सोमवार, 19 दिसंबर 2016

अनुपम मिश्र का जाना........जैसे रीत गया कोई खरा तालाब


      अनुपम मिश्र नहीं रहे। आज जब यह खबर आई तो जिसने भी सुना यही कहा अरे ! फिर अवाक। लगा जैसे कोई लहलहाता तालाब रीत गया। वे ठीक वैसे ही थे, जैसा उनकी जगत प्रसिद्ध किताब का शीर्षक था ‘आज भी खरे हैं तालाब’। उतने ही खरे जितने तालाब होते हैं और उतने ही खरे जैसे पहली दफा मिलते ही लगे थे और हर बार उतने ही खरे लगे और रहे। आदमी का खरापन देखने, समझने और गुनने के वे जैसे पैमाने ही थे। सादगी की मिसाल थे वे और कैंसर जैसी बीमारी ने उन्हेंं चपेट में ले लिया था। वे 68 वर्ष की वय में हमारे बीच से चले गए। यह अपूरणीय क्षति है। एक नहीं कई अर्थों में उनके जाने से रिक्तता आई है। मैं उनसे पहली दफा 25 बरस पहले भोपाल में ही मिला था। तब में माखनलाल चतुर्वेदी राष्टÑीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पहले बैच (1991-92) का विद्यार्थी था और विवि में मेरे सखा जेठू सिंह भाटी जो राजस्थान के जैसलमेर के थे, मुझे एक कार्यक्रम में ले गए थे। जेठू सिंह अनुपम जी को राजस्थान में अपने गांव से ही जानते थे। वे पूरे राजस्थान, मप्र और महाराष्टÑ के हजारों गांवों में पानी को सहेजने के तरीके और जल संस्कार की गवेषण के लिए जा चुके थे। भाटी ने मुझे उनसे मिलवाया तो उनकी सादगी से तो प्रभावित हुआ ही और इसलिए भी अभिभूत हुआ कि वे हमारे मप्र के कविश्रेष्ठ पं. भवानी प्रसाद मिश्र के सुपुत्र थे। गांधीवाद की प्रतिमूर्ति अनुपम भाई ने अपने झोले में से निकालकर मुझे अपनी किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ दी। सप्रेम हस्ताक्षर भी किए। वह किताब में उसी रात एकबारगी पढ़ गया। पानी सहेजने के पुराने तौर तरीके, संस्कार और पानीदार समाज की जो जीवंत तस्वीर उन्होंने उतारी वह किसी और के लिए शायद असंभव ही है। इस किताब को पढ़कर आपके अंदर पानीदार होने का संस्कार पनप उठता है और आप तालाबों, बावलियों और कुओं की बदहाली से छटपटाने लगते हैं। अनुपम जी से इसके बाद दो बार और मुलाकात हुई वैसे ही मिले, लगे जैसे कि पहली दफा लगे और मिले थे। वे मप्र, राजस्थान और महाराष्टÑ के अलावा देश भर के प्राचीन जलस्त्रोतों के बारे में जानकारी के मानो एनसाइक्लोपीडिया ही थे। मसलन वे बातचीत में कह रहे थे कि लोग दिल्ली में यमुना नदी के प्रदूषण की तो चिंता करते हैं, करना ही चाहिए लेकिन क्या आपको पता है एक वक्त में दिल्ली में आठ सौ तालाब भी थे। ऐसी ही जानकारी वे मप्र के किसी भी जिले के बारे में बता देते थे। मप्र में जब दिग्विजय सिंह की सरकार थी तो जल संरक्षण की मुहिम शुरू हुई थे। तब वे भी कई कार्यक्रमों में आते रहे थे। तब भी मेरी बतौर पत्रकार उनसे मुलाकात हुई और हर बार उनसे नई और जानने लायक जानकारी मिली।
अनुपम मिश्र मप्र के होशंगाबाद के टिगारिया के थे लेकिन उनका जन्म गांधीवाद की प्रमुख प्रयोग स्थली वर्धा में हुआ था। दिल्ली में वे गांधी शांति प्रतिष्ठान में पर्यावरण कक्ष में रहते थे और गांधी मार्ग पत्रिका के संपादक थे। गांधीवाद के जीवंत प्रतिमान अनुपम जी का स्थाई घर नहीं था, वे पूरे देश को ही अपना घर मानते थे। सादगी इतनी की वे अपने बालों की कटिंग तक खुद करते थे। जल और पर्यावरण संरक्षण के काम में वे लगातार देशाटन करते रहे थे। मैगसेस प्राप्त जलपुरुष राजेंद्र सिंह की संस्था तरुण भारत से जुडे रहे और चंडी प्रसाद भट्ट के चिपको आंदोलन से भी। अनुपम जी ने जल संरक्षण के पारंपरिक तरीकों और उनकी वैज्ञानिकता को लेकर जो अध्ययन किया और उनकी किताबें आज भी खरे हैं तालाब और राजस्थान की रजत बूंदों ने न केवल भारत बल्कि दुनिया भर की जल बिरादरियों को एक दिशा दी थी। यही वजह है कि सुदूर अफ्रीका के कई देशों में लोगों ने उनकी किताबें पढ़कर अपने यहां जल संरक्षण के प्राचीन भारतीय तरीके अपनाए और जल संकट से जूझने की ताकत हासिल की। यह दुर्भाग्य की ही बात है कि हमारे बीच अनुपम मिश्र सरीखे जलपुरुष की मौजूदगी के बावजूद न समाज और न ही सरकारों ने पारंपरिक जलस्त्रोतों को बचाने के लिए कोई गंभीर जतन किए। मप्र में ही हजारों गांवों और कस्बों, छोटे बड़े शहरों में वे बावलियां, कुएं खत्म हो गए हैं या खत्म किए जा रहे हैं जो सदियों से भीषण गर्मी में भी शीतल जल उपलब्धता कराते रहे थे। करोड़ों रुपए खर्च कर चलाई जा रही नल जल योजनाओं ने पारंपरिक जलस्त्रोतों को लील लिया है और इस बलि के बावजूद हर साल भीषण जल संकट न केवल गहराता है बल्कि साल-दर-साल और विकट होता जाता है। पानी एक जगह से दूसरी जगह ढोया जाता है और धन की बर्बादी होती है। यह बर्बादी होती ही नहीं अगर हम अपने प्राचीन जल स्त्रोतों को मरने नहीं देते याकि मार नहीं डालते। याद कीजिए अपने बचपन या अपने पिता से पूछिए उनके बचपन में उनके गांव में या मोहल्ले में कितने जलस्त्रोत थे? कितनी बावलियां, कुएं थे। वे अब कहां हैं। भोपाल, जबलपुर, रीवा, सागर, सतना और अन्य ऐसे ही बड़े, मंझौले या छोटे शहरों कस्बों में अब इलाकों के नाम तालाबों पर हैं, लेकिन वे तालाब अब कहां हैं? तालाबों को पाटकर इमारतें खड़ी करने की हवस ने हमारे समाज को गैर पानीदार समाज में बदल दिया। अनुपम मिश्र इसी के विरुद्ध हमें चेताते और जगाते रहे थे, उनके जाने के बाद भी उनकी किताबें यह काम करती रहेंगी। पानीदार समाज बनने की दरकार अब और ज्यादा है और हम अब भी चेत गए और अपने पारंपरिक जलस्त्रोतों का जलाभिषेक कर पाए तो पानी का संकट और भयावह नहीं होगा। यह मैं कह रहा हूं लेकिन यह बात मुझे सिखाई अनुपम मिश्र ने है, वे तालाब से ही खरे थे और उनके जाने से ऐसा लगा फिर रीत गया गया कोई तालाब....।                                                                          - सतीश एलिया

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