रविवार, 13 सितंबर 2009

हिंदी का सर्वाधिक अहित हिंदी पत्रकारिता कर रही है

शायद ही दुनिया की कोई और भाषा का दिन मनाया जाता हो, हम अपनी राष्टï्रभाषा हिंदी का दिवस मनाते हैं। यह महज संयोग ही है कि हिंदी दिवस अमूमन श्राद्ध पक्ष में होता है। यानी हम एक तरह से हिंदी को राष्टï्र भाषा मानने का तर्पण ही करते हैं। हमारे अपने जब दुनिया में नहीं रहते तो हम उनका श्राद्ध पक्ष में तर्पण करते हैं। कल 14 सितंबर को यह मौका फिर सामने है। अपने ही देश में हिंदी को सरकारी मान्यता मिलने के उपलक्ष्य में दिवस मनाने का यह उपक्रम भी सरकारी संस्थानों में महज औपचारिकता के लिए होता है। लगभग सभी केंद्रीय संस्थानों में हिंदी विभाग और हिंदी अधिकारी और उनका अमला है। वे दिवस, पखवाड़ा और सप्ताह मनाकर राष्टï्रभाषा का प्रचार प्रसार करने के दावे करते हैं। देश के 36 करोड़ लोग जिस भाषा में जीते-मरते और पूरा जीवन गुजारते हैं उसके प्रचार प्रसार के लिए इतना तामझाम? यह क्या साबित करता है? अंग्रेजों के जाने के 62 साल बाद आज अंग्रेजी का जो दबदबा है वह अंग्रेजों के शासन में भी भारत में नहीं था। कुतर्क यह दिया जाता है कि अंग्रेजी विश्व भाषा है, हमें दुनिया में प्रगति के पथ पर चलना है तो अंग्रेजी को अपनाना ही होगा। जापान, चीन, जर्मनी, फ्रांस, कोरिया जैसे देश क्या विकास नहीं कर रहे हैं, बिना अपनी भाषा को दोयम और अंग्रेजी को सर माथे पर बिठाए वे विकास कर रहे हैं न, तो फिर हमीं क्यों शर्म को शान समझते हैं? दुनिया में सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाली भाषा को सीखिए लेकिन क्या यह जरूरी है कि हम दुनिया की सभी महिलाओं का सम्मान करने के लिए अपनी मां को दोयम दर्जे की समझें। जिस भाषा में हम लोरियां सुनते हैं, बोलना सीखते हैं जो हमारे पूर्वजों की भाषा है, जो हमारे देश की पहचान होना चाहिए, उससे परहेज करने वाले कर्ता धर्ता बन बैठते हैं। मेरा मानना है कि राजनीतिज्ञों और अंग्रेजों के अघोषित प्रतिनिधि आईएएस अफसरों ने जितना अहित राष्टï्रभाषा का किया उससे कहीं ज्यादा हिंदी पत्रकारिता ने बीते करीब दो दशकों में कर डाला है। हिंदी अखबारों को हिंदी की अलग ठीक उसी तरह जगाना चाहिए थी जैसी आजादी की लड़ाई के वक्त जगाई थी। लेकिन हिंदी अखबारों ने कुछ अर्से तक इस जिम्मेदारी को निबाह कर अपनी इस भूमिका को भुलाना शुरू कर दिया। अंग्रेजी अखबारों की शैली और रंगरूप की नकल करने वाले हिंदी अखबारोंं ने बाजारबाद के दामन से लिपटकर हिंदी को धकेल कर हिंगलिश को गले लगा लिया। प्रकारांतर से वे अंग्रेजी अखबारों के पिछलगगू सरीखे बनते चले गए। हिंदी अखबारों में अंग्रेजी अखबारों से आयातित पत्रकार संपादक होने लगे और वे हिंदी में पहले से काम कर रहे लोगों से तकरीबन वही व्यवहार करने लगे जो अंग्रेजी बोलने वाले हिंदी बोलने वालों से करते हैं या अंग्रेजी भारतीयों से करते थे। अखबार भाषा शिक्षक का काम करते हैं लेकिन हिंदी अखबारों ने यह भूमिका छोड़ दी, वे अंग्रेजी सिखाने की कोचिंग क्लास बन गए हैं। इसमें वे स्यात गौरव भी महसूस करते हैं। हिंदी के कई अखबारों में प्लानिंग हिंदी जानने वाले नहीं धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले लोग करते हैं। मैं खुद 18 सालों से हिंदी पत्रकारिता में हूं और किसी व्यक्ति या संस्थान विशेष के लिए नहीं बल्कि समूचे हिंदी पत्रकारिता जगत के संबंध में कह रहा हूं। व्यक्ति के बजाय समष्टिï का विचार हमेशा देश और समाज और अंतत: व्यक्ति के लिए श्रेयस्कर ही होता है। और मेरा अनुभव यह है कि किसी जमाने में मुझे संपादकों की तारीफ मिलती थी, हिंदी का भाषा ज्ञान और लेखन ठीकठाक होने की वजह से। इस तरह के प्रसंगों को एक दशक से ज्यादा बीत चुका है। अब यह दिवास्वप्र ही लगता है कि किसी हिंदी पत्रकार को उसकी भाषा के कारण तवज्जो मिले। हिंदी अखबारों में अंग्रेजी लेखकों के लिखे हुए का अनुवाद छपता है। हिंदी के नए लेखकों के लिए हिंदी के विख्यात और प्रमुख अखबारों में हाशिए पर भी जगह नहीं है। एक हिंदी अखबार में नियमित कालम लिखकर प्रतिदिन ज्ञान बांटने वाले एक अहिंदी भाषी पत्रकार ने एक बार मेरे और अन्य हिंदी भाषी पत्रकारों के सामने यह कहा था कि हिंदी वाले मोटी चमड़ी के होते हैं, उन्हें हेडलाइन में चमत्कार पैदा करना नहीं आता। तब मेरे एक मित्र ने तमतमाकर उन्हें न केवल डपट दिया था, बल्कि हम लोगों ने संपादक महोदय के पास जाकर अपनी नाराजगी जताई थी। लेकिन इस घटना के बाद हिंदी अखबारों में इस तरह की घटनाएं रोजमर्रा की बात हो चुकी हैं। अंग्रेजी में धाराप्रवाह न होना और अंग्रेजी में पर्याप्त होने के बावजूद उसका प्रदर्शन न करना नाकाबिलियत होने का पैमाना सा बन गया है। सोमवार 14 सितंबर को सरकार के मुताबिक हिंदी दिवस है, इसी बहाने वाकई देश, अपनी भाषा और उनके विकास पर सोचने और मनन करने वाले मेरी बात पर गौर करेंगे तो महती कृपा होगी। - सतीश एलिया, भोपाल 13 सितंबर 2009

6 टिप्‍पणियां:

धीरेन्द्र सिंह ने कहा…

महोदय, आपके लेखन में मुझे सत्यता कम और शिकायत का पुट ज्यादा नज़र आया. आपने अपने विचारों में एक तरफ वही पुराने सवालों को उठाया है और साथ ही कुछ का जवाब भी दिया है. हिंदी अधिकारिओं की बातें मैं यहाँ पर नहीं करूंगा क्योंकि वह ज्यादा समय और स्थान लेगा , इसपर बाद में लिखूंगा. हाँ, पत्रकारिता आपका छेत्र है और आपने कहा है की हिंदी पत्रकारिता में अंग्रेजी अनुवाद को तरजीह दी जाती है, क्यों? क्योंकि शायद हिंदी पत्रकारिता अंग्रेजी पत्रकारिता के अंदाज़ और गुर को पूरी तरह नहीं अपना सकी है. मुझे इतना मालूम है और पूरा विश्वास है की यदि विचार नए हों और लेखनी में नया अंदाज़ हो तो भाषा बेमानी हो जाती है. हाँ, हिंदी पत्रकारिता की अपनी समस्याएं ज़रूर हैं जिनसे हिंदी पत्रकार ही निपट सकते हैं. वरना आपने सही कहा है कि आनेवाले समय में हिंदी का श्राद्ध मन सकता है जिसके लिए हम हिंदी से जुड़े लोग ही जिम्मेदार होंगे. चुनाव हम पर है कि हम हिंदी को किस नज़रिए से देखें. हिंदी पर आपके प्रखर विचार पढ़ने को मिला इसलिए धन्यवाद.
धीरेन्द्र सिंह

संजय तिवारी ने कहा…

आपको हिन्दी में लिखता देख गर्वित हूँ.

भाषा की सेवा एवं उसके प्रसार के लिये आपके योगदान हेतु आपका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ.

Arvind Mishra ने कहा…

हा हिन्दी हा हिन्दी ! हिन्दी दुर्दशा अब देखि नहि जाई ! !

विनीत कुमार ने कहा…

आप गलत बात कर रहे हैं।

संगीता पुरी ने कहा…

तर्पण मृतको के लिए किया जाता है .. पर हिन्‍दी में विकास की पूरी संभावना है .. हमें दृढ इच्‍छा शक्ति रखनी होगी .. ब्‍लाग जगत में आज हिन्‍दी के प्रति सबो की जागरूकता को देखकर अच्‍छा लग रहा है .. हिन्‍दी दिवस की बधाई और शुभकामनाएं!!

Batangad ने कहा…

सतीशजी
आपने बेवजह हिंदी दिवस और श्राद्ध को जोड़ दिया है। बेतुका है, असली समस्या पर बात करिए ना।