- सतीश एलिया लोकसभा और राज्यसभा में पारित विधेयक को राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद कानून बने नागरिकता संशोधन अधिनियम की हिंसक खिलाफत की आंच अब सरकार की सख्ती से मंद भले ही हो रही हो लेकिन इस संशोधन के साथ ही नेशनल रजिस्ट्रेशन ऑफ सिटीजनशिप यानी एनआरसी के एक साथ विरोध और दोनों को गडढमडढ कर दिए जाने से उपजा विरोध अब इसमें एनपीआर को भी जोड़ दिए जाने से देश की सियासत में जारी उबाल और बबाल बढ़ता ही जा रहा है। देखा जाए तो सीएए, एनआरसी और एनपीआर में से कोई भी नया नहीं है। नागरिकता कानून जिसमें शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान है, उतना ही पुराना है जितना भारत के विभाजन का मामला। नेहरू-लियाकत समझौता भी धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने देश में सुरक्षा और संरक्षा देने के बारे में ही था। कांग्रेस की सरकारों में भी पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए धार्मिक अल्पसंख्यक शरणार्थियों को नागरिकता दी ही जाती थी। इसी तरह कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार के वक्त में हुए असम समझौते के बाद एनआरसी उस राज्य में लागू करने की बात शुरू हुई थी। जिसे असम में अभी सुप्रीम कोर्ट के आदेश और निर्देशन में लागू करने की प्रक्रिया जारी है, जिसका हिंसक और अहिंसक दोनों का तरह का विरोध हुआ है। पूरे देश में एनआरसी लागू नहीं किए जाने के प्रधानमंत्री के सार्वजनिक बयानों के बावजूद इस मामले पर कुहासे की वजह सीएबी पर राज्यसभा मेंं बहस का जबाव देते हुए गृह मंत्री अमित शाह की वो टिप्पणी है जिसमें उन्होंने तैश मे यह कह दिया था कि देश में एनआरसी लागू होकर रहेगी और हम इसे 2024 तक लागू करके रहेंगे। इसी बयान और इसी बयान में नेशनल पापुलेशन रजिस्टर यानी एनपीआर के सियासी विरोध की वजह भी है। विपक्ष खासकर कांग्रेस 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर ही भाजपा की मंशा से भयाक्रांत लग रही है। देखा जाए तो एनपीआर लागू करने की बात की शुरूआत अटल सरकार में हुई थी लेकिन इसके बाद की कांग्रेसनीत सरकार ने ही उस पर अमल शुरू किया और यह योजनाएं बनाने के लिए एक आवश्यक कदम है और इसका विरोध अनावश्यक रूप से सीएए, एनआरसी के जारी विरोध के बहाने किया जा रहा है। एनआरसी, एनपीआर और डिटेंशन सेंटर पर बयानबाजी एनआरसी पर चर्चा और विरोध प्रदर्शनों के बीच डिटेंशन सेंटर्स का मुद्दा भी गरमा गया है। सरकार इस पर बचाव की मुद्रा में भले आ गई हो लेकिन डिटेंशन सेंटर्स की शुरूआत भी असम समझौते के बाद ही कांग्रेस राज में ही हो गई थी। अब सरकार इससे इंकार कर रही है और प्रधानमंत्री झूठ है झूठ है झूठ है कहकर नकार रहे हैं, लेकिन घुसपैठियों को डिटेन करके रखना गलत कैसे हो सकता है। विरोध प्रदर्शनों से बैकफुट पर आई सरकार को इसके सच को पूरी ईमानदारी से बताना चाहिए, ताकि उसी के मुताबिक विपक्षी दल भ्रम फैला रहे हैं, तो उसे दूर करने का काम किसका है? इस बीच मीडिया के अलावा सोशल मीडिया पर इन मामलाें को लेकर कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के दौरान के तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिंदबरम से लेकर कांग्रेस नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला से लेकर कुछ न्यूज चैनलों के एनआरसी पर पुराने कार्यक्रमों के वीडियो भी जमकर शेयर किए जा रहे हैं। सीएए के विरोध में राज्य सरकारों के प्रदर्शन नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ कांग्रेसनीत राज्य सरकारों के मुख्यमंत्रियों के विरोध प्रदर्शन ने केंद्र राज्य संबंधों और संविधान के व्यवस्था को लेकर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। इन राज्यों की सरकारों ने साफ तौर पर इस संशाेधित कानून को अपने राज्य में लागू करने से न केवल इंकार किया है बल्कि इसके खिलाफ खुद मुख्यमंत्री मैदान में सड़़क पर उतरे हैं। सवाल ये है कि क्या यह विरोध जायज है? क्या यह केंद्र और ऐसी राज्य सरकारों के बीच भविष्य में कोई नए संवैधानिक संकट का कारण नहीं बनेगा? अरुधंती राय का कूदना अपने उपन्यास के लिए बुकर पुरस्कार जीतने के बाद चर्चा मेंं आई भारतीय मूल की अंग्रेजी लेखिका अरुंधती राय भी इस मामले में न केवल कूद पड़ी हैं बल्कि वे हल्के और विचित्र बयानों से एक बार फिर चर्चा में हैं। उन्होंने एनपीआर के विरोध में लोगों से अपने नाम और पते बताने के लिए जो तरीके बताए हैं, वे हास्यापद तो हैं ही लोगों को भड़काने वाले भी हैं। यह एक तरह से सहिष्णु लोकतंत्र का मजाक उड़ाने जैसा भी है। अरुंधति इसके पहले नक्सलियों और अलगाववादी कश्मीरी नेताओं से जुगलबंदी को लेकर विवादों में रह चुकी हैं। कहीं यह विपक्ष का भाजपा के एजेंडे में उलझना तो नहीं 2014 से भी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई भाजपा ने अपने दूसरे कार्यकाल में धारा 370 हटाने और अयोध्या में राममंदिर के पक्ष में फैसला आने के बाद शांति कायम रखने के बाद अपना अगला एजेंडा स्पष्ट कर दिया है। नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी पर सरकार के विरोध से विपक्ष को सरकार के खिलाफ बड़ा मुद्दा मिलता भले दिख रहा हो लेकिन अयोध्या मामले से ताकतवर बनी भाजपा अब इस मुद्दे के निर्णायक हल के बाद अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए देश के बहुसंख्यकों को अपने पक्ष में ध्रुवीकरण में बनाए रखने की जुगत में तो है ही, सीएए के विरोध को हिंदुत्व के विरोध में पेश करने का कांग्रेस और उसके मित्र दलों ने उसे मौका दे दिया है। एक तरह से जिस तरह भाजपा ने कांग्रेस को सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ जाने को मजबूर करने का एजेंडा सेट कर सफलता हासिल कर सफलता हासिल की अब 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा एक बार फिर कांग्रेस और उसकी युति के दलों को एक बार फिर बैकफुट पर ले जाने के अपने एजेंडे पर पग बढ़ाती दिख रही है। जो कांग्रेस 14 दिसंबर को सरकार की आर्थिक नीतियों और बेरोजगारी के ज्वलंत मुद्दों पर सरकार को घेरने की तैयारी कर रही थी, जो देश के वास्तविक मुद्दे हैं भी, भाजपा ने उसे तारीख और एजेंडा बदललकर सीएए, एनआरसी,एनपीआर विरोध की तरफ धकेल दिया। कई मोर्चों पर नाकाम दिख रही सरकार राजनीतिक विरोध के चलते ध्रुवीकरण को खुद के मुफीद बनाने का एक और मौका हासिल करने के रूप में देख रही होगी। भाजपा नेताओं के बयानों और उनके समर्थकों के सोशल मीडिया पर जंग की मुद्रा ठीक वैसे ही है जैसी चुनाव के वक्त में होती है और कांग्रेस और उसके समर्थक बचाव की मुद्रा में जाते दिख रहे हैं।
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