सतीश एलिया मजहब के आधार पर भारत के विभाजन के दंश के 24 बरस बाद यानी अब से 38 बरस पहले दुनिया के नक्शे पर एक नए राष्ट्र बांग्लादेश का अभ्युदय हुआ। यह भारत विभाजन से अलग मुल्क बने पाकिस्तान का वो हिस्सा था, जिसे पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था और पाकिस्तानी हुक्मरानों से लेकर वहां की फौज तक इससे न केवल दोयम व्यवहार करते थे, बल्कि बांग्ला भाषा, साहित्य और संस्कृति को तिरस्कृत करने के प्रयास में लगे रहते थे। इस उत्पीड़न से मुक्ति की प्रबल उत्कंठा वहां के जन जन के मनोमस्तिष्क में धी लेकिन फौज के दमन से मुकाबला करने की सामर्थ्य जुटाने में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के बांग्ला मानुष खुद को असहाय सा पा रहे थे। ऐसे हालात में भारत का नेतृत्व श्रीमती इंदिरा गांधी कर रही थीं। उन्होंने दुनिया की परवाह किए बगैर अपने लौह इरादों का परिचय देते हुए बांग्ला मुक्ति वाहिनी को अपना समर्थन दिया। इंदिराजी के नेतृत्व में भारतीय फोजों ने बांग्ला देश की मुक्ति की कामना को हकीकत में तब्दील कर दिया। उस वक्त इंदिरा जी के सामर्थ्य और दृढ़ इरादे ने दुनिया में भारत का डंका बजा दिया था। 1971 में जब ढाका में पाकिस्तान के 90 हजार से ज्यादा सैनिकों को भारी फौज और रसद होते हुए भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की फौज के सामने विवश होकर हथियार डालने पड़े। शौर्य की इस असाधारण गाथा ने न केवल एशिया बल्कि दुनिया का नया इतिहास ही नहीं रचा, बल्कि जुगराफिया ही बदल डाला। इस ऐतिहासिक घटनाक्रम ने यह साबित किया कि मजहब के आधार पर भारत का विभाजन कर पाकिस्तान बनाना गलत कदम था। बांग्ला देश का उदय मजहबी आधार पर दो राष्ट्र बनाने के 1947 के फैसले को खारिज करने वाला था। बांग्लादेश के उदय ने यह सिद्ध किया कि संस्कृति और भाषा का आधार अधिक प्रामाणिक और चिर प्रासंगिक होते हैं।
तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी केे नेतृत्व में भारत की इस शौर्य-गाथा पर विमर्श करते हुए हमें उस घटनाचक्र को भी देखना होगा जो इसकी बुनियाद बना। बार-बार फौजी तख्तापलटों से गुजरते पाकिस्तान के कथित लोकतंत्र में 70 के दशक के आखिरी साल में जब चुनाव हुए तब शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी पार्टी को बहुमत मिला। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो को ‘बंग बंधु’ की यह जीत मंजूर नहीं थी। पाकिस्तान की सरकार और सेना, जिस पर पाकिस्तान के पंजाबियों का शिकंजा मजबूत रहा है, फौजी हुक्मरान को ऐसा लगने लगा कि इन दलों की टकराहट से निजाम पर फौज का शिकंजा कसा रहेगा। इस नीयत ने पाकिस्तानी फौज को, जिसका एक हिस्सा उस समय पूर्वी पाकिस्तान कहे जाने वाले यानी भारत विभाजन के पहले के पूर्वी बंगाल में दमन के लिए हमेशा जुटा रहता था, बांग्ला संस्कृति और भाषा को वरीयता देने वाले बंगालियों पर कहर ढाने के लिए उकसा दिया। महीनों तक यह सिलसिला चला। दमन से प्रताड़ित लाखों शरणार्थी भारत में आ गए। भारत के सामने कई तरह की समस्याएँ उठ खड़ी हुईं। जैसे-जैसे पाकिस्तानी सेना का दमन बढ़तर गया वैसे-वैसे पूर्व पाकिस्तान के साढ़े सात करोड़ बंगालियों की सहन शक्ति जवाब देती गई। बांग्ला मुक्तिवाहिनी ने करो या मरो जैसे पक्के इरादे के साथ अपना मुस्तकबिल खुद तय करने का संग्राम छेड़ दिया। मुक्तिवाहिनी और बंगालियों के साथ पाकिस्तानी फौज की क्रूरता बढ़ती जा रही थी। खून बहाया जा रहा था। बलात्कार किए जा रहे थे। जुल्म ज्यादतियों की कोई इंतिहा ही नहीं थी। लेकिन जैसे-जैसे जुल्म बढ़ता गया वैसे - वैसे संकल्प भी मजबूत होता गया। आखिरकार 26 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान के बंगालियों ने अपने को स्वतंत्र बांग्ला देश घोषित कर दिया। उनका संकल्प गरीबी, भूख और पश्चिमी पाकिस्तान की गुलामी से मुक्ति पाकर अपना वर्तमान सँवारते हुए भविष्य को खुशहाल बनाने का था। इन हालात में गौरतलब यह भी था कि लोकतंत्र की बड़ी-बड़ी बातें कर ने वाले अमेरिका और यूरोप के ज्यादातर देश लोकतंत्र के हत्यारे पाकिस्तान का पक्ष ले रहे थे, ऐसी परिस्थितियों में भी भारत ने पूरी ताकत से पूर्वी पाकिस्तान के बंगालियों के मुक्ति संग्राम में उन का साथ दिया। इस अभियान का लौह नेतृत्व स्वयं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कर रही थीं। उन्होंने लोकनायक जयप्रकाश नारायण और प्रतिपक्ष के प्रमुख नेताओं का समर्थन भी लिया। दुनिया को जताया कि पाकिस्तान मानवता की नृशंस हत्या की सारी सीमाएँ लाँघ चुका है और भारत के लिए यह लोकतंत्र, मानवता कर साथ देने का वक्त है, और भारत इससे पीछे नहीं हटेगा।
उस वक्त के युद्ध के हालात के बारे में उपलब्ध जानकारियां बताती हैं कि पाकिस्तानी फौज की मदद के लिए हिन्द महासागर में आए अमेरिकी युद्धपोत - सातवाँ बेड़ा - को किस तरह अपमानित होकर वापस लौटना पड़ा था। इस मुक्ति संग्राम में इंदिराजी के लौह नेतृत्व और अदम्य साहस का ही नतीजा था कि अंततः पाकिस्तान की कुचाल 3 दिसंबर 1971 को सामने आई जब उसकी फौजों ने भारत की पश्चिमी सीमा पर हमला बोल दिया। अब भारत को खुलकर अपनी फौज को युद्ध के मोर्चों पर उतारने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। इंदिराजी ने उस कठिन दौर में कठोर निर्णय लेने की मिसाल पेश की। उन्होंने फील्ड मार्शल जनरल मानेकशों को फौजी कार्रवाई करने की इजाजत दी। पूरब और पश्चिम दोनों मोर्चों पर भारतीय फौज ने जवाबी कार्रवाई करते हुए पाकिस्तानी फौज के मंसूबों को रौंदना शुरू कर दिया। दो सप्ताह से भी कम समय में पश्चिमी मोर्चे पर जहाँ भारत की फौज ने लाहौर तक धमक दे दी। दूसरी तरफ पूर्वी मोर्चे पर पाकिस्तानी सेना को इस तरह घेरा कि लेफ्टिनेंट जनरल ए.ए.के. नियाजी को हथियार डालने पर मजबूर होना पड़ा। पाकिस्तान की कमर टूट चुकी थी। 16 दिसंबर 1971, भारतीय इतिहास का वह स्वर्णिम दिन है जब ढाका में भारतीय सेना के सेनापति लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी ने समर्पण पत्र पर हस्ताक्षर किए और आत्मसमर्पण करते हुए अपनी आधिकारिक रिवाल्वर उनके सामने डाल दी। नियाजी को इससे पहले घंटों हाथ बांधे खड़े रहना पड़ा था। किसी भी सेना और सेनापति के लिए यह क्षण अपमान और लज्जा का सबसे भीषण काल होता है।
इस महान शौर्य-गाथा का श्रेय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के फौलादी नेतृत्व को है। महान बांग्ला मुक्ति अभियान की सफलता के बाद संसद में जब इंदिरा जी को बधाई दी जा रही थी तब कविवर हरिवंश राय बच्चन ने यह शे’र पढ़ा था -
‘‘उसकी बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर,
वो तो अच्छा हुआ अंगूर के बेटा न हुआ।’’
उस समय प्रतिपक्ष के सर्वाधिक मुखर नेता जो बाद में भारत के प्रधानमंत्री बने श्रीमान अटल बिहारी वाजपेयी ने भारतीय फौजों की महान सफलता और इंदिरा जी के सक्षम नेतृत्व की तहे दिल से सराहना की थी। दिलचस्प यह कि पक्ष और विपक्ष दोनों ओर से अटल जी पर ताने कसे जाते रहे कि उन्होंने इंदिरा जी को दुर्गा कहा है। बताते हैं कि काफी समय बाद अटल जी ने खुलासा किया कि इंदिरा जी ने उनसे सहयोग का अनुरोध करते हुए कहा था कि वे गुरु जी यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया गुरू गोलवलकर के पास नागपुर जाएँ और उन्हें बताएँ कि हमने पाकिस्तान के दो टुकड़े करने का फैसला कर लिया है। हमें उनके सहयोग और समर्थन की आवश्यकता है। यह संदेश मिलते ही गुरु जी भाव विभोर हो उठे और उनके मुख से निकला - वो तो दुर्गा है, वो तो दुर्गा है।
एक नये देश का निर्माण और क्रूर फौजी ताकत की बर्बरता को कुचलना, ऐसे ही समवेत संकल्प की दरकार करता है और तभी कोई शौर्य की महागाथा रची जाती । भारत के इतिहास में 16 दिसंबर निश्चित ही वो दिन है जिस दिन भारत ने न केवल महागाथा रची बल्कि भारत के विभाजन के आधार को गलत साबित कर एक नए देश का अभ्युदय हुआ और इसका पूरा श्रेय तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को जाता है।