शुक्रवार, 5 जून 2009

पर्यावरण और धरती की चिंता है किसे?

क्षिति, जल, पावक, गगन समीरा, पंचतत्व से बना शरीरा। रामचरित मानस की यह चैपाई हमारे शरीर का सारभूत तत्व है, यही पांच तत्व हमारे पर्यावरण के भी अंग हैं। प्रकृति ने तत्वों के बीच स्वतः स्फूर्त संतुलन कायम किया हुआ है। यही संपूर्ण विश्व की धुरी है। लेकिन मनुष्य ने करीब एक सदी के दौरान प्रकृति का लगातार गलत ढंग से दोहन किया, जिस इन पांच तत्वों का संतुलन गडबडाता चला गया। अंधाधुंध औद्योगिकीकरण और शहरीकरण ने पर्यावरण विनाश के खतरे के चक्रव्यूह में खुद मनुष्य को फंसा दिया है। दूसरी प्रजातियां जिनमें जीव जंतु और वनस्पतियां शामिल हैं, मनुष्य के अपराध की सजा बेवजह भुगत रही हैं। मनुष्य के अस्तित्व पर लटक रही तलवार भी लगातार नीचे खिसकती जा रही है। पर्यावरण के असंतुलित होने से समूची मानव सभ्यता एक खतरनाक मोड पर खडी है। ऐसा नहीं है कि इस भयावह आशंका की चिंता नहीं की गई, लेकिन जितनी चिंता गई उतना उपायों पर अमल नहीं हुआ, नतीजा ये हुआ कि हालात सुधरने के बजाय और बिगडते चले गए।
पर्यावरण की चिंता पर 1972 में stokhomeसम्मेलन में उपाय सुझाए गए थे लेकिन विकसित देशों ने ही उन पर गंभीरता से अमल नहीं किया। बीस साल बाद पांच से चैदह जून 1992 को ब्राजील के रियो डि जिनोरियो में प्रथ्वी सम्मेलन में यही चिंता और गंभीरता से सामने आई। पर्यावरण और विकास पर इस संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में 170 देशों के शासनाध्यक्ष और 185 प्रतिनिधिमंडल शरीक हुए थे। तीन हजार प्रतिनिधियों से चैदह दिन तक विचार मंथन किया और घोषणा पत्र जारी हुआ था। जैविक विविधता एवं पारिस्थितिकी संरक्षण तथा जलवायु परिवर्तन जैसे मुददों पर समझौते हुए थे। हालांकि विकसित देशों की दादागिरी के चलते प्रथ्वी संविधान बनाने जैसी महती परियोजना पर विचार नहीं हो सका था। सम्मेलन में 900 पेज का दस्तावेज एजेंडा-21 तैयार हुआ था। जिसमें धरती को स्वच्छ रखने और स्वस्थ पर्यावरण सहित 21 वीं शताब्दी में पर्यावरण की समस्याओं और उनके समाधान भी सुझाए गए थे। आज 18 साल बाद दुनिया पर्यावरण को सम्हालने के मामले में और अधिक नाकाम साबित नजर आ रही है। एक अर्थ में प्रथ्वी सम्मेलन विकसित देशों खासकर अमेरिका की दादागिरी के चलते सफल ही नहीं हो पाया। असल में विकसित देश सारी जिम्मेदारी विकासशील देशों के मत्थे मढने की फितरत बरकरार रखने में हर बार कामयाब हो जाते हैं। इन 18 सालों में ओजोन परत के छेद और गहरा गए हैं। पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग का प्रकोप झेल रही है। कई ग्लेशियरों का अस्तित्व खतरे में है। तापमान का इजाफा न केवल मनुष्य बल्कि अन्य जीव और वनस्पतीय प्रजातियों के लिए भी खतरा बन गया है। खतरा इस बात का है कि ग्लेशियरों का पिघलना रफतार पकडेगा तो भारत समेत कई देशों के तटीय भूभाग जलमग्न हो जाएंगे। अतिव्रष्टि और सूखा लगातार गहरा संकट बनते जाएंगे। तो फिर दुनिया के सामने क्या है विकल्प इस संकट से पार पाने का? इस कठिन प्रश्न का सीधा सा उत्तर भारतीय मनीषा में है। जो जल, वायु, अग्नि, धरती, आकाश पांचों तत्वों को पूजती है, उनका शोषण में भरोसा नहीं करती, बल्कि पाप मानती है। नदियों की पूजा, व्रक्षों की पूजा, अग्नि की पूजा, आकाश की पूजा यानी पर्यावरण के पांचों तत्वों को पूजनीय मानने का भाव ही हमें विनाश के रास्ते से वापस ला सकता है। यहां में ऋग्वेद की ऋचा उदृधत करना चाहूंगा- हे मां धारित्री, उन्हें दंडित करो जो जल और वनस्पतियों को प्रदूषित करते हैं। यह ऋचा तो हम हमारे यहां हर अनुष्ठान के दौरान उच्चारित करते हैं- ओम सामा शांतिः, द्यौ शांतिः, अंतरिक्ष शांतिः प्रथ्वीः शांतिः, वनस्पतयाः शांतिः, औषधयाः शांति, सर्वग्मं शांतिः, शांति रेव शांतिः ओम शांति, शांति, शांतिः।

4 टिप्‍पणियां:

समयचक्र ने कहा…

बेहद सामायिक पोस्ट.
पर्यावरण की सुरक्षा का संकल्प लें

Science Bloggers Association ने कहा…

आप और हम कर लें, वही बहुत है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

सामयिक पोस्ट लिखी है।सही है यदि सचेत नही हुए तो परिणाम बहुत बुरे होगें।अभी भी यदि इस ओर गंभीरता से ध्यान दिया जाए तो इस विनाश की गति को धीमा किया जा सकता है।

RAJNISH PARIHAR ने कहा…

बहुत ही सही मुद्दा उठाया है आपने....!इतने सम्मलेन हो चुके है..लेकिन विकासशील देश आज भी हाथ पर हाथ धरे बैठे है...!आखिर में प्रकृति अपना काम करने लगी है..प्रलय निकट है...संकेत मिलने लगे है...