रविवार, 29 दिसंबर 2019

भीड़़ की शक्ल नहीं होती, टूट रहा है ये मिथ

                                                                                 सतीश एलिया                                                                             भीड़ की शक्ल नहीं होती, ये मिथ न जाने कब से चला आ रहा था लेकिन अब यह टूट रहा है। भीड़ की आड़ में सड़क पर साधारण मारपीट से लेकर दंगे तक में भीड़ के नाम पर सामान्य अपराध से लेकर सुनियोजित जघन्य अपराध और षड्यंत्र छुपाए जाते रहे हैं और गुनहगार कानून से बचकर जन नेता तक बनते रहे हैं। सोशल मीडिया की दुधारी तलवार एकतरफ लोगों उकसाने के षड्यंत्र का औजार बन गयी है तो दूसरी तरफ वह षडयंत्र की पहचान का टूल भी साबित हो रही है। भीड़ के उपद्रव में सीसीटीवी, द्रोण कैमरों की आँखो से भीड़ के वे चेहरे सामने आने लगे हैं जिनका दिमाग लोगों की नासमझी को दंगे में बदलते हैं। नागरिकता संशोधन कानून पर फैलाए गए भ्रम और उसे एन आर सी से गड्डमड्ड करने से डरा दिए गए लोगों के हाथों में पत्थर थमाने वालों की निशानदेही शुरू हुई है। सरकार ने देश की संपत्ति को नष्ट करने के अलोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शनों पर सख्ती में भीड़ के चेहरों की शिनाख्त शुरू की है। उपद्रवियों से नुकसान की भरपाई की वसूली कितनी हो पाएगी, यह अभी सामने आना बाकी है। लेकिन यह लोकतांत्रिक प्रदर्शनो की ताकत को फिर स्थापित करने की तरफ ले जाएगा, यह उम्मीद की जाना चाहिए।                                                                                                                                     हैदराबाद में गैंग रेप और हत्या के आरोपियों की पुलिस कस्टडी में एनकाउन्टर में मौत के मामले में जिस तरह जनता ने पुलिस पर फूल बरसाए थे और देश भर में इसे वीरता की तरह दिखाने की कोशिश हुई और विरोध के तार्किक सवाल भी उठे, एच पखवाडे में ही दिल्ली से लेकर अहमदाबाद तक पुलिस के उन्मादी भीड़ से पिटने के द्रश्य सामने आए। पुलिस की निरीहता पूरे देश ने देखी। यह निश्चित तौर पर पुलिस की कार्यप्रणाली और स्थिति का अनुमान लगाने और निपटने में असफलता का नमूना है। पुलिस की निरीहता द्रश्य भर है, हकीकत यही है कि पुलिस निरीह नहीं होती, वह देश के अलग अलग हिस्सों में पहले भी और अब भी सामने आता ही रहता है। मुँह से ठाय ठाय करने की आवाज निकालती उप्र पुलिस से लेकर उप्र की ही पीएसी के सामूहिक नरसंहार के दमनात्मक चरित्र को लोग भूले नहीं हैं।                                                                                                                             देश को विरोध की हिंसक राजनीति में झौकने वाली सियासी जमातो का नफा नुकसान कितना हुआ या हुआ होगा या होगा, यह किसी चुनाव में ही नतीजो से पता चल सकेगा लेकिन देश की संपत्ति और एकता को हुआ नुकसान साफ दिख रहा है। उपद्रव पर नियंत्रण का अनुमान लगाने में नाकाम सरकार और पुलिस प्रशासन तंत्र अब उपद्रव करने वाली भीड़ के चेहरे बेनकाब करने में सफल रहती है तो भविष्य के लिए यह कहा छा सकता है कि भीड़ का चेहरा होने का मिथ पूरी तरह टूट सकेगा और देश की संपत्ति नष्ट करने की प्रवृत्ति पर लगाम लग सकेगी।                                                                                                                           

कोई टिप्पणी नहीं: