शनिवार, 18 जून 2011

चितवन का पेड और धर्मवीर भारती

कालजयी साहित्यकार धर्मवीर भारती की पत्नी पुष्पा भारती जी आज भोपाल में हैं। वे यहां माधवराज सप्रे समाचार संग्रहालय एवं शोध संस्थान के 27 वें स्थापना दिवस के मौके पर धर्मवीर भारती कक्ष के लोकार्पण अवसर पर आई हैं। पुष्पाजी ने भारती जी की बहुमूल्य किताबों का संग्रह संग्रहालय को भेंट किया है। अपने भाषण में उन्होंने किताबों को ठीक से नहीं सहेजे जाने पर उलाहना दिया और कहा कि मैं भारती जी के बारे में अनछुए संस्मरण सुनाने आई थी, लेकिन अब नहीं सुनाउंगी। उनके नाम पर बने कक्ष में उनकी किताबों को ऐसा सहेजा जाए कि उनकी उपस्थिति मुझे महसूस हो, तब मैं संस्मरण सुनाउंगी। हालांकि पानी सहेजने पर केंद्रित इस कार्यक्रम में जब सब वक्ता बोल चुके और आभार प्रदर्शन की औपचारिकता भी पूरी हो चुकी और लोग उठ चुके तो पुष्पाजी फिर डायस पर आईं। लोगों को रोका और भारती जी से जुडा एक दिल को छू लेने वाला संस्मरण सुनाया। उनका संस्मरण और भावुक बयान सुनकर और उनसे मिलकर ऐसा लगा मानो क्रष्ण के बारे में राधिका कुछ कह रही हो। उन्होंने यह भी कहा कि भारती जी के निधन के बाद लोगों ने मुझे कहा कि इतने बडे घर में अकेलापन नहीं लगता, डर नहीं लगता। लेकिन भारतीजी की किताबें, उनके हाथों स्पर्शित साहित्य के साथ मुझे कभी अकेलापन लगता ही नहीं।

चितवन का पेड और धर्मवीर भारती

भारती जी को क्रष्ण कथाओं से बडा प्रेम था। इसीलिए बंबई में हम जहां रहते हैं वहां उन्होंने कंदब के पेड लगाए थे। कहते हैं क्रष्ण जब नाचते थे तो उनकी गति इतनी तेज होती थी कि हर गोपी को लगता था कि वे मेरे ही साथ नाज रहे हैं। यह न्रत्य चितवन के पेड के चहंुओर होता था। भारती जी चितवन का पौधा ढूंढने बंबई की नर्सरी नर्सरी भटके लेकिन नहीं मिला। किसी ने कहा दिल्ली में मिल जाएगा, गए दिल्ली तो मिल गया। इसे सप्तपर्णी नाम से जाना जाता है। भारती जी ने पौधा रोपा और खुद ही रोज पानी देते थे। व्रक्ष इतना उंचा हुआ कि बिल्डिंग के आखिरी माले तक पहुंचने लगा। इतने फूल लगते थे, सुगंध से सभी के घर महकते थे। उपरी माले में जो रहते थे, वे कहते हमारा तो पूरा घर ही इसकी गंध से भरा रहता है। भारती जी शरद पूर्णिमा की रात छत पर सबको बुलाते थे। मैं खीर बनाती थीं। चांदनी रात में रखी जाती थी। छत पर कोई कविता पाठ करता तो कोई न्रत्य की करता, हम सब गाते बजाते और सुबह खीर सबको बांट दी जाती थी। जिस वर्ष भारती नहीं रहे वो सितंबर का महीना था। अक्टूबर आया शरद पूर्णिमा के दिन हमारी बिल्डिंग के हमारे पडोसी ने आयोजन किया, मुझे बुलाया मैं कैसे जाती। फिर पोते को भेजा, तो मैं नाराज ही हो गई। लेकिन जब वो खुद बुलाने आईं और बोलीं कि हम नाचने गाने के कार्यक्रम में नहीं बुला रहे हैं आपको, आप आइए तो सही। मैं उपर गई तो उन्होंने बताया कि देखिए चितवन का व्रक्ष मुरझा गया है, सब फूल सूख गए एक एक कर। भारती जी के जाते ही व्रक्ष भी चल बसा। जब व्रक्ष गिरने गिरने को हो गया तो म्युनिसपैलिटी वालों से काटने की अनुमति ली, कि कहीं पेड गिर ही न जाए। काटने से पहले एक दिन सूखी डाल ने हमारे घर के उस कक्ष की खिडकी को टहोका दिया, जो भारती जी का कक्ष था, खिडकी का कांच फूट गया। व्रक्ष के भारती जी से इस प्रेम को देखकर में रो पडी। मेरी बेटी जान गई। जब वो चली गई तो उसने भारती जी की एक कविता ड्रायवर के हाथ लिख भेजी; तुम कितनी सुंदर लगती हो जब होती हो उदास....। मां डैडी बहुत खुश हैं;।

मेरा यह संस्मरण जब साहित्य अम्रत पत्रिका में छपा तो किसी ने इंटरनेट मैग्जीन में डाल दिया। यूएस की एक यूनीवर्सिटी के एक प्रोफेसर ने मुझे फोन किया वह रिसर्च कर रहा है कि पेडों में मस्तिष्क होता है और जब कोई जहरीला जंतु पेड पर डेरा जमाता है तो पेड जडों को एसओएस भेजते हैं और पेड में ऐसे रसायन निकलते हैं कि जंतु को भागना पडता है। उस वैज्ञानिक ने मेरे संस्मरण पढकर अब यह रिसर्च भी करने का निश्चय किया है कि पेडों में ह्रदय भी होता है। वो मुंबई आकर उस चितवन के पेड के ठूंठ पर ही रिसर्च करना चाहता है।

-satish aliya, Bhopal 18 june 2011

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