सोमवार, 19 दिसंबर 2011

अदम गोंडवी को नमन


जन कवि अदम गोंडवी का आज देहावसान हो गया मेरी उनसे भोपाल में मुलाकात हुई थी जैसी कविता ठीक वैसे ही थे वे। उनकी कवितायें जो मुझे तत्काल जेहन में आ रही हैं वे ये हैं

एक

जुल्फ - अंगडाई - तबस्सुम - चाँद - आईना -गुलाब

भुखमरी के मोर्चे पर इनका शबाब

पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी

इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की किताब

इस सदी की तिश्नगी का ज़ख्म होंठों पर लिए

बेयक़ीनी के सफ़र में ज़िंदगी है इक अजाब

डाल पर मजहब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल

सभ्यता रजनीश के हम्माम में है बेनक़ाब

चार दिन फुटपाथ के साये में रहकर देखिए

डूबना आसान है आंखों के सागर में जनाब


दो


जो उलझ कर रह गई फाइलों के जाल में

गांव तक वो रोशनी आयेगी कितने साल में

बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गई

रमसुधी की झोपड़ी सरपंच की चौपाल में

खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए

हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में

जिसकी क़ीमत कुछ न हो इस भीड़ के माहौल में

ऐसा सिक्का ढालिए मत जिस्म की टकसाल में
तीन

हाथ में विह्स्की का गिलास भुने काजू प्लेट में उतरा है रामराज्य विधायक निवास में.

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

सम्वेदना कहाँ

gas risan ke agle din bhopal aaya tha lekin teji se afwah faili ki fir gas risi bhgdad mach gyi lotna pda. 1991 se lgatar bhopal mein hoon yani 7 vi barsi se 27 vi barsi tk har bars badlti samvednao ko dekha hai. kreeb har bars stories ki hain.ICMR ki report ko sbse phle maine hi khber mein chchapa tha DESHBANDHU mein, fir DAINIK NAI DUNIYA mein.beete bars jb iqwal maidan mein shrdhnjli sbha hui to 100 log bhi nhi jute. ye hqiqat hai.

उम्र से लम्बा हादसा

आज नौ हजार आठ सौ पचपन दिन हो गए भोपाल में बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कारबाइड से जहरीली गैस रिसने से शुरू हुई सतत त्रासदी को। हादसे के वक्त और तब से अब तक के ढाई दशक में हजारों लोग इस नासूर का शिकार हो चुके हैं। राहत, पुनर्वास और मुआवजे की लंबी त्रासद प्रक्रिया, राजनीति के घटाटोप में पीडि़तों को न्याय और दोषियों को बाजिब सजा मिलने की संभावना कहीं गुम हो गई है। सामूहिक नरसंहार के बदले भारत सरकार ने यूनियन कारबाइड से जो 750 करोड़ रुपए लिए थे, उसका उचित रूप से बंटवारा नहीं हो सका। साढ़े सात लाख मुआवजा दावे थे, उनमें से सबका निपटारा तक नहीं हो सका। समूचे भोपाल को गैस पीडि़त घोषित करने की मांग पर ढाई दशक से राजनीति जारी है। पूर्व में भी और वर्तमान में भी गैस राहत मंत्री बाबूलाल गौर इस बीच एक दफा मुख्यमंत्री भी बन चुके हैं, उनका सबसे बड़ा मुद्दा ही यही रहा है लेकिन यह पूरा नहीं हो सका।
करोड़ों की लागत से बनीं भव्य इमारतें जिन्हें अस्पताल नाम दिया गया है, में करोड़ों रुपए खर्च कर विदेशों से लाई गई मशीनें धूल खा रही हैं। अगर इन अस्पतालों में सब कुछ ठीक से चलने लगे तो भोपाल देश का सर्वाधिक स्वास्थ्य सुविधा संपन्न शहर हो सकता है। लेकिन दो दशक में ऐसा होने के बजाय हालात और बदतर हो गए हैं। दवाएं खरीदने के नाम पर घोटालों के बीच अपने सीने में घातक गैस का असर लिए गैस पीडि़त आज भी तिल तिलकर मर रहे हैं। दवाओं का टोटा न अस्पतालों में नजर आता है और न ही आंकड़ों में। लेकिन लोग दवाओं के लिए भटकते रहते हैं।
विश्व की सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी का तमगा हासिल कर चुके इस भोपाल हादसे के मुजरिमों को न केवल तत्कालीन सरकारों ने भाग जाने दिया बल्कि बाद की सरकारों ने नाकाफी हर्जाना लेकर समझौता करने से लेकर आपराधिक मामले में धाराएं कमजोर करने जैसे अक्षम्य अपराध कर कानूनी पक्ष को कमजोर किया। इससे प्राकृतिक न्याय की मूल भावना कमजोर हुई। आर्थिक हर्जाना कभी मौत के मामले में न्याय नहीं हो सकता, फिर यह तो सामूहिक नरसंहार का मामला है। उच्चतम न्यायालय ने 13 सितंबर 1996 के फैसले में यूनियन कारबाइड से जुड़े अभियुक्तों के खिलाफ आईपीसी की दफा 304 के स्थान पर 304- ए के तहत मुकदमा चलाने का निर्देश दिया। इसके तहत यूका के खिलाफ फैसला होने पर अभियुक्तों को दो वर्ष कैद और पांच हजार रुपए जुर्माने की सजा होगी। इस मामले में यूनियन कारबाइड के तत्कालीन अध्यक्ष वारेन एंडरसन, यूका ईस्टर्न हांगकांग तथा यूका इंडिया लिमिटेड के तत्कालीन अध्यक्ष केशव महिंद्रा समेत 10 अन्य अभियुक्त बनाए गए थे। एंडरसन प्रमुख अभियुक्त होने के बावजूद भारत में अदालत के सामने पेश नहीं हुआ।
भोपाल हादसे से किसी भी तरह का सबक नहीं लिया गया है। आज भी भोपाल में और देश भर में घनी आबादियों के बीच घातक कारखाने धड़ल्ले से चल रहे हैं। हर कहीं हर कभी छोटे छोटे भोपाल घट रहे हैं। ढाई दशक बाद न भोपाल ने न मप्र ने न भारत ने और न ही दुनिया ने भोपाल से कोई सबक लिया है।

ये मेरा मध्यप्रदेश है

बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

प्रशांत भूषन को मिले निशाने पाकिस्तान


जिस वक़्त पूरा देश वकील साहब प्रशांत भूषन वल्द पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण को टीवी चैनेलों पे पिटते हुए देख रहा है, मेरे एक मित्र उन्हें सम्मानित होते देखना चाहते हैं। उनका कहना है पाकिस्तान की सरकार प्रशांत भूषन को निशाने पाकिस्तान से नवाजे। क्योंकि वे कश्मीर से सेना हटाने, कसब और अफजल की सजा माफ़ी की ही तो बात कर रहे हैं। ये पाकिस्तान का भी अजेंडा है। आखिर कश्मीर पे ही तो पाकिस्तान ने भारत से ४ युद्ध लड़े और हारे हैं। सेकड़ो भारतीय सैनिको की शहादत को खारिज कर कश्मीर पाकिस्तान को आसानी से हासिल हो सकने की तजवीज़ बता रहे प्रशांत भूषन निशाने पाकिस्तान के सही हकदार हैं, वैसे अरुंधती राय इत्यादि भी दावेदार हो सकते है, लेकिन पिटने की वजह से प्रशांत अव्वल हैं। अन्ना हजारे ने उनके आन्दोलन समर्थक के संसंद परिसर में घुसने पे संयम बरतने की सलाह दी थी लेकिन अब वे प्रशांत पीटक युवको से क्ह रहे हैं की कानून हाथ में नही लेना चाहिए। हिसार में सिविल सोसायटी की तरफ से उमीदवार खड़ा करने के वजाय कांग्रेस को हराने की अपील करने वाली टीम अन्ना को भारी आलोचना झेलना पद रही है। आखिर वे लोग किसका समर्थन क्र रहे हैं। कांग्रेस की कभी भी जीत न हो एसी कामना करते रहे लोग भी अब ये कहते सुने जा रहे हैं की हिसार में तो कांग्रेस ही जीते क्योंकि संसद को नकारने की कोशिश और चुनाव में फतवा जरी करने से लोग अन्ना एंड कम्पनी से खफा हैं।

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

यूं भुला न पाओगे चवन्नी की छाप

चवन्नी के अवसान पर स्यापा करने और मर्सिया पढऩे वालों से इल्तिजा है, भले ही रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने चवन्नी की तकदीर में डेथ सेंटेस लिख दिया हो चवन्नी मरी नहीं है। वह अमर रहेगी हमारी यादों में किस्सों में कहानियों में गीतों में कहावतों में लोकोक्तियों में मुहावरों में तकिया कलामों में। कांग्रेस के चवन्नियां मेंबर बनकर देश के लाखों लोग भारत माता को आजाद कराने स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे। अंग्रेजों को भगाकर ही दम लिया। तो चवन्नी हमारे लिए बेहद प्रिय है, हमारे आजादी के संघर्ष के इतिहास से सीधे जुड़ी है। मेरी सुनिए। जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिलें। वैसे ही अचानक एक अवकाश के दिन 30 साल पुरानी कॉपी के कुछ पन्ने रद्दी में बरामद हुए। एक पेज पर पेंसिंल से बनाई हुई चवन्नी दिख गई। इसे पेज के नीचे रखकर पेंसिल से उकेरा गया था। यह उस जमाने का रेखांकन है चित्रकारी है जब हमें जेब खर्च के लिए एक, दो और तीन पैसे से लेकर पांच, दस और बीस पैसे तक मिलते थे, जब जैसा तीर मारा या अम्मा पिताजी जिस तीव्रता से प्रसन्न हैं। कभी कभी फूफाजी या नानाजी चवन्नी दे देते तो निक्कर में नहीं समाती थी, क्या क्या नहीं आ जाता था इस चवन्नी में । दस पैसे के पोये और दस पैसे की जलबी और पांच पैसे बच भी जाते थे तो पांच पैसे में संतरे की पांच गोली चूसते हुए दिन भर मौज करो।
चवन्नी अब चलन में नहीं रही लेकिन मुहावरों मेंं ठीक उसी तरह से जीवंत रहेगी जैसे कौड़ी, टका, आना, गिन्नी, मुहर, छदाम जैसी शताब्दियों पुरानी मुद्राएं मौजूद हैं। टका तो आज बांगलादेश की मुद्रा है लेकिन हमारे यहां तो वह काल कवलित हो चुकी है। लेकिन हम अब भी दो टके का आदमी और लाख टके की बात या सवाल कहते हैं कि नहींं। जैसे की सोलह आने सच, दो कौड़ी की भी इज्जत नहीं, मेरे पास तो एक छदाम तक नहीं हैं। आप तो ऐसे कह रहे हो आपकी मदद कर दूंगा मानो मेरे पास खजाने में मुहरें गढ़ी है। यही कहावतें शहरों में शायद न चलती हों लेकिन ग्राम्य जीवन में रची बसीं हैं। ग्राम्यांचलों में तो नाम भी मुद्राओं पर रखे जाते थे, माता पिता के लिए बच्चे ही तो सच्चे खजाने होते हैं। गांव में छदामीलाल, मुहर सिंह और गिन्नी बाई नाम अब तक प्रचलित हैं। बंगाल में तो तिनकौड़ी नाम भी चलता है। इसी तरह नाम हीरा सिंह, जवाहर सिंह, मोतीलाल, मोती सिंह, स्वर्ण सिंह, रजत कुमार जैसे रत्न और महंगी धातुओं से जुड़े नामों की ही तरह मशहूर रहे हैं।
खैर, मित्रो हम बात चवन्नी की कर रहे हैं। चवन्नी हमारी स्मृति से इतनी आसानी से नहीं जाने वाली, रिजर्व बैंक का आदेश उसे बाजार बदर कर सकता है लेकिन दिल की गलियों में और गालियों में चवन्नी अमर ही रहेगी। राजनीति और चवन्नी का भी बड़ा साथ रहा है इमरजेंसी के बाद हुए सन 77 के चुनाव में तो हर नारे में चवन्नी होती थी.. चार चवन्नी थाली में ... नाली में। चुनावी सभाओं के सिरमौर अटल बिहारी वाजपेयी तो घिसी चवन्नी चल गई वाला किस्सा कमोबेश हर सभा में सुनाते ध्ोि और जनता उनकी और मुरीद हो जाती थी।
चवन्नी मुहावरों में बड़ी काम की चीज है। चवन्नी छाप आदमी तो मशहूर मुहावरा है जो टुच्चे लोगों को परिभाषित करने के काम आता ही है। लेकिन चवन्नी बहुत गहरे तक दिल से भी जुड़ी है। फिल्मी गाना बहुत ही लोकप्रिय है सैंया दिल मांगे राजा दिल मांगे चवन्नी उछाल के। चवन्नी के जाने से अतीत बन जाने से अब राजा क्या उछाल के दिल मांगेगा क्योंकि नोट वैसे नहीं उछाले जा सकते जैसे चवन्नी उछाली जा सकती है बिंदास। गाना तो अपने खंडवा वाले मन के कवि किशोर कुमार का भी बड़ा मशहूर है लौटा दो मेरे एक रुपैया बारह आना। अब बारह आने की जोड़ी बिछुड़ गई है क्योंकि जब चार आने अर्थात चवन्नी ही नहीं होगी तो अकेली अठन्नी यानी आठ आने कैसे बारह आने तक पहुंचेंगे। हो सकता है चवन्नी के बाद अब रिजर्व बैंक की नजर अठन्नी पर भी तिरछी हो जाए, क्योंकि जब पांच सौ और हजार के नोटों का बोलबाला है, लाखों के नहीं हजारों हजार करोड़ों के घोटाले हैं तो बेचारी जैसी चवन्नी वैसी अठन्नी, और रुपैया तो वैसे भी अब किसी के पिताश्री का नहीं रहा।
: सतीश एलिया

एक किस्सा ये भी

दफा एक गाँव में एक मौलाना आया, गाँव के लोग सीधे और नेक थे। मौलाना की बैटन से प्रभावित हुए। खूब सम्मान दिया। कई दिन गुज़र गये, एक दिन मौलाना ने गाँव वालों से कहा विप्प्ती आने वाली है.कैसी विपदा गाँव वालों ने पूछा.आंधी तूफ़ान, ओले कुछ भी हो सकता है। क्या करें आप ही बताइए। मौलाना ने कहा इस रमजान में बच्चे से लेकर बुजुर्गवारों तक को पानी की एक बूँद भी नही लेना है। पूरे ३० दिन ये करना है। फिर में दुआ पडूंगा। सैतानी ताकत लौट जाएगी। गाँव वालोनो ने इस पे अमल किया। गाँव में एक तलब था। मौलाना रोज़ पाक होने उसमें स्नानं करता था। गाँव वालो को तालाब में जाने की मनाही थी। एक रोज़ मौलाना चीकट हुआ दौड़ा गाँव की तरफ आता दिखा लोग घबरा गये। देखा तो मौलाना लुहुलुहान। बोलने से भी लाचार। असल में तलब में डूबकी लगाकर पानी पीने वाली इन जनाब के गले में कांटे वाली मछली फंस गयी थी। सबको हकीक़त पता चल गयी।
इस कथा का अर्थात ये है कि जो लोग ये समझते हैं हम जो कर रहे हैं वोह हम ही जानते हैं कोई और नही। उनकी दशा एक दिन एसी ही होती है, दुनिया को नेकी की रह पे चलने की नसीहतें देने वाले ढेरो लोग इसी तरह बेनकाब हो रहे हैं। धन को तृष्णा बताने वालो के यहाँ अरबों की सम्पत्ति मिल रही है, काले धन का पता पूछ रहे और हल्ला मचाने वाले अपने पिता का ही नाम सही नही बता रहे। सत्ता में बने रहने के लिए लोग क्या नही क्र रहे। चाहे वो सरकार की सत्ता हो की कारपोरेट की या मठ मंदिर, हाऊसिंग सोसायटी की सब जगह लोग इन मौलाना जैसे ही तलब में दुबकी कगते हैं लेकिन वे ये याद रखें की कभी भी कांता फंस सकता है... जय रामजी की

शनिवार, 18 जून 2011

आखिर सात दिन में टें क्यों बोल गए योगी...

देश भर को कपाल भाति, प्राणायाम और जाने क्या सिखाने वाले रामक्रष्ण यादव उर्फ बाबा रामदेव एक सप्ताह के अनशन में आखिर क्यों पस्त हो गए! यह सवाल देश भर में उनके अनुयायियों बकौल रामदेव एक करोड, को भी बेचैन तो कर ही रहा होगा। क्योंकि हमारे सामने निगमानंदजी का उदाहरण सामने है, वे डटे रहे, हटे नहीं और प्राण उत्सर्ग कर दिए। आजादी के संग्राम में यतींद्रनाथ दास ने भी अनशन नहीं तोडा मात्रभूमि के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया। गांधीजी के अनशन अंग्रेज सरकार और उनके अपने समर्थकों को हिला देते थे। हमारे सामने ममता बनर्जी के 21 दिन का अनशन है। भोपाल मेघा पाटकर के अनशन का मैं खुद गवाह हूं, दो सप्ताह से ज्यादा के अनशन के बाद उन्हें देर रात जबरिया उठाकर अस्पताल में भर्ती कराया गया था, लेकिन जीवट की मिसाल मेघा ने कायम की थी। दिग्विजय सिंह की सरकार को झुकना पडा था। दिग्विजय ने मेघा के बारे में तब कोई ऐसी टिप्पणी नहीं की थी, जैसी अब रामदेव के बारे में कर रहे हैं। दिल्ली के रामलीला मैदान से भागने की कोशिश और फिर सात दिन में ही अनशन की समाप्ति से रामदेव ने खुद की तो भद पिटवाई ही है, योग की शक्ति के सामने सवालिया निशान भी लगा दिया है! आखिरी योगियों के किस्से सुनने पढने वाले बच्चे इस योगी की असफलता से कैसे प्रेरित होंगे, भाजपा और संघ की छोडिए उन्हंे तो दिल्ली के तख्त पर वापसी के लिए एक अदद जेपी की तलाश है। क्योंकि लोग देख रहे हैं कि उनके लोग भी सत्ता में रहकर कांग्रेसियों से बेहतर तो नहीं ही हैं।

चितवन का पेड और धर्मवीर भारती

कालजयी साहित्यकार धर्मवीर भारती की पत्नी पुष्पा भारती जी आज भोपाल में हैं। वे यहां माधवराज सप्रे समाचार संग्रहालय एवं शोध संस्थान के 27 वें स्थापना दिवस के मौके पर धर्मवीर भारती कक्ष के लोकार्पण अवसर पर आई हैं। पुष्पाजी ने भारती जी की बहुमूल्य किताबों का संग्रह संग्रहालय को भेंट किया है। अपने भाषण में उन्होंने किताबों को ठीक से नहीं सहेजे जाने पर उलाहना दिया और कहा कि मैं भारती जी के बारे में अनछुए संस्मरण सुनाने आई थी, लेकिन अब नहीं सुनाउंगी। उनके नाम पर बने कक्ष में उनकी किताबों को ऐसा सहेजा जाए कि उनकी उपस्थिति मुझे महसूस हो, तब मैं संस्मरण सुनाउंगी। हालांकि पानी सहेजने पर केंद्रित इस कार्यक्रम में जब सब वक्ता बोल चुके और आभार प्रदर्शन की औपचारिकता भी पूरी हो चुकी और लोग उठ चुके तो पुष्पाजी फिर डायस पर आईं। लोगों को रोका और भारती जी से जुडा एक दिल को छू लेने वाला संस्मरण सुनाया। उनका संस्मरण और भावुक बयान सुनकर और उनसे मिलकर ऐसा लगा मानो क्रष्ण के बारे में राधिका कुछ कह रही हो। उन्होंने यह भी कहा कि भारती जी के निधन के बाद लोगों ने मुझे कहा कि इतने बडे घर में अकेलापन नहीं लगता, डर नहीं लगता। लेकिन भारतीजी की किताबें, उनके हाथों स्पर्शित साहित्य के साथ मुझे कभी अकेलापन लगता ही नहीं।

चितवन का पेड और धर्मवीर भारती

भारती जी को क्रष्ण कथाओं से बडा प्रेम था। इसीलिए बंबई में हम जहां रहते हैं वहां उन्होंने कंदब के पेड लगाए थे। कहते हैं क्रष्ण जब नाचते थे तो उनकी गति इतनी तेज होती थी कि हर गोपी को लगता था कि वे मेरे ही साथ नाज रहे हैं। यह न्रत्य चितवन के पेड के चहंुओर होता था। भारती जी चितवन का पौधा ढूंढने बंबई की नर्सरी नर्सरी भटके लेकिन नहीं मिला। किसी ने कहा दिल्ली में मिल जाएगा, गए दिल्ली तो मिल गया। इसे सप्तपर्णी नाम से जाना जाता है। भारती जी ने पौधा रोपा और खुद ही रोज पानी देते थे। व्रक्ष इतना उंचा हुआ कि बिल्डिंग के आखिरी माले तक पहुंचने लगा। इतने फूल लगते थे, सुगंध से सभी के घर महकते थे। उपरी माले में जो रहते थे, वे कहते हमारा तो पूरा घर ही इसकी गंध से भरा रहता है। भारती जी शरद पूर्णिमा की रात छत पर सबको बुलाते थे। मैं खीर बनाती थीं। चांदनी रात में रखी जाती थी। छत पर कोई कविता पाठ करता तो कोई न्रत्य की करता, हम सब गाते बजाते और सुबह खीर सबको बांट दी जाती थी। जिस वर्ष भारती नहीं रहे वो सितंबर का महीना था। अक्टूबर आया शरद पूर्णिमा के दिन हमारी बिल्डिंग के हमारे पडोसी ने आयोजन किया, मुझे बुलाया मैं कैसे जाती। फिर पोते को भेजा, तो मैं नाराज ही हो गई। लेकिन जब वो खुद बुलाने आईं और बोलीं कि हम नाचने गाने के कार्यक्रम में नहीं बुला रहे हैं आपको, आप आइए तो सही। मैं उपर गई तो उन्होंने बताया कि देखिए चितवन का व्रक्ष मुरझा गया है, सब फूल सूख गए एक एक कर। भारती जी के जाते ही व्रक्ष भी चल बसा। जब व्रक्ष गिरने गिरने को हो गया तो म्युनिसपैलिटी वालों से काटने की अनुमति ली, कि कहीं पेड गिर ही न जाए। काटने से पहले एक दिन सूखी डाल ने हमारे घर के उस कक्ष की खिडकी को टहोका दिया, जो भारती जी का कक्ष था, खिडकी का कांच फूट गया। व्रक्ष के भारती जी से इस प्रेम को देखकर में रो पडी। मेरी बेटी जान गई। जब वो चली गई तो उसने भारती जी की एक कविता ड्रायवर के हाथ लिख भेजी; तुम कितनी सुंदर लगती हो जब होती हो उदास....। मां डैडी बहुत खुश हैं;।

मेरा यह संस्मरण जब साहित्य अम्रत पत्रिका में छपा तो किसी ने इंटरनेट मैग्जीन में डाल दिया। यूएस की एक यूनीवर्सिटी के एक प्रोफेसर ने मुझे फोन किया वह रिसर्च कर रहा है कि पेडों में मस्तिष्क होता है और जब कोई जहरीला जंतु पेड पर डेरा जमाता है तो पेड जडों को एसओएस भेजते हैं और पेड में ऐसे रसायन निकलते हैं कि जंतु को भागना पडता है। उस वैज्ञानिक ने मेरे संस्मरण पढकर अब यह रिसर्च भी करने का निश्चय किया है कि पेडों में ह्रदय भी होता है। वो मुंबई आकर उस चितवन के पेड के ठूंठ पर ही रिसर्च करना चाहता है।

-satish aliya, Bhopal 18 june 2011

मंगलवार, 3 मई 2011

ओसामा नहीं रहे, पाकिस्तान तो है और अमेरिका भी

पूरी दुनिया को जंग और सिविल वारों में झौंकने वाले अमेरिका को दस साल तक तिगनी का नाच ता थैया ता थैया ता ता थैया थैया नचाकर अंततः ओसामा बिन लादेन कल देर रात अमेरिका के शूरवीरों के हाथों मारे गए। एक जुनून के लिए पूरी दुनिया को जंग का मैदान बनाने वाले अल कायदा के सरगना के मारे जाने से आतंक खत्म हो गया है, ऐसा समझने वाले नादान हैं। असल में अमेरिका ने ही पूरी दुनिया में बीते पचास साल में आतंक का नेटवर्क खुद ही खडा किया है। पाकिस्तान जहां लादेन रह रहा था, उसको हथियारों और आतंकी ट्रेनिंग चलाने का खर्चा तो आखिर अमेरिका ही दे रहा था। मुंबई में जब पाकिस्तानी आतंकियों ने कहर बरपाया तो अमेरिका का क्या रवैया अब तक रहा है! अमेरिका ने अफगानिस्तान में क्या किया, विश्व की सबसे विशाल बुदृध प्रतिमा को उडाने वाले तालिबानी हथियार आखिर थे तो अमेरिकी ही। अमेरिकी सत्ता अपने नागरिकों को जो सैनिक बनते हैं उन्हें भी वहां वहां जंग में धकेलती है जहां अमेरिका पहले प्रशिक्षण और हथियार दे चुका है। सददाम को ताकत अमेरिका ने ही दी और फिर मारा भी अमेरिका ने ही। जश्न मना रही अमेरिकी जनता को अपने यहां की सियासत के दो रंगे चेहरे को नहीं देखना चाहिए क्या। और क्या अमेरिका अब भी पाकिस्तान की मदद जारी नहीं रखेगा। दुनिया में अशांति और आतंक की जड अमेरिका ही है, यह बात सबको समझ ही लेना चाहिए। लादेन के मारे जाने में उल्लास का अतिरेक बेमतलब है, उसने जो बोया वो काटा लेकिन ऐसा अमेरिका के साथ भी नहीं हुआ क्या और आगे नहीं होगा क्या!

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

बेशर्मी इज द बेस्ट पॉलिसी के प्रवर्तक से मुलाकात

सबसे पहले तो इस शीर्षक के लिए ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी के प्रवर्तकों, फालोअरों और पक्षधरों से क्षमायाचना करता हूं, जैसे कि पूर्वज गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखने की शुरूआत में वंदउ खलव्रंद कहते हुए दुष्टों को नमन किया था, क्योंकि गुसांई जी का मानना था कि उनकी कृपा के बिना मानस का लेखन नहीं हो पाता। तो मित्रों मैं ईमानदारी के झंडाबरदारों से क्षमा याचना करते हुए नए जमाने की नई बात यानी नए युग के स्लोगन बेशर्मी इज द बेस्ट पॉलिसी के प्रमोशन के लिए आपसे रूबरू हूं। क्यांेकि वो जमाना लद चुका है जब ईमानदारों की कद्र होती थी, मेरी बात को यूं समझें कि अब लाल साबुन से नहाने और तंदुरूस्त रहने के विज्ञापनों का जमाना लद गया है और संदल समेत एक दर्जन खुश्बुओं में आने वाले साबुनों का जमाना है। इस नए स्लोगन के प्रमोशन के लिए मैं क्यों आगे आया इसकी भी रोचक और प्रेरक दास्तां है। मेरे एक परिचित हैं, मित्र कहलाने लायक कोई योग्यता उनमें न तो है और न ही वे इस तरह की वाहियात बातों में यकीन ही रखते हैं। उनकी खूबी ये है कि वे सफल हैं, और उसकी जड. वे बेशर्मी को मानते हैं, गुनते हैं और धारण करते हैं। वे शरीर विज्ञान की इस धारणा के भी खिलाफ हैं कि रीढ. की हडडी शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग है, वे यहां तक मानते हैं कि इसकी जरूरत ही क्या है! तो जनाब वे कहते हैं सफल होने के लिए चमचागिरी महत्वपूर्ण गुर है, लेकिन मूल मंत्र तो बेशर्मी है। एक दफा यह जीवन का अविभाज्य अंग बन जाए तो चमचागिरी, चुगलखोरी, टांग खिंचाई इत्यादि सहयोगी गुणों के जरिए सफलता मिल ही जाती है। उनका जीवन प्रत्यक्षं किं प्रमाणं की तरह मेरे सामने है। अपेक्षाकृत कम शिक्षित, कम अक्ल और अविश्वसनीय होने के बावजूद वे न केवल सफल हैं, बल्कि राह में आने वाले हर किस्म के रोड.े को हटाने में सक्षम हैं। उनकी पूरी सफलता में अहम किरदार बेशर्मी का ही है। वे अपनी कीर्ति के ऐसे ऐसे किस्से सहजता से सुनाते रहते हैं कि सुनने वाले हर शख्स की आंखों में परिहास की चमक कौंध जाती है, वे इसे भांप लेते हैं, जान लेते हैं लेकिन इस सबके बावजूद उन्हें इस सबसे कोई फर्क नहीं पड.ता, इसीलिए तो वे सफल हैं। जब केंद्र में फिर यूपीए की सरकार आई थी तो वे बोले देखा बेशर्मी ही सफलता का एकमात्र पैमाना है, हमने कहा कैसे! तो कहने लगे लोकतंत्र में परिवारवाद को कोई जगह नहीं होना चाहिए, हमने कहा हां, वे बोले, लेकिन हकीकत में क्या है, नेहरू जी के कुनबे से चार सांसद चुने गए, इनमें से राहुल सुपर पीएम और सोनियाजी अल्ट्रा सुपर पीएम हैं। फारूख अब्दुल्ला और उनके दामाद सचिन पायलट मंत्री बन गए, बेटा उमर पहले ही मुख्यमंत्री बन चुके हैं। करूणानिधि मुख्यमंत्री, बेटा एम स्टालिन उपमुख्यमंत्री, दामाद एवं भानजा दयानिधि मारन केंद्र में मंत्री, बेटा अझागिरी भी केंद्र में मंत्री, बेटी कणिमोझी को मंत्री नहीं बनवा पाए तो क्या उनके लिए और कोई पद दिला देंगे। संगमा की बेटी अगाथा भी मंत्री बन गई।
मैंने पूछा ईमानदारी इज बेस्ट पॉलिसी को खारिज करने का इस वंशवाद से क्या ताल्लुक! वे बोले, ताल्लुक है। वो ये कि जो होना चाहिए वह नहीं होना ही सफलता है, इसी तरह ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी होना चाहिए के पीछे पड.े रहोगे तो सफल कैसे होगे? सफलता पाना है तो बेशर्मी इज बेस्ट पॉलिसी पर अमल करो, भले ही हर ओर दफतर की दीवाल पर ऑनेस्टी की तारीफ वाला स्लोगन लिखवा लो और उसे रोज अगरबत्ती भी लगाओ, लेकिन उसे दिल में मत बसाओ। दिल में जो बसा हो उसका जिक्र भी कोई करता है भला। श्रीमान सफल के इस दर्शन ने मुझे झकझोरा डाला, लेकिन मेरे शरीर के वर्तमान डीएनए में तो इस पर अमल मेरे लिए नितांत असंभव लग रहा है, इसलिए में उनके प्रभावी भाषण से हिल गया हूं। मैं असपफल ही रहना चाहता हूं, हो सकता है यही मेरी नियति हो। इस कथा ने आपके मन में भी हलचल मचाई हो तो लिखिएगा जरूर, आमीन!

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

अन्ना से कौन डरता है उर्फ अन्ना से हम सब डरते हैं

शनिवार की रात करीब 11 बजे मेरे गृहनगर से एक अजीज दोस्त का फोन आया, वह बिना किसी भूमिका के सीधे मूल बात या सवाल पूछने के लिए कुख्यात है, मेरी ही तरह, शायद इसी वजह से मेरा दोस्त है। तो उसने पूछा क्यों सतीश, ये अन्ना हजारे क्या दूध के धुले हैं? मैंने भी बिना किसी भूमिका के पलटवार किया कि नहीं अन्ना का तो पता नहीं आडवाणी से लेकर प्रभात झा तक और सोनिया से लेकर दिगविजय और रामदेव से लेकर सिब्बल तक कोई दूध के धुले नहीं हैं। इसलिए अन्ना का अभी विरोध भले न करें लेकिन बाद में सब एकसुर से बोलेंगे जैसे सांसदों, विधायकों के वेतन भत्ते बढ़वाने के मामले में एकजुट रहते हैं, दलों की राजनीति से उपर। मित्र चुप होगया, अर्थात फोन डिसकनेक्ट हो गया। असल में मेरा मित्र इन दिनों पार्षद पति है, अर्थात उसकी पत्नी को भाजपा की ओर से ेटिकिट मिला और मेहनती, कर्मठ और अच्छी छवि वाला दोस्त पार्षद पति बन गया, हालांकि सभी उसी को बतौर पार्षद तवज्जो देते हैं, उस शहर में अभी तीन पार्षद पति हैं, इसके पहले नगरपालिका अध्यक्ष पति भी शहर के भागय विधाता रह चुके हैं। खैर यहां मैं मित्रनिंदा का पापकर्म करने के बजाय असल बात पर आना चाहता हूं। क्योंकि जो बात दो दिन पहले मेरा मित्र कह रहा था, लगभग वही बात दूसरे शब्दों में लालकृष्ण आडवाणी ने ब्लॉग में लिखी और बड़बोले मप्र भाजपा प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा ने कह दी। अन्ना ईमानदारी का प्रमाणपत्र बांटने वाले विवि नहीं हैं। यही अन्ना संघ कुनबे और भाजपा को दो दिन पहले भा रहे थे क्योंकि नरेंद्र मोदी और नितीश कुमार की तारीफ कर रहे थे। अब यह विचित्र राजनीति है कि नितीश बिहार चुनाव के वक्त मोदी को बिहार में आने नहीं देने पर आमादा थे। खैर अन्ना दूध के धुले हैं क्या? यह सवाल एक पार्षद पति पूछे कि वे विवि हैं क्या, यह सवाल प्रभात झा पूछें या फिर दिगिवजय सिंह अन्ना पर सवाल उठाएं। इन सबका मकसद एक ही है कि जिस राजनीतिक भ्रष्ट तंत्र के सहारे उनका राजनीतिक कैरियर परवान चढ़ा उसे वे कैसे एक आदमी के हाथों स्खलित होते देख सकते हैं। मैं किसी एक दल या नेता की बात नहीं कर रहा, जिसके लिए राजनीति सत्ता पाने और उसका बेजा इस्तेमाल करने, कमाउ धंधे की तरह है, वह बना बनाया सिस्टम टूटने की कल्पना कैसे कर सकता है? मेरे दोस्त ने मुझे ईमानदारी से बताया कि डेढ़ लाख रुपए खर्च हुए तब चुनाव जीत पाए थे, अब तक 10 प्रतिशत भी हिसाब बराबर नहीं हो पाया, ऐसे में कोई ईमानदारी की बात करता है तो लगता है,दिवालिया करना चाहता है हमें। अब सोचिए जो प्रदेश अध्यक्ष बना है, राष्ट्रीय महासचिव बना है, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री बना है, किस बूते, किस खर्चे और किस तरह के समझौते से बना होगा। ऐसे में अब पूरा भ्रष्टाचार मिटा डालने पर तुल जाओगे तो शुरूआती जन समर्थन के बाद सियासी तंत्र का विरोध झेलना ही पड़ेगा। अन्ना साहब आखिर लोगों को अपनी रोज रोटी और मीडिया को कोई दूसरा तमाशा ढूंढना ही पड़ेगा, अगर ऐसा नहीं होता तो आपको अनशन करने की जरूरत ही क्यों पड़ती। गांधी के आंदोलन का हमने क्या किया? जेपी का क्या किया? आपका भी वही करेंगे। मध्य वर्ग को चीयर अप कर सकता है, लेकिन कुछ देर, बाकी उसका विश्व कप, आईपीएल इत्यादि ही व्यस्त रखते और भाते हैं। चंद एनजीओ उनमें भी ज्यादातर आपके नाम पर अपनी दुकान जमाने के इच्छुक थे, इस शमां को रोशन नहीं रख पाएंगे, आंदोलन गरीब और मेहनतकश वर्ग के सपोर्ट से लंबा चल सकता है, क्या ऐसा हो पाएगा।

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

क्रिकेटरों के साथ जमीन से जुडि़ए

शीर्षक से चौंकिए मत, हालांकि मैं अपने उस अनुभव को बयान कर रहा हूं जिसकी शुरूआत चौंकने से ही हुई थी। हाल ही में मुझे एक पारिवारिक कार्यक्रम में उत्तरप्रदेश के उस इलाके में जाना पड़ा जिसे दिल्ली वालों की जुबान में एनसीआर कहते हैं, मतलब उत्तरप्रदेश के नोएडा और गाजियाबाद इलाके में दो दिन रहा। दिल्ली सूबे की सरहदों के इर्द गिर्द हरियाणा और उत्तरप्रदेश के इलाकों को दिल्ली की आबादी का दवाब झेलना पड़ रहा है। इन दोनों सूबों की सरकारों की कमाई के सबसे बड़े जरिए भी यही इलाके हैं। यहां के जमींदार भी करोड़ और अरबपति हो चुके हैं। खैर मैं तो क्रिकेटमय देश के सितारे क्रिकेटरों के नए रूप से परिचय होने के अनुभव को बताना चाहता हूं। न्यू ओखला इंडस्ट्रियल डवलपमेंट अथारिटी उर्फ नोएडा से जैसे ही मैं गाजियाबाद के उस इलाके की ओर मुड़ा जिसे डवलप होने को आतुर कहते हैं, मेरा स्वागत बड़े बड़े होर्डिंगस, बैनरों और पोस्टरों से हुआ। हर पोस्टर, होर्डिंग पर आज और कल के सुपर क्रिकेट सितारों की तस्वीरें हैं, होर्डिगस का न तो क्रिकेट विश्वकप जीतने की खुशी से कोई मतलब है और न ही बाइक, शेविंग क्रीम, सीमेंट, कुकिंग आइल, इंजन ऑयल के विज्ञापनों से कोई नाता, जिनके हम लोग आदी हो चुके हैं। जो क्रिकेटर शून्य पर आउट होता है, उसके बाद उसी वक्त ब्रेक में उसके बल्ले की चमक के साथ किसी प्रोडक्ट का इंड्रोस्मेंट आ जाता है। गाजियाबाद के लिए जाने वाले मोड़ से 15 किलोमीटर का वह सिलसिला शुरू हो जाता है, जहां हजारों होर्डिंग लगे हैं। वहां वीरेंद्र सहवाग किसी स्टेट में फ्लैट की बुकिंग कराने की सलाह देते नजर आ रहे हैं तो कहीं महेंद्र सिंह धोनी, गौतम गंभीर तो कहीं कपिलदेव एक करोड़ रुपए के फ्लैट बुक कराने के फायदे बता रहे हैं। दर्जनों क्रिकेटर जमीन और मकान बुक कराने के लिए बिल्डर्स की ध्वजा उठाए दिखे। ट्रकों की आवाजाही, धूल का बवंडर और इसके बीच खेतों में आखिरी सांसें गिनती गेहूं की फसल और आसपास पंद्रह और 20 माले के फ्लैट्स की हाइराईस बिल्डिंगस का निर्माण जारी है। यह मायावती का उप्र है, विकास के नए प्रतिमान गढ़ता और खेती का मर्सिया पढ़ता विकास। रास्ते में एक नदी का पुल पड़ता है, नदी का अस्तित्व समाप्त प्राय है, हिंडेन नाम की यह नदी कभी कभी कल रही होगी, अब तो यह हिडन हो गई है। वापसी में शिप्रा भी दिखी, नदी नहीं एक टाउनशिप। शिप्रा नदी तो उज्जैन में ही बदहाल है। कपिलदेव पंचतत्व का विज्ञापन कर रहे हैं, ये पंचतत्त्व क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा अर्थात धरती, पानी, आग, आसमान और हवा अर्थात पर्यावरण की चिंता के नहीं बल्कि बिल्डिंग बेचने के लिए इन पांचों तत्वों की बर्बादी में सहभागिता है। यहां आकर लगता है कि आबादी के बढ़ते दबाव, अकूत धन कमाने की अकूत संभावनाओं, नेताओं और सरकारों की उसमें अपने स्वार्थों में सहभागिता के साथ ही हमारे राष्ट्रीय नायकों की भी मिलीभगत पर्यावरण और धरती को कितना खतरा पैदा कर रही है। खेती और पर्यावरण का क्या होगा, यह चिंता भी करना होगी। यह अकेले गाजियाबाद, नोएडा, गुडग़ांव का किस्सा नहीं हैं। बेंगलुरू हो कि मुंबई, चैन्ने हो कि भोपाल, अगरतला हो कि गुवाहाटी, सब तरफ खेती बिल्डिर्स और सरकार के निशाने पर है, पर्यावरण ताक पर रख दिया गया है। विज्ञापनों के जरिए धन बटोरने में आगे रहने वाले क्या हमारे हीरोज इस बारे में भी सोचेंगे। आमीन

शनिवार, 19 मार्च 2011

राजा भोज और भोपाली रंग

पैदाइशी भोपाली वो भी बर्रूकाट खानदान
के चश्मो चिराग मियां जुम्मन ने जब से होश
संभाला है बिला नागा बड़े तालाब को दिन में
तीन दफा जरूर देखते हैं, कभी भोपाल से बाहर
तशरीफ ले जाना पड़े तो तालाब ख्वाब में नजर
आकर उलाहने देता है म्यां आज कां
रै गए, एक दफा भी दीदार नईं हुए। सो मियां
जुम्मन सन छप्पन से आज तलक छप्पन दफा भी
शहर से बाहर नहीं गए। सन छप्पन में ही
उनकी वो उमर थी, जिसे होश सम्हालना
केते हेंगे, यानी येई कोई आठ दस बरस के
रहे होंगे। तब से ये शेहर मध्येपरदेश की
राजधानी भी बना हैगा। खैर शनीचर को
अलसुबह जुम्मन ने रोज की तरह बड़े तालाब के
किनारे तफरीह शुरू की ही थी कि तालाब के
बुर्ज पर रोशन राजा भोज के बुत से
सफ्फाक रोशनी का बगूला सा उठा, मियां
जुम्मन की आंखें फटी की फटी रह गईं,
होश गुम होते से मालूम पड़े, आंख खुली तो
देखा रात हो चुकी है, पास में एक रौबदार
चेहरे के मालिक को मुसकराते हुए पाया।
सर पर ताज, गले में मोतियों की मालाएं, कंधे
पर तेग टंगी हुई। मियां जुम्मन ने आंखें मली,
पूछने लगे म्यां कौन हो तुम। अब रौबदार
लेकिन मुलायम लहजा गूंजा जुम्मन उठो, मैं
हूं राजा भोज धारा नगरी का। जुम्मन के
होश कुछ ठिकाने लगे तो वे बोले, अरे
वाह जनाब आपका तो बुत तालाब में अभी
लगाया गया है, हूबहू वही हैं आप, लेकिन बुत
से निकले कैसे, सरकार को पता चला तो फिर
से बुत में भिजवा देगी। परम ज्ञानवान राजा
भोज ने भोले भोपाली मियां जु मन से कहा
मैं अपनी धारा नगरी में प्रजा के हाल जानने
भेष बदलकर निकला करता था। अब जब इस राज्य की
सरकार मेरा इतना गुणगान कर रही है,
तो मुझसे रहा नहीं गया, मैं इस शहर का
भ्रमण करना चाहता हूं, क्या तुम मेरी
सहायता करोगे। जु मन ने खुद को चोंटियां
ली हाथ में दरद हुआ तो समझ गए, ये ख्वाब नईं
बल्के हकीकत हे। बोले- राजासाब अपन तो
पक्के भोपाली हैं, मदद भी पूरी करते हेंगे,
कोई पता पूछे तो ठिकाने पेई छोड़के
आते हेंगे। वैसे आप झां खड़े हो वो तो अब
आपकेई नाम से सड़क केलाएगी, चीफ मिनिसटर
ने के दिया हैगा, जे तालाब भी आपके नाम पर
करने का भी एलान हो चुका है, मगर अपन तो
बड़ा तालाब केते थे, केते हैं, केते रहेंगे।
चलो घुमाए देते हैं भोपाल पूरा, बोलो
नया घूमोगे के पुराना। भोज बोले वत्स, हम
पूरे नगर का भ्रमण कर जनता का हाल जानना
चाहते हैं, नवीन प्राचीन में भेद करना हमारी
नीति नहीं हैं। राजा भोज मियां जु मन के साथ
नगर भ्रमण पर निकले, आईए देखें वे कहां
कहां गए और क्या क्या देखा।
दृश्य एक
करबला के सामने से कटते हुए वे उस सड़क पर
जा पहुंचे, जहां कलेक्ट्रेट है। सड़क खुदी
देखकर राजाभोज चौंके, जु मन से पूछा वत्स,
ताल किनारे के मार्ग की भव्यता के विपरीत चंद ही
कदम दूर इस मार्ग की ऐसी दुर्दशा क्यों? जु मन
बोले- साब ये सवाल तो भोपाल की पब्लिक अर्से से
पूछ रई हे, मगर कोई जवाब कहीं से नईं
आता, आपका बुत तालाब में लगवाने वाले गौर
साब भी नईं देते जवाब। भोज ने अचानक तीक्ष्ण
दुर्गंध महसूस की, बोले वत्स ये दुर्गंध इस भवन की
ओर से आती प्रतीत हो रही है, क्या हुआ
इस भवन में क्या कार्य होता है यहां। जु मन
बोले- सरकार ये कलेक्टरेट हे, ये बदवू
केरोसिन की है, यहां एक किसान ने जमीन का
नामांतरन रिश्वत देने के बाद भी नईं होने पर
मिट्टी का तेल डालकर खुदकुशी कर ली थी, तब से
जिनके दिल पाक साफ होता है, उन्हें तेल की
बदवू और आदमी के जलने की बदवू खुद ब खुद आती
हेगी, बाकी लोग दिन भर यहां रेते हैंगे,
नेता भी गुजरते हेंगे, किसी को नईं आती बदवू।
भोज का चित्त द्रवित हो गया, वे ओर ज्यादा देर
वहां नहीं ठहर सके।

दृश्य दो
जुम्मन के साथ राजा भोज शहर में आगे बढ़े
बढ़ी सी इमारत दिखी तो पूछा वत्स ये कौन सा
भवन है। जुम्मन बोले, जनाब इस तरफ ताजुल
मसाजिद और दूसरी तरफ ये गांधी मेडिकल
कॉलेज है, आइए घुमा लाएं। वे मुडऩा ही
चाहते थे, कि भोज ठिठक गए, ये चीखें कैसी हैं, ये नीचे जाते मार्ग पर लहू कैसा है? जुम्मन ने कहा राजा साब एक दिन इस रस्ते पर पुलिस
की एक गाड़ी के ब्रेक फेल हो गए थे। कई आदमी
औरतें, बच्चे, स्टूडेंट उससे कुचल मरे।
उस वाकये को तो भौत दिन होगए, जांच का भी
पता नईं चला मगर आप भी खूब हैं, अब तक लहू
और चीखें महसूस कर रए हैं। खैर जुम्मन भोज
को हमीदिया अस्पताल लिवा ले गए। सिहर उठे
भोज, लगभग विलाप की मुद्रा में बोले, वत्स तुम
मुझे कहां नरक में ले आए, लोग विलख रहे
हैं, उनकी कोई सुन नहीं रहा, ये कौन
हैं जो इन विपदाग्रस्त लोगों को पशुओं की
तरह हकाल रहे हैं। जुम्मन बोले-जनाब ये
डॉक्टर, नर्स, बॉर्ड ब्यॉय हैं जो गरीब
मरीजों का इसी तरह इलाज करते हैं। भोज
बोले राज्य सत्ता के कोई अमात्य या गण इस
अव्यवस्था पर विराम नहीं लगा पाते। जु मन ने
आसमान में बिसूरते हुए कहा-अल्ला करे तो
करे, इंसानों के बस की बात तो मुझे नहीं
लगती जनाब।

दृश्य तीन
जुम्मन शहर के पुराने कहे जाने वाले
हिस्से में जाने के बजाय कमला पार्क की ओर
आ गए। भोज ने कहा वत्स ये तो फिर ताल का
किनारा गया, अब हम किस और प्रस्थान कर
रहे हैं। अरे, वत्स ताल के पाल पर ये खनन कार्य
क्यों हो रहा है,क्या ये मेरे ताल को
प्रवाहित करने की युक्ति है? जुम्मन बोले-
अरे नई जनाब, ये तो शहर में सड़कों
को चौड़ा करने की स्कीम है, मगर पूरा
शहर जगह जगह इतना और इतने दिनों से
खुदा पड़ा है कि मुंह निकल पड़ता है या खुदा।
इसके बाद वे पॉलीटेक्रिक चौराहा होते
हुए रोशनपुरा चौराहे पर खुदाई के
दृश्य देखते हुए पहुंचे। यहां से आगे बढ़ते ही
सड़कों के सौंदर्य से भोज अभिभूत से हो गए।
लिंक रोड नंबर एक पर पहुंचते वे बोले- ये
बड़े बड़े आवास, बढिय़ा मार्ग, हरीतिमा, बड़े
बड़े वाहन, क्या हम किसी दूसरे नगर में प्रवेश
कर रहे हैं। जु मन बोले- अरे जनाब ये
नया भोपाल है, ये बंगले मिनिस्टरों के हैं,
ये सड़क एक साल में तीन दफा बन चुकी है, बनाने
वाला भी और बनवाने वाला भी भोत नाम और
नामेवाले लोग हैं।

दृश्य चार
जुम्मन 74 बंगले से बिरला मंदिर होकर
विधानसभा, वल्लभ भवन के रास्ते पर कट लिए।
मंदिर के शिखरों को निहारते हुए भोज
ने पूछा वत्स ये बौद्ध स्तूप सदृश्य भवन क्या है?
जु मन ने गर्व से बताया ये हमारे परदेश की
विधानसभा है, बिल्डिंग बनना शुरू हुई
तो 12 करोड़ लागत तै हुई थी, बनी तो 72
करोड़ लग चुके थे, अवार्ड मिल चुके हे आगा
खां अवार्ड। वल्लभ भवन को देखकर भोज कुछ
कहते, जुम्मन बोले- और ये हे वल्लभ भवन, फिर
सतपुड़ा और विंध्याचल भवन। यहीं से परदेश
की सरकार चलती हेगी, जे सामने झुगिगयां
बनी हैं, पूरे देश में जनाब किसी भी स्टेट
के सेक्रिटिएट के सामने झुगगी नईं हैं, मगर
अपना भोपाल तो भोपाल हे, यहां सब चलता है।

ठंडी सड़क से कटते हुए, 1250 से गुजरते हुए
जुम्मन चार इमली की घाटी चढ़ गए। भोज अब
थक चुके थे, बोले वत्स यह हरा भरा बंगलों से सज्जित कौन सा प्रदेश है। जुम्मन बोले-अरे जनाब भोपाल ही है, कभी इस इलाके
में ईमली का एक बड़ा पेड़ था, सुनसान जगह थी,
चोर यहां आकर माल की हिस्सा बांटी करते
थे, हमने ऐसा अपने बुजुरगों से सुना है। अब
यहां मिनिस्टर, अफसर रहते हैंगे। भोज ने
सड़कें चकाचक और बंगले चमचमाते और चमचमाती
बड़ी बड़ी गाडिय़ां देखीं तो बरबस कह उठे,
वत्स यहां आकर अनुभूति हुई कि यह राज्य
सुसपंन्न है।

दृश्य पांच
जुम्मन अब यहां से मुड़े तो हबीबगंज नाके
पर रेलवे फाटक तक जा पहुंचे, फाटक
बंद देख बोले- जनाब ये फाटक ज्यादातर वक्त
बंद ही रहता है, चलो अंडब्रिज से चलते हैं।
रेलवे अंडरब्रिज की दुर्दशा से गुजरते हुए वे होशंगाबाद रोड पर आ गए। भोज बोले,वत्स ये मार्ग कहां जाता है। जुम्मन बताने लगे
इसे होशंगाबाद रोड कहते हैंगे, कहने
को नेशनल हाइवे है, लेकिन हालत ये हैगी
कि होशंगाबाद तक जाने में जान ही निकलते
निकलते बमुश्किल ही बच पाती हे। भोज ने पूछा
नगर की सीमा समाप्त कब होगी, जु मन बोले-
जनाब ये भोपाल की पूंछ समझो, इसी तरफ
बढ़ता ही जा रिया बढ़ताई जा रिया है।
भोज ने जुम्मन से कहा वत्स, शहर की दूसरी
बस्तियों में भी भ्रमण करना है, क्यों न लौट
चलें। जुम्मन बोला, वापस एक शर्त पर चलेंगे, आप
मुझसे वादा कीजिए, हमारे शहर का नाम
भोजपाल करने पर तुली सरकार क़ो बता
देंगे कि आप इस शहर का नाम नहीं बदलवाना
चाहते। भोज असमंजस में फंस गए। कुछ देर सोचने
के बाद वे अपना निर्णय सुनाना ही चाहते थे कि
जुम्मन को उनकी बेगम ने झिंझोडकर उठा
दिया। अरे,अशरफ के अब्बा दिन चढ़े तक सोते
ही रहोगे या घूमने भी जाओगे। जु मन
बोले-प्रिय तुमने मेरा स्वप्र भंग कर दिया, वे
मुझे वरदान देने ही वाले थे। बेगम चौंक गई
खाबिंद की बोली में इस बदलाव से। बोलीं आज
आपको ये हो गया है, केसी बहकी बहकी
बाते कर रिए हो। जुम्मन उठे और तालाब
की ओर चल पड़े, बुर्ज पर राजभोज की भव्य
प्रतिमा को देखकर इत्मीनान हो गया कि सब कुछ
कल के ही ठिए पर है, कुछ नहीं बदला, वे ख्वाब ही देख रहे थे। आमीन
-बकलम सतीश एलिया

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

नाम बड़ा या काम भोपाल या भोजपाल

अतीत सबको अपनी तरफ खींचता है.वर्तमान और भविष्य से भी ज्यादा इतिहास में दिलचस्पी विकास को बाधित करती है। इतिहास के विद्यार्थी और प्रोफ़ेसर रूचि ज्यादा लें तो ठीक भी है। सरकारें खासकर बीजेपी कि सरकारें अतीत पे जोर देतीं हैं। भोपाल का नाम भोजपाल करने की तैयारी में है शिवराज सरकार। जाहिर है एजेंडा संघ का है। धार के राजा रहे भोज की भोपाल के ताल में नबाबी काल के किले के बुर्ज़ पे स्थापित प्रतिमा का सोमवार को अनावरण होगा। सरकार भारी धन खर्च कर जलसा कर रही है। भोपाल का नाम भोपाल हो या भोजपाल इससे क्या फर्क पड़ता है। केंद्र में ६ साल सरकार में रही बीजेपी ने भारत का दुनिया भर में नाम इण्डिया होने को क्यों नही बदला। जहाँ तक हकीकत की बात है तो भोपाल पडोस के राज्यों की राजधानियों के मुकावले कहाँ है। जयपुर ,अहमदाबाद.बेंगलूर.हैदराबाद सूरत शहरों से तुलना करो तो पिछड़ा है भोपाल। जयपुर में परसों ही मेट्रो रेल के काम का शिलान्यास हुआ। फिर कलकत्ता का नाम इसलिए बदला गया क्योंकि अँगरेज़ कोल्कता को केलकटा कहते थे। तिरुंन्तपुरम को त्रिवेन्द्रम,मुम्बा देवी के नाम पर बसे मुंबई को बॉम्बे कहते थे बेंगुलुरु को बैगलोर कहते थे। हम भी कहने लगे। आजाद होने के सालों बाद भी कहते रहे। जनता के समर्थन से नाम बदले गये और चलने लगे। लेकिन भोपाल को अंग्रेजों ने भोपाल नाम नही दिया। भूपाल या भोजताल या भोजपाल का अपभ्रंश हो सकता है। इस तरह तो उज्जैन का नाम उज्जयिनी ,महेश्वर का महिष्मति , धार का धारा नगरी, लखनऊ का लखनपुर नाम करना होगा। बचपन में स्कूल में कहानी पड़ते थे हम लोग नाम बड़ा या काम। लगता है शिवराज इस कहानी को भूल गये है। इतिहास ये भी है की मध्यप्रदेश जब बना तो जिन राज्यों से मिलकर बना उनमें भोपाल स्टेट भी शामिल है। क्या अपनी पसंद का इतिहास चलाने की मंशा एक दिन मध्यप्रदेश का भी नाम बदलने की चेष्टा नही करने लगेगी।

शनिवार, 15 जनवरी 2011

मप्र सरकार से नत्थी हो गया नत्था

विदर्भ में किसानों की आत्महत्या की घटनाआंे की ऋंखला को लेकर कांग्रेस और उसकी सरकार को निशाने पर लेती रही भारतीय जनता पार्टी अब किसानों की खुदकुशी के मामले पर ही बैकफुट पर आ गई है। मध्यप्रदेश में एक महीने के दौरान किसानांें की आत्महत्या और इसके प्रयास के आधा दर्जन मामलों ने किसान पुत्र मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और संघपुत्री भाजपा के किसान हितैषी होने के ढोल की पोल खोल दी है। कर्ज से लदे दो किसानों ने तो मुख्यमंत्री के जिले सीहोर में ही अपनी जान दे दी। कलेक्टर ने एक किसान को तो पागल करार देने की कुचेष्टा की। दमोह में किसान की मौत पर उसे किसान ही मानने से इंकार कर चुकी सरकार को इन दोनों की मामलों में अखबारों ने बेनकाब कर दिया। अपने कुकर्मों से ही मर रहे हैं किसान, यह बयान देकर सरकार की नाकामी पर पर्दा डालने की कोशिश में किसान कल्याण महकमे के मंत्री रामक्रष्ण कुसमरिया भी मुसीबत में फंस गए। उनके अपने जिले दमोह में किसान मर रहे हैं या जीवन खत्म करने की कोशिश में जुट गए हैं। शर्मनाक बात ये है कि पिछले महीने किसानों की जायज मांगों को लेकर अपने ही कुनबे की सरकार का भोपाल में घेराव कर चुके आरएसएस के किसान संगठन भारतीय किसान संगठन के प्रदेश अध्यक्ष शिवकुमार शर्मा भी बेतुके बयान से लैस होकर घूम रहे हैं। सरकार के जिन वादों पर किसान आंदोलन उन्होंने खत्म कराया था, वे तो पूरे ही नहीं हुए, शर्माजी ने किसानों की खुदकुशी को पीपली लाइव फिल्म का असर बता डाला। पीपली लाइव फिल्म की शूटिंग मध्यप्रदेश के ही रायसेन जिले में हुई थी, जो मुख्यमंत्री और इन शर्माजी के अपने जिलों के अलावा राजधानी से भी सटा हुआ है। हालत ये है कि मुख्यमंत्री अपनी सरकार के साथ नत्थी हो गए पीपली लाइव के नत्था से पल्ला झाडने के लिए मीडिया की मदद लेने में जुट गए हैं। आलम ये है कि गुरूवार को रीवा में लगे अंत्योदय मेले में सरकार ने भाजपा अध्यक्ष गडकरी तथा अन्य नेताओं को बतौर मुख्य अतिथि बुलाया। गडकरी ने प्रदेश में किसानों की आत्महत्या के मामले में एक शब्द तक नहीं कहा उलटे शिवराज सरकार की जमकर तारीफ कर डाली। इतना ही नहीं यह भी कहा कि मप्र में किसानों को तीन प्रतिशत ब्याज दर पर कर्ज मिल रहा है जबकि मेरे राज्य महाराष्ट्र में 14 प्रतिशत ब्याज दर है। गडकरी को शायद नहीं मालूम कि मप्र में ब्याज दर पांच से घटाकर तीन प्रतिशत करने का आदेश अप्रैल में जारी होने के 9 महीने बाद भी सरकार के ही वित्त विभाग ने सहकारी बैंकों की सब्सिडी दो प्रतिशत बढाने की मंजूरी नहीं दी है। बैंक पांच फीसदी ही ब्याज वसूलेंगे, ऐसा हुआ तो किसान मरते रहेंगे और ऐसा नहीं हुआ तो बैंक मरने लगेंगे, जिन्हें केंद्र सरकार ने वैद्यनाथन कमेटी की सिफारिश पर 2100 करोड रूपए की मदद देकर जिंदा किया गया है। मध्यप्रदेश में जब किसान बदहाल है किसान पुत्र मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के पुश्तैनी गांव मंे महामंडलेश्वर अवधेशानंद गिरि महाराज रामकथा कह रहे हैं, यजमान हैं मुख्यमंत्री और उनकी पत्नी, इस आयोजन पर सरकार के खजाने से 10 लाख रूपए खर्च हो रहे हैं।