शनिवार, 25 जुलाई 2009
नेपाल से ही ले लीजिए सीख
नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने उपराष्ट्रपति परमानंद झा की शपथ को खारिज करते हुए उन्हें फिर से शपथ लेने का आदेश दिया है। वजह झा ने देश की राष्ट्रभाषा नेपाली के बजाय हिंदी में शपथ ली थी। नेपाल में राष्ट्रपति रामबरन यादव भारतीय मूल के हैं और उपराष्ट्रपति भी भारतीय मूल के हैं, वह भी हिंदी भाषी। यादव ने खुद भी नेपाली में शपथ ली थी और झा को भी दिला रहे थे लेकिन झा ने उसे हिंदी में दोहराया। नेपाली सुप्रीम कोर्ट का फैसला तारीफे काबिल है। आप या हम कोई भी भाषी हों लेकिन किसी भी संप्रभु राष्ट्र की एक ही आधिकारिक राष्ट्रभाषा होना चाहिए है, होती भी है। लेकिन हमारे यहां राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्री स्वतंत्र हैं कि वे राष्ट्रभाषा हिंदी में चाहें तो शपथ लें और चाहें तो न लें। हमारे यहां गैर हिंदी भाषी और कई बार हिंदी भाषी भी अंग्रेजी में शपथ लेते हैं। जो देश के किसी भी हिस्से की भाषा नहीं है, जो उनकी राष्ट्रभाषा है जिन्होंने हमें दो सदी गुलाम रखा, हम उसमें शपथ लेते हैं और कोई शर्म भी महसूस नहीं करते। नेपाल भले छोटा देश हो और लोकतंत्र भी वहां अभी नन्हीं उम्र का हो लेकिन राष्ट्रभाषा के मामले मंे तो वह विश्व के सबसे बडे लोकतंत्र का दम भरने वाले भारत से श्रेष्ठ ही साबित हुआ है। विश्व मंच पर चीनी राष्ट्रपति, जापानी राष्ट्रपति, इटली, फ्रांस और रूस के राष्ट्रपति जब अपने देश की राष्ट्रभाषा में बोलते हैं तो उनकी बात पूरी ताकत से सुनी जाती है। लेकिन हमारे सत्ता प्रमुख अंग्रेजी में बोलते हैं और सोचते हैं हम अंतरराष्ट्रीय हो गए हैं। अंग्रेजों की गुलामी से सौ साल के संघर्ष के बाद आजाद हुए 62 साल बाद भी हमें भाषा के मामले में कोई शर्म नहीं आ रही है, यह कैसी गुलामी हमने गले में बांध ली है, जिसका कोई अंत नजर नहीं आता। जब अंग्रेजी से कोई गुरेज नहीं तो भैया अंग्रेजों से संघर्ष क्यों किया। यह कुतर्क जरूर दिए जाते हैं कि विकास करना है तो अंग्रेजी अपनाना होगी। अपनाओ न भैया, लेकिन क्या आप 62 साल में चीन और जापान से ज्यादा विकसित हो गए हो? अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय भाषा सरीखा दर्जा पा चुकी है, इसमें कोई दो राय नहीं है और न ही उसकी खिलाफत करना ही कोई समझदारी है। लेकिन हम अपनी राष्ट्रभाषा से उपर रखें उसे यह तो शर्मनाक ही है। हमारे नीति निर्धारकों को, संविधान में सैकडों संशोधन कर चुकी संसद को नेपाल से सब लेकर यह व्यवस्था करना चाहिए कि शपथ राष्ट्रभाषा में ही होगी, अंग्रेजी में तो कतई नहीं होगी। हिंदी दिवस, हिंदी पखवाडा बनाने का सालाना क्रियाकर्म पर लाखों रूपए खर्च करने वाली सरकार, सरकारी उपक्रमों में करोडों रूपए खर्च कर सफेद हाथी की तरह राजभाषा विभाग चलाने वाली सरकार नेपाल की तरह संविधानिक व्यवस्था कर राष्ट्रभाषा को यथोचित सम्मान दिलाएगी! सुन रहे हैं सांस्क्रतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा प्रतिपक्ष के नेता माननीय लालक्रष्ण आडवाणी जी, सुषमा जी, लिखित मं ही सही जोरदार हिंदी में भाषण देने में पारंगत हो चुकीं यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी जी, हाल ही में गिलानी से शर्म अल शेख में कूटनीतिक पटखनी खाकर लौटे सरदार मनमोहन सिंह जी, शरद यादव जी, मुलायम सिंह जी, लालूप्रसाद यादव जी, और तमाम महानुभाव जो संसद को सुशोभित करते हैं।
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5 टिप्पणियां:
ऐसा ही स्वाभिमान होता तो गुलाम होते?
चालाक लोग दूसरों की गलतियों से सीख लेते हैं; मूरख गलती करके उसे बार-बार दुहराता है।
सही है जी
नेपाल ने जो किया उसमें अपनी भाषा को सम्मान दिलाने की ख्वाहिश कम और भारत विरोध को मुखर करना अधिक था । पूरी तरह भारत की सहायता पर जी रहे नेपाल में भारत विरोध एक राजनीतिक जरूरत बन गया है । भारतीय संविधान ने नेपाली भाषा को मान्यता दी है और भारत में नौकरियों में नेपाली नागरिकों को समान अवसर मिलते हैं मगर इसके बदले हमें नफरत मिलती है । मेरे हिसाब से अपनी भाषा को सम्मान दिलाने के लिये हमें रूस, जर्मनी और जापान जैसे देशों से मिसाल लेने की जरूरत है । नेपाल सरीखे एहसान फरामोश मुल्क को तो अपनी हदों में रहना सिखाना होगा ।
satya vachan aliyaji...
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