चवन्नी के अवसान पर स्यापा करने और मर्सिया पढऩे वालों से इल्तिजा है, भले ही रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने चवन्नी की तकदीर में डेथ सेंटेस लिख दिया हो चवन्नी मरी नहीं है। वह अमर रहेगी हमारी यादों में किस्सों में कहानियों में गीतों में कहावतों में लोकोक्तियों में मुहावरों में तकिया कलामों में। कांग्रेस के चवन्नियां मेंबर बनकर देश के लाखों लोग भारत माता को आजाद कराने स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे। अंग्रेजों को भगाकर ही दम लिया। तो चवन्नी हमारे लिए बेहद प्रिय है, हमारे आजादी के संघर्ष के इतिहास से सीधे जुड़ी है। मेरी सुनिए। जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिलें। वैसे ही अचानक एक अवकाश के दिन 30 साल पुरानी कॉपी के कुछ पन्ने रद्दी में बरामद हुए। एक पेज पर पेंसिंल से बनाई हुई चवन्नी दिख गई। इसे पेज के नीचे रखकर पेंसिल से उकेरा गया था। यह उस जमाने का रेखांकन है चित्रकारी है जब हमें जेब खर्च के लिए एक, दो और तीन पैसे से लेकर पांच, दस और बीस पैसे तक मिलते थे, जब जैसा तीर मारा या अम्मा पिताजी जिस तीव्रता से प्रसन्न हैं। कभी कभी फूफाजी या नानाजी चवन्नी दे देते तो निक्कर में नहीं समाती थी, क्या क्या नहीं आ जाता था इस चवन्नी में । दस पैसे के पोये और दस पैसे की जलबी और पांच पैसे बच भी जाते थे तो पांच पैसे में संतरे की पांच गोली चूसते हुए दिन भर मौज करो।
चवन्नी अब चलन में नहीं रही लेकिन मुहावरों मेंं ठीक उसी तरह से जीवंत रहेगी जैसे कौड़ी, टका, आना, गिन्नी, मुहर, छदाम जैसी शताब्दियों पुरानी मुद्राएं मौजूद हैं। टका तो आज बांगलादेश की मुद्रा है लेकिन हमारे यहां तो वह काल कवलित हो चुकी है। लेकिन हम अब भी दो टके का आदमी और लाख टके की बात या सवाल कहते हैं कि नहींं। जैसे की सोलह आने सच, दो कौड़ी की भी इज्जत नहीं, मेरे पास तो एक छदाम तक नहीं हैं। आप तो ऐसे कह रहे हो आपकी मदद कर दूंगा मानो मेरे पास खजाने में मुहरें गढ़ी है। यही कहावतें शहरों में शायद न चलती हों लेकिन ग्राम्य जीवन में रची बसीं हैं। ग्राम्यांचलों में तो नाम भी मुद्राओं पर रखे जाते थे, माता पिता के लिए बच्चे ही तो सच्चे खजाने होते हैं। गांव में छदामीलाल, मुहर सिंह और गिन्नी बाई नाम अब तक प्रचलित हैं। बंगाल में तो तिनकौड़ी नाम भी चलता है। इसी तरह नाम हीरा सिंह, जवाहर सिंह, मोतीलाल, मोती सिंह, स्वर्ण सिंह, रजत कुमार जैसे रत्न और महंगी धातुओं से जुड़े नामों की ही तरह मशहूर रहे हैं।
खैर, मित्रो हम बात चवन्नी की कर रहे हैं। चवन्नी हमारी स्मृति से इतनी आसानी से नहीं जाने वाली, रिजर्व बैंक का आदेश उसे बाजार बदर कर सकता है लेकिन दिल की गलियों में और गालियों में चवन्नी अमर ही रहेगी। राजनीति और चवन्नी का भी बड़ा साथ रहा है इमरजेंसी के बाद हुए सन 77 के चुनाव में तो हर नारे में चवन्नी होती थी.. चार चवन्नी थाली में ... नाली में। चुनावी सभाओं के सिरमौर अटल बिहारी वाजपेयी तो घिसी चवन्नी चल गई वाला किस्सा कमोबेश हर सभा में सुनाते ध्ोि और जनता उनकी और मुरीद हो जाती थी।
चवन्नी मुहावरों में बड़ी काम की चीज है। चवन्नी छाप आदमी तो मशहूर मुहावरा है जो टुच्चे लोगों को परिभाषित करने के काम आता ही है। लेकिन चवन्नी बहुत गहरे तक दिल से भी जुड़ी है। फिल्मी गाना बहुत ही लोकप्रिय है सैंया दिल मांगे राजा दिल मांगे चवन्नी उछाल के। चवन्नी के जाने से अतीत बन जाने से अब राजा क्या उछाल के दिल मांगेगा क्योंकि नोट वैसे नहीं उछाले जा सकते जैसे चवन्नी उछाली जा सकती है बिंदास। गाना तो अपने खंडवा वाले मन के कवि किशोर कुमार का भी बड़ा मशहूर है लौटा दो मेरे एक रुपैया बारह आना। अब बारह आने की जोड़ी बिछुड़ गई है क्योंकि जब चार आने अर्थात चवन्नी ही नहीं होगी तो अकेली अठन्नी यानी आठ आने कैसे बारह आने तक पहुंचेंगे। हो सकता है चवन्नी के बाद अब रिजर्व बैंक की नजर अठन्नी पर भी तिरछी हो जाए, क्योंकि जब पांच सौ और हजार के नोटों का बोलबाला है, लाखों के नहीं हजारों हजार करोड़ों के घोटाले हैं तो बेचारी जैसी चवन्नी वैसी अठन्नी, और रुपैया तो वैसे भी अब किसी के पिताश्री का नहीं रहा।
: सतीश एलिया
मंगलवार, 5 जुलाई 2011
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1 टिप्पणी:
सतीश जी, चवन्नी को भूल गए तो फिर गुंडे-बदमाशों के लिए प्रयुक्त होने वाले चवन्नी छाप. चवन्नया जैसे मुहावरों का क्या होगा? इसलिए आपने सही कहा कि चवन्नी की छाप को यूं भुला न पाओगे। जब भी सुनोगे किसी की बदमाशी के किस्से तो चवन्नी के गुण गुनगुनाओगे।
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