सोमवार, 25 मई 2009
फलसफा जिंदगी का
जिंदगी की जंग में कई मकाम ऐसे आते हैं जब आदमी नितांत अकेला महसूस करता है, दरअसल वह हमेशा ही अकेला होता है लेकिन ज्यादातर समय वह खुद को भ्रमित करता रहता है, परिवार दोस्त यार काम पूजापाठ इत्यादि में खुद को भुलाए रखता है सच्चाई तो यही है कि वह हमेशा ही अकेला होता है; जब भ्रम टूटता है तो वह यह समझता है कि मैं टूट गया हूं जबकि यह भी एक नया भ्रम होता है; हम आखिर एक भ्रम से उूसरे भ्रम के बीच क्यों भटकते रहते हैं आखिर बिना भ्रम के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती क्या, कोई बिना भ्रम के भी जी सकता है यह हमें कल्पना में भी नहीं आता क्योंकि हम भ्रम रहित न खुद हो पाते और न ही इसकी कल्पना ही कर पाते हैं, भगवदगीता में यही सब तो समझााने की चेष्टा कष्ण करते हैं, वे यही तो कहते हैं कि जो खत्म हो गया वह तुम्हारा नहीं था जो सामने है वह भी तुम्हारा नहीं है और जो तुम हो वह भी तुम नहीं हो, तुम्हें न तो कोई जला सकता है और न ही कोई तुम्हें नष्ट कर सकता है तुम आत्मा हो शरीर नहीं, आत्मा न जन्म लेता है और न ही मरता है, आत्मा ही ईश्वर है और बाकी सब कुछ उसी में समाया हुआ है, निष्कर्ष यही है कि हम भ्रम में न रहें न पद के न सौंदर्य के न संपत्ति के और न ही किसी किस्म की लालसा के, यदि हम इससे उबर पाए तो यही हमें अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित करा देगा तब सब बंधन नष्ट हो जाएंगे या उनकी प्रतीति खत्म हो जाएगी क्योंकि असल में तो वे हैं ही नहीं बस हमें उनकी प्रतीति होती है जो भ्रम है।
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