बुधवार, 25 नवंबर 2009
महिला आरक्षण के नाम पर ये क्या हो रहा है
मध्यप्रदेश में नगरीय निकाय चुनाव के लिए उम्मीदवारी के घमासान में आज कतल की रात है। अर्थात कल शाम तक ही उम्मीदवारी के पर्चे भरे जाएंगे। दोनों प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस में मेयर, नगरपालिका और नगर पंचायत अध्यक्ष और पार्षद पद की उम्मीदवारी को लेकर यूद्ध जैसे हालात हैं। रोचक बात ये है की शिवराज सरकार ने इन चुनाव में 50 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कहैं। लेकिन इस आरक्षण का दोनों ही दलों में खुला मजाक उड़ाया जा रहा है। महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों पर पार्टी के छोटे बड़े नेता पार्टी की महिला कार्यकर्त्ता के बजाय पुरूष नेताओं की पत्नी, मां, बहन, सास ko टिकीट दिलाने ki जुगत में लगे हैं। पार्टी भी ऐसा करने में पीछे नहीं हैं। भोपाल में भाजपा ने पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में मंत्री बाबूलाल गौर की पुत्रवधु क्रष्णा गौर को मेयर पद का उम्मीदवार बनाया है। आदिम जाति कल्याण मंत्री विजय शाह पत्नी भावना शाह को खंडवा से महापौर पद की प्रत्याशी बनाया गया है। प्रदेश भर में ऐसे सेकड़ों उदाहरण सामने आ रहे हैं जहां पार्टियां नेताओं की पत्नियों को उम्मीदवार बना रही है, या किसीभी उम्मीदवार बनाने को तैयार है। सवाल ये है की राजनीतिक अपने ही भीतर लोकतंत्र क्यों नहीं ला पा रहे हैं। डेढ़ दशक बाद भी महापौर पति, नपाध्यक्ष पति, पार्षद पति सरपंच पति परंपरा क्यों जारी है।
सोमवार, 16 नवंबर 2009
बीमार भाजपा को कुनैन मोदी चाहिए
आदमी ही नहीं संगठन, संस्थाएं, देश और समाज बीमार होते हैं। कम से कम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नौजवानवादी मुखिया मोहन भागवत तो यही प्रतिपादित करते दिख रहे हैं। जब संघ के मुखिया कह रहे हैं तो यह डायग्नोस हो चुका है कि संघ पुत्री भाजपा बीमार है। बीमार के इलाज के लिए दो चीजें जरूरी हैं एक कुशल चिकित्सक और दूसरा कारगर औषधि। जैसी कि चर्चा खुलेआम हो रही है कि महाराष्ट के नितिन गडकरी को स्वस्थ्य और ताकतवर भाजपा गढने की जिम्मेदारी मिलने वाली है। अब सवाल ये है कि भारतीय जनता पार्टी की बीमारी का क्या सही डायग्नोस किया गया है, और क्या डा. गडकरी कारगर चिकित्सक साबित हो सकेंगे। मुझे लगता है कि न तो ठीक से डायग्नोस ही किया गया है और न ही गडकरी या अन्य ऐसा कोई राज्य स्तरीय नेता जिसकी राष्टीय छवि न हो सही चिकित्सक साबित होगा। असल में भारतीय जनसंघ और उसके अगले अवतार भारतीय जनता पार्टी की जनता में स्वीकार्यता के लिए दो ही नेता जननेता के बतौर स्थापित हुए थे और आज भी पार्टी उनके दायरे से बाहर नहीं निकल पाई है। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की युति ही भाजपा की असल ताकत थी। ऐसा नहीं है कि इन दोनों नेताओं के अलग अलग खेमे भाजपा में नहीं बने थे। वे बने थे लेकिन इसके बावजूद अटल और आडवाणी एक दूसरे के पूरक थे और दोनों की युति से ही भाजपा को दिल्ली से लेकर अटारी खेजडा, पिपरिया और आमगांव तक में कार्यकर्ताओं का प्राणपण समर्पण हासिल हुआ था। इसमें संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों की साइलेंट सी नजर आने वाली मगर प्रखर भूमिका भी थी। लेकिन भाजपा में अटल-आडवाणी के बाद जो दूसरी पीढी उभरी उसमें दो नहीं एक दर्जन नेता थे, जाहिर है दो के बीच वर्चस्व का संघर्ष होते हुए भी एका दिखता रहा, बना रहा लेकिन एक दर्जन लोगों के बीच वैसा नहीं हो सका। क्योंकि अरूण जेटली, राजनाथ सिंह, उमा भारती, प्रमोद महाजन, नरेंद्र मोदी, कल्याण सिंह, नरेंद्र मोदी, सुषमा स्वराज, गोविंदाचार्य, वेंकैया नायडू सरीखे नेताओं की वर्चस्व मंशा के पीछे शहरी, ग्रामीण, सवर्ण, ओबीसी, संघमूल गैर संघमूल, अन्य दलों से आए जैसे कई तंबू और विरोधाभास थे। इस पूरी की पूरी पीढी ने एक दूसरे को निपटाने के लिए दुरभिसंधियों, भितरघातों का सहारा लिया। इसमें मीडिया के इस्तेमाल और अटल आडवाणी खेमों को बकायदा हथियार की तरह प्रयोग किया। गोविंदाचार्य का पलायन, कल्याण सिंह का निष्कासन, उमा भारती का सत्तारोहण और बाद में हटा दिया जाना, निष्कासन इन्हीं संघर्षों के नतीजे रहे। लेकिन इस सबके बीच केवल नरेंद्र मोदी ही ब्रांड बन पाए। उन्होंने अपनी खास शैली, खास पहचान और ताकत न केवल विकसित की बल्कि वे उसका लगातार लोहा भी मनवाते रहे। उन्हें कोई उमा भारती की तरह मैदान से हटा नहीं पाया। बाकी दूसरी पंक्ति के नेताओं का न तो उतना आभामंडल बन पाया और न ही वे भाजपा को राष्टीय स्तर पर अटल आडवाणी की तरह एकजुट रख पाने के योग्य बन पाए। दूसरी पंक्ति के छिन्न भिन्न होने की वजह से आज भाजपा के पास सिवाय नरेंद्र मोदी के कोई नेता ऐसा नहीं है जो निराश कार्यकर्ता को जोश से भर दे और जिसके इशारे पर वे फिर पार्टी में रक्तसंचार कर दें। यह हकीकत भाजपा के दूसरी पीढी के जनरथ विहीन नेताओं को बुरी लग सकती है, लेकिन कार्यकर्ता और भाजपा के समर्थक नरेंद्र मोदी के अलावा कोई और विकल्प पार्टी को वापस ताकतवर बनाने के लिए नहीं देखते हैं। भाजपा के इतर दलों को मसलन एनडीए के घटक दलों को मोदी भले न सुहाएं, कुनैन लगे लेकिन मलेरिया ग्रस्त भाजपा को यही कुनैन मुफीद बैठेगा। भाजपा को राजग बचाने की नही ख़ुद को बचाए रखने की चिंता करना होगी , जहां तक गडकरी को अध्यक्ष बनाने की बात है तो वे मोहन भागवत के जेबी भाजपा अध्यक्ष से ज्यादा साबित नहीं होंगे। अंततः भाजपा को अगर फिर लौटना है तो उसे मोदी का कुनैन लेना ही होगा, अन्यथा आगे हार और भी इंतजार kijiye अगले chunav तक।
गुरुवार, 12 नवंबर 2009
कैसा रहम, ये माफी है नाकाफी. .
भरी विधानसभा में राष्ट्रभाषा का भरपूर अपमान करने वाले महाराष्ट्र विनाश सेना के 13 विधायकों के नेता नांदगांवकर ने अब अपने गिरोह के चार निलंबित सदस्यों की सजा खत्म करने या उसे कम करने की गुहार लगाते हुए घटना पर खेद जताया है। यह तो ठीक वैसा ही है कि जानबूझकर सुनियोजित और बकायदा घोषणा कर अपराध करो और फिर माफी की उम्मीद भी कर डालो। इन चार सदस्यों का निलंबन तो कतई खत्म किया ही नहीं जाना चाहिए, बल्कि बाकी नौ से यह लिखित आश्वासन लेना चाहिए कि वे इस किस्म की कोई हरकत नहीं करेंगे, तो न केवल सदस्यता खत्म कर दी जाए बल्कि उन्हें कानूनन जो सजा मुकर्रर हो वो दी जाए। क्योंकि सदन में किए गए किसी भी जुर्म पर अदालत का कानून नहीं सदन के नियम प्रक्रिया और परंपरा चलती है। महाराष्ट्र में हर दल और नेता मराठी भाषा, मराठी माणुस को वोट मिलने और उसकी अवहेलना पर वोट खिसकने का सूचकांक मानता है। असल में महाराष्ट्र सरकार और भारत सरकार को इन विधायकों के कुकृत्य पर बकायदा आपराधिक प्रकरण उनके मुखिया राज ठाकरे के खिलाफ दर्ज कराना चाहिए। राज का सभी विधायकों को खुला पत्र इस बात का सुबूत है कि उसी के उकसावे पर महाराष्ट्र विधानसभा में शर्मनाक वाकया पेश आया। राज के खिलाफ कानूनी कार्रवाई के अलावा उसकी पार्टी की मान्यता खत्म करने की प्रक्रिया भी शुरू होना चाहिए, तभी न केवल नजीर कायम होगी बल्कि अन्य किसी और राज्य में इस किस्म की गुंडागर्दी राजनीति को प्रश्रय मिल पाएगा। राज ठाकरे को शायद इस बाद का सही ढंग से इल्म भी नहीं होगा कि देश भर में फैले मराठियों की क्या स्थिति बन सकती है। मैंने गुरूवार को भोपाल में एक दफ्तर में एक पढ़े लिखे शख्स को अपने साथियों को परिहास में यह कहते सुना कि अपन लोगों को भी मराठियों को पीटना चाहिए। यह बात मजाक में कही गई थी। लेकिन मजाक में भी ऐसी बात जेहन में आना खतरनाक है, क्योंकि राज ठाकरे एंड कंपनी गैर मराठियों के दिमाग में भी फितूर पैदा करें, यह देश के लिए खतरनाक है। समूचे देश के तमाम राज्यों को भले ही वहां की भाषा, बोली कुछ भी हो, देश की बाकी बोलियां बोलने वाले लोगों की चिंता कर ही लेना चाहिए। यह हम सबका न केवल दायित्व है, बल्कि समय की मांग भी है।
मंगलवार, 10 नवंबर 2009
बैन करो इस गुंडाराज पार्टी को
संविधान की कसमें खाने वालों, देश के कर्ताधर्ता बने फिर रहे लोगोंं के लिए यह शर्मनाक, डूब मरने लायक और हतवीर्यता की हद है ये। एक आदमी भारतीय संविधान की लगातार धज्जियां उड़ाते हुए न केवल कथित राजनीतिक दल चला रहा है बल्कि उसे चुनाव में उतरने और गुंडागर्दी करने का लगातार मौका दिया जा रहा है। नक्सलवादियों को हवाई हमले कर उड़ा देने के बयान दे रहे चिंदबरम और मनमोहन सिंह इस राज ठाकरे नामक माफिया का कुछ भी क्यों नहीं उखाड़ पा रहे हैं, समझ से परे है। आखिर उसकी महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में मौजूदगी का फायदा तो कांग्रेस और राकांपा गठबंधन की फिर सरकार बनने में उठाया जा चुका है, अब तो उसकी गुंडागर्दी को रोका जाना चाहिए। राष्ट्रभाषा हिंदी में शपथ लेने वाले सपा विधायक अबु कासमी से धक्का मुक्की करने वाले महाराष्ट्र बर्बाद सेना के चार विधायकों को निलंबित करना बेमानी टाइप कार्रवाई ही है। असल में ऐसी पार्टी को चुनाव लडऩे की मान्यता देना ही अपने में बुनियादी गलती है। एक साल पहले मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव की तैयारियों का जायजा लेने आए तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी से और इसके बाद लोकसभा चुनाव के सिलसिले में भोपाल वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन बी. चावला से मैंने पूछा था कि गुंडागर्दी करने, राष्ट्रभाषा को अपमानित कर राजनीति करने वाले दल की मान्यता निरस्त क्यों नहीं कर दी जाती? इस पर दोनों ही महानुभावों ने करीब करीब एक जैसा ही जवाब दिया था। उनका कहना था कि कोई शिकायत करे तो फिर आयोग उस शिकायत पर विचार करेगा। इतना ही नहीं गोपालस्वामी ने तो मेरी बात को करीब करीब उपहास के अंदाज में लेने की कोशिश करते हुए कहा था आप तो मप्र के चुनाव से संबंधित कोई प्रश्र हो तो पूछिए। असल में जिन पर कार्रवाई होना चाहिए, उन पर कार्रवाई नहीं करते हुए सरकारें बड़ी बड़ी बातें करने में ही यकीन रखती हैं। महाराष्ट्र नवनिर्माण के नाम पर शिवसेना से अलग होकर पार्टी बनाने वाले राज ठाकरे के दिमागी दिवालिएपन का ही यह नमूना है कि अंग्रेजी में शपथ लेने पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं लेकिन राष्ट्रभाषा हिंदी में शपथ लेने पर मारपीट का फरमान, उस पर अमल भी हो गया। अब सुप्रीम कोर्ट की ही तरह निगाह उठती है, कि माननीय न्यायालय इस मामले में स्वमेव संज्ञान लेकर राज ठाकरे से यह पूछे कि क्यों न ऐसीपार्टी की मान्यता समाप्त कर दी जाए जो देश की एकता, अखंडता, राष्ट्रभाषा के लिए खतरे के तौर पर मौजूद है। उम्मीद की जाना चाहिए कि ऐसा होगा, स्वार्थ की राजनीति करने वालों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे राष्ट्र और राष्ट्र भाषा पर हुए इस हमले को गंभीरता से लेंगे भी।
रविवार, 8 नवंबर 2009
बाबा रामदेव तुमने ये क्या किया
जमीयत के इजलास में बाबा रामदेव की शिरकत से कई सवाल उठे हैं, वे स्वाभाविक भी हैं। लाख टके का सवाल ये है कि उन्होंने वंदेमातरम् की खिलाफत करने वालों के सगागम में शिरकत क्यों की? असल में जिस वजह से चिंदबरम वहां गए थे, उसी वजह से रामदेव भी वहां गए थे। अर्थात सियासत। कांग्रेस तो उप्र में अपनी खोई ताकत पाने मुस्लिम संगठनों को साधने का योग कर रही है जबकि बाबा अपने अंदर जाग गई राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए कुछ भी करने पर आमादा दिख रहे हैं, बतर्ज लव के लिए कुछ भी करेगा, बाबा सियासत के लिए कुछ भी करेगा की मुद्रा में हैं। याद कीजिए कुछ दिन पहले उन्होंने कहा था कि वे 50 सांसद लोकसभा में भेजेंगे, ताकि बदलाव लाया जा सके। बिना राजनीतिक दल और बिना राजनीतिक जनाधार के एक पार्षद चुनवा पाना या खुद पार्षद का चुनाव जीतना भी एवरेस्ट पर चढऩे जैसा होता है। प्रवचन के लिए भीड़ जुटना, एक्टर की फिल्म देखने के लिए टिकिट खिड़की पर झगड़े होना सियासी सफलता के लिए वोट में बदलना असल में मुंगेरीलालनुमा सपना ही होता है। तो बाबा बेचारे क्या करें, पतंजलि, योग वशिष्ठ और अन्य महान ऋषि मुनियों के आविष्कृत योग के जरिए बाबा को टीवी चैनलों की लहर पर पापुलरिटी तो खूब मिल चुकी है। उनके अंदर अब राजनीतिक महत्वाकांक्षा जाग गई है, सो वंदेमातरम विरोधियों के साथ मंच साझा करने में कोई झिझक कोई शर्म उन्हें नहीं आई। असल में बाबा की जो भी प्रसिद्धि, धन दौलत है, उसमें उनका खुद का देखा जाए तो कुछ भी नहीं है। वे केवल योग की मार्केटिंग कर रहे हैं, उन्हें आस्था, संस्कार, इंडिया टीवी और अन्य चैनलों को धन्यवाद देना चाहिए कि उन सबने बाबा बो पापुलर बनाने में मदद की। बाबा के पापुलर होने में भारतीय मानस में धर्म, अध्यात्म, योग के प्रति अगाधा श्रद्धा ही है। लेकिन बाबा ये कतई न भूलें कि भारतीय मानस में देश प्रेम भी उतना ही उत्कट है। भले ही तत्कालीन सत्ताधीशों के स्वार्थों के चलते भारत अनेक बार गुलाम हुआ हो लेकिन देश के लोग देश से तब भी प्रेम करते थे, अब भी करते हैं। वंदेमातरम की खिलाफत भारतीय मानस में कभी सर्व स्वीकार्य नहीं हो सकती। खासकर किसी भगवाधारी योग वेदांत की बातें करने वाले की वंदेमातरम की खिलाफत में भागीदारी तो कतई बर्दाश्त नहीं हो सकती। बाबा की कुल जमा दिक्कत ये है कि वे बातें देश प्रेम की, भारत की श्रेष्ठता साबित करने की, योग की, धर्म की, विज्ञान को कमतर आंकने की करते हैं लेकिन असल में बनना राजनेता चाहते हैं। जैसे भाजपा राममंदिर समेत तमाम भावानात्मक मुद्दों को सत्ता की खातिर त्याग देती है, वैसे ही रामदेव ने भी सत्ता की महत्वाकांक्षा में वंदेमातरम विरोधियों के कार्यक्रम में हिस्सा लिया और इसका जवाब देने के बजाय चुप्पी साध ली है। यह भी नेतागिरी का ही लक्षण है कि चुप्पी साध लो। लेकिन बाबा रामदेव को यह समझ ही लेना चाहिए कि जो जनता उन्हें सरमाथे बिठा रही है, वह उन्हें भूलुंठित भी कर ही देगी। अच्छा हो कि बाबा बिना किसी सफाई या नानुकुर के अपनी धृष्टता के लिए माफी मांग ही लें।
शुक्रवार, 6 नवंबर 2009
कंट्रोवर्सी प्रेमी न्यूज चैनलों ने शिवराज को बना दिया राज
मप के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान शुक्रवार को अपनी एक कथित विवादास्पद टिप्पणी से विवाद में घिरते नजर आए। उन्होंने सतना में कहा 'ऐसा नहीं होगा कि कारखाना यहां लगे और काम बिहार और उप्र के लोगों को मिले।Ó उनकी इस टिप्पणी को मीडिया चैनलों ने न केवल जमकर उछाला बल्कि शिवराज की तुलना महाराष्टï्र नवनिर्माण सेना के सुप्रीमो राज ठाकरे से करने की कोशिश भी की। श्री चौहान को देर शाम स्पष्टï करना पड़ा कि उनका आशय 50 फीसदी रोजगार स्थानीय लोगों को देने का था, हर भारतवासी का मप्र में स्वागत है। उनकी मंशा मप्र के मूल निवासियों को नौकरी में प्राथमिकता दिलाने की थी न कि अन्य राज्यों के लोग को प्रदेश में आने से रोकने की। मध्यप्रदेश के लोगों और शिवराज सिंह चौहान को जानने वाले शिवराज की तुलना राज ठाकरे से किए जाने को पचा नहीं पा रहे हैं। इस पूरे प्रकरण से एक बात तो साफ है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया का काम विवाद पैदा करना और उसे फैलाने में ज्यादा है। दरअसल श्री चौहान ने शुक्रवार को दोपहर में सतना में आयोजित गरीब उत्थान सम्मेलन में कहा कि प्रदेश में स्थापित होने वाले कारखानों मध्यप्रदेश के मूल निवासियों को प्राथमिकता दी जाएगी। ऐसा नहीं होगा कि कारखाना सतना में लगे और पहले काम उप्र-बिहार के लोगों को मिले। जहां कहीं भी कारखाने उद्योग धंधे या कारखाने लगें वहां पचास प्रतिशत रोजगार स्थानीय लोगों को मिलना चाहिए। कारखानों में जिनकी जमीनें जाती हैं, उनकी पीड़ा दूर की जाना चाहिए। यदि स्थानीय लोग प्रशिक्षित नहीं हैं, तो उन्हें प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। श्री चौहान के बयान को निजी न्यूज चैनलों दिखाने के बाद इस मामले में राष्टï्रीय जनता दल सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और जद-यू प्रमुख शरद यादव की प्रतिक्रियाएं दिखार्ईं जाने लगीं। बिहार के मुख्यमंत्री रहते हुए लालू ने बिहारियों की जो स्थिति बनादी उसे न केवल बिहारी बल्कि पूरे देश के लोग जानते हैं। शरद यादव राजनीति भले बिहार की करते हों, लेकिन वे हैं तो मध्यप्रदेश के ही। लेकिन नेता प्रदेश और देश का व्यापक हित बाद में और अपने हित पहले देखते हैँ। न्यूज चैनलों ने श्री चौहान की तुलना उत्तर भारतीयों को मुंबई से खदेडऩे का अभियान चला रहे महाराष्टï्र नवनिर्माण सेना सुप्रीमो राज ठाकरे से करना शुरू कर दी। श्री चौहान को देर शाम इंदौर में बयान जारी कर सतना में की गई टिप्पणी पर स्पष्टïीकरण देना पड़ा। दरअसल केंद्र सरकार की पुनर्वास नीति में ही स्पष्ट प्रावधान है कि कारखाने लगाने में 50 फीसदी रोजगार उन लोगों को दिया जाए, जिनकी जमीनें उस उद्योग में प्रभावित हुई हैं। यही पुनर्वास नीति सभी राज्यों में भी लागू है। लेकिन इस पर अमल नहीं होता। मीडिया को इस विषय पर वास्तविकता उजागर करना चाहिए कि पुनर्वास नीति का राज्य सरकार क्या कर रही हैं। किन उद्योगों में स्थानीय लोगों को रोजगार मिला या किन में नहीं। यह करने के बजाय भड़काने वाले विवाद क्रिएट करना ही मीडिया का काम रह गया लगता है। मप्र में हर भारतवासी का स्वागत- चौहानअपने स्पष्टीकरण में मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा है कि- मैंने ऐसा कभी नहीं कहा कि अन्चय प्रदेश के नागरिक मप्र न आएं। बिहार, उप्र, दक्षिण भारत, पंजाब या भारत के किसी भी अंचल के लोग मप्र आएं, उनका हार्दिक स्वागत है। उन्होंने कहा कि मैं भारत को मां मानता हूं और हम सब भारतवासी उसके लाल हैं। मैं ऐसी हर बात का विरोध करता हूं जो देशवासियों में विभेद पैदा करती है। उन्होंने कहा- हम सब भारत मां के लाल, भेद-भाव का कहां सवाल।
भाषण और लेखन में एक सी ताकत थे प्रभाष जी
हिंदी के शीर्षस्थ पत्रकार प्रभाष जोशी जी नहीं रहे। अंग्रेजीदां पत्रकारों के बीच देश की राजधानी में हिंदी पत्रकारिता के ध्वजवाहक प्रभाष जी, सूटेड बूटेड लोगों के बीच धोती कुर्ते में प्रखर भारतीयता की जीवंत पहचान थे। राजेंद्र माथुर के बाद प्रभाष जी है थे जो राष्ट्रीय पत्रकारिता के फलक पर जाज्वल्यमान नक्षत्र की तरह विराजे थे। मध्यप्रदेश और हिंदी पत्रकारिता के गौरव प्रभाषजी से मेरी पहली मुलाकात 1991-92 में उस वक्त हुई थी जब वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में आए थे। मैं तब पत्रकारिता का विद्यार्थी था और उनके लेखन से खासा प्रभावित था। उनका भाषण सुना तो और भी ज्यादा प्रभावित हुआ। क्योंकि ऐसा बहुत ही कम होता है कि कोई व्यक्ति लेखन में जितना श्रेष्ठ हो, उतना ही श्रेष्ठ भाषणकला में भी हो। प्रभाषजी में यह गुण था। उनका मालवी टोन में बोलना और लेखन में भी उसी अंदाज को बनाए रखना उनकी शैली को बिरला बनाता था। विद्यार्थी के नाते मैंने उनसे सवाल किया था कि पत्रकार की लेखन शैली कैसी होना चाहिए? उन्होंने उत्तर दिया था- जो केवल अक्षर ज्ञान रखने वाले रिक्शेवाले को भी समझ में आए और खूब पड़े लिखे विद्वान को भी, ऐसी ही भाषा में पत्रकार को लिखना चाहिए। पत्रकारिता में भाषा का पांडित्य दिखाना सफलता नहीं एक तरह से असफलता की निशानी ही माना जाएगा।प्रभाषजी का क्रिकेट प्रेम तो अदभुत था, और सचिन तेंदुलकर के खेल के तो वे मानो दीवाने ही थे। यह दुखद संयोग है कि सचिन ने जिस रात 17000 का जादुई आंकड़ा पार किया, प्रभाष जी उसी रात इस फानी दुनिया को अलविदा कह गए। हिंदी के शीर्ष पत्रकार प्रभाष जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
मंगलवार, 3 नवंबर 2009
कॉमन वैल्थ नहीं कॉमन गुलामी है ये ...
बीते तीन दिन से एक तस्वीर मेरी आंखों में अटकी है और खटक रही है, फांस सी चुभ रही है। नि:संदेह और भी हजारों लोगों को यह चित्र चुभा होगा। मैं बात कर रहा हूं उस तस्वीर की जिसमें ब्रिटेन की महारानी भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को कॉमनवैल्थ खेलों की मशाल सौंप रही हैं। इन खेलों के लिए दिल्ली में अरबों रुपए खर्च हो चुके हैं और निर्माण कार्य जारी है। लेकिन कॉमनवैल्थ गेम्स हैं क्या? उन देशों के समूह है कॉमनवैल्थ जो अंग्रेजी साम्राज्यवाद के गुलाम रहे हैं। इनमें से भारत ने लाखों शहीदों की शहादत के बाद इस साम्राज्यवादी जुए को उतार फैंका। बाकी देशों को संघर्ष से या ब्रिटेन के कमजोर करने के कारण आजादी मिली। इन भूतपूर्व गुलाम देशों ने गुलामी को बरकरार रखने के लिए कॉमनवैल्थ बना लिया जो दरअसल कॉमन गुलामी है। गुट निरपेक्ष आंदोलन, आसियान, दक्षेस, सार्क जैसे संगठन तो समझ में आते हैं और उनमें भारत की प्रमुखता भी भली लग सकती है, लेकिन ये कॉमन वैल्थ, उफ। ओलिंपिक, एशियाड समेत अनेक अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजन हैं, जिनकी मेजबानी की दावेदारी भारत को करना चाहिए, अगर स्वतंत्र और ताकतवर देश के रूप में दुनिया में स्थापित होना है तो। लेकिन दुनियाभर में लोकतंत्र आने के बाद एक लोकतंात्रिक देश की प्रमुख एक साम्राज्ञी से सगर्व मशाल ग्रहण करें और इस मौके पर सारे खेल सितारे हाजिर हों तो दुख होता है। आखिर 23 साल की उम्र में भगत सिंह क्यों फांसी चढ़ गए, क्यों चंद्रशेखर आजाद खुद को गोली मारकर शहीद हो गए। गांधी जी ने किसलिए संघर्ष किया। क्योंंकि नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज खड़ी की और देश को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए आहूति दे दी। लाखों अनाम शहीदों की कुर्बानी क्या, कॉमनवैल्थ की मशाल लेकर गर्व करने के लिए थी। मेरे प्यारे हमवतनों मुझे लगता है, इस संगठन और इस खेल आयोजन का आधार हमारी गुलामी का अतीत है, हमें उससे उबरने की जरूरत है। मनमोहन सरकार इस बात को समझे न समझे लेकिन देश के लोगों को तो समझना ही होगी। जय हिंद।
सोमवार, 2 नवंबर 2009
डैमेज कंट्रोल में सफल रहे शिवराज
मप के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मंत्रिमंडल विस्तार में उन पूर्व मंत्रियों को दरकिनार रखने में नाकामयाब रहे थे, जिन्हें कथित भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते उन्होंने अपनी दूसरी पारी की शुरूआत में शामिल नहीं किया था। अजय विश्रोई, नरोत्तम मिश्रा और विजय शाह अपने पूर्व कार्यकाल में न केवल शिवराज सिंह चौहान के खासमखास थे बल्कि ताकतवर भी थे। करीब एक साल तक बिना मंत्री पद के रहे इन नेताओं में से अकेले नरोत्तम मिश्रा ऐसे थे, जिन्हें श्री चौहान फिर से अपनी टीम में रखने के इच्छुक थे। खैर दिल्ली परिक्रमा और वहां के नेताओं को प्रसन्न करने में कामयाब रहे विजय शाह और अजय विश्रोई भी फिर से मंत्री बन ही गए थे। लेकिन श्री चौहान को विभाग वितरण में पांच दिन लग गए। इसकी वजह यही थी कि कथित दागियों को मंत्री बनाने और प्रबल दावेदार तथा नए चेहरों को शामिल नहीं किए जाने से संगठन में भीषण असंतोष फूट पड़ा था। विंध्य में केदार शुक्ला को मंत्री नहीं बनाए जाने पर सामूहिक इस्तीफे हो गए थे। खैर विस्तार में हुई खामियों और दबावों के नतीजे में हुए नुकसान की भरपाई में शिवराज कामयाब दिख रहे हैं। उन्होंने स्वास्थ्य और चिकित्सा शिक्षा विभाग में अपना करिश्मा दिखा चुके अजय विश्रोई को इस मर्तबा पशुपालन,मछलीपालन और पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक कल्याण जैसे हलके समझे जाने वाले विभाग दिए तो आदिवासी मंत्री विजय शाह को इस बार आदिम जाति कल्याण एवं अनुसूचित जाति कल्याण महकमा दिया। वे पहले वन विभाग में मंत्री रहकर खासे चर्चित रह चुके हैं। नरोत्तम मिश्रा स्कूल शिक्षा और फिर नगरीय प्रशासन विभाग के ताकतवर मंत्री रहे थे, इस मर्तबा उन्हें संसदीय कार्य और विधि विधायी विभाग मिला है। कुछ महीने केंद्र में मंत्री रहे और होशंगाबाद से कई दफा सांसद रहे सरताज सिंह को एक साल पहले मंत्री नहीं बनाने की गलती दुरूस्त कर उन्हें मंत्री बनाया गया और वन जैसा महत्वपूर्ण विभाग भी दिया गया है। जल संसाधन विभाग फिर से पाने के लिए मचल रहे और नाराजी दिखा रहे अनूप मिश्रा से ऊर्जा महकमा ले लिया गया तो कैलाश विजयवर्गीय से संसदीय कार्य विभाग वापस हुआ। ये दोनों तेजतर्रार यह महकमे छोडऩे के इच्छुक थे। सबसे ज्यादा खराब स्थिति शिक्षा मंत्री के तौर पर उच्च, स्कूल और तकनीकी शिक्षा तीनों महकमे ठीक से नहीं सम्हाल पा रही अर्चना चिटनिस की हुई। वे अब केवल स्कूल शिक्षा मंत्री रह गईं हैं। शिवराज मंत्रिपरिषद की दूसरी महिला मंत्री रंजना बघेल के पास अब केवल महिला एवं बाल विकास विभाग रह गया है। उनके पास अब तक सामाजिक न्याय महकमा भी था। लोकसभा चुनाव में अपने पति को टिकिट दिलाने में कामयाब और जिताने में नाकामयाब रहीं रंजना को इसी वजह से नुकसान उठाना पड़ा है। गृह, जेल, परिवहन महकमों के मंत्री जगदीश देवड़ा से गृह विभाग ले लिया गया है। यह वजनदार विभाग भोपाल के विधायक उमाशंकर गुप्ता को मिला है। पहली बार के विधायक होते हुए भी बाबूलाल गौर मंत्रिमंडल में सबसे ताकतवर मंत्री रहे गुप्ता को शिवराज सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद मंत्री पद नहीं मिला था। पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव को सामाजिक न्याय विभाग भी दे दिया गया। लेकिन उनका पसंदीदा विभाग सहकारिता नहीं मिला। पीएचई और सहकारिता विभाग में अपनी कार्यशैली के कारण चर्चित मंत्री गौरीशंकर बिसेन के विभाग बरकरार रहने से यह संकेत गया है कि महकमे की कार्यप्रणाली से मुख्यमंत्री फिलहाल संतुष्ट हैं। लक्ष्मीकांत शर्मा को उच्च और तकनीकी शिक्षा विभाग के महकमे देकर उनका वजन बढ़ा दिया गया है। राज्य मंत्री राजेंद्र शुक्ल से वन लेकर नए मंत्री सरताज सिंह को दिया गया है। लेकिन श्री शुक्ल को ऊर्जा जैसा महत्वपूर्ण महकमा भी दे दिया गया है। इतने महत्वपूर्ण विभाग का जिम्मा राज्य मंत्री को देना दूरदर्शी फैसला नहीं माना जा सकता। कुल मिलाकर शिवराज सिंह चौहान मंत्रिमंडल विस्तार में झेले दवाब को विभाग वितरण में परे धकेलने मेें कामयाब नजर आ रहे हैं। मंत्रिमंडल विस्तार में महिलाओं और नए चेहरों को ज्यादा तवज्जो नहीं मिलने से पनपे असंतोष का क्या असर होता है, इसका लिटमस टेस्ट आसन्न नगरीय निकाय चुनाव में देखने को मिलेगा।
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