रविवार, 29 दिसंबर 2019

इंदिरा जी की लौह शक्ति से मिली बांग्लादेश को मुक्ति

                                                                                                     सतीश एलिया                                                                                                                                                         मजहब के आधार पर भारत के विभाजन के दंश के 24 बरस बाद यानी अब से 38 बरस पहले दुनिया के नक्शे पर एक नए राष्ट्र बांग्लादेश का अभ्युदय हुआ। यह भारत विभाजन से अलग मुल्क बने पाकिस्तान का वो हिस्सा था, जिसे पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था और पाकिस्तानी हुक्मरानों से लेकर वहां की फौज तक इससे न केवल दोयम व्यवहार करते थे, बल्कि बांग्ला भाषा, साहित्य और संस्कृति को तिरस्कृत करने के प्रयास में लगे रहते थे। इस उत्पीड़न से मुक्ति की प्रबल उत्कंठा वहां के जन जन के मनोमस्तिष्क में धी लेकिन फौज के दमन से मुकाबला करने की सामर्थ्य जुटाने में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के बांग्ला मानुष खुद को असहाय सा पा रहे थे। ऐसे हालात में भारत का नेतृत्व श्रीमती इंदिरा गांधी कर रही थीं। उन्होंने दुनिया की परवाह किए बगैर अपने लौह इरादों का परिचय देते हुए बांग्ला मुक्ति वाहिनी को अपना समर्थन दिया। इंदिराजी के नेतृत्व में भारतीय फोजों ने बांग्ला देश की मुक्ति की कामना को हकीकत में तब्दील कर दिया। उस वक्त इंदिरा जी के सामर्थ्य और दृढ़ इरादे ने दुनिया में भारत का डंका बजा दिया था।  1971 में जब ढाका में पाकिस्तान के 90 हजार से ज्यादा सैनिकों को भारी फौज और रसद होते हुए भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की फौज के सामने विवश होकर हथियार डालने पड़े। शौर्य की इस असाधारण गाथा ने न केवल एशिया बल्कि दुनिया  का नया इतिहास ही नहीं रचा, बल्कि जुगराफिया ही बदल डाला। इस ऐतिहासिक घटनाक्रम ने यह साबित किया कि मजहब के आधार पर भारत का विभाजन कर पाकिस्तान बनाना गलत कदम था। बांग्ला देश का उदय मजहबी आधार पर दो राष्ट्र बनाने के 1947 के फैसले को खारिज करने वाला था। बांग्लादेश के उदय ने यह सिद्ध किया कि संस्कृति और भाषा का आधार अधिक प्रामाणिक और चिर प्रासंगिक होते हैं।

तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी केे नेतृत्व में भारत की इस शौर्य-गाथा पर विमर्श करते हुए   हमें उस घटनाचक्र को भी देखना होगा जो इसकी बुनियाद बना। बार-बार फौजी तख्तापलटों से गुजरते पाकिस्तान के कथित  लोकतंत्र में 70 के दशक के आखिरी साल में जब चुनाव हुए तब शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी पार्टी को बहुमत मिला। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो को ‘बंग बंधु’ की यह जीत  मंजूर  नहीं थी। पाकिस्तान की सरकार और सेना, जिस पर पाकिस्तान के पंजाबियों का शिकंजा मजबूत रहा है, फौजी हुक्मरान को ऐसा लगने लगा कि इन दलों की टकराहट से निजाम पर फौज का शिकंजा  कसा रहेगा। इस नीयत ने पाकिस्तानी फौज को, जिसका एक हिस्सा उस समय पूर्वी पाकिस्तान कहे जाने वाले यानी भारत विभाजन के पहले के पूर्वी बंगाल  में दमन के लिए हमेशा जुटा रहता था, बांग्ला संस्कृति और भाषा को वरीयता देने वाले बंगालियों पर कहर ढाने के लिए उकसा दिया। महीनों तक यह सिलसिला चला। दमन से प्रताड़ित लाखों शरणार्थी भारत में आ गए। भारत के सामने कई तरह की समस्याएँ उठ खड़ी हुईं। जैसे-जैसे पाकिस्तानी सेना का दमन बढ़तर गया  वैसे-वैसे पूर्व पाकिस्तान के साढ़े सात करोड़ बंगालियों की सहन शक्ति जवाब देती गई। बांग्ला मुक्तिवाहिनी ने करो या मरो जैसे  पक्के इरादे के  साथ अपना  मुस्तकबिल  खुद तय करने का संग्राम छेड़ दिया। मुक्तिवाहिनी और बंगालियों के साथ पाकिस्तानी फौज की क्रूरता बढ़ती जा रही थी। खून बहाया जा रहा था। बलात्कार किए जा रहे थे। जुल्म ज्यादतियों की कोई इंतिहा ही नहीं थी। लेकिन जैसे-जैसे जुल्म बढ़ता गया वैसे - वैसे संकल्प भी मजबूत होता गया। आखिरकार 26 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान के बंगालियों ने अपने को स्वतंत्र बांग्ला देश घोषित कर दिया। उनका संकल्प गरीबी, भूख और पश्चिमी पाकिस्तान की गुलामी से मुक्ति पाकर अपना वर्तमान सँवारते हुए भविष्य को खुशहाल बनाने का था। इन हालात में गौरतलब यह भी था  कि लोकतंत्र की बड़ी-बड़ी बातें कर ने वाले अमेरिका और यूरोप के ज्यादातर देश लोकतंत्र के हत्यारे पाकिस्तान का पक्ष ले रहे थे, ऐसी परिस्थितियों में भी भारत ने पूरी ताकत से पूर्वी पाकिस्तान के बंगालियों के मुक्ति संग्राम में उन का साथ दिया। इस अभियान का लौह  नेतृत्व  स्वयं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कर रही थीं। उन्होंने लोकनायक जयप्रकाश नारायण और प्रतिपक्ष के प्रमुख नेताओं का समर्थन भी लिया। दुनिया को जताया कि पाकिस्तान मानवता की नृशंस हत्या की सारी सीमाएँ लाँघ चुका है और भारत के लिए यह लोकतंत्र, मानवता कर साथ देने का वक्त है, और भारत इससे पीछे नहीं हटेगा। 

उस वक्त के युद्ध के हालात के बारे में उपलब्ध जानकारियां बताती हैं कि पाकिस्तानी फौज की मदद के लिए हिन्द महासागर में आए अमेरिकी युद्धपोत - सातवाँ बेड़ा - को किस तरह अपमानित होकर वापस लौटना पड़ा था। इस मुक्ति संग्राम में इंदिराजी के लौह नेतृत्व और अदम्य साहस का ही नतीजा था कि अंततः पाकिस्तान की कुचाल 3 दिसंबर 1971 को सामने आई जब उसकी फौजों ने भारत की पश्चिमी सीमा पर हमला बोल दिया। अब भारत को खुलकर अपनी फौज को युद्ध के मोर्चों पर उतारने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।  इंदिराजी  ने उस कठिन  दौर में कठोर निर्णय लेने की मिसाल पेश की। उन्होंने फील्ड मार्शल जनरल मानेकशों को फौजी कार्रवाई करने की इजाजत दी। पूरब और पश्चिम दोनों मोर्चों पर भारतीय फौज ने जवाबी कार्रवाई करते हुए पाकिस्तानी फौज के मंसूबों को रौंदना शुरू कर दिया। दो सप्ताह से भी कम समय में पश्चिमी मोर्चे पर जहाँ भारत की फौज ने लाहौर तक धमक दे दी।  दूसरी तरफ  पूर्वी मोर्चे पर पाकिस्तानी सेना को इस तरह घेरा कि लेफ्टिनेंट जनरल ए.ए.के. नियाजी को हथियार डालने पर मजबूर होना पड़ा। पाकिस्तान की कमर टूट चुकी थी। 16 दिसंबर 1971, भारतीय इतिहास का वह स्वर्णिम दिन है जब ढाका में भारतीय सेना के सेनापति लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी ने समर्पण पत्र पर हस्ताक्षर किए और आत्मसमर्पण करते हुए अपनी आधिकारिक रिवाल्वर उनके सामने डाल दी। नियाजी को इससे पहले घंटों हाथ बांधे खड़े रहना पड़ा था।  किसी भी सेना और सेनापति के लिए यह क्षण अपमान और लज्जा का सबसे भीषण काल होता है।
 इस महान शौर्य-गाथा का श्रेय तत्कालीन  प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के फौलादी नेतृत्व को है। महान बांग्ला मुक्ति  अभियान की सफलता  के बाद संसद में जब इंदिरा जी को बधाई दी जा रही थी तब कविवर हरिवंश राय बच्चन ने यह शे’र पढ़ा था - 

‘‘उसकी बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर,
वो तो अच्छा हुआ अंगूर के बेटा न हुआ।’’

उस समय प्रतिपक्ष के सर्वाधिक मुखर नेता  जो बाद में भारत के प्रधानमंत्री बने श्रीमान अटल बिहारी वाजपेयी ने भारतीय फौजों की महान सफलता और इंदिरा जी के सक्षम नेतृत्व की तहे दिल से सराहना की थी। दिलचस्प यह कि पक्ष और विपक्ष दोनों ओर से अटल जी पर ताने कसे जाते रहे कि उन्होंने इंदिरा जी को दुर्गा कहा है। बताते हैं कि काफी समय बाद अटल जी ने खुलासा किया कि इंदिरा जी ने उनसे सहयोग का अनुरोध करते हुए कहा था कि वे गुरु जी यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया गुरू  गोलवलकर  के पास नागपुर जाएँ और उन्हें बताएँ कि हमने पाकिस्तान के दो टुकड़े करने का फैसला कर लिया है। हमें उनके सहयोग और समर्थन की आवश्यकता है। यह संदेश मिलते ही गुरु जी भाव विभोर हो उठे और उनके मुख से निकला - वो तो दुर्गा है, वो तो दुर्गा है।
एक नये देश का निर्माण और क्रूर फौजी ताकत की बर्बरता को कुचलना, ऐसे ही समवेत संकल्प की दरकार करता है और तभी कोई शौर्य की महागाथा रची जाती । भारत के इतिहास में 16 दिसंबर निश्चित ही वो दिन है जिस दिन भारत ने न केवल महागाथा रची बल्कि भारत के विभाजन के आधार को गलत साबित कर एक नए देश का अभ्युदय हुआ और इसका पूरा श्रेय तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को जाता है। 

न्याय में देरी से पनप रहा असंतोष, अराजकता हालात का समर्थन नहीं किया जा सकता

                                           -सतीश एलिया                                                                                                                                           बीते एक पखवाड़े में देश ने महिलाओं के प्रति अपराध का जो वीभत्स चेहरा देखा, उसे लेकर जो आक्रोश देखा और एक मामले में वारदात के एक हफ्ते बाद ही आरोपियों के कस्टडी एनकाउंटर से जो खुशी की अभिव्यक्ति सामने आई और अब एनकाउंटर और खुश होने पर सवाल भी सामने हैँ। यह पूरा घटनाक्रम गंभीरता से सोचने पर विवश करता है। न केवल आपराधिक प्रवृत्तियों के लगातार बढ़ते जाने से बल्कि हमारे सामाजिक बदलाव पर भी चिंतन की जरूरत है। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के साथ क्या हमारे कानूनी प्रावधान खरे उतरे हैं? यह सवाल भी विचारणीय है। देश की अदालतों में साढ़े तीन करोड़ से ज्यादा मामले पेंडिंग हैं। हैदराबाद में रेप और हत्या के चार आरोपियों का एनकाउंटर असली था या पूर्व नियोजित यह तो जांच का विषय है ही लेकिन जिस तरह आम आदमी के अलावा प्रबुद्ध माने जाने वाले वर्ग ने त्वरित प्रतिक्रिया में खुशी जाहिर की, वह क्या बतलाता है? सबके अवचेतन में यह बात गहरे पैठ गई है कि पीड़ित को न्याय मिलने के हमारे सिस्टम में जो प्रक्रियागत देरी है, वह न्याय पर भरोसा कायम रखने में विफल होती दीख रही है। अब भारत के नवागत मुख्य न्यायधीश शरद अरविंद बोबेड़े की टिप्पणी कि इंसाफ अगर बदले में तब्दील हुआ तो अपना चरित्र खो देगा, निश्चित ही त्वरित बदले की जनभावना और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को बनाए रखने की चुनौती हमारे सामने हैं। अलबत्ता यह तकनीकी रूप से एनकाउंटर में आरोपियों के मारे जाने का मामला है, जिस एनकाउंटर पर सवाल हैं और जांच होना शेष है, फिर भी इसे न्याय या बदला माना जा रहा है तो यह भी चिंतनीय हैँ। दूसरी तरफ यह भी सच है कि कार्यपालिका और व्यवस्थापिका पर जनता का भरोसा अत्यंत कम है और वह आज भी सर्वाधिक उम्मीद न्यायपालिका पर ही लगाए रहती है। पीड़ित व्यक्ति जब थक हार जाता है तो वह यही कहता है कि मैं तुम्हें अदालत में देख लूंगा। यह उम्मीद ही तो कि कोई नहीं तो अदालत से न्याय मिल पाएगा। यानी न्याय पर भरोसा भारतीय जनमानस में अभी कायम है, अपवाद हो सकते हैं। लेकिन यह भरोसा बार बार डगमगाता रहता है क्योंकि हमारी अदालतों के काम करने का तरीका अत्यंत धीमा है। फार्स्ट ट्रैक कोर्ट और तेजी से सुनवाई के तमाम प्रयासों के बावजूद लंबित मामलों की फेहरिस्त इतनी लंबी है कि न्याय की आस मंद पड़ना अस्वाभिक नहीं हैं।  देश की अदालतों में साढ़े तीन करोड़ से ज्यादा मामले पेंडिंग हैं। इनमें से 40 हजार से ज्यादा तो ऐसे हैं जो तीन दशक यानी 30 साल से ज्यादा वक्त से फैसले के इंतजार में हैं। देश के उच्चतम न्यायालय में ही करीब 60 हजार मामले पेंडिंग हैं।                                                          रेप के एक लाख से ज्यादा मामले पेंडिंग                         हमारे देश की अदालतों में रेप के एक लाख सात हजार से ज्यादा मामले पेंडिंग हैं।  इनमें से 96 फीसदी मामले पोक्सो एक्ट के हैं यानी नाबालिगों से ज्यादती के। यह आंकड़े बताते हैं कि ज्यादती की वारदातों के सर्वाधिक शिकार नाबालिग हो रहे हैं और ऐसे अपराध करने की मानसिकता वालों में कोई खौफ नहीं है। देश के सर्वाधिक चर्चित निर्भया कांड के दोषियों को सजा होने के बावजूद अब तक फांसी नहीं मिलने से भी लोगों में आक्रोश है। आलम यह है कि अब राष्ट्रपति को भी यह कहना पड़ा कि पोक्सो के मामलों में दया याचिका का प्रावधान खत्म होना चाहिए। मुझे लगता है जिन मामलों में कई अदालतों में सालों चली सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट से अंतिम फैसला हो चुका है, उनमें से किसी में भी दया याचिका का प्रावधान क्याें होना चाहिए?                                                                           भारतीय अदालतों में 3.53 करोड़ से अधिक मामले लंबित 
नवीनतम आर्थिक सर्वेक्षण में अनुमान लगाया गया है कि पांच साल के भीतर लंबित मामलों को निपटाने के लिए लगभग 8,521 न्यायाधीशों की ज़रूरत है।लेकिन उच्च न्यायालय और निचली अदालतों में 5,535 न्यायाधीशों की कमी है। सर्वोच्च न्यायालय में आज की तारीख़ में न्यायाधीशों की संख्या 31 है। लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय को आठ अतिरिक्त न्यायाधीशों की आवश्यकता है।

'नेशनल जूडिशरी डेटा ग्रिड' के मुताबिक़ 43,63,260 मामले उच्च न्यायालयों में लंबित हैं। मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने इस बात को रेखांकित किया था कि ज़िला और सब-डिविज़नल स्तरों पर स्वीकृत न्यायाधीशों की संख्या 18 हजार है। लेकिन मौजूदा संख्या इससे कम 15 हजार ही है. दिल्ली उच्च न्यायालय के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश का कहना था कि जिस गति से मामलों को निपटाया जा रहा है, उस हिसाब से लंबित आपराधिक मामलों को निपटाने के लिए 400 साल लग जाएंगे। वह भी तब जब कोई नया मामला ना आए।
हर साल मुक़दमों की संख्या बढ़ रही है, उसी हिसाब से लंबित मामलों की संख्या बढ़ रही है। इससे 'न्याय में देरी यानी न्याय देने से इंकार' की धारणा बलवती हो रही है। अदालतों में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या से न्यायाधीश बोबड़े को चिंतित होना चाहिए। उनकी भी प्राथमिकता यह पेंडेंसी कम करने की होगी।                      आयोग का सुझाव लेकिन अमल नहीं
साल 1987 में विधि आयोग ने सुझाया था कि प्रत्येक दस लाख भारतीयों पर 10.5 न्यायाधीशों की नियुक्ति का अनुपात बढ़ाकर 107 किया जाना चाहिए। लेकिन आज ये अनुपात सिर्फ़ 15.4 है.

यह भाजपा के गठबंधन धर्म से भटकने का नतीजा है.

                                  ..                                                                                                  -सतीश एलिया                                                                                     लगातार दो लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल करने वाली भाजपा महाराष्ट्र में सबसे बड़ा गठबंधन होने के बावजूद सत्ता से बाहर हो गई, इसमें उसकी तीस साल पुरानी पार्टनर शिवसेना के चुनाव के बाद अलग होने का खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा। अब झारखंड में भाजपा सत्ता से बाहर होती दिख रही है तो इसमें भी गठबंधन का चुनाव से पहले ही टूट जाना प्रमुख वजह के रूप में दिख रहा है। झारखंड बनने से अब तक करीब 20 साल भाजपा की सहयोगी पार्टी आल झारखंड स्टूडेंट यूनियन को भाजपा इस दफा अपने साथ रखने में नाकाम रही। वजह वही बनी जिसे महाराष्ट्र में बार बार शिवसेना कहती रही कि गठबंधन में दूसरे दल को छोटा मानने का अहंकार भाजपा में व्याप्त हो गया है। आजसू लगातार भाजपा के साथ रही है लेकिन इस दफा उसकी 17 सीटों की मांग को भाजपा ने ठुकरा दिया तो वह 58 सीटों पर सीधी भाजपा के खिलाफ मैदान में थी। महाराष्ट्र में बार बार अपने स्ट्राइक रेट की दुहाई देती रही भाजपा ने झारखंड में 2014 में गठबंधन में 8 सीटें लड़कर 5 सीटें जीतने वाली यानी 62.5 फीसदी स्ट्राइक रेट वाली आजसू को 17 सीटें देने से इंकार कर दिया। इसका सीधा फायदा झारखंड मुक्ति मोर्चे के नेतृत्व वाले कांग्रेस और राजद की त्रयी वाले गठबंधन को मिलता दिख रहा है। आजसू को भी सत्ता में कोई भागीदारी नहीं मिलने जा रही है लेकिन उसने पिछले चुनाव से जयादा सीटें जीतकर भाजपा का खेल तो बिगाड़ ही दिया है। दूसरी तरफ कांग्रेस ने झामुमो से अपना गठबंधन न केवल बरकरार रखा बल्कि उसने बिहार में अपने महागठबंधन के सहयोगी राजद का भी साथ बनाए रखाा। अंतिम नतीजे आने तक किसी चमत्कार की उम्मीद अब न के बराबर ही है। ऐसे में ब्रांड मोदी और ब्रांड अमित शाह पर भी सवाल तो उठेंगे ही। ऐसें वक्त में जब नागरिकता संशोधन और एनआरसी के बहाने गैर भाजपा विपक्ष एकजुटता की नई रागिनी में एकजुट होने के लिए फिर मैदान में है, भाजपा के  हाथ से एक और राज्य खिसकना उसकी अखिल भारतीय अपराजेयता के मार्ग में बड़ा स्पीड ब्रेकर बनकर सामने आया। जब पूरा देश भाजपा और मोदी सरकार के विपक्षी और अन्य जमातों के हिंसक विरोध से सुलगा हुआ है, झारखंड के नतीजे भाजपा के लिए झटका और कांग्रेस के लिए उत्साह का कारण बन रहा है। यह महज संयोग नहीं है कि भाजपा ने बीते करीब एक साल में मप्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र के बाद अब झारखंड भी गवां दिया है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के सामने अपने लक्ष्य पूरे भारत को भाजपामय बनाने का पूरा करने में अब शायद एक और नई परीक्षा का सामना करना होगा। पांच राज्य गवांने के बाद भाजपा को अब पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी से मुकाबले में और ज्यादा मशक्कत करनी होगी, भाजपा अगर अब भी इन रणनीतिक पराजयों से सबक नहीं लेगी तो उसका लक्ष्य महज लक्ष्य बनकर रह जाएगा। कांग्रेस में एक बार फिर साबित हो गया है कि सोनिया गांधी ही उसके अध्यक्ष के तौर पर अब भी पार्टी की ताकत बढ़ाकर उसे राज्यों में वापसी की तरफ ले जा सकती हैँं। निश्चित ही झारखंड के नतीजे न केवल पश्चिम बंगाल के चुनाव में बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव की पूर्वपीठिका बनेंगे। 

भीड़़ की शक्ल नहीं होती, टूट रहा है ये मिथ

                                                                                 सतीश एलिया                                                                             भीड़ की शक्ल नहीं होती, ये मिथ न जाने कब से चला आ रहा था लेकिन अब यह टूट रहा है। भीड़ की आड़ में सड़क पर साधारण मारपीट से लेकर दंगे तक में भीड़ के नाम पर सामान्य अपराध से लेकर सुनियोजित जघन्य अपराध और षड्यंत्र छुपाए जाते रहे हैं और गुनहगार कानून से बचकर जन नेता तक बनते रहे हैं। सोशल मीडिया की दुधारी तलवार एकतरफ लोगों उकसाने के षड्यंत्र का औजार बन गयी है तो दूसरी तरफ वह षडयंत्र की पहचान का टूल भी साबित हो रही है। भीड़ के उपद्रव में सीसीटीवी, द्रोण कैमरों की आँखो से भीड़ के वे चेहरे सामने आने लगे हैं जिनका दिमाग लोगों की नासमझी को दंगे में बदलते हैं। नागरिकता संशोधन कानून पर फैलाए गए भ्रम और उसे एन आर सी से गड्डमड्ड करने से डरा दिए गए लोगों के हाथों में पत्थर थमाने वालों की निशानदेही शुरू हुई है। सरकार ने देश की संपत्ति को नष्ट करने के अलोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शनों पर सख्ती में भीड़ के चेहरों की शिनाख्त शुरू की है। उपद्रवियों से नुकसान की भरपाई की वसूली कितनी हो पाएगी, यह अभी सामने आना बाकी है। लेकिन यह लोकतांत्रिक प्रदर्शनो की ताकत को फिर स्थापित करने की तरफ ले जाएगा, यह उम्मीद की जाना चाहिए।                                                                                                                                     हैदराबाद में गैंग रेप और हत्या के आरोपियों की पुलिस कस्टडी में एनकाउन्टर में मौत के मामले में जिस तरह जनता ने पुलिस पर फूल बरसाए थे और देश भर में इसे वीरता की तरह दिखाने की कोशिश हुई और विरोध के तार्किक सवाल भी उठे, एच पखवाडे में ही दिल्ली से लेकर अहमदाबाद तक पुलिस के उन्मादी भीड़ से पिटने के द्रश्य सामने आए। पुलिस की निरीहता पूरे देश ने देखी। यह निश्चित तौर पर पुलिस की कार्यप्रणाली और स्थिति का अनुमान लगाने और निपटने में असफलता का नमूना है। पुलिस की निरीहता द्रश्य भर है, हकीकत यही है कि पुलिस निरीह नहीं होती, वह देश के अलग अलग हिस्सों में पहले भी और अब भी सामने आता ही रहता है। मुँह से ठाय ठाय करने की आवाज निकालती उप्र पुलिस से लेकर उप्र की ही पीएसी के सामूहिक नरसंहार के दमनात्मक चरित्र को लोग भूले नहीं हैं।                                                                                                                             देश को विरोध की हिंसक राजनीति में झौकने वाली सियासी जमातो का नफा नुकसान कितना हुआ या हुआ होगा या होगा, यह किसी चुनाव में ही नतीजो से पता चल सकेगा लेकिन देश की संपत्ति और एकता को हुआ नुकसान साफ दिख रहा है। उपद्रव पर नियंत्रण का अनुमान लगाने में नाकाम सरकार और पुलिस प्रशासन तंत्र अब उपद्रव करने वाली भीड़ के चेहरे बेनकाब करने में सफल रहती है तो भविष्य के लिए यह कहा छा सकता है कि भीड़ का चेहरा होने का मिथ पूरी तरह टूट सकेगा और देश की संपत्ति नष्ट करने की प्रवृत्ति पर लगाम लग सकेगी।                                                                                                                           

नागरिकता संशोधन के बहाने उठा विवाद अब जनसंख्या रजिस्टर पर भी घमासान में उलझा

                                               -   सतीश एलिया                                                                                                                                                       लोकसभा और राज्यसभा में पारित विधेयक को राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद कानून बने नागरिकता संशोधन अधिनियम की हिंसक खिलाफत की आंच अब सरकार की सख्ती से मंद भले ही हो रही हो लेकिन इस संशोधन के साथ ही नेशनल रजिस्ट्रेशन ऑफ सिटीजनशिप यानी एनआरसी के एक साथ विरोध और दोनों को गडढमडढ कर दिए जाने से उपजा विरोध अब इसमें एनपीआर को भी जोड़ दिए जाने से देश की सियासत में जारी उबाल और बबाल बढ़ता ही जा रहा है। देखा जाए तो सीएए, एनआरसी और एनपीआर में से कोई भी नया नहीं है। नागरिकता कानून जिसमें शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान है, उतना ही पुराना है जितना भारत के विभाजन का मामला। नेहरू-लियाकत समझौता भी धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने देश में सुरक्षा और संरक्षा देने के बारे में ही था। कांग्रेस की सरकारों में भी पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए धार्मिक अल्पसंख्यक शरणार्थियों को नागरिकता दी ही जाती थी। इसी तरह कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार के वक्त में हुए असम समझौते के बाद एनआरसी उस राज्य में लागू करने की बात शुरू हुई थी। जिसे असम में अभी सुप्रीम कोर्ट के आदेश और निर्देशन में लागू करने की प्रक्रिया जारी है, जिसका हिंसक और अहिंसक दोनों का तरह का विरोध हुआ है। पूरे देश में एनआरसी लागू नहीं किए जाने के प्रधानमंत्री के सार्वजनिक बयानों के बावजूद इस मामले पर कुहासे की वजह सीएबी पर राज्यसभा मेंं बहस का जबाव देते हुए गृह मंत्री अमित शाह की वो टिप्पणी है जिसमें उन्होंने तैश मे यह कह दिया था कि देश में एनआरसी लागू होकर रहेगी और हम इसे 2024 तक लागू करके रहेंगे। इसी बयान और इसी बयान में नेशनल पापुलेशन रजिस्टर यानी एनपीआर के सियासी विरोध की वजह भी है। विपक्ष खासकर कांग्रेस 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर ही भाजपा की मंशा से भयाक्रांत लग रही है।                                     देखा जाए तो एनपीआर लागू करने की बात की शुरूआत अटल सरकार में हुई थी लेकिन इसके बाद की कांग्रेसनीत सरकार ने ही उस पर अमल शुरू किया और यह योजनाएं बनाने के लिए एक आवश्यक कदम है और इसका विरोध अनावश्यक रूप से सीएए, एनआरसी के जारी विरोध के बहाने किया जा रहा है। एनआरसी, एनपीआर और डिटेंशन सेंटर पर बयानबाजी                                                               एनआरसी पर चर्चा और विरोध प्रदर्शनों के बीच डिटेंशन सेंटर्स का मुद्दा भी गरमा गया है। सरकार इस पर बचाव की मुद्रा में भले आ गई हो लेकिन डिटेंशन सेंटर्स की शुरूआत भी असम समझौते के बाद ही कांग्रेस राज में ही हो गई थी। अब सरकार इससे इंकार कर रही है और प्रधानमंत्री झूठ है झूठ है झूठ है कहकर नकार रहे हैं, लेकिन घुसपैठियों को डिटेन करके रखना गलत कैसे हो सकता है। विरोध प्रदर्शनों से बैकफुट पर आई सरकार को इसके सच को पूरी ईमानदारी से बताना चाहिए, ताकि उसी के मुताबिक विपक्षी दल भ्रम फैला रहे हैं, तो उसे दूर करने का काम किसका है? इस बीच मीडिया के अलावा सोशल मीडिया पर इन मामलाें को लेकर कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के दौरान के तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिंदबरम से लेकर कांग्रेस नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला से लेकर कुछ न्यूज चैनलों के एनआरसी पर पुराने कार्यक्रमों के वीडियो भी जमकर  शेयर किए जा रहे हैं।                          सीएए के विरोध में राज्य सरकारों के प्रदर्शन                                                                                 नागरिकता संशोधन  अधिनियम के खिलाफ कांग्रेसनीत राज्य सरकारों के मुख्यमंत्रियों के विरोध प्रदर्शन ने केंद्र राज्य संबंधों और संविधान के व्यवस्था को लेकर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। इन राज्यों की सरकारों ने साफ तौर पर इस संशाेधित कानून को अपने राज्य में लागू करने से न केवल इंकार किया है बल्कि इसके खिलाफ खुद मुख्यमंत्री मैदान में सड़़क पर उतरे हैं। सवाल ये है कि क्या यह विरोध जायज है? क्या यह केंद्र और ऐसी राज्य सरकारों के बीच भविष्य में कोई नए संवैधानिक संकट का कारण नहीं बनेगा?                                                        अरुधंती राय का कूदना                                                                                                                     अपने उपन्यास के लिए बुकर पुरस्कार जीतने के बाद चर्चा मेंं आई भारतीय मूल की अंग्रेजी लेखिका अरुंधती राय भी इस मामले में न केवल कूद पड़ी हैं बल्कि वे हल्के और विचित्र बयानों से एक बार फिर चर्चा में हैं। उन्होंने एनपीआर के विरोध में लोगों से अपने नाम और पते बताने के लिए जो तरीके बताए हैं, वे हास्यापद तो हैं ही लोगों को भड़काने वाले भी हैं। यह एक तरह से सहिष्णु लोकतंत्र का मजाक उड़ाने जैसा भी है। अरुंधति इसके पहले नक्सलियों और अलगाववादी कश्मीरी नेताओं से जुगलबंदी को लेकर विवादों में रह चुकी हैं।                               कहीं यह विपक्ष का भाजपा के एजेंडे में उलझना तो नहीं                                                                         2014 से भी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई भाजपा ने अपने दूसरे कार्यकाल में धारा 370 हटाने और अयोध्या में राममंदिर के पक्ष में फैसला आने के बाद शांति कायम रखने के बाद अपना अगला एजेंडा स्पष्ट कर दिया है। नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी पर सरकार के विरोध से विपक्ष को सरकार के खिलाफ बड़ा मुद्दा मिलता भले दिख रहा हो लेकिन अयोध्या मामले से ताकतवर बनी भाजपा अब इस मुद्दे के निर्णायक हल के बाद अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए देश के बहुसंख्यकों को अपने पक्ष में ध्रुवीकरण में बनाए रखने की जुगत में तो है ही, सीएए के विरोध को हिंदुत्व के विरोध में पेश करने का कांग्रेस और उसके मित्र दलों ने उसे मौका दे दिया है। एक तरह से जिस तरह भाजपा ने कांग्रेस को सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ जाने को मजबूर करने का एजेंडा सेट कर सफलता हासिल कर सफलता हासिल की अब 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा एक बार फिर कांग्रेस और उसकी युति के दलों को एक बार फिर बैकफुट पर ले जाने के अपने एजेंडे पर पग बढ़ाती दिख रही है। जो कांग्रेस 14 दिसंबर को सरकार की आर्थिक नीतियों और बेरोजगारी के ज्वलंत मुद्दों पर सरकार को घेरने की तैयारी कर रही थी, जो देश के वास्तविक मुद्दे हैं भी, भाजपा ने उसे तारीख और एजेंडा बदललकर सीएए, एनआरसी,एनपीआर विरोध की तरफ धकेल दिया।  कई मोर्चों पर नाकाम दिख रही सरकार राजनीतिक विरोध के चलते ध्रुवीकरण को खुद के मुफीद बनाने का एक और मौका हासिल करने के रूप में देख रही होगी। भाजपा नेताओं के बयानों और उनके समर्थकों के सोशल मीडिया पर जंग की मुद्रा ठीक वैसे ही है जैसी चुनाव के वक्त में होती है और कांग्रेस और उसके समर्थक बचाव की मुद्रा में जाते दिख रहे हैं।  

मप्र की सियासत में साल 2019 के गुजरते अक्स

कहते हैं वक्त हर बदल रहा होता है, हम उसे कैसे गुजारते हैँं इस पर आने वाले वक्त की बुनियाद बनती चली जाती है। वर्ष 2019 बीत रहा है, वर्ष 2020 की आहट करीब आती जा रही है। दोनों वर्षो के आने और जाने के इस संधिकाल में बीत रहे साल की छवियां और आने वाले वर्ष की उम्मीदों के लेखा जोखा के इस वक्त में अगर हम मध्यप्रदेश के लिहाज से देखें तो प्रदेश के लिए 2019 परिवर्ततनों और उठापटक का तो दौर रहा ही, यह प्राकृतिक से लेकर राजनीतिक उथलपुथल तक का भी साल रहा। सियासत की बात करें तो वर्ष 2018 के आखिर में प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हुआ और लगातार 15 साल से कायम भाजपा की सत्ता से विदाई होकर इतने ही वर्ष से सत्ता का वनवास झेल रही कांग्रेस का सत्तारोहण हुआ था। नए साल 2019 में मुख्यमंत्री कमलनाथ के नेतृत्व वाली सरकार के सामने अपने सबसे बड़े चुनावी वादे को पूरा करने की चुनौती थी। यानी किसानों के कर्ज माफी के वादे पर अमल का मुख्यमंत्री ने आदेश तो जारी कर दिया था लेकिन यह वादा अमल शुरू होने के बावजूद पूरा होने की तरफ नहीं बढ़ पाया, पूरे साल सरकार और प्रमुख विपक्षी दल केे बीच यही मुद‍दा राजनीतिक घमासान का केंद्र बिंदु बना रहा। भाजपा ने तो इसके खिलाफ कई दफा प्रदेश स्तर पर प्रदर्शन भी किए। इतना नहीं सत्ताधारी दल कांग्रेस में भी किसान कर्ज माफी का वादा पूरा नहीं होने के खिलाफ खींचतान के मामले सामने आते रहे। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर कांग्रेस विधायक लक्ष्मण सिंह भी इस मामले को लेकर सरकार की खिंचाई करते रहे। सत्ता परिवर्तन के तुरंत बाद शुरू हुए इस साल के पांचवें महीने यानी मई में हुए लोकसभा चुनाव ने एक बार फिर बाजी पलटते हुए मप्र की 29 में से 28 लोकसभा सीटाें पर विजय भाजपा के खाते में डालकर कांग्रेस की विधानसभा चुनाव की जीत को फीका कर दिया। अकेले मुख्यमंत्री कमलनाथ के पुत्र नकुलनाथ अपने पिता की पारंपरिक सीट जीतकर प्रदेश में कांग्रेस का खाता भर खोलने में कामयाब हो सके। गुना से अब तक अपराजेय रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री और मप्र में मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया को पहली दफा हार का स्वाद चखना पड़ा। लोकसभा चुनाव के नतीजे ने प्रदेश के मतदाताओं की परिवक्पता का एक बार और प्रमाण दिया कि वे देश के मुद‍दों और राज्य के मुद‍दों पर अलग तरह से सोचकर मतदान करते हैं। इसकी बानगी झाबुआ विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में एक बार फिर दिखी। झाबुआ के विधायक गुमान सिंह डामोर के सांसद बनने से हुए उपचुनाव में भाजपा यह सीट हार गई। डामोर ने जिन कांतिलाल भूरिया को रतलाम लोकसभा सीट पर चुनाव में हराया था, वही भूरिया झाबुआ उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी को हराकर विधायक बन गए।                                                              प्रदेश की सियासत में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच तनातनी पूरे साल जारी रही। कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने स्थानीय निकायों के चुनाव में महापौर और नगरपालिका नगर परिषद अध्यक्षों का सीधा चुनाव बंद कर पार्षदों में से ही मेयर और अध्यक्ष चुनने का फैसला किया। इसके खिलाफ भाजपा ने प्रदेश व्यापी विरोध प्रदर्शन किए और राज्यपाल लालजी टंडन से गुहार लगाई। नतीजा यह हुआ कि नगरीय निकाय चुनावों को लेकर फैसला साल के अंत तक नहीं हो पाया। मेयर और अध्यक्षों कें अप्रत्यक्ष चुनाव के अलावा भोपाल नगर निगम के दो भागों में बंटवारे के मुद‍दे पर भी सत्ताधारी दल कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के बीच तनातनी साल के अंत तक जारी रही।                                                                                                                                          प्रदेश में इस साल मौसम के तेवर कुछ ऐसे रहे कि समूचा प्रदेश इससे हलाकान रहा। प्रदेश में इस साल मानसून में इस सदी की सर्वाधिक वर्षा का रिकार्ड बना। इस भारी बारिश और बाढ़ के हालात ने प्रदेश में फसलों को बुरी तरह से बर्बाद किया और करीब साढ़े चार सौ लोगों को जान गवांना पड़ी, पशुओं की भी बड़ी संख्या में हानि हुई। भारी बारिश ने प्रदेश की लगभग सभी सड़कों को दुर्दशाग्रस्त कर दिया। इनकी मरम्मत को लेकर भी पक्ष विपक्ष के बीच सियासी तकरार के कई मौके आए। बाढ़ और फसल बर्बादी की राहत को लेकर राज्य सरकार केंद्र सरकार के बीच विवाद के हालात बने। केंद्रीय दलों के दौरों के बाद भी राज्य सरकार ने प्रदेश को राहत नहीं दी जाने के आरोप लगाए। पक्ष विपक्ष महात्मा गांधी के 150 वें जन्म वर्ष के मौके पर कार्यक्रमों के आयोजनों को लेकर भी एक दूसरे पर आरोप लगाते रहे।                                                                             मध्यप्रदेश को इस साल दो पूर्व मुख्यमंत्रियों बाबूलाल गौर और कैलाश जोशी का अवसान झेलना पड़ा। लगातार आठ बार विधायक, दो बार लोकसभा और राज्यसभा के सांसद रहे कैलाश जोशी को मप्र की राजनीति में संत माना जाता था। बाबूलाल गौर भोपाल से लगातार 10 बार विधायक बनने वाले अपराजेय नेता थे। इन दोनों भाजपा नेताओं के अवसरान के अलावा मप्र से राज्यसभा सदस्य रहीं और विदिशा लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर लोकसभा की नेता प्रतिपक्ष रहीं और विदेश मंत्री रहीं सुषमा स्वराज का भी इस वर्ष असामायिक निधन हो गया। यह मप्र की सियासत के लिए बड़ी क्षति रही।       प्रदेश में इस साल एक स्कैंडल न केवल प्रदेश बल्कि देश भर में मप्र की चर्चा का कारण बना। इंदौर नगर निगम के एक अधिकारी की पुलिस में शिकायत करने के बाद सैक्स वीडियो बनाकर अफसरों, नेताओं को ब्लैकमेल करने वाले एक गिरोह का भंडाफोड़ हुआ। इसे लेकर वायरल वीडियो, गिरफ्तारी और रहस्योदघाटनों का सिलसिला साल के अंत तक कई बार सामने आता रहा। इसकी आंच कई सियासी नेताओं और आला अफसरों तक पहुंचने की चर्चा होती रही। सरकार ने इस साल मिलावटखोरी के खिलाफ शुद‍ध के लिए युद्ध चलाकर मिलावट को खत्म करने का अभियान जोर शोर से चलाया। इसके बाद इंदौर में एक कारोबारी के खिलाफ चले अभियान के बाद पूरे प्रदेश में भूमाफिया के खिलासफ अभियान भी शुरू किया गया। करीब एक दशक से चर्चित व्यावसायिक परीक्षा मंडल घोटाले में इस साल भी कार्रवाईयों ने इस मामले को चर्चा में बनाए रखा। साल के अंत मकें तीन नई एफआईआर ने मामले को फिर सरगर्म बना दिया।                                  इधर नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदेश की सरकार और सत्ताधारी दल कांग्रेस की केंद्र सरकार से सीधी तकरार की स्थिति ने नए सियासी टकराव को पैदा कर दिया। खुद मुख्मंत्री कमलनाथ ने इस विरोध प्रदर्शन की अगुवाई की। इस बीच कमलनाथ सरकार को समर्थन दे रही बहुजन समाज पार्टी की विधायक राम बाई ने नागरिकता संशोधन कानून और इस कानून को लेकर भूमिका को लेकर प्रधानमंत्री का खुला समर्थन कर देने से साल के अंत में नई सियासी हलचल सामने आई है। बसपा प्रमुख मायावती ने रामबाई को पार्टी से निलंबित कर दिया। साल के आखिरी महीने में हुआ विधानसभा का शीतकालीन सत्र पक्ष विपक्ष के बीच तनातनी के कारण खासा गर्म रहा और समय के पहले ही सत्रावसान हो गया। छह दिन के लिए बुलाए गए सत्र का समापन चार दिन में ही हो गया, जिसमें पांच विधेयक बिना चर्चा के ही पारित कर लिए गए। इस साल एक घटनाक्रम भाजपा विधायक प्रहलाद लोधी को एक आपराधिक मामले में सजा होने पर उनकी सदस्यता खत्म कर दिए जाने और फिर उन्हें सुप्रीम कोर्ट से राहत मिलने पर सदस्यता बहाल करद दी जाने को लेकर हुआ। यह घटनाक्रम मप्र विधानसभा के लिहाज से अभूतपूर्व था। प्रदेश में गुजरता साल 2019 अपने आखिरी दिनों में भीषण शीतलहर की चपेट में बीत रहा है, उम्मीद की जाना चाहिए कि नया साल 2020 प्रदेश में मौसम के खुशनुमा होने और प्रदेश के विकास की दिशा में उल्लेखनीय बनकर आएगा।                                                      

रविवार, 8 दिसंबर 2019

पाेर्नोग्राफी पर सर्जिकल स्ट्राइक क्यों नहीं करती सरकार -सतीश एलिया


                                                                                                                                                                                                                       देश को झकझोर देने वाले दिल्ली के निर्भया कांड केे सख्त कानून बनाने की देश की मंशा को सरकार ने पूरा कर दिया और नाबालिग की परिभाषा भी बदल दी जा चुकी। इसके बावजूद निर्भया कांड की ही तरह बर्बर और जघन्यतम अपराधों की संख्या घटने के बजाए बढ़ ही रही है। अब तक निर्भया के गुनहगारों को फांसी की सजा पर अमल नहीं हो पाया है। हैदराबाद में डा. प्रियंका रेड्डी के साथ भी उतना ही जघन्य अपराध हुआ है और एक बार फिर पूरा देश गम और गुस्से में उबल रहा है । गुनहगारों को सरेआम फांसी देने सब तरफ से उठ रही है। क्या आम क्या खास सब यह सवाल उठा रहे हैं कि आखिरी ऐसे सख्त कानून का क्या फायदा जो सजा देने में बरसों लगा दे और उस पर अमल की कोई सूरत नजर आती हो। रेप के गुनहगारों को फांसी की सजा की खबर पढ़़ और सुनकर लोग अब यह कहने लगे हैं कि आखिर इन पर अमल कब होगा? हैदराबाद की सड़कों पर गु़नहगारों को खुद सजा देने के लिए उमड़ी भीड़ लोगों का भरोसा उठने का प्रतीक ही कहा जाएगा। निर्भया और डा. प्रियंका रेड्डी से हुए गुनाह के बीच सैकड़ों ऐसे ही मामले सामने आए हैं, एनसीआरबी के ताजे आंकड़े बताते हैं कि हर राज्य में ज्यादती के मामले बढ़ रहे हैं। निर्भया कांड के बाद मंदसौर में एक सात साल की मासूम से हुई दरिंदगी की वारदात ने भी पूरे देश को ऐसे ही उद्वेलित किया था। लेकिन इसकेे बाद ऐसी घटनाओं का सिलसिला थमा नहीं।  मंदसौर के बाद सतना, भोपाल और जगह जगह लगभग हर दिन दुष्कृत्यों की खबरें कैंडल मार्च, सियासत, फांसी की सजा का एेलान और पकड़े गए दुराचारियों पर पुलिस की थर्ड डिग्री के वायरल वीडियोज के बावजूद यह वारदात थम नहीं रहीं। आखिर क्यों? इस सवाल के कई प्रमुख कारणों में से एक पर न सियासत और न ही समाज सुधारक मंचोंऔर न ही मीडिया में ज्यादा चर्चा हो रही है। यह विष्ाय है वासना को आत्मघ्ााती बना रहा नंगेपन का कारोबार। मुफ्त डॉटा के बोनांजा की हर दिन नई सेल के इस दौर में विश्व व्यापी यौन दृश्यों का कारोबार यानी पोर्नोग्राफी भारत में लगभग हर मोबाइल धारक के मोबाइल पर नॉक कर रहा है। भारत के इंटरनेट यूजर्स दुनिया के उन टॉप टेन देशों में शुमार हैँ जो मोबाइल का ज्यादातर उपयोग पोर्नोग्राफी देखने में करते हैं। भारतीय सामग्री भी वहां लगातार बढ़ रही है। हालात कितने खतरनाक हो चुके हें, यह इसी बात से पता चलता है कि हैदराबाद में प्रियंका रेड्डी की यौनाचार के बाद जघन्य घटना के सामने आने के बाद तीन दिन में 80 लाख लोगों ने पोर्न साइट्स पर हैदराबाद गैंगरैप को सर्च किया। यानी लोग इस जघन्य कांड में गैंगरैप का वीडियो देखना चाह रहे थे। यह हमारे समाज में मानसिक जहर और उससे होने वाले ऐसे जघन्य अपराधों के गहरे पैठने  का सबूत है। अपराध करने और उसका वीडियो बनाकर उसे बेचने और सार्वजनिक करने का यह घिनाैना अपराध और कारोबार जारी है और सरकार कुछ नहीं कर रही।                                                              इंटरनेट के संजाल ने पूरी दुनिया में ज्ञान और सूचना के आदान प्रदान को न केवल आसान बनाया है बल्कि यह रोजमर्रा के कामकाज में भी प्रभावीशाली परिवर्तन का माध्यम भी बना है। कारोबार को तो मानो पंख ही लग गए हैं। पूरी दुनिया में ऑनलाइन कारोबार लगातार बढ़ रहा है। भारत में भी यह एक बड़ा बाजार और कारोबार के गेमचेंजर के रूम में सामने आया है। इसका दूसरा पहलू उतना ही भयावह है। इंटरनेट पर तीस से पैंतीस फीसदी सामग्री पोर्नोग्राफी है। फ्री डाटा और ओपन एसेस ने 10 रुपए में मोबाइल रिचार्ज करवा सकने वालों तक के दिमाग में यह पोर्नोग्राफिक गंदगी घुस रही है। कुछ अर्से पहले मैक्स हॉस्पिटल के एक सर्वे में पाया गया था कि भारत महानगरों के 47 फीसदी विद्यार्थी आपस में पोर्न की बात करते हैं। लेकिन इस सर्वे से आगे की भयावह हकीकत यह है कि सुदूर गांव-देहात में रहने वाले मजदूर और अति गरीब तबके तक यह इंटरनेट प्रेषित जहर फैल चुका है। आए दिन यौन अपराध के वीडियो अपलोड किए जाने और अपलोड किए जाने की धमकी देकर दुष्कृत्यों की खबरें आम हो चुकी हैं। वीडियो अपलोड करने के लिए खुलेआम छेड़छाड़ की वारदात की संख्या बढ़ती जा रही है। किस प्रदेश में ऐसे अपराधों की दर्ज संख्या और वहां किस दल की सरकार है, इस पर सियासत भी बढ़ रही है, लेकिन इसे रोकने को लेेकर सही मायने में काेई चिंतित नजर नहीं आ रहा है। यह भयावह है।

सवाल ये है कि मासूम बच्चियों से दुष्कृत्य करने वालों को फांसी की सजा मुकर्रर करने के बावजूद इसकी जड़ पर लगाम लगाने में सरकारें क्यों कुछ नहीं कर रही हैं? एनडीए के पहले कार्यकाल यानी वाजपेयी सरकार के वक्त तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री सुष्ामा स्वराज ने पोर्नोग्राफी परोसने वाले विदेशी चैनल बंद करवा दिए थे। उन्होंने इंटरनेट पर इस कारोबार को रोकने की भी मुहिम शुरू की थी लेकिन आजादी गैंग को यह निजता के अधिकार का उल्लंघन लगा था। यूपीए की सरकार के दो कार्यकाल में पोर्नोग्राफी पर लगाम लगने के बजाय यह बढ़ती गई और वर्तमान एनडीए-टू में यह कई गुना बढ़ चुकी है, क्योंकि अब इस विष बेल के परवान चढ़ने के लिए वन जीबी डॉॅटा फ्री जैसे प्लान हर मोबाइल कंपनी के पास हैं और बाजार में 500 रुपए के स्मार्ट फोन भी हाजिर हैं। कुछ भी वर्जित नहीं। इंदौर हाईकोर्ट ने एक याचिका पर फैसले में 850 पोर्न बेवसाइट्स पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया था लेकिन यह न हो सका, क्योंकि आजादी गैंग ने इसे संविधान में दिए गए अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार अनुच्छेद 21 के खिलाफ बताया। केंद्र की सरकार ने कुछ पोर्न साइटस को बैन किया भी लेकिन 99 फीसदी कंटेंट उपलब्ध है। डिजिटल इंडिया के सपने का यह बेहद बदसूरत चेहरा है कि देश में सबको दो वक्त की रोटी मिले न मिले मुफ्त डाटा के जरिए नंगापन भरपूर उपलब्ध है। केंद्र सरकारों इस मामले को लेकर रवैया बेहद
चिंताजनक है।
मासूमों से सामूहिक दुराचार की दिल को चीरकर रख देने वाली वारदातों के बीच हमारे समाज की यह सर्व स्वीकार्यता भी बेहद घातक प्रवत्ति है कि हमारे यहां पोर्न स्टार सनी लियोनी भी फिल्मों की नायिका बन जाती है और चल भी पड़ती है। वीरे की वेडिंग जैसी फूहड़, शर्मनाक और गलीज फिल्में भी करोड़ों की कमाई करती हैं, ये सब आजादी के नाम पर बन, चल और बिक रहा है। हम इस तरह के कारोबार को चलने देने और दुराचार के खिलाफ एक ही तरीेके से मोमबत्ती मार्च निकालने वाला समाज बन गए हैं। क्या किसी एक घटना पर आक्रोश जताने के बाद फिर किसी ऐसी घटना पर फिर ऐसा ही प्रदर्शन करते जाना और जड़ की तरफ से आंखें फेर लेना बतौर समाज हमें आत्म निंदा की तरफ नहीं धकेल रहा है। यह सब एक दिन में नहीं हो गया है। बीते करीब डेढ़ दशक में यह लगातार पसरता गया है। एक प्रदेश की विधानसभा में सदन के अंदर माननीय विधायकों का मोबाइल पर पोर्न दर्शन भी यह देश नहीं भूला है। उनके निलंबन की खबरें भी सुर्खियां बनी थीं। दुराचार की घटनाओं की लगातार आ रही खबराें के बीच जरूरत इस बात की है कि न केवल पोर्न साइटस को पूरी तरह बैन किया जाए बल्कि खुलेआम फलफूल रहे नशे के कारोबार पर लगाम लगाई जाए। सोश्यल मीडिया के नाम पर पोर्नोग्राफी की साझेदारी और अफवाहें फैलाने के नेटवर्क को तोड़ना भी बहुत जरूरी है। क्योंकि जघन्य अपराधों को किसी जाति विशेष या मजहब विशेष से जोड़कर ऐसे पापाचार पर लगाम के बजाय समाज को तोड़ने में भी इस्तेमाल हो रहा है और यह सब कुछ आजादी के नाम पर। बाकी देश और सरकाराें को भी सोचना होगा कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर यह सब कैसे चलने दिया जा सकता है?आखिर किसकी आजादी? ऐसी आजादी से क्या मिल रहा है? सरकार अगर सीमापार से आने वाले आतंक को मिटाने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक के शौर्य का बखान कर जनता का भारी समर्थन हासिल कर रही  है तो उसे पोर्नोग्राफी और नशे के कारोबार पर भी इसी तरह सर्जिकल स्ट्राइक की हिम्मत दिखाने होगी, यह संभव है और जो इसका विरोध करेंगे वे एक बार फिर बेनकाब होंगे, उन्हें अलग-थलग करना ही होगा। वर्ना शक्तिशाली भारत, विकसित राष्ट्र भारत,स्वामी विवेकानंद के सपनों का भारत बनाने और फिर विश्व गुरू बनने की बातें जुमले से ज्यादा कुछ नहीं मानी जाएंगी। उम्मीद की जाना चाहिए कि सरकार अब इस सर्जिकल स्ट्राइक की तैयारी कर एक दिन ऐलान करेगी, क्या ऐसा होगा?



न्याय में देरी से पनप रहा असंतोष, अराजकता हालात का समर्थन नहीं किया जा सकता -सतीश एलिया

                                                                                                                                      बीते एक पखवाड़े में देश ने महिलाओं के प्रति अपराध का जो वीभत्स चेहरा देखा, उसे लेकर जो आक्रोश देखा और एक मामले में वारदात के एक हफ्ते बाद ही आरोपियों के कस्टडी एनकाउंटर से जो खुशी की अभिव्यक्ति सामने आई और अब एनकाउंटर और खुश होने पर सवाल भी सामने हैँ। यह पूरा घटनाक्रम गंभीरता से सोचने पर विवश करता है। न केवल आपराधिक प्रवृत्तियों के लगातार बढ़ते जाने से बल्कि हमारे सामाजिक बदलाव पर भी चिंतन की जरूरत है। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के साथ क्या हमारे कानूनी प्रावधान खरे उतरे हैं? यह सवाल भी विचारणीय है। देश की अदालतों में साढ़े तीन करोड़ से ज्यादा मामले पेंडिंग हैं। हैदराबाद में रेप और हत्या के चार आरोपियों का एनकाउंटर असली था या पूर्व नियोजित यह तो जांच का विषय है ही लेकिन जिस तरह आम आदमी के अलावा प्रबुद्ध माने जाने वाले वर्ग ने त्वरित प्रतिक्रिया में खुशी जाहिर की, वह क्या बतलाता है? सबके अवचेतन में यह बात गहरे पैठ गई है कि पीड़ित को न्याय मिलने के हमारे सिस्टम में जो प्रक्रियागत देरी है, वह न्याय पर भरोसा कायम रखने में विफल होती दीख रही है। अब भारत के नवागत मुख्य न्यायधीश शरद अरविंद बोबेड़े की टिप्पणी कि इंसाफ अगर बदले में तब्दील हुआ तो अपना चरित्र खो देगा, निश्चित ही त्वरित बदले की जनभावना और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को बनाए रखने की चुनौती हमारे सामने हैं। अलबत्ता यह तकनीकी रूप से एनकाउंटर में आरोपियों के मारे जाने का मामला है, जिस एनकाउंटर पर सवाल हैं और जांच होना शेष है, फिर भी इसे न्याय या बदला माना जा रहा है तो यह भी चिंतनीय हैँ। दूसरी तरफ यह भी सच है कि कार्यपालिका और व्यवस्थापिका पर जनता का भरोसा अत्यंत कम है और वह आज भी सर्वाधिक उम्मीद न्यायपालिका पर ही लगाए रहती है। पीड़ित व्यक्ति जब थक हार जाता है तो वह यही कहता है कि मैं तुम्हें अदालत में देख लूंगा। यह उम्मीद ही तो कि कोई नहीं तो अदालत से न्याय मिल पाएगा। यानी न्याय पर भरोसा भारतीय जनमानस में अभी कायम है, अपवाद हो सकते हैं। लेकिन यह भरोसा बार बार डगमगाता रहता है क्योंकि हमारी अदालतों के काम करने का तरीका अत्यंत धीमा है। फार्स्ट ट्रैक कोर्ट और तेजी से सुनवाई के तमाम प्रयासों के बावजूद लंबित मामलों की फेहरिस्त इतनी लंबी है कि न्याय की आस मंद पड़ना अस्वाभिक नहीं हैं।  देश की अदालतों में साढ़े तीन करोड़ से ज्यादा मामले पेंडिंग हैं। इनमें से 40 हजार से ज्यादा तो ऐसे हैं जो तीन दशक यानी 30 साल से ज्यादा वक्त से फैसले के इंतजार में हैं। देश के उच्चतम न्यायालय में ही करीब 60 हजार मामले पेंडिंग हैं।                                                          रेप के एक लाख से ज्यादा मामले पेंडिंग                                                  हमारे देश की अदालतों में रेप के एक लाख सात हजार से ज्यादा मामले पेंडिंग हैं।  इनमें से 96 फीसदी मामले पोक्सो एक्ट के हैं यानी नाबालिगों से ज्यादती के। यह आंकड़े बताते हैं कि ज्यादती की वारदातों के सर्वाधिक शिकार नाबालिग हो रहे हैं और ऐसे अपराध करने की मानसिकता वालों में कोई खौफ नहीं है। देश के सर्वाधिक चर्चित निर्भया कांड के दोषियों को सजा होने के बावजूद अब तक फांसी नहीं मिलने से भी लोगों में आक्रोश है। आलम यह है कि अब राष्ट्रपति को भी यह कहना पड़ा कि पोक्सो के मामलों में दया याचिका का प्रावधान खत्म होना चाहिए। मुझे लगता है जिन मामलों में कई अदालतों में सालों चली सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट से अंतिम फैसला हो चुका है, उनमें से किसी में भी दया याचिका का प्रावधान क्याें होना चाहिए?                                                                           भारतीय अदालतों में 3.53 करोड़ से अधिक मामले लंबित 
नवीनतम आर्थिक सर्वेक्षण में अनुमान लगाया गया है कि पांच साल के भीतर लंबित मामलों को निपटाने के लिए लगभग 8,521 न्यायाधीशों की ज़रूरत है।लेकिन उच्च न्यायालय और निचली अदालतों में 5,535 न्यायाधीशों की कमी है। सर्वोच्च न्यायालय में आज की तारीख़ में न्यायाधीशों की संख्या 31 है। लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय को आठ अतिरिक्त न्यायाधीशों की आवश्यकता है।

'नेशनल जूडिशरी डेटा ग्रिड' के मुताबिक़ 43,63,260 मामले उच्च न्यायालयों में लंबित हैं। मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने इस बात को रेखांकित किया था कि ज़िला और सब-डिविज़नल स्तरों पर स्वीकृत न्यायाधीशों की संख्या 18 हजार है। लेकिन मौजूदा संख्या इससे कम 15 हजार ही है. दिल्ली उच्च न्यायालय के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश का कहना था कि जिस गति से मामलों को निपटाया जा रहा है, उस हिसाब से लंबित आपराधिक मामलों को निपटाने के लिए 400 साल लग जाएंगे। वह भी तब जब कोई नया मामला ना आए।
हर साल मुक़दमों की संख्या बढ़ रही है, उसी हिसाब से लंबित मामलों की संख्या बढ़ रही है। इससे 'न्याय में देरी यानी न्याय देने से इंकार' की धारणा बलवती हो रही है। अदालतों में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या से न्यायाधीश बोबड़े को चिंतित होना चाहिए। उनकी भी प्राथमिकता यह पेंडेंसी कम करने की होगी।                                                                                               आयोग का सुझाव लेकिन अमल नहीं
साल 1987 में विधि आयोग ने सुझाया था कि प्रत्येक दस लाख भारतीयों पर 10.5 न्यायाधीशों की नियुक्ति का अनुपात बढ़ाकर 107 किया जाना चाहिए। लेकिन आज ये अनुपात सिर्फ़ 15.4 है.