बीते एक पखवाड़े में देश ने महिलाओं के प्रति अपराध का जो वीभत्स चेहरा देखा, उसे लेकर जो आक्रोश देखा और एक मामले में वारदात के एक हफ्ते बाद ही आरोपियों के कस्टडी एनकाउंटर से जो खुशी की अभिव्यक्ति सामने आई और अब एनकाउंटर और खुश होने पर सवाल भी सामने हैँ। यह पूरा घटनाक्रम गंभीरता से सोचने पर विवश करता है। न केवल आपराधिक प्रवृत्तियों के लगातार बढ़ते जाने से बल्कि हमारे सामाजिक बदलाव पर भी चिंतन की जरूरत है। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के साथ क्या हमारे कानूनी प्रावधान खरे उतरे हैं? यह सवाल भी विचारणीय है। देश की अदालतों में साढ़े तीन करोड़ से ज्यादा मामले पेंडिंग हैं। हैदराबाद में रेप और हत्या के चार आरोपियों का एनकाउंटर असली था या पूर्व नियोजित यह तो जांच का विषय है ही लेकिन जिस तरह आम आदमी के अलावा प्रबुद्ध माने जाने वाले वर्ग ने त्वरित प्रतिक्रिया में खुशी जाहिर की, वह क्या बतलाता है? सबके अवचेतन में यह बात गहरे पैठ गई है कि पीड़ित को न्याय मिलने के हमारे सिस्टम में जो प्रक्रियागत देरी है, वह न्याय पर भरोसा कायम रखने में विफल होती दीख रही है। अब भारत के नवागत मुख्य न्यायधीश शरद अरविंद बोबेड़े की टिप्पणी कि इंसाफ अगर बदले में तब्दील हुआ तो अपना चरित्र खो देगा, निश्चित ही त्वरित बदले की जनभावना और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को बनाए रखने की चुनौती हमारे सामने हैं। अलबत्ता यह तकनीकी रूप से एनकाउंटर में आरोपियों के मारे जाने का मामला है, जिस एनकाउंटर पर सवाल हैं और जांच होना शेष है, फिर भी इसे न्याय या बदला माना जा रहा है तो यह भी चिंतनीय हैँ। दूसरी तरफ यह भी सच है कि कार्यपालिका और व्यवस्थापिका पर जनता का भरोसा अत्यंत कम है और वह आज भी सर्वाधिक उम्मीद न्यायपालिका पर ही लगाए रहती है। पीड़ित व्यक्ति जब थक हार जाता है तो वह यही कहता है कि मैं तुम्हें अदालत में देख लूंगा। यह उम्मीद ही तो कि कोई नहीं तो अदालत से न्याय मिल पाएगा। यानी न्याय पर भरोसा भारतीय जनमानस में अभी कायम है, अपवाद हो सकते हैं। लेकिन यह भरोसा बार बार डगमगाता रहता है क्योंकि हमारी अदालतों के काम करने का तरीका अत्यंत धीमा है। फार्स्ट ट्रैक कोर्ट और तेजी से सुनवाई के तमाम प्रयासों के बावजूद लंबित मामलों की फेहरिस्त इतनी लंबी है कि न्याय की आस मंद पड़ना अस्वाभिक नहीं हैं। देश की अदालतों में साढ़े तीन करोड़ से ज्यादा मामले पेंडिंग हैं। इनमें से 40 हजार से ज्यादा तो ऐसे हैं जो तीन दशक यानी 30 साल से ज्यादा वक्त से फैसले के इंतजार में हैं। देश के उच्चतम न्यायालय में ही करीब 60 हजार मामले पेंडिंग हैं। रेप के एक लाख से ज्यादा मामले पेंडिंग हमारे देश की अदालतों में रेप के एक लाख सात हजार से ज्यादा मामले पेंडिंग हैं। इनमें से 96 फीसदी मामले पोक्सो एक्ट के हैं यानी नाबालिगों से ज्यादती के। यह आंकड़े बताते हैं कि ज्यादती की वारदातों के सर्वाधिक शिकार नाबालिग हो रहे हैं और ऐसे अपराध करने की मानसिकता वालों में कोई खौफ नहीं है। देश के सर्वाधिक चर्चित निर्भया कांड के दोषियों को सजा होने के बावजूद अब तक फांसी नहीं मिलने से भी लोगों में आक्रोश है। आलम यह है कि अब राष्ट्रपति को भी यह कहना पड़ा कि पोक्सो के मामलों में दया याचिका का प्रावधान खत्म होना चाहिए। मुझे लगता है जिन मामलों में कई अदालतों में सालों चली सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट से अंतिम फैसला हो चुका है, उनमें से किसी में भी दया याचिका का प्रावधान क्याें होना चाहिए? भारतीय अदालतों में 3.53 करोड़ से अधिक मामले लंबित
नवीनतम आर्थिक सर्वेक्षण में अनुमान लगाया गया है कि पांच साल के भीतर लंबित मामलों को निपटाने के लिए लगभग 8,521 न्यायाधीशों की ज़रूरत है।लेकिन उच्च न्यायालय और निचली अदालतों में 5,535 न्यायाधीशों की कमी है। सर्वोच्च न्यायालय में आज की तारीख़ में न्यायाधीशों की संख्या 31 है। लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय को आठ अतिरिक्त न्यायाधीशों की आवश्यकता है।
'नेशनल जूडिशरी डेटा ग्रिड' के मुताबिक़ 43,63,260 मामले उच्च न्यायालयों में लंबित हैं। मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने इस बात को रेखांकित किया था कि ज़िला और सब-डिविज़नल स्तरों पर स्वीकृत न्यायाधीशों की संख्या 18 हजार है। लेकिन मौजूदा संख्या इससे कम 15 हजार ही है. दिल्ली उच्च न्यायालय के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश का कहना था कि जिस गति से मामलों को निपटाया जा रहा है, उस हिसाब से लंबित आपराधिक मामलों को निपटाने के लिए 400 साल लग जाएंगे। वह भी तब जब कोई नया मामला ना आए।
हर साल मुक़दमों की संख्या बढ़ रही है, उसी हिसाब से लंबित मामलों की संख्या बढ़ रही है। इससे 'न्याय में देरी यानी न्याय देने से इंकार' की धारणा बलवती हो रही है। अदालतों में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या से न्यायाधीश बोबड़े को चिंतित होना चाहिए। उनकी भी प्राथमिकता यह पेंडेंसी कम करने की होगी। आयोग का सुझाव लेकिन अमल नहीं
साल 1987 में विधि आयोग ने सुझाया था कि प्रत्येक दस लाख भारतीयों पर 10.5 न्यायाधीशों की नियुक्ति का अनुपात बढ़ाकर 107 किया जाना चाहिए। लेकिन आज ये अनुपात सिर्फ़ 15.4 है.
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