बुधवार, 30 सितंबर 2009

मौला रूखसाना सी बिटिया ही दीजौ

जम्मू से 180 किलोमीटर दूर एक गांव की बेटी रूखसाना है जुर्म को मजहब मान बैठे पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकवादियों को उन्हीं की क्लाशिनकोव की गोलियां से ढेर कर पूरे देश का सर गर्व से उंचा कर दिया है। इस घटना से हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तरप्रदेश के उन लोगों की आंखें खुल जाना चाहिए जो बेटियों को जन्मते ही मार डालने में यकीन रखते हैं और बेटों की चाहत रखते हैं। उनकी आंखें खुल जाना चाहिए जो परवरिश से लेकर शिक्षा दीक्षा तक में बेटों को बेटियों से ज्यादा तरजीह देते हैं। जो पूजा तो दुर्गा की करते हैं लेकिन देवी से कामना पुत्र जन्म की करते हैं, जो बेटी के जन्म पर शोकाकुल तक हो उठते हैं। यहां तक की अपनी बेटी के यहां बेटी पैदा होने पर मातमी मुद्रा में आ जाते हैं। अपने माता पिता को आतंकवादियों के हाथों पिटता देख रणचंडी बनी रूखसाना ने शौर्य का प्रतिमान स्थापित किया है, वह देश की सभी बेटियों के लिए मिसाल बन गया है। जिन हाथों ने कभी घरेलू कामकाज में इस्तेमाल होने वाले छिटपुट हथियारों के सिवाय कभी कोई हथियार न उठाया हो, जिसने कभी एके 47 या कोई और शस्त्र सुना देखा न हो, उस लडकी में इतनी ताकत आखिर कहां से आ गई कि उसने प्रशिक्षित आतंकवादियों को उन्हीं की बंदूक छीनकर ढेर कर दिया? निसंदेह यह अपने माता पिता से असीम प्रेम की ताकत थी जो क्लाशिनोव की ताकत को कुल्हाडी से पछाडने की ताकत बन गई। जम्मू कश्मीर सरकार और केंद्र सरकार को चाहिए कि वह न केवल आतंकवाद के खिलाफ बल्कि बेटियों को लेकर देश के कुछ हिस्सों और समाजों में कमतरी की भावना को खत्म करने के लिए रूखसाना को ब्रांड एंबेसेडर बनाएं। रूखसाना की हिम्मत, माता पिता से प्रेम की खातिर आतंकवादियों से जूझना और जीतना, एक अर्थ में श्रवण कुमार की मात-पिता भक्ति के दर्जे से भी उंची हो गई है। रूखसाना को मेरा सलाम, शाबाश बहन हमें तुम पर नाज है।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

अपने स्वार्थ के लिए विद्यार्थियों का भविष्य दांव पर लगाने वालों का तंबू उखड़ा

गुरूवार को जब मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के माननीय जज एक विद्यार्थी की याचिका पर सुनवाई कर फैसला लिख रहे थे, ठीक उसी वक्त भोपाल के नूतन कॉलेज के बाहर धरने पर बैठे कॉलेज शिक्षकों को एक प्राध्यापक महोदय रोज की तरह संबोधित कर रहे थे। वे कह रहे थे विद्यार्थियों को ठीक उसी तरह हमारा साथ देना चाहिए जैसा महाभारत युद्ध में हनुमानजी ने किया था। महाशय खुद समेत सभी हड़ताली शिक्षकों को पांडव और सरकार को कौरव सेना इंगित कर छात्रों को हनुमानजी बताने की चेष्ठा कर रहे थे। छात्र हनुमानजी के दूत हो सकते हैं, क्योंकि हनुमानजी युवा लहर के प्रतीक हैं, अन्याय और असत्य पर मुष्टिï प्रहार करने वाले हैं। खैर कोर्ट ने प्राध्यापकों की हड़ताल को गलत और उनकी मांग को खारिज कर पढ़ाने का काम बहाल करने का आदेश दे दिया। शाम तक तंबू उखड़ गया। कोर्ट का फैसला सत्य की जीत है, वो इसलिए कि अध्यापन का मूल काम छोड़कर वेतन बढ़वाने के लिए कॉलेज बंद कर देना शिक्षक वृत्ति और गुरू परंपरा के न केवल खिलाफ है बल्कि त्याज्य है। हां अगर उन्हें वेतन मिलना बंद हो जाए तो उनकी जीविका के लिए की जाने वाली हड़ताल को हर हाल में समर्थन मिल सकता है, विद्यार्थियों की तरफ से भी और आम जनता की भी तरफ से भी। शैक्षणिक रूप से अन्य कई प्रदेशों के मुकाबले अपेक्षाकृत पिछड़े मप्र में शिक्षा का स्तर ऊंचा उठाने में जुटने के बजाय वेतन बढ़वाने और सालों साल शहरों में पदस्थ बने रहने वाले प्राध्यापकों के नेतृत्व में हुए इस नाकाम आंदोलन का ऐसा हश्र स्वागत योग्य है। अब सरकार को सख्त कदम उठाते हुए इन प्राध्यापकों से पढ़ाई, प्रैक्टिल और इम्तिहान में हुए विलंब की भरपाई करने का आदेश देना चाहिए। ऐसा होगा तो एक नजीर बनेगी और छात्रों के हित में सरकार की पहल को भी सराहना मिलेगी।
(कृपया इस संबंध में मेरी 10 सितंबर 2009 की पोस्ट भी देखें)

बुधवार, 23 सितंबर 2009

जिंदादिल कौन है?

जो खुद पर हंस सके वही सबसे ज्यादा जिंदादिल हैं। जिंदगी जिंदादिली का नाम है, मुर्दा दिल क्या खाक जीया करते हैं। मित्रों आज में आपसे ऐसे शख्स के बारे में बात कर रहा हूं, जिनका सेंस आफ ह्यूमर गजब का है और जीवट भी उतने ही गजब का। यह बात इसलिए कि वे अक्सर मेरे पास आते हैं, बावजूद इसके कि मैं शायद इक्का दुक्का मर्तबा ही उनसे जाकर मिला हूं। वे जब भी आते हैं, कोई ऐसी बात, जुमला या चुटकुला छोड़ जाते हैं कि देर तक मन गुदगुदाता रहता है। कल जब वे आए तो बोले- मैं संडे को छत पर चला गया था, सोमवार को ईद हो गई। कोई अपने गंजेपन को इस तरह एंजाय कर सकता है भला! यह जिंदादिल इंसान हैं हमारे पत्रकार मित्र डा. महेश परिमल अरे, वही ब्लाग जगत में 'संवदेना के पंखÓ लिखते हैं। इसमें साबुन से लेकर कहानी और कविता से लेकर शोर शराबे तक तमाम विषयों पर शिद्दत से जानकारियां दी जाती हैं और संवेदना जगाई जाती है। मैं डा. परिमल को करीब पौने दो दशक से जानता हूं, जब वे देशबंधु अखबार में भोपाल आए थे, इसके बाद वे नवभारत में रहे और इन दिनों गुजराती अखबार दिव्य भास्कर के लिए काम करते हैं। वे पत्रकारिता में पीएचडी हैं और वह भी शीर्षक अर्थात हेडलाइंस में। इस दौर में जब डा. परिमल और उन सरीखे अन्य कई पढ़े लिखे पत्रकार किन्हीं वजहों से हिंदी पत्रकारिता में हाशिए पर हैं, वे लेखन में पूरी तरह न केवल संलग्न हैं, बल्कि बाल पत्रिकाओं से लेकर रेडियो तक के लिए सतत लेखन करते रहते हैं। वह तब जब उन्हें आंखों की क्षमता प्रभावित हो जाने की वजह से लंबे समय तक इलाज कराना पड़ा था। अब भी उन्हें लिखने और पढऩे में खासी तकलीफ होती है, लेकिन वे सिवाय लिखने और पढऩे के कोई और काम कर ही नहीं सकते। पूरी तरह मसिजीवी इस शख्स के बिंदास अंदाज का एक और नमूना बताना चाहता हूं। एक दिन वे आए और बोले अगर मैं आपको गाली देना चाहूं तो बिना गाली दिए भी गाली दे सकता हूं। हमारे एक साथी ने पूछा तो डा. परिमल बोले- मैं कहूंगा आप विशाल भारद्वाज की ताजा फिल्म के टाइटल हैं।

सोमवार, 21 सितंबर 2009

दिग्विजय उवाच-देवी का भंडार भरा रहे, लोग पी-पी कर पड़े रहें

यह आशीष वचन दस साल मप्र के मुख्यमंत्री रहे (उमा भारती के शब्दों में मिस्टर बंटाढार) और अब कांग्रेस के सबसे ज्यादा प्रभावशाली महासचिव दिग्विजय सिंह ने नवरात्र के दूसरे दिन रविवार को इंदौर के एक मॉल में पब का शुभारंभ करते हुए व्यक्त किए। खुद को महात्मा गांधी की धरोहर और विरासत की झंडाबरदार मानने वाली कांग्रेस के इस चतुर महासचिव ने कांग्रेस के विधायक और अन्य कार्यकर्ताओं की मौजूदगी में यह भी कहा समय बदल रहा है, पहले मयखाने होते थे, फिर लोग ठेके पर जाकर पीने लगे, अब पब आ गए हैं। अपने चमचों के बीच राजा साब और दिग्गी राजा के नाम से मशहूर दिग्विजय सिंह ने पब के उदघाटन में फीता ही नहीं काटा बल्कि बीयर के जाम सर्व किए। हालांकि दिग्विजय सिंह को करीब से जानने वालों की मानें तो वे खुद पीने वालों की कतार में शामिल नहीं हैं। भाजपा के नेताओं ने दिग्विजय के इस बयान पर उन्हें जमकर कोसा है। लेकिन इंदौर शहर में ही बीते साल भाजपा के महासचिव प्रकाश जावडेकर बकायदा शैंपेन के जाम उड़ाते वीडियो में रिकार्ड किए गए थे। हालांकि दूसरों को कोसने में राजनीतिक दल पीछे नहीं रहते लेकिन अपने मामले में वे चुप्पी साधना बेहतर समझते हैं। राजनीतिक दलों और नेताओं की कथनी, करनी, विचार और अमल में जो फर्क है, उसे लेकर शायद ही किसी को कोई शक हो। दिग्विजय सिंह ने नवरात्र में पब का उदघाटन कर पीने का प्रचार किया तो, हिंदुत्ववादी विचारधारा से ओतप्रोत संगठन आरएसएस के आंगन में बतौर नेता विकसित हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने नवरात्र के पहले दिन और रमजान के समापन से दो दिन पूर्व रोजा अफ्तार का आयोजन किया। सरकारी कार्यक्रमों में भूमिपूजन, शिलान्यास, दीप प्रज्ज्वलन, नारियल फोडऩे जैसे कार्र्यों का विरोध करने वाले किसी भी शख्स या संगठन ने सरकारी खर्चे पर रोजा अफ्तारी का विरोध नहीं किया। इस आयोजन में भी चंद लोगों को छोड़कर ज्यादातर वे लोग थे जिनका इबादत से कोई लेना देना नहीं होता। इसमें इस्लाम के अनुआईयों से ज्यादा भाजपा कार्यकर्ता, नेता, अफसर और पत्रकार थे। इस हुजूम में वे लोग भी थे जिनका अपराध की दुनिया में खासा नाम है। इधर नवरात्र पर्व में जगह जगह श्रद्धा भक्ति की गंगा बह रही है, तो कई जगह फिल्मी गानों और धुनों पर देर रात नाचने और हंगामे का भी दौर जारी है। उपवास का अर्थ होता है, ईश्वर की आराधना में शांत चित्त होकर बैठना। अर्थात हम सामान्य दिनों में जिस तरह का भोजन, चिंतन, कामकाज, मनोरंजन आदि करते हैं, उससे अलग केवल आराधना में वह भी शांत और दत्त चित्त होकर लीन हों। राजनीति, धर्म, मनोरंजन और मौजमस्ती के इस घालमेल भरे आयोजनों ने आराधना के पर्र्वों रमजान और नवरात्र की गरिमा को एक अर्थ में कम करने कोशिश की है। लेकिन इस सबसे परे ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो रमजान में और नवरात्र में वाकई ईश आराधना में वक्त लगाते हैं। यह पर्व ऐसे आस्थावान लोगों के कारण ही हजारों सालों से न केवल बरकरार हैं, बल्कि उनका प्रभाव पूरे वातावरण में व्याप्त भी है।

रविवार, 20 सितंबर 2009

सादगी वालों सुनो अरज हमारी......


मादाम सोनिया गांधी, चिरंजीव राहुल गांधी और सादगी के नए प्रणेता प्रणव मुकर्जी से लेकर कैटल क्लास मुहावरे के जनक शशि थरूर तक सब देवियों और सज्जनों से एक गुहार करने का मन हो रहा है। कांग्रेस की पीवी नरसिंहराव सरकार में एक रेल मंत्री थे सीके जाफर शरीफ। उन्हें आज भी लोग याद करते हैं, वह भी किसी भी यात्री गाड़ी के जनरल डिब्बे में। उन्हें लोग जिन विशेषणों से नवाजते हैं, उनका समर्थन नहीं किया जा सकता, क्योंकि शरीफ अब इस दुनिया में नहीं हैं। लोग भी क्या करें, उन्हें यह सब इसलिए कहना पड़ता है क्योंकि जनरल बोगी में सफर करना करीब करीब सजा भुगतने जैसा होता है। लोग शरीफ को कोसते हैं वो इसलिए कि उन्होंने तब तक जारी दिन में स्लीपर कोच में सफर कर सकने की सुविधा को खत्म कर दिया था। गाडिय़ों की संख्या तब से अब तक कई गुना बढ़ चुकी है लेकिन यात्रियों की तादाद से कहीं ज्यादा बढ़ी है। लेकिन जनरल केडिब्बों की संख्या नहीं बढ़ी। कम दूरी की यात्रा में रिजर्वेशन नहीं मिलने पर जो लोग ईमानदारी से जनरल बोगी में पहुंच जाते हैं, उनकी जो दशा इन बोगियों में होती है, वह शशि थरूर के मुहावरे का प्रत्यक्ष उदाहरण है। लंबी दूरियों की गाडिय़ों में लोग सामान रखने की जगह में शरीर को तोड़ मोड़कर सोए रहते हैं, सीटों के बीच में भी लोग सोते हैं। टायलेट मेें भी लोग खड़े और बैठे मिल जाएंगे। करीब करीब 16 साल से यही हालात हैं। हवाई जहाज के इकोनामी क्लास को कैटल क्लास कहनेवाले शशि थरूर को भले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मजाक के बहाने माफ कर दें और थरूर के बयान से वीवीआईपी महाशयों और देवियों को संतोष न हो लेकिन मेरी गुजारिश इन सादगी पसंदों से है, कृपया किसी एक्सप्रेस के खासकर मुंबई जाने वाली और मुंबई से उत्तर भारत की तरफ आने वाली गाडिय़ों के जनरल डिब्बे में एक दफा यात्रा जरूर करें, वह भी किसी पूर्व सूचना या प्रचार के। आपको सादगी का राग बंद करना पड़ेगा या फिर आप में जरा भी मानवीयता होगी तो भारतीय रेलवे में 16 सालों से जारी यह कैटल क्लास बंद कराने के लिए कुछ न कुछ जरूर करेंगे।

सोमवार, 14 सितंबर 2009

आज हिंदी डे है

आज हिंदी डे है न

उन्हें सुबह से शाम तक,

धारा-प्रवाह हिंदी में बोलते-बतियाते,

देखकर अद्र्धांगिनी घबराईं,

चिंता की लकीरें माथें पर आईं,

एक युक्ति मस्तिक्क में आई,

फौरन पारिवारिक चिकित्सक को लगाया फोन,

साहब की भंगिमाओं और भाषण शैली का बताया एक-एक कोण,

डॉक्टर महोदय तनिक मुस्कराए, लक्षणों पर गौर फरमाया,

बोले- मैडम, घबराइए मत,

कल सुबह तक साहब हो जाएंगे ठीक,

बोलने लगेंगे फर्राटेदार अंग्रेजी या अपनी प्यारी भाषा हिंगिलिश,

एक ही दिन का है यह रोग, दरअसल आज हिंदी डे है न॥

-सतीश एलिया

रविवार, 13 सितंबर 2009

हिंदी का सर्वाधिक अहित हिंदी पत्रकारिता कर रही है

शायद ही दुनिया की कोई और भाषा का दिन मनाया जाता हो, हम अपनी राष्टï्रभाषा हिंदी का दिवस मनाते हैं। यह महज संयोग ही है कि हिंदी दिवस अमूमन श्राद्ध पक्ष में होता है। यानी हम एक तरह से हिंदी को राष्टï्र भाषा मानने का तर्पण ही करते हैं। हमारे अपने जब दुनिया में नहीं रहते तो हम उनका श्राद्ध पक्ष में तर्पण करते हैं। कल 14 सितंबर को यह मौका फिर सामने है। अपने ही देश में हिंदी को सरकारी मान्यता मिलने के उपलक्ष्य में दिवस मनाने का यह उपक्रम भी सरकारी संस्थानों में महज औपचारिकता के लिए होता है। लगभग सभी केंद्रीय संस्थानों में हिंदी विभाग और हिंदी अधिकारी और उनका अमला है। वे दिवस, पखवाड़ा और सप्ताह मनाकर राष्टï्रभाषा का प्रचार प्रसार करने के दावे करते हैं। देश के 36 करोड़ लोग जिस भाषा में जीते-मरते और पूरा जीवन गुजारते हैं उसके प्रचार प्रसार के लिए इतना तामझाम? यह क्या साबित करता है? अंग्रेजों के जाने के 62 साल बाद आज अंग्रेजी का जो दबदबा है वह अंग्रेजों के शासन में भी भारत में नहीं था। कुतर्क यह दिया जाता है कि अंग्रेजी विश्व भाषा है, हमें दुनिया में प्रगति के पथ पर चलना है तो अंग्रेजी को अपनाना ही होगा। जापान, चीन, जर्मनी, फ्रांस, कोरिया जैसे देश क्या विकास नहीं कर रहे हैं, बिना अपनी भाषा को दोयम और अंग्रेजी को सर माथे पर बिठाए वे विकास कर रहे हैं न, तो फिर हमीं क्यों शर्म को शान समझते हैं? दुनिया में सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाली भाषा को सीखिए लेकिन क्या यह जरूरी है कि हम दुनिया की सभी महिलाओं का सम्मान करने के लिए अपनी मां को दोयम दर्जे की समझें। जिस भाषा में हम लोरियां सुनते हैं, बोलना सीखते हैं जो हमारे पूर्वजों की भाषा है, जो हमारे देश की पहचान होना चाहिए, उससे परहेज करने वाले कर्ता धर्ता बन बैठते हैं। मेरा मानना है कि राजनीतिज्ञों और अंग्रेजों के अघोषित प्रतिनिधि आईएएस अफसरों ने जितना अहित राष्टï्रभाषा का किया उससे कहीं ज्यादा हिंदी पत्रकारिता ने बीते करीब दो दशकों में कर डाला है। हिंदी अखबारों को हिंदी की अलग ठीक उसी तरह जगाना चाहिए थी जैसी आजादी की लड़ाई के वक्त जगाई थी। लेकिन हिंदी अखबारों ने कुछ अर्से तक इस जिम्मेदारी को निबाह कर अपनी इस भूमिका को भुलाना शुरू कर दिया। अंग्रेजी अखबारों की शैली और रंगरूप की नकल करने वाले हिंदी अखबारोंं ने बाजारबाद के दामन से लिपटकर हिंदी को धकेल कर हिंगलिश को गले लगा लिया। प्रकारांतर से वे अंग्रेजी अखबारों के पिछलगगू सरीखे बनते चले गए। हिंदी अखबारों में अंग्रेजी अखबारों से आयातित पत्रकार संपादक होने लगे और वे हिंदी में पहले से काम कर रहे लोगों से तकरीबन वही व्यवहार करने लगे जो अंग्रेजी बोलने वाले हिंदी बोलने वालों से करते हैं या अंग्रेजी भारतीयों से करते थे। अखबार भाषा शिक्षक का काम करते हैं लेकिन हिंदी अखबारों ने यह भूमिका छोड़ दी, वे अंग्रेजी सिखाने की कोचिंग क्लास बन गए हैं। इसमें वे स्यात गौरव भी महसूस करते हैं। हिंदी के कई अखबारों में प्लानिंग हिंदी जानने वाले नहीं धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले लोग करते हैं। मैं खुद 18 सालों से हिंदी पत्रकारिता में हूं और किसी व्यक्ति या संस्थान विशेष के लिए नहीं बल्कि समूचे हिंदी पत्रकारिता जगत के संबंध में कह रहा हूं। व्यक्ति के बजाय समष्टिï का विचार हमेशा देश और समाज और अंतत: व्यक्ति के लिए श्रेयस्कर ही होता है। और मेरा अनुभव यह है कि किसी जमाने में मुझे संपादकों की तारीफ मिलती थी, हिंदी का भाषा ज्ञान और लेखन ठीकठाक होने की वजह से। इस तरह के प्रसंगों को एक दशक से ज्यादा बीत चुका है। अब यह दिवास्वप्र ही लगता है कि किसी हिंदी पत्रकार को उसकी भाषा के कारण तवज्जो मिले। हिंदी अखबारों में अंग्रेजी लेखकों के लिखे हुए का अनुवाद छपता है। हिंदी के नए लेखकों के लिए हिंदी के विख्यात और प्रमुख अखबारों में हाशिए पर भी जगह नहीं है। एक हिंदी अखबार में नियमित कालम लिखकर प्रतिदिन ज्ञान बांटने वाले एक अहिंदी भाषी पत्रकार ने एक बार मेरे और अन्य हिंदी भाषी पत्रकारों के सामने यह कहा था कि हिंदी वाले मोटी चमड़ी के होते हैं, उन्हें हेडलाइन में चमत्कार पैदा करना नहीं आता। तब मेरे एक मित्र ने तमतमाकर उन्हें न केवल डपट दिया था, बल्कि हम लोगों ने संपादक महोदय के पास जाकर अपनी नाराजगी जताई थी। लेकिन इस घटना के बाद हिंदी अखबारों में इस तरह की घटनाएं रोजमर्रा की बात हो चुकी हैं। अंग्रेजी में धाराप्रवाह न होना और अंग्रेजी में पर्याप्त होने के बावजूद उसका प्रदर्शन न करना नाकाबिलियत होने का पैमाना सा बन गया है। सोमवार 14 सितंबर को सरकार के मुताबिक हिंदी दिवस है, इसी बहाने वाकई देश, अपनी भाषा और उनके विकास पर सोचने और मनन करने वाले मेरी बात पर गौर करेंगे तो महती कृपा होगी। - सतीश एलिया, भोपाल 13 सितंबर 2009

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

भूल गलती..... को याद करते हुए

भूल-गलती आज बैठी है जिरहबख्तर पहन कर तख्त पर दिल के,..........। मित्रों आज क्रांतिधर्मा कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की पुण्य तिथि है। भूल गलती कविता के अलावा उनकी दर्जनों कविताएं ऐसी हैं जिन्हें मैं सस्वर पाठ कर एकांत में भी अपने भीतर जलता हुआ लावा महसूस करता हूं। पुण्य तिथि पर उन्हें याद करते हुए मैं उनकी दो कविताओं के अंश और एक कथन उनकी- एक साहित्यिक की डायरी- से यहां दे रहा हूं। मुक्तिबोध को पढने वाले और उनको अपना अग्रज मानने वालों और तमाम संघर्षशील लोगों की तरफ से इस क्रांति कवि को श्रद्धांजलि।
और -एक साहित्यिक की डायरी से....

अगर मैं उन्नति के उस जीने पर चढने के लिए ठेलमठेल करने लगूं तो शायद मैं भी सफल हो सकता हूं। लेकिन ऐसी सफलता किस काम की जिसे प्राप्त करने के लिए आदमी को आत्म-गौरव खोना पडे, चतुरता के नाम पर बदमाशी करना पडे। शालीनता के नाम पर बिल्कुल एकदम सफेद झूठी खुशामदी बातें करनी पडें। जिन व्यक्तियों को आप क्षण-भर टालरेट नहीं कर सकते, उनके दरबार का सदस्य बनना पडे। हां, जो लोग यह सब कर लेते हैं, वे अपनी यशः पताकाएं फहराते हुए घर लौटते हैं और कितने आत्मविश्वास से बात करते हैं। मानो उन्हीं का राज्य है। बहुरूपिया शायद पुराना हो गया है, लेकिन उसकी कला दन दिनों अत्यंत परिष्क्रत होकर भभक उठी है।
अब तक क्या किया...


अब तक क्या किया,


जीवन क्या जीयाकिस-किसके लिए तुम दौड गए,


करूणा के द्रश्यों से हाय मुंह मोड गए


बन गए पत्थर।


अरे! मर गया देश जीवित रह गए तुम!!


अब क्या कियाजीवन क्या जीया।



भूल गलती


आज बैठी है जिरहबख्तर पहन करतख्त पर दिल के,


चमकते हैं खडे हथियार उसके दूर तक,


आंखे चिलकती हं नुकीले तेज पत्थर-सी,


खडी हैं सिर झुकाए


सब कतारें


बेजुबां बेबस सलाम में,


अनगिनत खंभों व मेहराबों-थमे


दरबारे-आम में।


सामनेबेचैन घावों की अजब तिरछी लकीरों से कटाचेहराकि


जिस पर कांपदिल की भाफ उठती है


पहने हथकडी वह एक उंचा कद,


समूचे जिस्म पर लत्तर,


झलकते लाल लंबे दागबहते खून के।


वह कैद कर लाया गया ईमानसुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,


बेखौफ नीली बिजलियों को फेंकताखामोश!!


सब खामोशमनसबदार,शायर और सूफी,अलगजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी,आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार


हैं खमोश!!
नामंजूर,


उसको जिंदगी की शर्म की-सी शर्तनामंजूर,


हठ इनकार का सिर तान खुद-मुख्तार।


कोई सोचता उस वक्तछाए जा रहे हैं सलतनत पर घने साए स्याह,


सुल्तानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिटटी का,


वो-रेत का-सा ढेर शंहशाह,


शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा!!;


लेकिन, ना,जमाना सांप का kata


;आलमगीरद्धमेरी आपकी कमजोरियों के सयाहलोहे का जिरहबख्तर पहन,


खूंख्वारहां, खूंख्वार आलीजाह,


वो आंखें सचाई की निकाले डालता,


सब बस्तियां दिल की उजाडे डालता,


करता, हमें वह घेर,


बेबुनियाद, बेसिर-पैरहम सब


कैद हैं उसके चमकते ताम-झाम में


शहरी मुकाम में!!
इतने में,


हमीं में सेअजीब कराह-सा कोई निकल भागा,


भरे दरबारे-आम में मैं भीसंभल जागा!!


कतारों में खडे खुदगर्ज बा-हथियारबख्तरबंद समझौत्ेसहमकर,


रह गए,


दिल में अलग जबडा, अलग दाडी लिए,


दुमुंहेपने के सौ तजुर्बों की बुजुर्गी से भरे,


दढियल सिपहसालार संजीदा सहमकर रह गए!!


लेकिन, उधर उस ओर,कोई, बुर्ज के उस तरफ जा पहुंचा,


अंधेरी घाटियों के गोल टीलों,


घने पेडों मेंकहीं पर खो गया,


महसूस होता है कि वह बेनामबेमालूम दर्रों के इलाके में;


सचाई के सुनहले तेज अक्सों के धुंधलके मेंद्ध मुहैया कर रहा लश्कर,


हमारी हार का बदला चुकाने आएगासंकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,


हमारे ही ह्रदय का गुप्त स्वर्णाक्षरप्रकट होकर विकट हो जाएगा!!


- गजानन माधव मुक्तिबोध


जन्म श्योपुर मप्र 13 नवंबर 1917, निधन दिल्ली11 सितंबर 1964

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

हडताली कालेज शिक्षकों, सरकार और मीडिया से चंद सवाल.....

बुधवार को भोपाल में मुख्यमंत्री को ज्ञापन देने जा रहे कालेज शिक्षकों के एसोसिएशन के सदस्यों पर कथित पुलिस लाठी चार्ज के समाचारों से अखबार रंगे हैं और टीवी चैनल वालों ने भी इस कथित भयंकर अत्याचार का जमकर कवरेज किया। जो नहीं दिखाया गया और जो नहीं छप रहा है, उसमें कई सवाल हैं जो इन शिक्षकों से पूछे जाना चाहिए और मीडिया से भी की किसी मामले की तह तक क्यों नहीं जाते, सरकार को कटघरे में खडा कर देने भर से काम की इतिश्री हो जाती है क्या? कई दिनों से यूजीसी वेतनमान के लिए आंदोलन कर काम बंद कर बैठे कालेज शिक्षकों के आंदोलन स्थल पर कारों की तादाद देखकर ऐसा लगता है कि भरे पेट वालों का यह आंदोलन आखिर किनके हिस्से का पैसा अपने वेतन में लेने के लिए है? दो दिन पहले भोपाल के नूतन काॅलेज के बाहर तंबू लगाए बैठे ये शिक्षक अभी तो ये अंगडाई है, आगे और लडाई है जैसे नारे लगा रहे थे तो एकबारगी हंसी आई। जिस देश में 40 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीने को मजबूर हैं वहां के ये शिक्षक तनख्वाह 30 हजार से 60 और 70 हजार रूपए मासिक करवाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। इन शिक्षकों और मीडिया को अगर वक्त हो और उन तक ये सवाल पहुंचे तो क्रपया जरूर दें, सरकार तो खैर देर सबेर वोट का गणित देखकर इनके आंदोलन पर निर्णय करेगी ही, भले ही उच्च शिक्षा और स्टूडेंटस का जो भी हो, चाहे निजी कालेजों में कोई नियम लागू हो रहा हो या नहीं। पेश हैं सवाल
1 वर्तमान में मप्र में उच्च शिक्षा की स्थिति क्या है? आशय नतीजों से और प्रदेश के डिग्रीधारी युवाओं को क्या कॅरियर मिल पा रहा है?
2 प्रदेश में कितने सरकारी और कितने गैर सरकारी कालेज हैं?
3 सरकारी कालेजों में वर्तमान में शिक्षकों के कितने पद खाली और कितने भरे हैं?
5जो पद भरे हैं उनमें से कितने शिक्षक पीएससी के जरिए भर्ती हुए और जो पिछले दरवाजे से भर्ती हुए वे क्या उस वक्त यूजीसी के मापदंडों को पूरा कर रहे थे?
5मापदंड पूरा नहीं कर रहे थे उन्हें कोई भी वेतनमान क्यों दिया जा रहा है? क्या इनसे बाद में पीएससी के जरिए चयन की अनिवार्यता का पालन नहीं कराया जाना चाहिए था?
6 सरकार खाली पद भरने पीएससी की परीक्षा क्यों नहीं करा पा रही है? प्राध्यापक पदों को भरने शुरू की गई प्रक्रिया किसके दवाब में रोक दी गई और क्यों?
7 क्या हडताली शिक्षक और शिक्षा मंत्री को पता है प्रदेश में अब सरकारी कालेजों से ज्यादा संख्या निजी कालेजों की है, जिनमें सरकारी कालेजों के मोटी तनख्वाह पाने वाले शिक्षकों से ज्यादा योग्य शिक्षक उनकी तुलना में एक चैथाई तनख्वाह पर काम कर रहे हैं?
8 सरकारी शिक्षकों को अपने ही इन साथियों को छठवां वेतनमान या यूजीसी वेतनमान न मिलने की कोई फिक्र है? क्या सरकार निजी कालेजों में कागज के बजाय हकीकत में वेतनमान लागू करा पाएगी? 9 सालों से शहरों में ही वह भी एक ही शहर और एक ही कालेज में जमे शिक्षकों के तबादले कर कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों के कालेजों में रिक्त पद भरने के लिए सरकार कोई कदम उठाएगी?
10क्या हडताली शिक्षक रिजल्ट सुधारने और मप्र के स्नातक और स्नातकोत्तरों को अन्य प्रदेशों में इज्जत की नजर से देखने लायक बनाने के लिए भी अपनी तनख्वाह बढवाने की ही तरह गंभीर होंगे?

रविवार, 6 सितंबर 2009

न सरकार कम है और न ही ये शिक्षक .......

भोपाल में शिक्षक दिवस के मौके पर प्रदर्शन कर रहे अध्यापकों पर पुलिस ने लाठी चार्ज किया। यह घटना सतह पर ऐसी लगती है मानो सरकार शिक्षक दिवस जैसे पावन माने जाने पर्व पर शिक्षकों को पिटवा रही थी। दरअसल शिक्षा, शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था के मामले में सरकारों की स्पष्टï नीति न होने और शिक्षक कर्म से जुड़े लोगों की इस पवित्र काम के प्रति निष्ठïा नहीं होने से यह विचित्र स्थिति करीब करीब हर साल बनती है। सरकार खासकर भाजपा की सरकार गुरू पाद पूजन और राजर्षि घोषित करने जैसे लॉलीपॉप देकर अध्यापकों को शााब्दिक महिमामंडन से नवाज कर चुनावों में उनका फायदा उठाने की कोशिश करती है। दूसरी तरफ जिन शर्तों और नियमों को मंजूर कर शिक्षा कर्मी की नौकरी हासिल की थी, उन्हें नकार कर भरपूर वेतन और फायदे लेने के लिए अध्यापक शिक्षक दिवस को सुनहरे मौके के तौर पर देखते हैं। दिग्विजय सरकार के कार्यकाल में ही स्कूल शिक्षा विभाग के सहायक शिक्षक संवर्ग को डाइंग कैडर घोषित कर दिया गया था। इसके बाद शिक्षा कर्मी भर्ती किए गए जिन्हें गांवों मेंं पंचायत और शहरों में नगरीय निकाय के जिम्मे भर्ती किया गया। भारी भाई भतीजावाद और अयोग्यों को भर्ती करने के अभियान में प्रदेश भर में शिक्षकों की जगह शिक्षा कर्मी भर्ती कर लिए गए। सरकार को स्कूल चलाने के लिए सस्ते दामों पर यह शिक्षा कर्मी मिल गए। लेकिन इनमें से ज्यादातर स्कूलों का रुख नहंीं करते। कम योग्य लेकिन प्रभावशाली लोगों के रिश्तेदार होने की वजह से शिक्षा कर्मी बन गए लोगों को भाजपा की सरकार ने एक बड़े वोट बैंक के रूप में देखा और उन्हेंं सरकार बनने पर शिक्षा कर्मी से शिक्षक बनाने का वादा किया। इस पर अमल जिस तरह किया गया उससे यह शिक्षा कर्मी बनाम अध्यापक नाराज हैं। वे लगातार यह आंदोलन करते हैं कि स्कूल शिक्षा विभाग के सहायक शिक्षकों को जितना वेतन और सुविधाएं मिलती हैं, हमें भी दी जाएं। सरकार की न तो माली हालत इतनी मोटी तनख्वाहें देने की है और न ही मंशा। दूसरी तरफ शिक्षा कर्मी से अध्यापक बने शिक्षक भी अध्यापन में कम ही रूचि लेते हैं। प्रदेश के स्कूलों में उनकी उपस्थिति और बच्चों की शिक्षा का स्तर इसका प्रमाण है। प्रदेश में प्राथमिक, मिडिल से लेकर हाईस्कूल और हायरसेंकेडरी तक के परीक्षा परिणाम इसकी पुष्टिï करते हैं। सरकार गुरू पाद पूजन और राजर्षि कहे जाने जेसी बेवकूफियों के बजाय शिक्षकों की भर्ती में स्तर बढ़ाने, उसी के मुताबिक वेतन भत्ते देने और फिर उनसे शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के जमकर काम लेने की नीति पर अमल करे तो मप्र की शिक्षा की स्थिति में सुधार हो सकता है। स्कूल शिक्षा के इस बदहाल दौर में उच्च शिक्षा यानी सरकारी कॉलेजों की हालत भी अत्यंत दयनीय है। सरकार की रूचि सहायक प्राध्यापकों और प्राध्यापकों के खाली पद पीएसएसी के माध्यम से भरने में रूचि नहीं है। बीते करीब दो दशक से हजारों की संख्या में पद खाली पड़े हैं। स्कूलो में सस्ते दामों वाले शिक्षा कर्मियों की ही तरह कॉलेजों में अतिथि विद्वान नाम से सस्ते श्रमिकों से ठेके पर काम लेने की प्रथा को करीब करीब स्थाई सा बना दिया गया है। अब यह अतिथि विद्वान भी कई सालों से काम करने के आधार पर नियमित किए जाने की मांग कर रहे हैँ। वे भी पीएसएसी से भर्ती की मांग नहीं कर रहे हैं क्योंकि तब केवल काबिल लोग ही भर्ती हो पाएंगे। दूसरी तरफ पहले ही तदर्थ इत्यादि कई पिछले दरवारों से सहायक प्राध्यापक और प्राध्यापक बन गए शिक्षक अब राज्य सरकार से केंद्रीय वेतनमान के मुताबिक यूजीसी का छठवां वेतनमान मांग रहे हैं। कालेजों में शिक्षकों की उपस्थिति, उनकी योग्यता और शिक्षा का स्तर देखते हुए अभी मिल रहा उनका वेतन भी इतना अधिक है कि आश्चय्र होता है कि आखिर इतना वेतन क्यों दिया जाता है। यूजीसी का स्केल मिलने पर प्राध्यापकों की तनख्वाह 70 से 80 हजार रुपए तक हो जाएगी। यानी मुख्य सचिव के बराबर वेतन प्राध्यापक का। वह भी कितना अध्यापन और शोध कार्य करते हैं? एक वरिष्ठï प्राध्यापक ने शिक्षक दिवस के मोके पर मुझसे कहा कि हम लोग आज हडताल पर हैं यूजीसी वेतनमान सरकार को देर सबेर देना ही पड़ेगा लेकिन हम लोग ऐसा क्या काम करते हैं कि हमें 70-80 हजार रुपए वेतन मिले। देश में एक तरफ 40 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है, सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों, प्राध्यापकों, इंजीनियरों का वेतन कई कई गुना बढ़ता जा रहा है, ऐसे में जो शिक्षित वर्ग गरीबों के करीब था वह भी उनसे दूर जा रहा है। अमीरों की एक नई श्रेणी छठवें वेतनमान ने बना दी है, जो कम काम कम श्रम के बावजूद खुशहाल हो रहा है, लेकिन इसके बावजूद संतुष्ठï नही है, दूसरी तरफ लोग दो वक्त की रोटी के लिए जददोजहद में लगे हैं, उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं। 