शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

mohammad शाह रंगीले को याद करते हुए

दिल्ली के रंग जुदा हैं, कहा जाता है कि दिली तो बेदिल वालों की है, इसका मतलब हुआ है कि दिल वालों के लिए नहीं है दिल्ली या दिल्ली दिल वालों की नहीं है। कुछ भी हो महाभारत की जन्म भूमि हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ भी दिल्ली है और गुलाम वंश, लोदी वंश, मुगलों की भी रही है दिल्ली तो अंग्रेज prbhu की भी थी और फिर नहीं रही दिल्ली। लुटियंस की बसाई दिल्ली से पूरा देश चलता है लेकिन यह दिल्ली भी पूरे देश की नहीं है और खुद अपनी भी नही है। राजनीति की माया निराली है। हमारा मकसद यहां दिल्ली के बारे में व्याख्यान देने की कतई नहीं है और ही राकयेश ओमप्रकाश मेहरा की तरह दिल्ली-6 के बाद सात या आठ बनाने का कोई इरादा है। हम तो दिल्ली के एक बादशााह को याद करते हुए याद करना चाहते हैं। ऐसे ही नहीं असल में आज वह बादशाह प्रासंगिक हो गया लग रहा है। मोहम्मद शाह रंगीले को नादिर शाह ने दिल्ली के तख्त से केवल बेदखल किया था बल्कि दिल्ली में कत्लो गारत का वो मंजर पेश किया था कि कहा जाता है कि सालों तक दिल्ली की गलियों में खून की गंध बसी रही थी। असल में रंगीले का जिक्र इसलिए क्योंकि उसके दरबार में जलवा था हिजड़ों और उस किस्म के लोगों का जिन्हें आज समूची दुनिया में गे या समलैंगिक कहा जा रहा है। जिनकी परेडें साओ पाओलो से लेकर इटली और अब पांच हजार साल पुरानी संस्कृति पर गर्व करने वाले भारतवर्ष की राजधानी दिल्ली तक में निकल रही हैं। तो मोहम्मद शाह रंगीले के निजाम में हिजड़ों और गे साहिबान की तूती बोलती थी या इसे यों कहें कि वही निजाम थे। गुरूवार को दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध मानने की अवधारणा को एक मामले में खारिज कर , हिंदुस्तान के समलैंगिकों को मानो तोहफा दे दिया है। समलैंगिकता कोई नई चीज नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे कि एक से ज्यादा विवाह करना, रखैल रखना, बलात्कार होना, डाके, डलना, चोरी होना और जुआ सटटा इत्यादि होना। देश काल परिस्थिति के मुताबिक कोई कृत्य अपराध या सर्व स्वीकार्य होता है। सरकारें और समकालीन कानून में परिभाषा बदलती रहती है। हस्तिनापुर में जुआ खेलना और उसमें पत्नी को भी दांव पर लगाना गैर कानूनी नहीं था, यहां तक की राजा भी यही कर रहे थे। लेकिन आज भारतीय दंड संहिता में जुआ खेलना गुनाह है। देश भर में पुिलस स्वेच्छा से जुआ खेलने वालों को केवल पकड़ती और मारती पीटती है, बल्कि उनके पैसे जीम जाती है। खैर अब हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को गैर कानूनी होने के अभिशाप से मुक्त कर दिया है, तो देर सबेर देश के जुआरियों, सटोरियों और अन्य स्वेच्छा और सहमति वाले कर्मों को भी कानूनी मान्यता मिल ही जाएगी, एसी उम्मीद की जा सकती है। यह बात और है कि समाज में यह सभी स्वेच्छा वाले कर्म अराजकता फैलाते हैं। समलैंगिकता भी ऐसा ही स्वैच्छिक आचरण है। जिसे भारतीय जनमानस में कभी भी swikar nhi किया जाएगा, जैसा जुआ, परस्त्रीगमन, वेश्यागमन, जुआ खेलना, शराबखोरी इत्यादि को नहीं माना जाता। कोर्ट के निर्णय का भले ही भारतीय गे और उनके हिमायती भले ही स्वागत करें, लेकिन यह अच्छे संकेत नहीं हैं। उम्मीद की जाना चाहिए कि जय हो ब्रिगेड और भगवा ब्रिगेड इस मुददे पर देश की संस्कृति के हित में क्या कदम उठाते हैं, फिलहाल तो गे वाले गाना ga रहे हैं जय हो आप क्या कहते हैं, बताइएगा जरूर।

3 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

भाई पिज्जा कुछ तो अपना रंग दिखायेगा.
पहले एक गीत सुनते थे... यह देश है वीर जवानो का अलबेलो का...
अब इस गीत के बोल क्या होगे ????

अनिल कान्त ने कहा…

एक अच्छा लेख पढ़कर अच्छा लगा

P.N. Subramanian ने कहा…

हमारे ख्याल से ऐसे निर्णय समाज के दृष्टिकोण में कोई परिवर्तन नहीं ला पाएंगे.