मंगलवार, 30 जून 2009
क्या राज्यपाल पद उम्रदराजों के लिए ही है
सोमवार, 29 जून 2009
फूहडता का स्वयंवर
रविवार, 28 जून 2009
मंत्री का दौरा सरकारी मेल मुलाकात रिश्तेदारों से
शनिवार, 27 जून 2009
माइकल जयकिशन नहीं रहे
खंडूरी के उत्तराखंड में तीन दिन-1
शनिवार, 20 जून 2009
उप्र पुलिस ने डाकू मारा मप्र सरकार ने इनाम बढाया
शुक्रवार, 19 जून 2009
उदारवाद की राह पर जाने की तैयारी में संघ
गुरुवार, 18 जून 2009
इस बात पर तो बोलना पडेगा जयho
मंगलवार, 16 जून 2009
विरोध करने के लिए विरोध की मानसिकता
सोमवार, 15 जून 2009
लौट के क्रिकेट के बुद्धू घर को आए
रविवार, 14 जून 2009
देशज शब्द और उनकी द्रश्यात्मकताः जैसे लौलइयां और पीरे बादरों
शनिवार, 13 जून 2009
संसदस्य एकस्मिन दिवसे
मित्रों शीर्षक देखकर चैंकिए मत मैं संस्कृत कोई आख्यान आपको नहीं सुना रहा हूं, मैं तो मात्र भाषा हिंदी में ही आपसे रूबरू हूं, दरअसल यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसा मुंबईया सिनेमा में जिसे अब हालीबुड की नकल में बालीवुड कहा जाने लगा, हिंदी फिल्मों के नाम अंग्रेजी में होते हैं। लेकिन मैं चूंकि पिछडी हुई सोच का आदमी हूं सो बात हिंदी में कर रहा हूं लेकिन शीर्षक पांच हजार साल पुरानी भाषा संस्कृत में रख लिया है। यह शीर्षक भी मैंने महाकवि कालिदास से उधार लिया है, बिना कोई रायल्टी दिए। मैं रायल्टी देना भी चाहूं तो दूं किसे? कालिदास के बारे में कहा जाता है कि उनकी ज्ञान और भावेंद्रियां जाग्रत होने से पहले वे इतने मूढ थे कि जिस डाल पर बैठे थे, उसे ही काट रहे थे। लेकिन जब उनका कवित्व जागा तो वे संस्कृत सबसे उदभट कवि बन गए। तब भी जब वे थे और अब भी जब ढाई हजार साल उनके होने के वक्त को बीत चुके हैं। लेकिन हमारे देश में जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काटने वाले सैकडों नहीं लाखों की तादाद में हैं, हालांकि उनमें से कोई कालिदास नहीं बन रहा है। पैसे की चकाचैंध में न तो उन्हें और न ही राह दिखा सकने वालों को यह समझ आ रहा है कि कोई तो उन्हंे बताए कि भाई आप जिस डाल पर बैठे हो उसी को काटोगे तो खुद भी तो बर्बाद हो जाओगे। खैर आज शनिवार है और मैं वादे के मुताबिक यह रचना लेकर आपके सामने हाजिर हूं, मुलाहिजा फरमाइए। तो संसदस्य एकस्मिन दिवसे शीर्षक महाकवि कालिदास से साभार है। लेकिन उनके आषाढस्य एकस्मिन दिवसे जैसी प्रणय था इसमें नहीं है, क्योंकि इस मामले में अपन शून्य ही हैं, आज की प्रणयी बैंक बैलेंस देखती है और अपने पास न कभी था, न है और न होने की कोई आशंका ही है। खैर मैं तो आपको एक स्वप्न की गाथा सुनाना चाहता हूं, वह सुस्वप्न है या दुःस्वप्न यह आपके उपर छोडता हूं। दरअसल मुझे कल रात सपने में संसद दिखी, कैसी थी, ज्यों की त्यों पेश है। आप चाहें तो मेरे शीर्षक को संसदस्य एकस्मिन रात्रौ पढ सकते हैं।
पहलासीनघोषणा- माननीय सदस्यगण, माननीय अध्यक्ष महोदय।
अध्यक्ष के आते ही सभी उठकर खडे हो जाते हैं, बडा ही कोलाहल है, जो शून्यकाल को भी मात करता प्रतीत हो रहा है।
कई महिला सदस्य एक साथ- यह सरासर अन्याय है, क्या इस पवित्र सदन का आरंभ गलत उदघोषणा से होगा। हम भी यहां हैं और आसंदी पर भी महिला हैं। वही सदियों पुरानी पुरूषवादी परंपरा चल रही है। माननीय सदस्यगण और माननीय अध्यक्ष महोदय कहा गया। जबकि माननीय सदस्या देवियों और सदस्यगण, माननीया अध्यक्ष महोदया कहा जाना चाहिए था।
अध्यक्ष महोदया मुस्कराते हुए- देखिए, महिला बिल पेश होने के बाद आपसे मुखातिब होने का यह पहला ही मौका है, बिल पास हो जाएगा तो सदन धीरे धीरे आपके मुताबिक परंपराएं भी सीख लेगा। कृपया शांत हो जाइए।जद-यूआई-अध्यक्ष महोदया मैं। आपके माध्यम से कहना चाहता हूं कि यह जो महिला बिल पेश हुआ है, यह अधूरा है। इसमें आरक्षण के अंदर आरक्षण तो है ही नहीं। आखिर कब तक मजलूमों और अकलीयतों को पार्लियामेंट में आने से रोका जाएगा। हम यह बिल पास नहीं होने देंगे। अगर ऐसा हुआ तो हम....। शोर शराबे में कुछ सुना नहीं जा सका।
कांग्रेसी- आप लोग महिलाओं को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं, इसलिए ऐसे अडंगे लगाते हैं। हमारी यहां तो सोनियाजी ही हाईकमान हैं तो पहले से ही महिलाओं की सत्ता चल रही है, इसके पहले इंदिरा जी सत्ता में थीं।
भाजपाई- इसलिए हम कहते हैं सरकार कठपुतली है, मनमोहन जी कमजोर प्रधानमंत्री हैं। असली सत्ता तो सोनियाजी हैं। फिर भी हम बिना अगर मगर के इस बिल को पास करवाने के लिए तैयार हैं।
कांग्रेसी- हमारे यहां सोनियाजी ही सत्ता हैं, इसमें किसी को कोई शक है क्या? आपके यहां महिलाओं की क्या स्थिति है, उमा भारती से पूछे ?
भाजपाई- देखिए आपके यहां भी जयंती नटराजन के साथ आपने क्या किया था, जब उन्होंने कर्नाटक में टिकिट बिकने की बात कह दी थी, आप कोई दूध के धुले नहीं हैं।
सपाई- आप लोग विषय से भटकाने की बात मत करिए, आरक्षण के अंदर आरक्षण की मांग का समर्थन तो उमा भारती भी कर रही थीं, जब वे भाजपा में थी, इसी वजह से आपने बहाना बनाकर उन्हें पार्टी से निकाल दिया, आपकी पार्टी पिछडा विरोधी है। देखिए न कल्याण सिंह जैसे पिछडे भाजपाई को हमने साथ लिया है। भाजपा तो है ही दो तरह की बात करने वाली पार्टी, इसीलिए तो सरकार नहीं बना पाए आप लोग।
भाजपाई- तो आपने चुनाव में कौन सा तीर मार लिया, कल्याण से आपका क्या खाक कल्याण हुआ, अब आप न केंद्र में न सत्ता पक्ष में हैं और न विपक्ष में त्रिशंकु हो गए त्रिशंकु।
स्पा हम अब भी यूपीए में हैं।
भाजपाई- जरा कांग्रेसियों से तो पूछ लो, आपका पासवान जी और लालू जी का साथ उनको चाहिए ही नहीं। जबरन ही आप खुद को यूपीए में बताते फिर रहे हो।
अध्यक्ष महोदया- अशांत हो जाइए, महिला बिल पर बात करिए। बिल के अलावा जो भी बात की जा रही है उसे रिकार्ड में नहीं लिया जाएगा।
भाजपाई- महिलाओं के बारे में इन सपाईयों के विचार अच्छे नहीं है, इमराना मामले में मुलायम सिंह यादव ने कटटरपंथियों की तरफदारी की थी।
सपाई- जबाबी शोर के साथ.....महिलाओं की इतनी ही तरफदारी है तो उमा भारती को पार्टी मंे वापस लाकर फिर मुख्यमंत्री क्यों नहीं बना देते।
शोर बढता गया और अध्यक्ष ने सदन की कार्यवाही स्थगित कर दी।
दूसरा सीनसदन फिर समवेत हुआ
सपाई- माननीय अध्यक्ष महोदय भाजपा साम्प्रदायिकता के नाम पर वोट मांगती है, महिलाओं के मामले मंे इनका रवैया ठीक नहीं है। यह पार्टी दोहरी मानसिकता वाली है, एक बार इनकी मान्यता दोहरी सदस्यता के चलते खत्म भी हो चुकी है।
भाजपाई- अध्यक्ष महोदया, यह जनता का अपमान है, हमें जिस जनता ने वोट दिया है साम्प्रदायिक कहकर उसका अपमान किया जाता है।
कांग्रेसी- साम्प्रदायिक तो हैं ही आप लोग, मदनलाल खुराना को आपने इसीलिए पार्टी से बाहर कर दिया था कि वे गुजरात के दंगों के लिए वहां की सरकार को दोषी मान रहे थे।
भाजपाई- साम्प्रदायिक तो आप लोग हैं, 84 के दंगों के आरोपियों को कई कई बार सांसद और केंद्र में मंत्री बनाया, अबकी बार ऐन टाइम पर चुनावी नफा देखकर टाइटलर और सज्जन कुमार के टिकिट काटना पडे।
कांग्रेसी- हमारे पीएम 84 के लिए माफी बहुत पहले ही मांग चुके हैं। टिकिट तो हमने प्रत्याशियों की मर्जी से ही काटे।
भाजपाई- प्रत्याशियों की मर्जी से या सिख पत्रकार के जूते से?
सदन फिर शोर शराबे में डूब गया, नौबत हाथापाई की आ गई, अध्यक्ष ने सदन की कार्यवाही फिर स्थगित कर दी
तीसरा सीन
कार्यवाही फिर शुरू हुई, नजारा वही हंगामे भरा।
अध्यक्ष महोदया- देखिए महिला बिल पेश हो चुका है, उस पर चर्चा होना है।
भाजपाई- अध्यक्ष महोदया, कांग्रेेस को माफी मांगना होगी हमें साम्प्रदायिक कहने के लिए।
कांग्रेसी-यह भाजपा के लोग सदन मंे सिर्फ हंगामा करते हैं, जहां तक महिला बिल की बात है तो पांच साल पहले सोनियाजी के प्रधानमंत्री बनने का विरोध कर यह साबित कर चुके हैं कि भाजपा महिला विरोधी है।
भाजपाई- और आप राष्ट्रवादी कांग्रेस पाटी्र के सहयोग से पांच साल सरकार चलाने के बाद फिर पांच साल उनसे सहयोग ले रहे हैं, महाराष्ट्र में आप उनसे सहयोग ले ही रहे हैं। सोनियाजी के विदेशी होने का विरोध करने केे लिए ही तो यह पार्टी बनी थी। अब बताइए किसका चरित्र दोहरा है?
कांग्रेेसी- एनसीपी के पीए संगमा ने माफी मांग ली है हाल ही में, आप लोग अखबार नहीं पढते क्या?
भाजपाई- बेटी अगाथा को मंत्री बनाए जाने पर यह संगमाजी का अपने ढंग का आभार प्रदर्शन था, क्या शरद पवार उनसे सहमत हैं और माफी मांगेंगे?
राजदाई- यह भाजपा यूपीए में फूट डालने की चाल चल रही है, हम लोग इसकी चाल में नहीं आएंगे।
भाजपाई- आप लोग यूपीए में अब भी हैं क्या? एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लडकर आप केवल चार ही सीटें ला पाए, फिर भी यूपीए की चिंता?
राजदाई- फिकिर मत करिए नीतिश बाबू भी यूपीए में आ जाएंगे।
सदन एक बार फिर शोर में डूब गया, कार्यवाही 10 मिनिट के लिए स्थगित
सीन आखिरी
कार्यवाही फिर आरंभ हुई
भाजपाई- देखिए हमारा विरोध सोनियाजी से नहीं उनके विदेशी मूल से था, उस पर हम अब भी कायम हैं लेकिन हम महिला बिल पर सहमत हैं। हमने अपने यहां 33 प्रतिशत आरक्षण लागू किया है। भविष्य में उसके पालन पर भी विचार करेंगे।हमारे यहां महिला नेताओं की न कमी है और न ही हम उन्हें आगे बढने से रोकते हैं। अभी भी सदन की उपनेता सुषमा स्वराज को बनाया है।
राजदाई- ये लोग राबडी देवी का भी विरोध किए थे लेकिन न हम तो इनसे डरे और न आज डरते हैं।
जद-यूआई- विरोध राबडी देवी का नहीं किए थे हम लोग, हम तो जंगलराज का किए थे, विरोध जनता ने हमारा साथ दिया, अब लालू, पासवान कहां हैं, बताईए तो बिहार में?
कांग्रेसी- अध्यक्ष महोदया, ये सदन का वक्त बर्बाद किया जा रहा है, ये महिला बिल से ध्यान हटाने की साजिश है।
कई दलों की महिला सदस्य एक साथ
सही बात है अध्यक्ष महोदया, पुरूष सदस्य नहीं चाहते कि महिला बिल पर चर्चा हो और उसे पारित किया जाए। हम आज इस बिल को पास करवाकर ही मानेंगी, वर्ना यहीं हडताल करेंगी। हम पूरे देश में हडताल करेंगे, महिलाओं का आव्हान करेंगी कि जब तक यह बिल पास न हो जाए, वे खाना नहीं बनाएं और न ही घर के कोई और कामकाज करें। शोर बढता ही गया। मैं घबराकर उठ बैठा। पत्नी जगा रही थीं, वह भी डांटते हुए- न टाइम से सोना, न टाइम से उठना, घर का कोई काम नहीं करना। घडी तो देखो जरा, सुबह के नौ बज रहे हैं। पत्नी की बात सही थी, पत्नियां जितना काम करती हैं, हम करते हैं क्या? जवाब है नहीं करते। अखबार उठाया, उस पर नजर घुमाई, मुख्य शीर्षक था- संसद में महिला बिल पर बहस जारी है।।मैंने सोचा हे प्रभु अभी से ये हाल हैं तो बिल पारित होने पर क्या होगा, हम पुरूषों का। हे प्रभु हमें बचा, शरद यादव को बचा, महिला बिल को फिर ठंडे बस्ते में डालने की मति श्रीमती सोनिया गांधी को दे। आमीन! : सतीश एलिया
शुक्रवार, 12 जून 2009
भाजपा की समस्या क्या है?
गुरुवार, 11 जून 2009
वक्त के सफीने से चंद अल्फाज
तेरी यादों से बावस्ता होने सेमिलता है सुकूं मेरी रूह कोकहां मैं तेरे नाम के बगैर सांस लेता हूं।
जुदाई की तडप है यादों के बलबले हैं,बिन तेरे जीने के इम्तिहां में हार जाता हूं।
मशरूफियत, जिंदगी की जददोजहद सेमिल जाती है राहत मुझकोदिल पर रखकर हाथ जो तेरा नाम लेता हूं।
यूं तो जिंदगी की सख्तगी कोहंसते हंसते झेल लेता हूंजब तेरी याद आती है तो जार जार रोता हूं।
मैं सौ सौ कसमें खाता हूं फिर भीहर बार तेरी यादों में गुम हो जाता हूं।
सतीश एलिया
भोपाल 10 जून 1992
बुधवार, 10 जून 2009
हबीब तनवीर के नाटकों को याद करते हुए भाग-2
मित्रो, गांव की माटी की छुअन, लोकमंच की सुगंध को समेटकर नया थिएटर से भारतीय रंगमंच को नया मकाम देने वाले हबीब तनवीर यहां भोपाल में मंगलवार की शाम सुपुर्दे खाक हो गए। रंगमंच के अलावा टीवी सीरियल कब तक पुकारूं और प्रहार जैसी फिल्म में उनकी उपस्थिति भी आपको याद होगी। मैंने उनके दो नाटकों के प्रदर्शन की समीक्षा पिछले अंक में आपको पेश की थी, दूसरी किश्त में अब दो और नाटकों की बात पेश है, इनमें हबीब साब के चरणदास चोर की प्रस्तुति भी है।
अपनी ही आशंका को सच किया हबीब तनवीर ने
देशबंधु, भोपाल 17 फरवरी 1993स्थानः भारत भवन का अंतरंगमौकाः भारत भवन की सालगिरह का समारोह
आज भारत भवन के अंतरंग में हबीब तनवीर के निर्देशन में खेला गया नाटक कामदेव का अपना, बसंत ऋतु का सपना, न तो कामदेव से संबंधित है और न ही बसंत ऋतु से। यह शेक्सपियर के नाट अ मिडसमर नाइटस ड्रीम्स का लचर रूपांतरण भर बन पाया, दर्शकों ने भी इसे कमजोर माना। शेक्सपियर के नाटक के जो द्रश्य श्री तनवीर ने लिए हैं, उनमें भी रूपांतरण ने खलल ही डाला है। एथेंस के डयूक थीसस का अपनी मंगेतर से प्रणय वाला द्रश्य भी कामेडी बन गया और देशीपन डालने के उददेश्य से बस्तर का न्रत्य भी दर्शक को बांध नहीं पाया। जंगल में परियों की रानी और राजा वाले प्रसंग में राजा द्वारा रानी को छकाना जरूर कुछ हास्य पैदा करता है। एथेंस के मजदूरों द्वारा डयूक को प्रसन्न करने नाटक और उसकी रिहर्सल दर्शकों को मसखरी का मजा देती है। छत्तीसगढ अंचल की नौटंकी से मिलता जुलता और आदिवासी बोली का ज्यादा प्रयोग नायक को मसखरा बनाता है। नाटकों में काॅमेडी भी दर्शकों को अलग दुनिया में ले जाती है, और मानवीय भावों का विवेचन करती है लेकिन कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना, यह असर नहीं छोडता।द्रश्यांतर और द्रश्यों में आए गीत अपभी लय और संगीत के कारण भले लगते हैं। संवादों का जोर जोर से बोलना नाटक में खटकता है। हबीब तनवीर के ही शब्दों में हाल में कुछ नाटय रूपांतरण किए जो अधिकतर गद्य रूप में हैं और कुछ मूल में अत्यंत बेढंगे और अधकचरे। यहां तक कि पद्य में किए गए अनुवाद भी अक्सर कुद ऐसी गीतात्मकता लिए होते हैं, जो अतिभावुक कविता के लक्षणों के करीब ठहरती है। उनका यह नाटय प्रदर्शन शेक्सपियर के नाटक का यही हाल करता लगता है। - सतीश एलिया
दर्शकों ने सर आंखों पर लिया हबीब के चरणदास चोर को
दैनिक नई दुनिया
भोपाल, 1997 की कोई तारीखस्थानः रवींद्र भवनमौकाः चरणदास चोर का मंचन
भोपाल को देश के नक्शे पर सांस्कृतिक राजधानी बनाने की गरज से अस्सी के दशक में कला और सांस्कृतिक आयोजनों के अतिरेक के बाद नब्बे के दशक में इस क्षेत्र में उतर आया शून्य और सन्नाटा अब टूटने लगा है। खासकर रंगकर्म के क्षेत्र में तो दर्शक की लगभग अनुपस्थिति का कडवा सच अब उसकी उपथिति से मीठे सच में तब्दील हो रहा है। भारत भवन के अंतरंग में उषा गांगुली के नाटक रूदाली और आज रवींद्र भवन में हबीब तनवीर के नाटक चरणदास चोर के प्रदर्शन में दर्शकों की मौजूदगी से भोपाल में नाटक के जी उठने की उम्मीद बंधी है। थिएटर का मर्सिया पढने वालों को आज रवींद्र भवन में होना चाहिए था, जब दर्शकों की तालियां थमने का नाम नहीं ले रही थीं। आज दर्शक न केवल आए बल्कि इस कदर आए कि हालत यह हो गई कि आयोजकों को फुल हाउस का बोर्ड लगाना पडा। सांस्कृतिक संस्था सूत्रधार के हफते भर के नाटय समारोह का आगाज हबीब तनवीर के विख्यात नाटक चरणदास चोर से हुआ। उनके नया थिएटर की इस प्रस्तुति में छत्तीसगढ की लोक नाटय, लोकन्रत्य और लोकगान शैली की पुरअसर छाप के साथ नाटक की वर्तमान पहुंच ने दर्शकों को दो घंटे बांधे रखा। कथ्य के बीचबी में कोरस गान और पंथी न्रत्य की सधी लय ताल ने चरणदास चोर के संदेश को सही ढंग से दर्शकों तक पहुंचाया। बात रवींद्र भवन में हबीब के निर्देशकीय कौशल और उनके लोकरंग से जुडाव को दर्शकों ने सर आंखों पर लिया।चरणदास चोर का कथ्य लोककथा पर आधारित है, जिसमें चोर अपने गुरू को झूठ न बोलने का वचन देता है और प्राण तजकर भी उसे निभाता है। चरणदास गुरू को हाथनी पर न बैठने, सोने की थाली में न खाने, रानी से ब्याह न करने तथा सत्ता न स्वीकारने का वचन देता है और उसे निभाता भी है। हास्य व्यंग्य शैली में समाज, धर्म, राजनीति और सत्ता की कुटिलताओं को बयान करते चलते इस नाटक में चरणदास बने चैतराम, गुरू बने भुलवाराम, रानी बनी अंगेश नाग और हवलदार के रूप में खुद हबीब तनवीर ने जीवंत अभिनय किया। अन्य सहयोगी कलाकारों ने नाटक की गति को बरकरार रखा और पंथी न्रत्य दल ने तो जैसे दर्शकांे को साधे रखा।नाटक का क्लाइमैक्स चरणदास चोर की अपनी सत्य निष्ठा पर पा्रण न्यौछावर करने से होता है। चरणदास की लाश को उठाकरन ले जाने का द्रश्य हबीब तनवीर के दूसरे ख्यात नाटक जिस लहौर नई वेख्या ओ जन्म्याई नईं की तरह दर्शकों को सनाके में छोडता है। लेकिन यहां हबीब सत्य की समाधि बनवा देते हैं और उसकी पूजा करवा देते हैं, इससे नाटक का क्लाइमैक्स दर्शकों के सामने छोडे सवाल के असर को कुछ कमजोर कर जाता है। आज की प्रस्तुति में संगीत पक्ष सशक्त रखा खासकर हारमोनियम से स्रजित पाश्र्व संगीत। आज की प्रस्तुति में नया थिएटर, चरणदास चोर और दर्शकों के बीच कुछ खटका तो रवींद्र भवन का हाॅल। हाॅल में मंच से ध्वनि दर्शकों तक पहुंचने में अपना असर खो रही थी और उमस से भरे खचाखच हाॅल में पंखे तक नहीं चल रहे थे। एक अच्छे नाटक को देखने में दर्शकों को गर्मी, उमस झेलना पडे। इसी वजह से मध्यांतर में कुछ दर्शक चले भी गए। -सतीश एलिया
मंगलवार, 9 जून 2009
हबीब तनवीर के नाटकों को याद करते हुए- भाग-1
जिस लहौर नईं वेख्या ओ जन्म्याई नईंः साम्प्रदायिकता के मुहं पर तमाचा
देशबंधुभोपाल, 18 सितंबर १९९३
स्थानः रवींद्रभवनाधर्म का मूल संदेश बंधुत्व, मानवीयता और सहिष्णुता है। चंद राजनीतिबाज और असामाजिक तत्व धम्र को कटटरता के दायरे में लाने का कुत्सित प्रयास करते हैं। जिससे भारत विभाजन जैसी त्रासद स्थितियां निरीह नागरिकों को झेलना पडती हैं। इस सबके बावजूद इंसानियत और भाईचारा खत्म नहीं होता लेकिन सदभावना को हमेशा ही कठमुल्ला और जडचेतना के हामी लोगों से खतरा बना रहता है। यह केंद्रीय भाव है असगर वजाहत लिखित और हबीब तनवीर लिखित नाटक -जिस लहौर नईं वेख्या ओ जन्म्याई नईं , का। रवींद्र भवन के सभागार में हबीब तनवीर निर्देशित इस नाटक की कथा वस्तु का केंद्र है देश के विभाजन के तत्काल बाद की घटनाएं। लेकिन कटटरपंथियां का धर्म का ठेकेदार बनने का प्रयास तािा इंसानियत को दबोचने का कुजक्र आज के माहौल को शिददत से हमारे सामने आता है। नाटक धर्म के कथित ठेकेदारों को बेनकाब तो करता ही है, सभी धर्मों के सारतत्व सदभाव और बंधुत्व को प्रभावी ढंग से उभारता है। नाटक में विभाजन के बाद की स्थिति का सजीव चित्रण है। लखनउ से सिकंदर मिर्जा का परिवार लाहौर पहुंचता है, वहां उन्हें एक हवेली एलाट होती है। यह परिवार जब हवेली में रहने पहुंचता है तो पता चलता है कि वहां एक बूढी महिला पहले से ही रहती है। मिर्जा उससे हवेली खाली करने को कहते हैं लेकिन महिला कहती है मैं मर जाउंगी लेकिन हवेली खाली नहीं करूंगी, यह हवेली मेरी है। यह बुजुर्ग महिला रतन जौहरी की मां है। रतन विभाजन के बाद हिंदुस्तान जा बसा है। मिर्जा रतन की मां को समझाते हैं- रतन की मां को अब हिंदुस्तान चले जाना चाहिए क्योंकि अब पाकिस्तान में कोई हिंदू नहीं रह सकता। मिर्जा रतन की मां को हवेली से बेदखल करने के लिए सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत भी देते हैं, लेकिन काम नहीं बनता। इस बीच रतन की मां लखनउ से लाहौर आए इस मिर्जा के परिवार की मदद घर के बुजुर्ग की तरह करती है। मिर्जा की पत्नी, बेटी, बेटा रतन की मां को चाहने लगते हैं। स्वयं मिर्जा जो रतन की मां को मारने के लिए गुंडों को पांच हजार रूपए देने पर राजी हो गए थे, अब उन्हें माई कहने लगते हैं। गुंडे अब मौलवी के पास जाते हैं कि एक काफिर लाहौर में नहीं रह सकता। मौलवी उनसे जब यह सवाल करते हैं कि इस्लाम क्या है? तो गुंडांे के पास कोई जबाव नहीं होता, वे गालियां कने लगते हैं। नाटक में कइ्र हास्य प्रसंग भी हैं, जो उसे सहज बनाने में मददगार साबित होते हैं।रतन की मां मिर्जा परिवार की सदस्य हो जाती हैं, यही नहीं पूरा मोहल्ला उस हिंदू महिला से प्यार करने लगता है। दीवाली पर सब रतन की मां के साथ त्यौहार मनाते हैं। नाटक में एक शायर है नासिर काजमी जो इंसानी जज्बों को खूबसूरत शेरों में बयान करता है। वह विभाजन के दर्द को भी शायरी में बयान करता है। यही नहीं नासिर गुंडों से भी नहीं डरता वह कहता है- ये लोग परेशान रहते हैं, परेशान करते हैं और परेशान ही मर जाते हैं।असामाजिक तत्व इस्लाम के नाम पर रतन की मां को पाकिस्तान से भारत भेजने के लिए हिंसा का माहौल बनाते हैं, लेकिन मिर्जा परिवार, नासिर, मौलवी साहब और मोहल्ले के लोग पुरजोर विरोध करते हैं। मिर्जा परिवार को संकट में फंसा देख एक दिन अचानक रतन की मां ठान लेती है कि वो दिल्ली जाएंगी। लेकिन मिर्जा के बच्चे रोने लगते हैं और मिर्जा परिवार रनि की मां को अपनी कसम देकर कीाी लहौर न छोडने का वादा ले लेते हैं। एक दिन रतन की मां की मौत हो जाती है। अब समस्या उनके अंतिम क्रिया कर्म की आती है। मौलवी साहब राय देते हैं कि रतन की मां जीवन भर हिंदू रहीं इसलिए हिंदू रीति से उनका अंतिम संस्कार किया जाए लेकिन कटटरपंथी एक बार फिर इस निर्णय का विरोध करते हैं। इस बार मौलवी साहब की हत्या कर दी जाती है। अब रतन की मां की अर्थी और मौलवी साहब का जनाजा एक साथ उठता है, कठमुल्ले फिर हमला करते हैं और कत्ले आम शुरू हो जाता है।नाटक का अंत त्रासद है। लेकिन वह हमें झकझोरता है कटटरवाद के खिलाफ, और हमारी आंखें खोलता है कि बंधुत्व सारे धर्मों का सार है। नाटक की प्रस्तुति के बीच में गीत और गजलों का समावेश है जो मुख्य मंच से परे बाहर की ओर समूह रूप में पेश होते हैं। गीतों का चयन और संगीत ह्रदय स्पर्शी है। नाटक में गीत द्रश्य परिवर्तन के समय आते हैं लेकिन वे सहजता से आए हैं। बेशक हबीब तनवीर श्रेष्ठ निर्देशक हैं। यह बात नाटक के एक एक फ्रेम में नजर आती है। नाटक में शामिल ये गीत पूरी प्रस्तुति को ताकत देता है- जुल्म तो जुल्म है बढेगा तो मिट जाएगा, खून तो आखिर खून है गिरेगा तो जम जाएगा। जिस लहौर नईं वेख्या ओ जन्म्याई नईं, देखने के बाद दर्शक वही नहीं रहता जो वह नाटक देखने से पहले था। निश्चय ही वह साम्प्रदायिकता के खिलाफ हो जाता है, और यही नाटक की सफलता है। - सतीश एलिया
देशबंधुभोपाल, 16 फरवरी, १९९४
स्थानः भारत भवन
मौकाः भारत भवन वर्षगांठ समारोह
यक्ष प्रश्न को एक बार फिर पूछता है देख रहे हैं नैन
हम सबकी जिंदगी में ऐसे क्षण आते हैं जब हमें अपने ही कर्म और प्रतिबद्धता संदिग्ध लगने लगते हैं। उंची से उंची स्थिति में पहुंचा हुआ आदमी भी खुद को संदेह के घेरे में खडा पाता है और यहीं से शुरू होती है बेचैन मन की खुद के काम से संतुष्ट होने की यात्रा। यह केंद्रीय भाव है हबीब तनवीर के नाटक देख रहे हैं नैन का। श्री तनवीर मौजूदा समाज को बेनकाब करने के साथ ही सवाल खडे करते हुए चलते हैं और पूरे नाटक में दर्शक उनकी उंगली थामे चलता है और आखिर में उसके सामने एक प्रश्न खडा हो जाता है, तनवीर उंगली छोडकर चले जाते हैं। जर्मन कथाकार स्टीफन ज्वाएग की कहानी विरत पर आधारित यह नाटक आज के दौर को भी सपाट बयानी के साथ प्रस्तुत करता चलता है। हबीब तनवरी इस नाटक में अपने पुराने तेवर के साथ नए अंदाज में आते हैं। द्रश्य परिवर्तन के समय गीतों का होना कथानक को मजबूत ही करता है। नाटक में कुछेक संवाद सभ्य कहे जाने वाले समाज में अश्लील कहे जा सकते हैं, लेकिन वे हमारे समाज में हैं और नाटक में वे सहज ढंग से आए हैं अैर द्रश्य तथा पात्र की भावदशा से एकमेक हैं।नाटक का कथानक कुछ इस तरह से है कि राजा विजयदेव के राज्य में जनता महंगाई से पीडित है, ऐसे में युद्ध शुरू हो जाता है और जनता में से कोई राजा की सेना में शामिल नहीं होना चाहता। विरत अपने पुत्रों, संबंधियों और बचे खुचे सैनिकों को लेकर विजयदेव का राज्य बचा लेता है। लेकिन उसक हाथें राजा के विरोधी अपने ही भाई की हतया हो जाती है। म्रत भाई की आखें देख विरत अपने कर्म पर पछताता है, अब वह युद्ध से विरत हो जाना चाहता है। राजा उसे सेनापति बनाना चाहता है, लेकिन विरत राजी नहीं होता। राजा उसे न्यायधीश बना देता है। न्याय के बंधे बंधाए ढर्रे पर चलते न्यायधीश विरत की अदालत में एक हत्यारे गोमा को लाया जाता है। उसका अपराध है कि वह गां के मुखिया की बेटी से विवाह करना चाहता है, उसकी प्रेमिका का पिता बेटी को कहीं और ब्याहना चाहता है। गोमा मुखिया समेत 11 लोगों को मार डालता है। न्यायधीश विरत गोमा को 11 वर्ष कारावास और हर साल सौ कोडों की सजा सुनाता है। अपने पक्ष में गोमा बस इतना कहता है कि हमारे घर जलाए गए, जाति के नाम पर प्रेमिका से शादी नहीं होने दी और लडकी बेच दी, यह अन्याय नहीं और मैंने जुनून में हत्या कर दी तो यह जुम है और फिर तुम जो दंड देते हो उसे भुगता है? क्या तुम भगवान हो? गोमा कि आंखों में वही सवाल कि क्या तुम सही कर रहे हो? विरत को विचलित कर देता है। वह एक माह का अवकाश लेकर गोमा की जगह कारावास भुगतता है, राजा उसे मुक्त करता है। अब विरत न्यायधीश नहीं रहना चाहता। राजा उसे जागीर देता है। सुकून की जिंदगी जी रहे विरत को एक दिन पता चलता है कि उसके बेटे लोगों को गुलाम बनाकर न केवल उनसे काम करा रहे हैं बल्कि अत्याचार भी कर रहे हैं। रोकने पर बेटे के सवाल उसे बेचैन कर देते हैं, वह संन्यासी हो जाता है। संन्यास में भी बेचैन आंखों का सवाल उसे परेशान करता है, तुम क्या कर रहे हो? वह अब डोम का काम करने लगता है। यहां भी उसके सामने बार बार यही सवाल आता है। असल मंें हम सब विरत हैं और बार बार हमारे सामने भी यह सवाल आता है, इसका उत्तर हमें ही ढूंढना है, यही हबीब तनवीर के इस नाटक का छोडा हुआ सवाल भी है। तनवीर ने नाटक में सात गीत पिरोए हैं, जो सवाल की शक्ल में बार बार बल्कि हर द्रश्य में आते हैं। तनवीर की खासियत है कि वे नाटकों में मौजूदा व्यवस्था के मुखौटे नोंचते चलते हैं। देख रहे हैं नैन, हमारे भीतर बैठे साक्षी के नैन हैं, जो सवालों को हल करने की मांग करते हैं। इस नाटक में बस्तर का भी पुट है और जवारा काली पूजा भी अपने पूरे असर के साथ नाटक में मौजूद है। द्रश्य परिवर्तन के लिए ज्यादा प्रयुक्त हुए गीत कभी कभी द्रश्यों के साथ भी चलते हैं, बस्तर की लोकधुन नाटक की जान है।
हबीब तनवीर के बारे में
रंगमंडल विवाद के वक्त मैं नया थिएटर से जुडे मेरे बिलासपुर निवासी मेरे मित्र अनूपरंजन पांडे के साथ भोपाल के शिमला हिल स्थिति फ्रलैट में मेरी श्री तनवीर से लंबी बातचीत हुई थी। उनका यह घर भारत भवन से चंद कदम की दूरी पर था। वे रंगमंडल कलाकारों की उनके खिलाफ मुहिम से बेहद विचलित थे, लेकिन उनसे हुई बातचीत में उनका थिएटर के प्रति प्रेम और उनके स्वभाव की गंभीरता ने मुझे बहुत गहरे तक प्रभावित किया। इस मुलाकात के दौरान उनकी पत्नी मोनिका मिश्रा और बेटी नगीन भी थीं। असल में हबीब साहब रंगमंच में जो भी मुकाम हासिल कर सके उसके पीछे की शक्ति मोनिका जी ही थीं। नया थिएटर उन्हीं की देन था, जिसने हबीब तनवीर को अंतरराष्ट्रीय ख्याति दी और छत्तीसगढ के देशज कलाकारों को रंग आकाश दिया। मोनिका जी ने रंगमंच के मंच पर और नेपथ्य में हबीब तनवीर की पहचान नया थिएटर को उसका मकाम दिलाने में अहम किरदार निभाया। हर कामयाब पुरूष के पीछे महिला की शक्ति होने की कई मिसालों में से यह भी एक मिसाल थी, मैंने इस मुलाकात में इसे शिददत से महसूस किया था। एक और बात जो मुझे बेहद प्रभावित कर गई थी, वो ये कि हबीब साहब, उनका परिवार और नया थिएटर जो उनके परिवार का ही विस्तार था, आपस में अभिवादन के लिए जय शंकर का उदघोष करते थे। मुझे शुरू में यह कुछ अटपटा सा लगा लेकिन फिर में भी अनूप रंजन पांडे की ही तरह इस विस्तारित परिवार का हिस्सा बन गया। लेकिन जैसा कि होता है, वक्त गुजरता जाता है, वे चीजें आपसे छूटती जाती हैं, जो आपको प्रिय होती हैं। पत्रकारिता के बाद के सालों में मेरा कला और रंग जगत से नाता टूट गया और फिर सालांे हबीब साहब से मुलाकात नहीं हुई। लेकिन उनके गुजरने की खबर सुनने के बाद लगातार ऐसा लग रहा है, जैसे उनसे मुलाकात अभी कल ही तो हुई थी, उन्होंने तंबाकू वाली पाइप पीते हुए मेरे अभिवादन के प्रत्युत्तर में कहा था जयशंकर। हबीब साहब को मेरी श्रद्धांजलि। आज ही दूसरे पोस्ट में हबीब साहब के तीन नाटकों के भोपाल में प्रदर्शन पर उसी दिन मेरी लिखी और प्रकाशित समीक्षा को आपके लिए प्रस्तुत करूंगा।
मेरी खबरों की कतरनों से
मैं नियम विरोधी कलाकारों व लापरवाह प्रशासन के बीच सेंडविच बन गया थाः हबीब तनवीरभोपाल, 30 अप्रैल,96। बागी कलाकारों के रवैये और प्रशासन के गैर जिम्मेदाराना ढंग से आजिज आकर दो साल के लिए भारत भवन रंगमंडल के निदेशक बनाए गए ख्यात रंगकर्मी हबीबी तनवीर ने नौ माह में ही इस्तीफा दे दिया। कलाकारों के रवैये और प्रशासन से क्षुब्ध श्री तनवीर ने कहा है कि वे रंगमंडल कलाकारों और प्रशासन के बीच सेंडविच बन गए थे। उन्होंने भारत भवन की स्वायत्ता पर भी गंभीर सवाल उठाए हैं।अपने इस्तीफे के साथ नत्थी चार पेज की रिपोर्ट में श्री तनवीर ने कहा है कि- मैं नियम विरूद्ध कलाकारों और बेपरवाह प्रशासन के बीच खुद को सेंडविच की तरह दबा पा रहा हूं। बागी कलाकार लगातार नियमों की खिलाफवर्जी करते रहे और प्रशासन ने किसी एक के खिलाफ भी कार्रवाई नहीं की। रंगमंडल कलाकारों का एक ग्रुप काम करने से इंकार के साथ ही रेपेटरी में नए लोागों को शामिल करने पर भी ऐतराज करते रहे, जबकि वे खुद अनुबंध को आगे बढाते हुए वर्षों से रंगमंडल में हैं।श्री तनवीर ने कलाकारों और उनके बीच विवाद के बारे में रिपोर्ट में लिखा है कि- सात दिसंबर को कुछ कलाकार रिहर्सल छोडकर चले गए। नाटके के प्रदर्शन के तीन दिन पहले रिहर्सल छोडना नाटक को मंझधार में छोडना था। यह कृत्य इसलिए किया गया कि एक कलाकार विभा मिश्रा जो नाटक में मुख्य पात्र की भूमिका के लिए चुनी गइ्र थीं, बाद में चूंकि उनकी तैयारी नहीं थी, इसलिए उनसे यह रोल वापस ले लिया गया। इससे पहले दो अन्य कलाकार संजय मेहता एवं मीना सिद्धू जिन्हें नाटक में महत्वपूर्ण भूमिका दी गई थी, 23 दिन अनुपस्थित रहे। मीना ने विभा वाले रोल को अस्वीकार करने की गरज से लंबी छुटटी ले ली।श्री तनवीन ने रिपोर्ट में लिखा है कि प्रशासन ने इन कलाकारों के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की। जबकि कुछ पुराने कलाकारों का रिकार्ड असंतोषजनकर है। उपस्थिति के मामले में भी ऐसा ही है। विभा मिश्रा ने 1995 में रिकार्ड 167 छुटिटयां लीं, बाकी दिनों में भी तब भी उन्होंने गरम कोट, सराय की मालिकिन और मुद्राराक्षस जैसे नाटकों में काम करने से इंकार कर दिया। श्री तनवीर ने रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि- 1994 में सलाहकार समिति ने विभा मिश्रा के दो साल के अनुबंध को 30 जून के बाद खत्म करने का निर्णय लिया, जिस पर प्रशासन ने अमल नहीं किया। समिति के 8 अगस्त 1987, 24 जुलाई 1988, 15 मई 1989, एक फरवरी 1994 और 4 जुलाई 1996 के फैसलों पर भी प्रशासन ने अमल नहीं किया। श्री तनवीर ने कहा- बेहतर काम के लिए कलाकारों और निर्देशक के बीच अच्छे रिश्ते जरूरी हैं, रंगमंडल कलाकार ऐसा नहीं मानते।
रविवार, 7 जून 2009
देशज शब्द उनके अर्थ और सुगंध जैसे मेहमान और खबर-बतर
शनिवार, 6 जून 2009
मान भी जाइए क्रिकेट हमारा राट्रीय खेल है
हमारा राष्ट्रीय खेल क्या है? चोंकिये मत यह सवाल कोई करोड़पति लखपति बनाने वाले गेम शो या पांच का दम दस का दम जैसे किसी दमादम का हिस्सा नही है। न ही मैं आपके सामान्य ज्ञान की हिमाकत ही कर रहा हूं। दरअसल इस सवाल में मेरी अपनी पीड़ा समाई हुई है। और मैं तो आपसे बस अपनी व्यथा शेयर करना चाहता हूं, अर्थात साझा करना चाहता हूं। वो कहते हैं न कि अपना दुखडा दूसरों के सामने रोने से मन हल्का हो जाता है। तो पाठक व्रंद में भी अपनी पिटाई का दर्द आपके कांधे पर सर रखकर सुनाने का ख्वाहिशमंद हूं। अब आप भी अपनी कोई दर्द भरी दास्तां मुझे मत सुनाने लग जाइएगा। क्योंकि होता यही है कि जिसके पास कांधे की तलाश में जाइए वही अपना सर आपके कांधे पर रखकर रोना रोने लगता है। वो गाना है न दुनिया में कितना गम है, मेरा गम कितना कम है......तो फिर हम अपना गम नहीं सुना पाते। खैर जैसे ट्रेन में सीट पर रूमाल रखकर सीट पक्की कर ली जाती है, जनरल डब्बे में वैसे ही मैंने पहले आपके कांधे पर सर टिका दिया है तो सुनिए मेरी पीडा। दरअसल में अपने मित्र सवालीराम से खासा परेशान हूं, वह गाहे बगाहे जब चाहे मुझसे कोई न कोई सवाल पूछ ही लेता है, और मैं कोई भी उत्तर दूं, पिटता मैं ही हूं। कल की ही बात है सवाली राम मेरे घर पर आया। सवालीराम उसका असली नाम नहीं है, लेकिन सवाल पूछने की आदत के कारण यही नाम विख्यात हो गया है। तो सवालीराम ने आते ही मुझसे सवाल पूछ डाला। न राम राम न दुआ सलाम, सीधा सवाल दाग दिया- हमारे देश का राष्ट्रीय खेल कौन सा है? मैं कुछ पाउं इतना मौका दिए बगैर उसने कहा- जल्दी नहीं है, इत्मीनान से सोच समझकर जवाब देना, क्योंकि इसमें कोई आप्शन या लाइफ लाइन का मौका नहीं है। मैंने सवाल पर हर एंगिल से गौर किया। वामपंथी, दक्षिण पंथी, खिचडी पंथी, तीसरा मोर्चा, चैथा मोर्चा, एनडीए, यूपीए, फुरसतिए लगभग सभी ढंग से सोच लिया। मौका परस्ती, चापलूसी जैसे सदाबहार नजरियों से भी देखने समझने की कोशिश लेकिन उत्तर नहीं सूझ पडा। सिवाय पाठय पुस्तकों और जनरल नालेज की किताबों में दर्ज जानकारी के मैं और क्या उत्तर देता भला। सो मैंने कहा- हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है। अब सवालीराम ने हमेशा की तरह मेरे उपर सवारी गांठी- साबित करो कि हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है। तर्कों और सिद्धांतों को दरकिनार और खारिज किए जाने के दौर में, अपनी बात पर अड़े रहने की अदोलोजि जमकर चल रही है सो मैंने भी सवालीराम से मुकाबला करने के लिए कहा- हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है, क्योंकि वो हमारा राष्ट्रीय खेल है। मेरे हर तर्क को किसी नाकाम सीएम के इस्तीफे की मांग को ठुकराने के अंदाज में माहिर सवालीराम बोला- सांसद क्रिकेट खेलते हैं, क्रिकेट टीम के प्रदर्शन पर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री बयान देते हैं। मराठा क्षत्रप शरद पवार से लेकर दलबदलू बेपैंदी के लोटे राजीव शुक्ला तक और शाहरूख से लेकर शिल्पा और प्रीति जिंटा तक, लिकर किंग विजय माल्या से लेकर डान दाउद इब्राहीम तक, जुआरी से लेकर पनवाडी तक कंडक्टर से लेकर पायलट तक सब क्रिकेट की ही बात करते और खेलते खिलाते हैं, मतलब ये कि पूरा राष्ट्र क्रिकेट मय है। टेस्ट मैच से लेकर बीस-बीस उर्फ टवेंटी-टवेंटी तक क्रिकेट का ही जलवा है, अर्थात पूरा देश क्रिकेटमय है तो फिर भला क्रिकेट राष्ट्रीय खेल हुआ कि नहीं? अब मैं बचाव की मुद्रा में आ गया, कहा- खेलों में राजनीति काहे घुसाते हो। सवालीराम ने मुझे फिर पटखनी दी, खेलों में राजनीति तो पहले से ही है, अब नेता भी घुस आए हैं। मुझे लगा कि अब बुनियाद सवाल उठाने का वक्त आ गया है, सो पूछा- यह तो बताओ सवालीराम कि कभी क्रिकेट खेले भी हो, या यूं ही क्रिकेट को राष्ट्रीय खेल घोषित कराने पर तुले हो? सवाल पूछने की तरह नहले पे दहलानुमा जवाब देने में माहिर सवाली राम बोला- सो तो मैं हॉकी भी कभी नहीं खेला, तो फिर तुम लोग कागजों में हॉकी को राष्ट्रीय खेल बनाए हुए हो कि नहीं राष्ट्रीय खेल हॉकी पर क्रिकेट को भारी पड़ता देख मैं फिर बचाव की मुद्रा में आ गया। पैंतरा बदलने की कोशिश में मैंने कहा- सवालीराम जी आप हाॅकी के खिलाफ बात कर अल्पसंख्यकों की भावना को चोट पहुंचा रहे हैं। कुटिल राजनीतिज्ञ की तरह अल्पसंख्यकों का नाम सुनते ही सवालीराम कुछ चैकन्ना हुआ। मैंने सुनहरा मौका समझकर कहा- हॉकी प्रेमी इस देश में अल्पसंख्यक हैं, आईपीएल के बाद टवेंटी-टवेंटी हो रहा है, नेताओं से लेकर एक्टरों तक की इसमें रूचि है, निर्माताओं का करोडों रूपए लगा है। फिल्में रिलीज नहीं हो पा रही हैं, एक तो मल्टीप्लेक्स वालों का झगडा उपर से यह क्रिकेट टूर्नामेंट। क्रिकेट की तरफदारी बंद कीजिए, अल्पसंख्यक हॉकी प्रेमियों की आवाज को दबाइए मत। टवेंटी टवेंटी में पहले ही दिन धोनी के शेर ढेर हो गए। सवालीराम दबने के बजाय और उभरकर बोले- हॉकी में तुम्हारी टीम कौन से तीर मारती रही है भला, बताओ तो? मैंने कहा- अभी हमारी टीम जीतकर लौटी है, हॉकी से एकजुटता हमारे देश के फिलम प्रेमी तक जमकर दिखा चुके हैं, चक दे इंडिया सुपर डुपर हिट रही थी। सवालीराम ने पलटवार किया- चक दे इंडिया वाले शाहरूख क्रिकेट टीम के मालिक हैं, भले ही हारी हुई सही लेकिन क्या वे हॉकी की टीम के लिए कुछ करते हैं? लगातार सवाल जवाब के इस सिलसिले से मैं थक गया, थक तो सवालीराम भी गए थे, तो मैंने इस निरर्थक निष्कर्ष को पेश करते हुए चीं बोल दिया- हॉकी हमारा घोषित राष्ट्रीय खेल है और क्रिकेट हमारा अघोषित राष्ट्रीय खेल है। इस बीच मोहल्ले में पटाखे फूटने लगे, जून के महीने में दीवाली सा हंगामा सुनाई दिया, पता चला धोने की धुरंधरों ने 20-20 में कोई धमाकेदार जीत हासिल की है। मैं सवालीराम जी को बाहर तक छोडकर अपने कमरे में लौट आया, हालांकि राष्ट्रीय खेल वाले सवाल का जवाब अभी भी नहीं मिल पाया। आपके पास हो तो जरूर दीजिएगा। सुन रहे हैं न मनोहर सिंह गिल साहब..............!
शुक्रवार, 5 जून 2009
पर्यावरण और धरती की चिंता है किसे?
पर्यावरण की चिंता पर 1972 में stokhomeसम्मेलन में उपाय सुझाए गए थे लेकिन विकसित देशों ने ही उन पर गंभीरता से अमल नहीं किया। बीस साल बाद पांच से चैदह जून 1992 को ब्राजील के रियो डि जिनोरियो में प्रथ्वी सम्मेलन में यही चिंता और गंभीरता से सामने आई। पर्यावरण और विकास पर इस संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में 170 देशों के शासनाध्यक्ष और 185 प्रतिनिधिमंडल शरीक हुए थे। तीन हजार प्रतिनिधियों से चैदह दिन तक विचार मंथन किया और घोषणा पत्र जारी हुआ था। जैविक विविधता एवं पारिस्थितिकी संरक्षण तथा जलवायु परिवर्तन जैसे मुददों पर समझौते हुए थे। हालांकि विकसित देशों की दादागिरी के चलते प्रथ्वी संविधान बनाने जैसी महती परियोजना पर विचार नहीं हो सका था। सम्मेलन में 900 पेज का दस्तावेज एजेंडा-21 तैयार हुआ था। जिसमें धरती को स्वच्छ रखने और स्वस्थ पर्यावरण सहित 21 वीं शताब्दी में पर्यावरण की समस्याओं और उनके समाधान भी सुझाए गए थे। आज 18 साल बाद दुनिया पर्यावरण को सम्हालने के मामले में और अधिक नाकाम साबित नजर आ रही है। एक अर्थ में प्रथ्वी सम्मेलन विकसित देशों खासकर अमेरिका की दादागिरी के चलते सफल ही नहीं हो पाया। असल में विकसित देश सारी जिम्मेदारी विकासशील देशों के मत्थे मढने की फितरत बरकरार रखने में हर बार कामयाब हो जाते हैं। इन 18 सालों में ओजोन परत के छेद और गहरा गए हैं। पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग का प्रकोप झेल रही है। कई ग्लेशियरों का अस्तित्व खतरे में है। तापमान का इजाफा न केवल मनुष्य बल्कि अन्य जीव और वनस्पतीय प्रजातियों के लिए भी खतरा बन गया है। खतरा इस बात का है कि ग्लेशियरों का पिघलना रफतार पकडेगा तो भारत समेत कई देशों के तटीय भूभाग जलमग्न हो जाएंगे। अतिव्रष्टि और सूखा लगातार गहरा संकट बनते जाएंगे। तो फिर दुनिया के सामने क्या है विकल्प इस संकट से पार पाने का? इस कठिन प्रश्न का सीधा सा उत्तर भारतीय मनीषा में है। जो जल, वायु, अग्नि, धरती, आकाश पांचों तत्वों को पूजती है, उनका शोषण में भरोसा नहीं करती, बल्कि पाप मानती है। नदियों की पूजा, व्रक्षों की पूजा, अग्नि की पूजा, आकाश की पूजा यानी पर्यावरण के पांचों तत्वों को पूजनीय मानने का भाव ही हमें विनाश के रास्ते से वापस ला सकता है। यहां में ऋग्वेद की ऋचा उदृधत करना चाहूंगा- हे मां धारित्री, उन्हें दंडित करो जो जल और वनस्पतियों को प्रदूषित करते हैं। यह ऋचा तो हम हमारे यहां हर अनुष्ठान के दौरान उच्चारित करते हैं- ओम सामा शांतिः, द्यौ शांतिः, अंतरिक्ष शांतिः प्रथ्वीः शांतिः, वनस्पतयाः शांतिः, औषधयाः शांति, सर्वग्मं शांतिः, शांति रेव शांतिः ओम शांति, शांति, शांतिः।
बुधवार, 3 जून 2009
अभी भी अक्ल ठिकाने नहीं आई लालू की
मंगलवार, 2 जून 2009
आस्टे्लिया की घटनाओं पर चिंता से ज्यादा जरूरत चिंतन की है
सोमवार, 1 जून 2009
पावस दो क्षण
छाए नभ में बादल चहुंओर
गरज उठे घन घनघोर
दमक उठी दामिनी
कंपित हुआ हृदय
कहा- प्रिया कहां हो तुम
(एक जून 1989 गंजबासौदा)
न डर है न अंधेरा है
बादलों का घेरा है,
चहुंओर अंधेरा है।
गरजता है बादल,
चमकती है बिजली
डरता है मन,
सूझता न पथ है,
जिस बिजली से कांपता है मन
वही दिखाती है पथ भी,
बादलों के शोर में सुनो संगीत
चमकती बिजली में पा लो उजास
तो फिर न अंधेरा है
न मन में डर,
सामने है बरखा है
उसकी निर्झर और आनंद का डेरा है।
- सतीश एलिया बेबाक
(दो जून 1998 भोपाल)