि दो बार पूछताछ की वह भी उत्तराखंड के पुलिस जवान से। जानकारी गलत दी गई और भटकना पडा। रात्रि विश्राम के लिए गढवाल पर्यटन विकास के गेस्ट हाउस में जगह मिली।
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