गुरुवार, 24 जून 2010
मानसून की भोपाल में दस्तक
आज शाम ६ बजे मानसून के बादलों ने भोपाल में दस्तक दे दी। दिन में भारी उमस थी पारा ३७ पार पहुचा। लोग बेहाल थे। ढलती शाम में घिर आये बदरा बरसे तो मन हर्ष से झूम उठे। बादल अब भी आसमान पे फेरे लगा रहे हैं। मस्त हवा चल रही है। लोग ताल किनारे मौसम का लुत्फ़ लेने उमड़ पड़े हैं। उम्मीद है बादलों की मेहरवानी बनी रहेगी आमीन
सोमवार, 14 जून 2010
गडे मुर्दे ही तय करते हैं राजनीति की दिशा
राजनीति में मुर्दे सबसे ज्यादा काम की चीज होते हैं। गडे हुए मुर्दे उखाडे जाते हैं और वे ही राजनीति के भविष्य की दिशा तक तय करते हैं। यकीन नहीं हो रहा मेरी बात को तो भोपाल गैस मानव संहार के मामले को ही ले लीजिए। एक जमाने में इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी के निकटतम सिपहसालार अर्जुन सिंह के मामले को ही बतौर नजीर लीजिए। गैस हादसे के वक्त उनकी भूमिका के मुर्दे न केवल उखडे। हैं बल्कि वे अखबारों, विवाद पिपासु न्यूज चैनलों, राजनीतिक गलियारों, दफतरों में तांडव कर रहे हैं। प्रणव मुखर्जी से लेकर सत्यव्रत चतुर्वेदी तक और मोइली से लेकर पचौरी तक सब अर्जुन सिंह को ललकार रहे हैं। अर्जुन के पुराने शिष्य दिग्विजय सिंह भी इस मामले में निशाने पर आ गए हैं, क्योंकि वे मुर्दों की बोली को अनसुना कर गुरू ऋण उतारने की चेष्टा कर रहे थे। राजनीति या प्रशासन का महज ककहरा जानने वाला भी यह नहीं मान सकता कि अर्जुन सिंह जैसा चतुर सुजान ओर घनघोर चंट राजनेता बिना तत्कालीन कांग्रेस हाईकमान की सहमति के वारेन एंडरसन को सुरक्षित भोपाल से दिल्ली भेजता। जाहिर है राजीव गांधी की सहमति के बिना वारेन बाहर नहीं गया था। लेकिन अर्जुन और सोनिया दोनों ही मौन हैं, मुखर हैं तो सोनिया को प्रसन्न करने की कोशिश में और जबरिया वानप्रस्थ में धकेल दिए गए अर्जुन सिंह से बेपरवाह बिना जनाधार वाले नेता। कांग्रेस की गुटबाजी और कलह इस मामले में कहां खत्म होगी, कहा नहीं जा सकता। हो सकता है अर्जुन सिंह का मौन टूटे या फिर बोफोर्स मामले की वजह से सालों मौन रहीं और राजनीति में आने से कतराती रहीं सोनिया ही मौन तोडें। कांग्रेस की चिंता कांग्रेस करे और विपक्ष इस मुददे पर कितना क्या लाभ ले सकता है, यह वह जाने। कटघरे में तो जनता का विश्वास और लोकतंत्र की जिम्मेदारी तथा मर्यादा है। आखिर सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह, खुदीराम बोस, चंद्रशेखर आजाद से लेकर तिलक, गोखले, गांधी किस आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे? हमारे देश के नेता मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, जनता को सामूहिक नरसंहार के मुहं में झौंक देने के षडयंत्र में शाामिल होंगे और नरसंहार के जिम्मेदारों को बचाएंगे, यह दिन देखने के लिए आजादी के दीवानों ने संघर्ष किया था? अर्जुन सिंह दो दफा मप्र के मुख्यमंत्री रहे और कई दफा केंद्रीय मंत्री, सदन के नेता और राज्यपाल भी रहे उन्होंने सत्यनिष्ठा की शपथ दर्जनों बार ली होगी? क्या उन्हें वह शपथ नहीं कचोट रही है, उनका मौन बडा ही खतरनाक है और देश में लोकतंत्र पर सवालिया निशान की तरह है। जिस भोपाल शहर में उनके नाम पर अर्जुन नगर, बेटे के नाम पर राहुल नगर, पत्नी के नाम पर बिटटन मार्केट है, अपनी केरवां कोठी है। सी टाइप का सरकारी बंगला सी 19 है, जिसके नाम का भी भोपाल में कभी जलाल हुआ करता था, उसी शहर के 15 हजार लोगों की मौत एक रात में होने के मामले में वे अब मौन ही रहना चाहते हैं। बाबरी ढांचा गिरने के बाद फूट फूटकर रोना क्या स्वांग नहीं था? भारतीय परंपरा के अध्ययन को भगवाकरण नाम देकर राजनीति में शब्दों को उनकी पहचान से विलग कर अपमानित करने में माहिर अर्जुन सिंह को 26 बरस से जारी मौत के मामले में मौन तोड.कर भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में सच्चाई की एक मिसाल कायम नहीं करनी चाहिए? कांग्रेस की राजनीति में वे हाशिए पर पड़े हैं, बेटे की भी लगभग नगण्य हैसियत है, बेटी को टिकिट दिला नहीं पाए, जीवन की सांझ में अपनी अंतरात्मा को जाग्रत कर वे सच सामने रखें, शायद उनका मामला भविष्य में प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों से लेकर सरपंचों तक में सच की अलख जगा जाए। क्या ऐसा करेंगे अर्जुन?
सोमवार, 7 जून 2010
ये तो तय ही था हमने कानून ही ऐसे बनाये हैं
भोपाल गैस कांड के २६ साल बाद सीजेमसी कोर्ट ने आज फैसला सुनाया। जैसा कि होना ही था मामूली सजा और ६ आरोपियों को जमानत मिल गयी। क्योंकि हमने कानून ही ऐसे बना रखे हैं। १५ हजार से ज्यादा मौतों और सतत जारी हादसे में ऐसा होना दुखद है। गौर किया जाये तो हमारी सरकारों ने नरसंघार के गुनहगारों को बचाने का काम किया। इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या होगी कि वारेन anderson को न केवल भारत से भागने दिया गया बल्कि उसे वापस लाने में नाकामी कि हमे कोई शर्म नही है। असल में सजा न केवल anderson और यूनियन कार्बाइड के अन्य करता धर्ताओं को मिलना चाहिए थी बल्कि मध्यप्रदेश के तत्कालीन सत्ताधीशों को भी सजा मिलना चाहिए क्योंकि हादसे के लिए वे भी उतने ही जिम्मेदार हैं जितना anderson एंड कम्पनी।
शुक्रवार, 4 जून 2010
नया अवतार आने को है....
जी नहीं, मैं कोई सनसनीखेज खुलासा नहीं कर रहा हूं. क्योंकि मैं कोई न्यूज चैनल नहीं हूं और इंडिया टीवी तो कतई नहीं हूं। मैं तो कोई और ही खबर आपको दे रहा हूं। जैसे अमिताभ बच्चन को, फिल्मों में बतौर हीरो के तौर पर राकेश रोशन को और अब नए जमाने के हिमेश रेशमिया को आपने जुल्फों में देखा है और अगर वे बिना बिग के नजर आएं तो आपको अटपटा लगेगा। वैसे ही ब्लॉग जगत के एक जाने माने हस्ताक्षर को आप आज से नए लुक में देखंेगे अर्थात अल्पकेशी से जुल्फिकार अली बन गए हैं हमारे एक ब्लॉगर डा. महेश परिमल। आप अभी उन्हें मेरे ब्लॉग पर समर्थको में नंबर ६ पर देख सकते हैं। लंबे समय तक खुद ही अपने अत्यल्प केशों को लेकर परिहास करते रहे डा. परिमल ने वीबिंग कराने का न केवल निर्णय लिया बल्कि छुटटी के दिनों में इसका सफल प्रयोग कर चुके हैं। वे घर से दुपहिया वाहन पर हेलमेट लगाकर निकलते और कुछ दूर जाकर हेलमेट उतारकर नए लुक में शहर में घूमकर देख चुके हैं। बताते हैं कि नए लुक में वे युवा नजर आ रहे हैं। इन दिनों वे छुटटी पर हैं और बेखौफ और बेफिक्र होकर अपने नए नवेले बालों और लुक का लुत्फ ले रहे हैं। जब वे अवकाश से लौटेंगे अर्थात भोपाल में पुनरागमन करते ही स्थाई रूप से नए लुक में उपलब्ध होंगे। हो सकता है ब्लॉग पर भी अपने नये लुक वाली तस्वीर का अवतरण करें। मुझसे उन्होंने बीते माह इस मामले में मशविरा किया था। मैंने अपने दो तीन मित्रों के इस संबंध में पॉजिटिव रिस्पांस के मददेनजर डा. परिमल को भी यह बदलाव करने का सुझाव दिया था। डा. परिमल को जानने वालों से आग्रह है कि वे ब्लॉग पर या साक्षात नए लुक में उन्हें देखें तो जो भी प्रतिक्रिया हो उससे मुझे भी अवगत कराएं तो अच्छा लगेगा। क्योंकि इस अंदाज परिवर्तन में मेरा समर्थन भी शामिल है।
गुरुवार, 3 जून 2010
गमक उठी माटी की सौंधी गंध
भोपाल में अभी रात ठीक नौ बजे बारिश की बूंदे धरती पे गिरी और सौंधी खुसबू महक उठी सभी को बधाई.
मंगलवार, 1 जून 2010
पापुलर होने का मतलब ज्ञानी नहीं होता भगतजी
अंग्रेजी में पल्प फिक्शन लिखकर नव अंग्रेजीदां लोगों में मशहूर होने के बाद लगता है चेतन भगत हर किसी विषय पर विद्वता हासिल कर चुके हैं। कुछ दिन पहले उनका अंग्रेजी में ही एक लेख आया गोत्र को नकारने वाला। इसका अनुवाद हिंदी अखबारों में भी छपा था। इसका पूरा स्वर इस दिशा में था कि बात देश क्यों, पिता क्यों, नाम, उपनाम क्यों, यानी हर तरह की पहचान की खिलाफत। अंग्रेजी में फिक्शन लिखने से हुई कमाई से महानगरीय जीवन उनके लिए मुफीद हो जाने से उन्हें गोत्र बेमानी भले लगे लेकिन हिंदुस्तान के सवा अरब लोगों को तो गोत्र जरूरत है। अब अपनी और अपने समुदाय से पहचान का गुण सूत्र है। भगतजी का ताजा मामला गुलजार सरीखे नामवर शायर, गीतकार, फिल्मकार और हरदिल अजीज
शख्स से मुंहजोरी का है। वे गुलजार साहब की हंसी उडाने की जुर्रत कर बैठे, मजाक उडाने के अंदाज में उनके गीत- कजरारे कजरारे... की तारीफ करने लगे। आखिर कोई भी प्रसंशा और व्यंग्य का फर्क समझ सकता है, फिर गुलजार साब जैसे संवेदनशील गीतकार जो भगत की तरह एक किताब से प्रसिद्ध नहीं हुए, वे कैसे न समझ पाते। गुलजार साब ने चेतन से उलटा ही सवाल कर डाला, जाहिर है चेतन निरूत्तर हो गए। पापुलर होने से कोई विद्वान नहीं हो जाता, यह बात चेतन भगत और उन जैसे सभी नवप्रसिद्ध नवधनाढयों को समझना चाहिए। चेतन एक दफा भोपाल आए थे तो हमारे एक साथी के सवाल पर उनका ही उत्तर था कि हम तो वो लिखते हैं जो बिकता है। इस देश में प्रेमचंद, टैगोर, राहुल सांस्क्रत्यायन, गांधी, नेहरू, बंकिमचंद्र, शरतचंद्र, रेणु, नागार्जुन, बाबू देवकीनंदन खत्री जैसे महान लेखकों और व्यक्तित्वों की श्र्रंखला है। कोई भी अपने अग्रजों से इस तरह का व्यवहार नहीं करता जैसा करने की चेष्टा भगतजी कर रहे थे। न ही उनकी तरह कोई गोत्र के खिलाफ इस तरह अतार्किक होकर बोला और न ही लिखा। चेतन भगत सामाजिक बुराई किसी चीज को मानते भी हैं तो ऐसे लिखने से तो आग में घी डालने जैसा ही है, जो कोई भी कर सकता है। समाज सुधार राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, महात्मा गांधी की तरह ही किया जा सकता है, जो पैसे के लिए नहीं लिखते थे। बदलाव के लिए हर संभव कार्य करते थे, लिखना उनमें से एक उपाय था। वे आधुनिक जीवन शैली के लिए प्रचुर धन पाने के लिए नहीं लिखते थे। लिखे का असर तभी होता है जब हम वैसे हों और धन कमाने के लिए न लिख रहे हों। धन कमाने के लिए लिखना है तो फिर एक ..... में और लेखक में फर्क ही क्या है?
शख्स से मुंहजोरी का है। वे गुलजार साहब की हंसी उडाने की जुर्रत कर बैठे, मजाक उडाने के अंदाज में उनके गीत- कजरारे कजरारे... की तारीफ करने लगे। आखिर कोई भी प्रसंशा और व्यंग्य का फर्क समझ सकता है, फिर गुलजार साब जैसे संवेदनशील गीतकार जो भगत की तरह एक किताब से प्रसिद्ध नहीं हुए, वे कैसे न समझ पाते। गुलजार साब ने चेतन से उलटा ही सवाल कर डाला, जाहिर है चेतन निरूत्तर हो गए। पापुलर होने से कोई विद्वान नहीं हो जाता, यह बात चेतन भगत और उन जैसे सभी नवप्रसिद्ध नवधनाढयों को समझना चाहिए। चेतन एक दफा भोपाल आए थे तो हमारे एक साथी के सवाल पर उनका ही उत्तर था कि हम तो वो लिखते हैं जो बिकता है। इस देश में प्रेमचंद, टैगोर, राहुल सांस्क्रत्यायन, गांधी, नेहरू, बंकिमचंद्र, शरतचंद्र, रेणु, नागार्जुन, बाबू देवकीनंदन खत्री जैसे महान लेखकों और व्यक्तित्वों की श्र्रंखला है। कोई भी अपने अग्रजों से इस तरह का व्यवहार नहीं करता जैसा करने की चेष्टा भगतजी कर रहे थे। न ही उनकी तरह कोई गोत्र के खिलाफ इस तरह अतार्किक होकर बोला और न ही लिखा। चेतन भगत सामाजिक बुराई किसी चीज को मानते भी हैं तो ऐसे लिखने से तो आग में घी डालने जैसा ही है, जो कोई भी कर सकता है। समाज सुधार राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, महात्मा गांधी की तरह ही किया जा सकता है, जो पैसे के लिए नहीं लिखते थे। बदलाव के लिए हर संभव कार्य करते थे, लिखना उनमें से एक उपाय था। वे आधुनिक जीवन शैली के लिए प्रचुर धन पाने के लिए नहीं लिखते थे। लिखे का असर तभी होता है जब हम वैसे हों और धन कमाने के लिए न लिख रहे हों। धन कमाने के लिए लिखना है तो फिर एक ..... में और लेखक में फर्क ही क्या है?
सदस्यता लें
संदेश (Atom)