गुरुवार, 28 मई 2009

एक दिन चार कविताएं

मित्रों आपको याद वर्ष 2001 की कुछ हौलनाक घटनाएं स्मरण होंगी, गुजरात का भूकंप, कोल माइंस में मजदूर का दबना। इन घटनाओं ने निश्चित ही आपको भी झकझोर दिया होगा। मैं भी इन त्रासदियों से व्यथित हुआ और करीब डेढ. सप्ताह बाद चंद कविताएं लिखीं थीं। भूकंप में एक मां की म्रत देह से चिपटा जीवित शिशु मिला था, जो मां का रक्त पीकर जीवित रहा था। भूकंप के बाद ही गुजरात के उस इलाके में मीठे पानी के सोते फूट आए थे जहां पहले खारा पानी निकलता था। छुटटी के दिन पुरानी डायरियां और पन्ने सहेजने बैठा तो नौ फरवरी 2001को लिखीं यह कविताएं भी मिलीं। मैं पत्र पत्रिकाओं में छपता रहा हूं लेकिन यह कविताएं कहीं भेजी नहीं थीं। आपके समक्ष प्रस्तुत हैं- टिप्पणी जरूर दीजिएगा।
धरती
धरती धैर्य का प्रतीक,
धैर्य भी आखिर कब तक
चुक जाए तो होता है भूडोल
कांपती है क्रोध में धरती
होता है विनाश।
हे मां धारित्री कर क्षमा अपने नामसझ बच्चों की ध्रष्टताओं को
दे जीवन पिला अम्रत अपने प्रेम का
मां ने अपने सर झेली विपदा
शिशु को लिया अंक में समेट मर गई मां,
शिशु को दिया दूध की ही तरह अपने रक्त से जीवन
धन्य है तू मां।
हे धरती मां सोता फूटा है खारे पानी में से मीठे जल का
अपने अंक में छुपा लिया था जिस सिंधु धारा कोलौटा दे मां,
सबको दे अम्रत और भुला दे हम सबकी नादानी को
हे मां अब मत होना तू अधीरा।
पानी
जल ही जीवन है पानी की एक एक बूंद है अम्रत
यह वाक्य भी रट लिए हमने तोते की तरह
शिकारी आता है दाना डालता हैजाल फैलाता है, हमें जाल में नहीं फंसना चाहिए
व्यर्थ बहाना पानी, प्रदूषित करना जलस्त्रोत, नहीं छोड.ते हम
कांपी धरती, दबे सैकड.ों मलबे में,
बच गए वे जिन्हें मिल गई बूंदें अम्रत समान जल की,
धरती के गर्भ में मौत खड.ी सामने,
मौत बने पानी में भी दिया जीवन पानी की बूंदों ने
अब तो समझो जल ही जीवन है,
एक एक बूं अम्रत है इसकी।
हवा
मत करो तुम द्वार-दरवाजे खिड.की-जंगले बंद,
आने दो हवा कि चलती रहे सांस, कि चलती रहे जिंदगी
कर लोगे तुम द्वार छिद्र बंद सब तब भी ढूंढ ही लेगी राह हवा कोई न कोई।
हवा बांटती है सांसें, जिंदगी
हवा नहीं चाहती कि कोई मरे उसके बिना।
धरती की अतल गहराईयों में पानी में निमग्न कोयले की खान,
बचने की उम्मीद नहीं कोई,
एक सुराख ढूंढ घुस गई हवा
मौत के जबड.ों से खींच लाई सलीम अंसारी को
क्योंकि हवा नहीं चाहती कोई मरे उसके बिना,
कोई मरना भी नहीं चाहता यूं ही
तो मत करो तुम द्वार-दरवाजे बंद
मत चलाओ आरे और कुल्हाडि.यां पेड.ों पर
ताकि चलती रहे हवा, चलती रहे सांस, चलती रहे जिंदगी।
जंगल
जंगल में रहते थे कभी
अब भी रहते हैं जंगल में ही
काटते गए पेड. रच लिए जंगल कांक्रीट के
पेड.ों के जंगल में रहना छूटता गया
और जंगल के साथ जंगली शब्द का अर्थ ही बदल डाला हमने
कांक्रीट के जंगल में बसकर हमने
खुद को बना लिया है उस अर्थ में जंगली
जैसा कि हमने बना डाला इस शब्द को।

1 टिप्पणी:

Yunus Khan ने कहा…

कविता अच्‍छी है । आपको यहां देखकर अच्‍छा लगा । आप यहां पधार चुके हैं हमें तो खबर ही नहीं थी ।
बधाई हो ।