शुक्रवार, 3 जनवरी 2025

सबसे बड़ा गुनाह....मुकम्मल बँटवारा न हुआ

 

  जिसे आज भी हम जिसे आजादी या स्वतंत्रता मिलना कहते हैं , जिस तारीख पर जश्न मनाते हैं दरअसल वो पंद्रह अगस्त 1947 मानव इतिहास के सबसे जघन्य रक्तपात को मंजूर करने के गुनाह की दस्तावेजी तारीख है, शोक का दिन है, एक ऐसे आधार पर राष्ट्र का विभाजन मंजूर कर लेने का गुनाह जिस पर उन तत्कालीन रहनुमाई कर रहे लोगों ने ही अमल नहीं किया जो इसके हिमायती थे या हिमायती न थे तो भी स्वीकार कर चुके थे। तब से अब तक 75 सालों से मुसलसल रक्तपात, युद्ध, दंगों का नासूर जारी है। ताजा बानगी बांग्लादेश के हालात हैं, जो 1947 के आधार को गलत साबित करते हुए 1971 में एक स्वतंत्र सांस्कृतिक पहचान के साथ नया देश बना था। उस सांस्कृतिक पहचान को मिटाकर वही शक्ल दी जा रही है जो 1947 में बँटवारे की बुनियाद बनी थी। तो क्या 1947 का विभाजन द्विराष्ट्रवाद का विचार सही था? लगता यही है कि वह सही था, क्योंकि पाकिस्तान में बहुसंख्यकों ने अल्पसंख्यकों के साथ सरकार और कानून की मदद से जो किया, वह अब बांग्लादेश में हो रहा है। दूसरी तरफ 1947 के विभाजन के बाद भारत की सरकारों, सत्ताधारी दलों और ज्यादातर गैर सत्ताधारी दलों ने इसके ठीक उलट बहुसंख्यकों से वैसा व्यवहार किया जैसा पाकिस्तान में लगातार और बांग्लादेश में अब अल्पसंख्यकों से किया जा रहा है। सत्ता पाने और सत्ता में बने रहने का इसे सफल फार्मूला बना लिया गया।  इस पर नेहरू की कांग्रेस से लेकर राहुल गाँधी की कांग्रेस तो अमल कर ही रही है, उसकी कोख से जन्मी ममता बनर्जी की टीएमसी से लेकर सभी गैर-कांग्रेसवाद, कथित समाजवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, अलग राज्यों के आंदोलन से जन्मी और ताकतवर हुई पार्टियाँ भी अमल कर रही हैं।  यहाँ तक की भ्रष्टाचार के खिलाफ मध्य वर्ग की भावना की लहर पर सवार अन्ना हजारे के आन्दोलन से जन्मी और भ्रष्टाचार की कथित सिरमौर बन गई केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी इसमें शामिल है। विभाजन के खिलाफ और अखंड भारत के पैरोकार विचार भूमि वाली संघपुत्री भाजपा भी बीच बीच में  अल्पसंख्यकवाद का राग यदा यदा में आलापने लगती है, खासकर सत्ता में आने पर तो बहुसंख्यकवाद के पुष्ट होने से सत्तासीन होने की हकीकत से गुरेज करती प्रतीत होती है।         पूरे भारतवर्ष यानी जिसे अखंड भारत कहते हैं, जिसके फिर एकजुट होने का स्वप्न और दिवा स्वप्न देखे जाने से जो वैचारिक आनंद मिलता है, उसकी भारत समेत पूरे भूभाग में हकीकत यही है कि 1947 में मुकम्मल बँटवारा न होने का जख्म मवाद की तरह दंगो, शोभायात्राओ पर हमलों और दफन कर दिए पूजा स्थलो को खोजने,  क्रूरता से बदले गए नाम पुनः पूर्ववत करने के खिलाफ साजिशन दंगों की श्रखंला जारी है। कश्मीर की 370 और 35- ए की बेड़ियों से मुक्ति हो या एक देश एक कानून की अनिवार्यता की बहस सबमें वही स्वर हिंसक रूप से सुनाई देता है जिसकी बिना पर भारत विभाजन हुआ था। यह हालात न बनते अगर सरदार वल्लभभाई पटेल और डा.भीमराव आम्बेडकर की दृढ़ राय मानकर मुकम्मल बंटवारा हुआ होता। विभाजन अवंश्यभावी था, हुआ भी लेकिन इसे एक या दो साल की अवधि में मुकम्मल किया जाना चाहिए  था। जिनके लिए जिस आधार पर अलग मुल्क पाकिस्तान बनाया गया उस पूरे वर्ग को समुदाय को पाकिस्तान भेजा जाना चाहिए था। जिस भूभाग को पाकिस्तान बनाया गया था, वहाँ से उस पूरे भारतीय समाज को शेष रह गए भारत में लाया जाना चाहिए था। बिना रक्तपात, दंगे के यह हो सकता था अगर उस वक्त के रहनुमा गंभीर और वाकई दूरदृष्टा होते। यह टिप्पणी उन लोगों को नागवार लग सकती है, लेकिन सच यही है। विश्व युद्धों से ज्यादा मौतें 1947 के विभाजन में हुई थीं।  इसके बाद भारत- पाकिस्तान के बीच चार घोषित युद्ध और सतत आतंकवाद के चलते उतनी ही मौतें हो चुकी हैं।  1971 में भारत की मदद से बना बांग्लादेश फिर 1947 की स्थिति में जाता दिख रहा है। अलबत्ता पाकिस्तान में जो हालात हैं, अफगानिस्तान से जो पाकिस्तान की नई जंग शुरू हुई है, गिरगिट बालिस्तान, बलूचिस्तान में जो बगावत है, वे भी 1947 में मंजूर बंटवारे के आधार को खारिज करते हैं, लेकिन बांग्लादेश के हालात और भारत में फिर 1947 के से हालात बनाने की दमित और छिटपुट प्रस्फुटित होती मंशा बताती है कि मुकम्मल बँटवारा न होना सबसे बड़ा गुनाह था।  इस गुनाह के असर से भारत जितने तेजी से और जल्दी से मुक्त होगा , विश्व गुरु और विश्व की तीसरी बड़ी अर्थसत्ता बनने की तरफ अग्रसर होगा। यह सबसे बड़ा गुनाह ही सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है। 

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