मंगलवार, 9 जून 2009

हबीब तनवीर के नाटकों को याद करते हुए- भाग-1

अर्सा हो गया कोई नाटक देखे हुए, असल में हमारे रोजीरोटी के काम और उनकी मशरूफियत हमारे शौक, कमिटमेंट और यहां तक की वजूद तक को मटियामेट करने की हद तक जा सकते हैं, इसका अहसास मन को बेचैन कर देता है। मेरी रूचि, कमिटमेंट और जज्बा मुझे पत्रकारिता में लाया था। शुरूआत के पांच सात सालों में इस पेशे ने मुझे जो दिया उसमें साहित्य, कला, रंगमंच, राजनीति और प्रशासन को लेकर नई समझ और द्रष्टि दी। अपने अपने क्षेत्र के उदभट लोगों से मुलाकात और गुणी लोगों की संगत ने पत्रकारिता में आने के फैसले को सार्थकता दी थी। थिएटर को लेकर मेरी रूचि ने ही मुझसे पत्रकारिता में भी कला समीक्षक के तौर पर काम करवाया लेकिन बाद में पत्रकारिता की इस विधा में पूर्णकालिक के बजाय पार्ट टाइम टाइप लोगों की गुंजाइश ही ज्यादा दिखाई दी तो प्रशासनिक और राजनीतिक रिपोर्टिंग का रास्ता अख्तियार कर लिया। मन के सुकून के बजाय दिमाग वाले काम को तरजीह देना पड.ी। खैर अपना ये रोना फिर कभी, अभी हबीब साहब के नाटकों के बारे में बात करूं। उनके करीब एक दर्जन नाटकों के दो दर्जन से ज्यादा प्रदर्शन मैंने देखे और उनमें से आधा दर्जन की समीक्षा भी लिखी। ठेठ छत्तीसगढिया नाटक- गांव के नांव ससुराल मोर नांव दामाद हो या फिर चरणदास चोर, देख रहे हैं नैन, कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना या फिर जिस लहौर नई वेख्या ओ जन्म्याई नईं या फिर मुद्रा राक्षस जैसा क्लासिकल प्ले। इन सबमें हबीब तनवीर का ठेठ छत्तीसगढिया अंदाज, गान और उनके अपने नया थिएटर की सुंगध अलग ही आस्वाद देती थी। मैं यहां 1993 से १ 997 के बीच चार नाटकों की समीक्षा प्रस्तुत कर रहा हूं, जो प्रदर्शन के तत्काल बाद मैंने लिखीं और अगले दिन सुबह के अखबार में छपीं थीं। इनमें से जिस लहौर नईं.... तो उस वक्त खेला गया था जब भोपाल में दिसंबर १ 992 में बाबरी विध्वंश के बाद हुए दंगों का जहर फिजा में घुला हुआ था। वो तनवीर ही थे जिन्होंने साम्प्रदायिकता के गाल पर झापड सा यह नाटक भोपाल में प्रदर्शित किया था। पहली किश्त में आज दो नाटकों की समीक्षा, अगली किश्त में दो और नाटकों के बारे में। पेश है पहली किश्त

जिस लहौर नईं वेख्या ओ जन्म्याई नईंः साम्प्रदायिकता के मुहं पर तमाचा
देशबंधुभोपाल, 18 सितंबर १९९३
स्थानः रवींद्रभवनाधर्म का मूल संदेश बंधुत्व, मानवीयता और सहिष्णुता है। चंद राजनीतिबाज और असामाजिक तत्व धम्र को कटटरता के दायरे में लाने का कुत्सित प्रयास करते हैं। जिससे भारत विभाजन जैसी त्रासद स्थितियां निरीह नागरिकों को झेलना पडती हैं। इस सबके बावजूद इंसानियत और भाईचारा खत्म नहीं होता लेकिन सदभावना को हमेशा ही कठमुल्ला और जडचेतना के हामी लोगों से खतरा बना रहता है। यह केंद्रीय भाव है असगर वजाहत लिखित और हबीब तनवीर लिखित नाटक -जिस लहौर नईं वेख्या ओ जन्म्याई नईं , का। रवींद्र भवन के सभागार में हबीब तनवीर निर्देशित इस नाटक की कथा वस्तु का केंद्र है देश के विभाजन के तत्काल बाद की घटनाएं। लेकिन कटटरपंथियां का धर्म का ठेकेदार बनने का प्रयास तािा इंसानियत को दबोचने का कुजक्र आज के माहौल को शिददत से हमारे सामने आता है। नाटक धर्म के कथित ठेकेदारों को बेनकाब तो करता ही है, सभी धर्मों के सारतत्व सदभाव और बंधुत्व को प्रभावी ढंग से उभारता है। नाटक में विभाजन के बाद की स्थिति का सजीव चित्रण है। लखनउ से सिकंदर मिर्जा का परिवार लाहौर पहुंचता है, वहां उन्हें एक हवेली एलाट होती है। यह परिवार जब हवेली में रहने पहुंचता है तो पता चलता है कि वहां एक बूढी महिला पहले से ही रहती है। मिर्जा उससे हवेली खाली करने को कहते हैं लेकिन महिला कहती है मैं मर जाउंगी लेकिन हवेली खाली नहीं करूंगी, यह हवेली मेरी है। यह बुजुर्ग महिला रतन जौहरी की मां है। रतन विभाजन के बाद हिंदुस्तान जा बसा है। मिर्जा रतन की मां को समझाते हैं- रतन की मां को अब हिंदुस्तान चले जाना चाहिए क्योंकि अब पाकिस्तान में कोई हिंदू नहीं रह सकता। मिर्जा रतन की मां को हवेली से बेदखल करने के लिए सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत भी देते हैं, लेकिन काम नहीं बनता। इस बीच रतन की मां लखनउ से लाहौर आए इस मिर्जा के परिवार की मदद घर के बुजुर्ग की तरह करती है। मिर्जा की पत्नी, बेटी, बेटा रतन की मां को चाहने लगते हैं। स्वयं मिर्जा जो रतन की मां को मारने के लिए गुंडों को पांच हजार रूपए देने पर राजी हो गए थे, अब उन्हें माई कहने लगते हैं। गुंडे अब मौलवी के पास जाते हैं कि एक काफिर लाहौर में नहीं रह सकता। मौलवी उनसे जब यह सवाल करते हैं कि इस्लाम क्या है? तो गुंडांे के पास कोई जबाव नहीं होता, वे गालियां कने लगते हैं। नाटक में कइ्र हास्य प्रसंग भी हैं, जो उसे सहज बनाने में मददगार साबित होते हैं।रतन की मां मिर्जा परिवार की सदस्य हो जाती हैं, यही नहीं पूरा मोहल्ला उस हिंदू महिला से प्यार करने लगता है। दीवाली पर सब रतन की मां के साथ त्यौहार मनाते हैं। नाटक में एक शायर है नासिर काजमी जो इंसानी जज्बों को खूबसूरत शेरों में बयान करता है। वह विभाजन के दर्द को भी शायरी में बयान करता है। यही नहीं नासिर गुंडों से भी नहीं डरता वह कहता है- ये लोग परेशान रहते हैं, परेशान करते हैं और परेशान ही मर जाते हैं।असामाजिक तत्व इस्लाम के नाम पर रतन की मां को पाकिस्तान से भारत भेजने के लिए हिंसा का माहौल बनाते हैं, लेकिन मिर्जा परिवार, नासिर, मौलवी साहब और मोहल्ले के लोग पुरजोर विरोध करते हैं। मिर्जा परिवार को संकट में फंसा देख एक दिन अचानक रतन की मां ठान लेती है कि वो दिल्ली जाएंगी। लेकिन मिर्जा के बच्चे रोने लगते हैं और मिर्जा परिवार रनि की मां को अपनी कसम देकर कीाी लहौर न छोडने का वादा ले लेते हैं। एक दिन रतन की मां की मौत हो जाती है। अब समस्या उनके अंतिम क्रिया कर्म की आती है। मौलवी साहब राय देते हैं कि रतन की मां जीवन भर हिंदू रहीं इसलिए हिंदू रीति से उनका अंतिम संस्कार किया जाए लेकिन कटटरपंथी एक बार फिर इस निर्णय का विरोध करते हैं। इस बार मौलवी साहब की हत्या कर दी जाती है। अब रतन की मां की अर्थी और मौलवी साहब का जनाजा एक साथ उठता है, कठमुल्ले फिर हमला करते हैं और कत्ले आम शुरू हो जाता है।नाटक का अंत त्रासद है। लेकिन वह हमें झकझोरता है कटटरवाद के खिलाफ, और हमारी आंखें खोलता है कि बंधुत्व सारे धर्मों का सार है। नाटक की प्रस्तुति के बीच में गीत और गजलों का समावेश है जो मुख्य मंच से परे बाहर की ओर समूह रूप में पेश होते हैं। गीतों का चयन और संगीत ह्रदय स्पर्शी है। नाटक में गीत द्रश्य परिवर्तन के समय आते हैं लेकिन वे सहजता से आए हैं। बेशक हबीब तनवीर श्रेष्ठ निर्देशक हैं। यह बात नाटक के एक एक फ्रेम में नजर आती है। नाटक में शामिल ये गीत पूरी प्रस्तुति को ताकत देता है- जुल्म तो जुल्म है बढेगा तो मिट जाएगा, खून तो आखिर खून है गिरेगा तो जम जाएगा। जिस लहौर नईं वेख्या ओ जन्म्याई नईं, देखने के बाद दर्शक वही नहीं रहता जो वह नाटक देखने से पहले था। निश्चय ही वह साम्प्रदायिकता के खिलाफ हो जाता है, और यही नाटक की सफलता है। - सतीश एलिया
देशबंधुभोपाल, 16 फरवरी, १९९४
स्थानः भारत भवन
मौकाः भारत भवन वर्षगांठ समारोह
यक्ष प्रश्न को एक बार फिर पूछता है देख रहे हैं नैन

हम सबकी जिंदगी में ऐसे क्षण आते हैं जब हमें अपने ही कर्म और प्रतिबद्धता संदिग्ध लगने लगते हैं। उंची से उंची स्थिति में पहुंचा हुआ आदमी भी खुद को संदेह के घेरे में खडा पाता है और यहीं से शुरू होती है बेचैन मन की खुद के काम से संतुष्ट होने की यात्रा। यह केंद्रीय भाव है हबीब तनवीर के नाटक देख रहे हैं नैन का। श्री तनवीर मौजूदा समाज को बेनकाब करने के साथ ही सवाल खडे करते हुए चलते हैं और पूरे नाटक में दर्शक उनकी उंगली थामे चलता है और आखिर में उसके सामने एक प्रश्न खडा हो जाता है, तनवीर उंगली छोडकर चले जाते हैं। जर्मन कथाकार स्टीफन ज्वाएग की कहानी विरत पर आधारित यह नाटक आज के दौर को भी सपाट बयानी के साथ प्रस्तुत करता चलता है। हबीब तनवरी इस नाटक में अपने पुराने तेवर के साथ नए अंदाज में आते हैं। द्रश्य परिवर्तन के समय गीतों का होना कथानक को मजबूत ही करता है। नाटक में कुछेक संवाद सभ्य कहे जाने वाले समाज में अश्लील कहे जा सकते हैं, लेकिन वे हमारे समाज में हैं और नाटक में वे सहज ढंग से आए हैं अैर द्रश्य तथा पात्र की भावदशा से एकमेक हैं।नाटक का कथानक कुछ इस तरह से है कि राजा विजयदेव के राज्य में जनता महंगाई से पीडित है, ऐसे में युद्ध शुरू हो जाता है और जनता में से कोई राजा की सेना में शामिल नहीं होना चाहता। विरत अपने पुत्रों, संबंधियों और बचे खुचे सैनिकों को लेकर विजयदेव का राज्य बचा लेता है। लेकिन उसक हाथें राजा के विरोधी अपने ही भाई की हतया हो जाती है। म्रत भाई की आखें देख विरत अपने कर्म पर पछताता है, अब वह युद्ध से विरत हो जाना चाहता है। राजा उसे सेनापति बनाना चाहता है, लेकिन विरत राजी नहीं होता। राजा उसे न्यायधीश बना देता है। न्याय के बंधे बंधाए ढर्रे पर चलते न्यायधीश विरत की अदालत में एक हत्यारे गोमा को लाया जाता है। उसका अपराध है कि वह गां के मुखिया की बेटी से विवाह करना चाहता है, उसकी प्रेमिका का पिता बेटी को कहीं और ब्याहना चाहता है। गोमा मुखिया समेत 11 लोगों को मार डालता है। न्यायधीश विरत गोमा को 11 वर्ष कारावास और हर साल सौ कोडों की सजा सुनाता है। अपने पक्ष में गोमा बस इतना कहता है कि हमारे घर जलाए गए, जाति के नाम पर प्रेमिका से शादी नहीं होने दी और लडकी बेच दी, यह अन्याय नहीं और मैंने जुनून में हत्या कर दी तो यह जुम है और फिर तुम जो दंड देते हो उसे भुगता है? क्या तुम भगवान हो? गोमा कि आंखों में वही सवाल कि क्या तुम सही कर रहे हो? विरत को विचलित कर देता है। वह एक माह का अवकाश लेकर गोमा की जगह कारावास भुगतता है, राजा उसे मुक्त करता है। अब विरत न्यायधीश नहीं रहना चाहता। राजा उसे जागीर देता है। सुकून की जिंदगी जी रहे विरत को एक दिन पता चलता है कि उसके बेटे लोगों को गुलाम बनाकर न केवल उनसे काम करा रहे हैं बल्कि अत्याचार भी कर रहे हैं। रोकने पर बेटे के सवाल उसे बेचैन कर देते हैं, वह संन्यासी हो जाता है। संन्यास में भी बेचैन आंखों का सवाल उसे परेशान करता है, तुम क्या कर रहे हो? वह अब डोम का काम करने लगता है। यहां भी उसके सामने बार बार यही सवाल आता है। असल मंें हम सब विरत हैं और बार बार हमारे सामने भी यह सवाल आता है, इसका उत्तर हमें ही ढूंढना है, यही हबीब तनवीर के इस नाटक का छोडा हुआ सवाल भी है। तनवीर ने नाटक में सात गीत पिरोए हैं, जो सवाल की शक्ल में बार बार बल्कि हर द्रश्य में आते हैं। तनवीर की खासियत है कि वे नाटकों में मौजूदा व्यवस्था के मुखौटे नोंचते चलते हैं। देख रहे हैं नैन, हमारे भीतर बैठे साक्षी के नैन हैं, जो सवालों को हल करने की मांग करते हैं। इस नाटक में बस्तर का भी पुट है और जवारा काली पूजा भी अपने पूरे असर के साथ नाटक में मौजूद है। द्रश्य परिवर्तन के लिए ज्यादा प्रयुक्त हुए गीत कभी कभी द्रश्यों के साथ भी चलते हैं, बस्तर की लोकधुन नाटक की जान है।

9 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

waah waah
nihal kar diya !

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

हबीब जी को श्रृंद्धांजली का बेहतर तरीका, गंभीर समीक्षा के साथ..

शुभकामनाएं...

Unknown ने कहा…

दृष्टिकोण बेहतर है आपका।
हबीब तनवीर को याद करना दरअसल उनकी बात को आगे पहुंचाना है। आप यही कर रहे हैं।

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर ने कहा…

hamara naman tanbeer jee ko. narayan narayan

sanjeev persai ने कहा…

अद्भुत, अद्वितीय

sandhyagupta ने कहा…

हबीब जी को विनम्र श्रृद्धांजलि

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

हबीब तनवीर जी का जाना एक अपूरनीय क्षति है, उनके विचारों को सबके सामने लाना, इससे बढकर श्रृद्धांजली नहीं हो सकती।

डा० अमर कुमार ने कहा…


मन में नमी बरकरार है,
आपकी यह पोस्ट एक यादगार पोस्ट में गिनी जायेगी ।
बड़ा बेहतरीन तो है, ही !

दिल दुखता है... ने कहा…

हबीब जी को विनम्र श्रृद्धांजलि