अब जबकि कमलनाथ की ताजपोशी तय हो चुकी है और कांग्रेस की 15 बरस के वनवास से वापसी ताजा खबर नहीं रह गई है, 13 बरस और एक महीने मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान इसमें से पूरे 10 साल वे अपने ही नेतृत्व में लड़े गए और पूर्व घोषित सर्व स्वीकृत नेता के तौर पर मप्र सरकार के मुखिया रहे। कांग्रेस से दशमलव एक फीसदी ज्यादा वोट हासिल होने के बावजूद पांच सीटें पीछे रहकर सत्ता गंवाने वाली भाजपा अब शिवराज को लोकसभा चुनाव के मद्देनजर धन्यवाद यात्रा पर भेजना तय कर चुकी है, शिवराज ने चुनाव हारने की एकमेव जिम्मेदारी लेकर सियासत में अपना कद बरकरार रखा है। संगठन को अब लोकसभा चुनाव की िचंता है, जिसमें बीते चुनाव में मप्र से मिली 27 सीटें बरकरार रखने की बड़ी चुनौती सामने है। हारे को हरिनाम को उन्होंने भाजपा के संदर्भ में वर्तमान चुनावी पराजय को हारे को शिवराज स्वीकार कर जरूर लिया है लेकिन यह जेरे बहस जरूर है कि क्या वाकई ऐसा है? वे अकेले ही इस भरपूर वोट मिलने के बावजूद सत्ता से बेदखली के लिए जिम्मेदार हैं? एक एकांगी व्याख्या ही मानी जाएगी, क्योंकि जिस पार्टी की सरकार में वे तेरह बरस मुख्यमंत्री रहे उसके संगठन में व्यक्ति तो महत्वपूर्ण होता ही नहीं हैं, संगठन ही महत्वपूर्ण होता है, कॉडर बेस पार्टी। तो क्या फिर संगठन फेल हुआ? सीधे नहीं तो व्यक्ति या व्यक्तियों के महत्वपूर्ण होते चले जाने और कॉडर या संगठन का मत नेपथ्य में ध्ाकेल दिए जाने की छूट दे देने के कारण संगठन ही तो जिम्मेदार हुआ न।
पांच सीटों की कमी से सरकार चली जाने के ही गणित को एक-एक कर उन पांच सीटाें के विश्लेषण में परख्ाा जाए जो पार्टी ने आसानी से खो दीं, तो पहली सीट िवदिशा है जो बीते चुनाव मंे खुद शिवराज ने जीती थी और फिर बुदनी पर कायम रहते हुए विदिशा से इस्तीफा दे दिया था। फिर उन्हीं की मर्जी से उपचुनाव में प्रत्याशी तय हुआ और वह जीता भी लेकिन इस चुनाव में उसी को बदलकर जिसे प्रत्याशी बनाया गया, उसे तो नपाध्यक्ष प्रत्याशी चुनने में भी स्थानीय कार्यकर्ताआें की नाराजगी थी। इसके बावजूद पार्टी के नाम पर जीतकर नपाध्यक्ष बन गए मुकेश टंडन को ही विदिशा से इस बार प्रत्याशी बनाते ही लगभग तय हो गया था िक यह सीट इस दफा भाजपा के हाथ से जाना तय है, वही हुआ। जाहिर है प्रत्याशी चयन में संगठन की नहीं चली। दूसरी सीट की बात करें तो जबलपुर में जिस सीट से पूर्व भाजयुमो प्रदेश अध्यक्ष धीरज पटैरिया टिकट मांग रहे थे और नहीं मिलने पर बागी हुए, वह भाजपा को खोना पड़ी और पटैरिया को पार्टी की हार से कहीं ज्यादा वोट मिले, यानी यह सी भी जीती जा सकती थी। पथरिया और दमोह दोनों सीटें बागी होने को मजबूर हुए पूर्व मंत्री रामकृष्ण कुसमरिया को नहीं मनाने के कारण गवां दी गईं। सुरखी की सीट विधायक का टिकट काटने और छतरपुर और मलहरा सीटें एक विधायक का ट्रांसफर कर दूसरी विधायक का टिकट काटने के चलते गईं। यानी यह नहीं हुआ होता तो भाजपा आसानी से बहुमत के आंकड़ें पर होती।
अब अगर भाजपा के उत्थानकाल के नायकाें में से एक और पराजित हुए मंत्री बजरंग दल के पूर्व राष्ट्रीय संयोजक जयभान सिंह पवैया की बात पर गौर करें तो ग्वालियर में पवैया, अनूप मिश्रा वाली सीटें भी जीती जा सकती थीं। पवैया ही नहीं 2003 में 175 सीटों का प्रचंड बहुमत लाने वाली भाजपा का नेतृत्व कर चुकीं पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती की टिप्पणी पर भी गौर करने की जरूरत है। वे बुंदेलखंड में विकास के जमीन पर उतरने में रह गई कमी को निराशा भरे ढंग से देख रही हैं। मालवा-निमाड़ की कलह कथा में उषा ठाकुर के कैलाश विजयवगीय के संदर्भ में संवाद और हार के बाद अर्चना चिटनिस की सभा में नंदू भैया मुर्दाबाद के क्षेपक महज क्षेपक ही नहीं पार्टी संगठन के लिए सबक हो सकते हैँ। याद कीजिए पार्टी के उस अंतिम वास्तविक संगठन चुनाव को जिसमें प्रदेश अध्यक्ष पद पर शिवराज सिंह चौहान विक्रम वर्मा से हार गए थे, और नेता प्रतिपक्ष के तौर पर सर्वाधिक धाकड़ साबित हुए विक्रम वर्मा 1998 का चुनाव पार्टी की भितरघात के चलते हार गए, उनकी तरह कई हारे और भारी बगावत भी हुई थी, भाजपा का बन चुका छाया मंत्रिमंडल छाया ही बना रहा और दिग्विजय सिंह को पांच साल का एक और कार्यकाल बतौर मुख्यमंत्री मिला था। तब पूर्व मुख्यमंत्री वीरेंद्र कुमार सखलेचा भी दरकिनार कर दिए गए थे। जनता की मर्जी को पराजित कर देने वाली आंतरिक कलह की वह छाया बाद में प्रदेश भाजपा का मुख्य मार्ग बन गई और प्रकारांतर से इस बार नए सिरे से नई कलह के रूप में सामने आकर हार का एक कारण बनी। सत्ताच्युत होने के बाद अब वह फिर मुखरित हो रही है।
इस चुनाव में शिकस्त के बावजूद भाजपा को यह संतोष राहत दे सकता है कि उसका वोट बैंक अब भी कांग्रेस से ज्यादा है। विंध्य में पार्टी को मिली बढ़त इस बात का प्रतीक है, कि एंटी इंकंवैंसी जैसी कोई लहर शिवराज सरकार के खिलाफ पूरे प्रदेश में नहीं थी। हां जैसे एक सिक्के के दो पहलू होते हैं वैसे माई के लाल जुमले या एट्रोसिटी एक्ट संशोधन को लेकर नाराजी ग्वालियर-चंबल समेत अन्य कई क्षेत्रों में अंडर करंट रही वैसे ही िवंध्य में बसपा का वोट बैंक भाजपा की तरफ शिफ्ट होने का फायदा पार्टी को मिला। कांग्रेस के दो बड़े दिग्गज विधानसभा उपाध्यक्ष राजेंद्र कुमार सिंह और नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह की हार का एक कारण यह भी रहा हो सकता है।
अब बात लगातार गलतियां दोहराने की गलती की। अर्से से जिन सीटों पर जीतने की भाजपा की कोशिश को भाजपा में ही खारिज करते रहने की कथा जन जन में आम होकर दीवार पर लिखी इबारत की तरह दिखने लगी है, उन सीटोें में राजधानी भोपाल की जिस उत्तर सीट भी शामिल है, जिसे कभी शिवराज सिंह चौहान ने गोद तक लिया था, उस पर लगातार हार की वजह सिवाय प्रत्याशी चयन के षड्यंत्रों की सफलता और अपनी ही पार्टी को बार बार हराने की मंशा का कामयाब होना नहीं तो और क्या है? अजेय बन गए आरिफ अकील को पहले एक दफ पटखनी दे चुके रमेश शर्मा को टिकट देने में किसे दिक्कत थी? 2013 में आरिफ बेग और इस बार उन रसूल अहमद सिद्दीकी की पुत्री को एक दिन पहले भाजपा में लाकर टिकट देना, जिनकी आरिफ अकील के मुकाबले में जमानत जब्त हो गई थी, क्या दर्शाता है? कांग्रेस को मिली सत्ता उसकी कम समय में भाजपा से बेहतर तैयारी और चुनाव प्रबंधन के साथ ही गुटबाजी पर एक हद तक काबू कर लेने में कामयाबी को माना जा सकता है। कांग्रेस की सरकार बनने के बावजूद चुनाव में भाजपा और कांग्रेस को मिले मतों की संख्या बता रही है कि जनता ने भाजपा को नहीं हराया। हराया तो संगठन की व्यक्ति केंद्रितता की तरफ अग्रसर होने की प्रवृत्ति से टिकट तय होने और माई के लाल जैसे जुमलों से एक वर्ग की नाराजगी नोटा में दर्ज होने की परिणिति ने। तेरह सीटें ऐसी हैं जिनमें कांग्रेस प्रत्याशी की जीत के मत अंतर से डेढ़ से लेकर आठ गुना तक ज्यादा वोट नोटा बटन पर दबाए गए। इसके बावजूद जीत कांग्रेस की हुई है और प्रदेश अध्यक्ष से अब मुख्यमंत्री बने कमलनाथ को ही ये श्रेय जाता है कि उन्होंने न केवल आठ फीसदी वोट के अंतर को पाटा बल्िक वे गुटीय एकता भी बना पाए और पार्टी को बहुमत से ठीक एक सीट कम तक ला सके। अब उनके सामने 10 िदन में किसानों की कर्जमाफी जैसे भारी बजट खर्च वाला वादा पूरा करने के अलावा सिंिधया समर्थकों की नाराजी दूर करने, लोकसभा चुनाव तक पार्टी का उत्साह बनाए रखने और लगभग बराकर संख्या वाले आक्रामक विपक्ष से जूझने के अलावा जनता की आंकाक्षाओं पर खरा उतरने की भारी चुनौती है।
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