रविवार, 31 मई 2009

इक लम्हा

हर सिम्त लरजता है इक लम्हा,
जीने का इलहाम होता है।

झूठ के सिक्के चलने का दौर है ये,
सच तो यहां बस नाकाम होता है।

कौन जाने किस गली में मिल जाएं वो,
इस उम्मीद से मन को कुछ आराम होता है।

मत छेडो तुम कोई राग, रो रोकर सोया है बेबाक अभी,
दिन भर तो यहां कोहराम होता है।

सांस जाती है सांस आती है,
चलता है जीवन ये अहसास होता है।
सुने कोई किसी के मन की,
कहां बची अब ये रवायत,
अब कहां किसी को किसी का अफसोस होता है।

हर सिम्त लरजता है इक लम्हा,
जीने का इलहाम होता है।
-सतीश एलिया बेबाक
30 जून 2002

1 टिप्पणी:

MANVINDER BHIMBER ने कहा…

सांस जाती है सांस आती है,
चलता है जीवन ये अहसास होता है।
सुने कोई किसी के मन की,
कहां बची अब ये रवायत,
अब कहां किसी को किसी का अफसोस होता है।
bahut achcha likha hai