सोमवार, 16 नवंबर 2009

बीमार भाजपा को कुनैन मोदी चाहिए

आदमी ही नहीं संगठन, संस्थाएं, देश और समाज बीमार होते हैं। कम से कम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नौजवानवादी मुखिया मोहन भागवत तो यही प्रतिपादित करते दिख रहे हैं। जब संघ के मुखिया कह रहे हैं तो यह डायग्नोस हो चुका है कि संघ पुत्री भाजपा बीमार है। बीमार के इलाज के लिए दो चीजें जरूरी हैं एक कुशल चिकित्सक और दूसरा कारगर औषधि। जैसी कि चर्चा खुलेआम हो रही है कि महाराष्ट के नितिन गडकरी को स्वस्थ्य और ताकतवर भाजपा गढने की जिम्मेदारी मिलने वाली है। अब सवाल ये है कि भारतीय जनता पार्टी की बीमारी का क्या सही डायग्नोस किया गया है, और क्या डा. गडकरी कारगर चिकित्सक साबित हो सकेंगे। मुझे लगता है कि न तो ठीक से डायग्नोस ही किया गया है और न ही गडकरी या अन्य ऐसा कोई राज्य स्तरीय नेता जिसकी राष्टीय छवि न हो सही चिकित्सक साबित होगा। असल में भारतीय जनसंघ और उसके अगले अवतार भारतीय जनता पार्टी की जनता में स्वीकार्यता के लिए दो ही नेता जननेता के बतौर स्थापित हुए थे और आज भी पार्टी उनके दायरे से बाहर नहीं निकल पाई है। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की युति ही भाजपा की असल ताकत थी। ऐसा नहीं है कि इन दोनों नेताओं के अलग अलग खेमे भाजपा में नहीं बने थे। वे बने थे लेकिन इसके बावजूद अटल और आडवाणी एक दूसरे के पूरक थे और दोनों की युति से ही भाजपा को दिल्ली से लेकर अटारी खेजडा, पिपरिया और आमगांव तक में कार्यकर्ताओं का प्राणपण समर्पण हासिल हुआ था। इसमें संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों की साइलेंट सी नजर आने वाली मगर प्रखर भूमिका भी थी। लेकिन भाजपा में अटल-आडवाणी के बाद जो दूसरी पीढी उभरी उसमें दो नहीं एक दर्जन नेता थे, जाहिर है दो के बीच वर्चस्व का संघर्ष होते हुए भी एका दिखता रहा, बना रहा लेकिन एक दर्जन लोगों के बीच वैसा नहीं हो सका। क्योंकि अरूण जेटली, राजनाथ सिंह, उमा भारती, प्रमोद महाजन, नरेंद्र मोदी, कल्याण सिंह, नरेंद्र मोदी, सुषमा स्वराज, गोविंदाचार्य, वेंकैया नायडू सरीखे नेताओं की वर्चस्व मंशा के पीछे शहरी, ग्रामीण, सवर्ण, ओबीसी, संघमूल गैर संघमूल, अन्य दलों से आए जैसे कई तंबू और विरोधाभास थे। इस पूरी की पूरी पीढी ने एक दूसरे को निपटाने के लिए दुरभिसंधियों, भितरघातों का सहारा लिया। इसमें मीडिया के इस्तेमाल और अटल आडवाणी खेमों को बकायदा हथियार की तरह प्रयोग किया। गोविंदाचार्य का पलायन, कल्याण सिंह का निष्कासन, उमा भारती का सत्तारोहण और बाद में हटा दिया जाना, निष्कासन इन्हीं संघर्षों के नतीजे रहे। लेकिन इस सबके बीच केवल नरेंद्र मोदी ही ब्रांड बन पाए। उन्होंने अपनी खास शैली, खास पहचान और ताकत न केवल विकसित की बल्कि वे उसका लगातार लोहा भी मनवाते रहे। उन्हें कोई उमा भारती की तरह मैदान से हटा नहीं पाया। बाकी दूसरी पंक्ति के नेताओं का न तो उतना आभामंडल बन पाया और न ही वे भाजपा को राष्टीय स्तर पर अटल आडवाणी की तरह एकजुट रख पाने के योग्य बन पाए। दूसरी पंक्ति के छिन्न भिन्न होने की वजह से आज भाजपा के पास सिवाय नरेंद्र मोदी के कोई नेता ऐसा नहीं है जो निराश कार्यकर्ता को जोश से भर दे और जिसके इशारे पर वे फिर पार्टी में रक्तसंचार कर दें। यह हकीकत भाजपा के दूसरी पीढी के जनरथ विहीन नेताओं को बुरी लग सकती है, लेकिन कार्यकर्ता और भाजपा के समर्थक नरेंद्र मोदी के अलावा कोई और विकल्प पार्टी को वापस ताकतवर बनाने के लिए नहीं देखते हैं। भाजपा के इतर दलों को मसलन एनडीए के घटक दलों को मोदी भले न सुहाएं, कुनैन लगे लेकिन मलेरिया ग्रस्त भाजपा को यही कुनैन मुफीद बैठेगा। भाजपा को राजग बचाने की नही ख़ुद को बचाए रखने की चिंता करना होगी , जहां तक गडकरी को अध्यक्ष बनाने की बात है तो वे मोहन भागवत के जेबी भाजपा अध्यक्ष से ज्यादा साबित नहीं होंगे। अंततः भाजपा को अगर फिर लौटना है तो उसे मोदी का कुनैन लेना ही होगा, अन्यथा आगे हार और भी इंतजार kijiye अगले chunav तक।

3 टिप्‍पणियां:

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

आपके आलेख को पढ़ा, बहुत ही सटीक तरीके से आपने अपनी बात कही है।

इस समय भाजपा को राष्‍ट्रीय नेतृत्‍व के रूप में एक राष्‍ट्रीय नेता की जरूरत थी, यह वही हाल होगी कि जैसे गोरखपुर के जिला अध्‍यक्ष को प्रदेश अध्‍यक्ष बना दिया गया और भाजपा उत्‍तर प्रदेश में कमजोर हो गई, वैसे ही अब महाराष्‍ट्र के प्रदेश अध्‍यक्ष को राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष बनाया जा रहा है।

गडगरी जी सफल हो ऐसी कामना है।

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सही लिखा आप ने.
धन्यवाद

निशाचर ने कहा…

बिलकुल ठीक. इस वक़्त राजग नहीं बल्कि भाजपा की चिंता की जानी चाहिए. यदि भाजपा मजबूत होती तो नवीन पटनायक लोकसभा चुनावों से ठीक पहले पीठ में छुरा घोपने वाला दांव चलने की हिम्मत न कर पाते. भाजपा मजबूत होगी तो साथ आने वालों की कमी नहीं होगी.