ग्यारह हजार 680 दिन यानी दो लाख 80 हजार 320 घंटे बीत चुके हैं भोपाल में बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कारबाइड से जहरीली गैस रिसने से शुरू हुई सतत त्रासदी को। हादसे के वक्त और तब से अब तक हजारों लोग इस नासूर का शिकार हो चुके हैं। राहत, पुनर्वास और मुआवजे की लंबी त्रासद प्रक्रिया, राजनीति के घटाटोप में पीड़ितों को न्याय और दोषियों को बाजिब सजा मिलने की संभावना कहीं गुम हो गई है। सामूहिक नरसंहार के बदले भारत सरकार ने यूनियन कारबाइड से जो 750 करोड़ रुपए लिए थे, उसका उचित रूप से बंटवारा नहीं हो सका। साढ़े सात लाख मुआवजा दावे थे, उनमें से सबका निपटारा तक नहीं हो सका। समूचे भोपाल को गैस पीड़ित घोषित करने की मांग पर ढाई दशक तक राजनीति जारी रही। यह दिल्ली में कांग्रेस सरकारों के वक्त इस मुद्दे को सर्वाधिक उठाते रहे भाजपा नेता बाबूलाल गौर दो दफा गैस त्रासदी राहत मंत्री और एक दफा मुख्यमंत्री भी बन चुके हैं, लेकिन उन्होंने यह मुद्दा सत्ता मिलते ही छोड़ दिया।
इधर भोपाल शहर में करोड़ों की लागत से बनीं भव्य इमारतें जिन्हें अस्पताल नाम दिया गया है, में करोड़ों रुपए खर्च कर विदेशों से लाई गई मशीनें धूल खा रही हैं। अगर इन अस्पतालों में सब कुछ ठीक से चलने लगे तो भोपाल देश का सर्वाधिक स्वास्थ्य सुविधा संपन्न शहर हो सकता है। लेकिन दो दशक में ऐसा होने के बजाय हालात और बदतर हो गए हैं। दवाएं खरीदने के नाम पर घोटालों के बीच अपने सीने में घातक गैस का असर लिए गैस पीड़ित आज भी तिल तिलकर मर रहे हैं। दवाओं का टोटा न अस्पतालों में नजर आता है और न ही आंकड़ों में। लेकिन लोग दवाओं के लिए भटकते रहते हैं।
विश्व की सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी का तमगा हासिल कर चुके इस भोपाल हादसे के मुजरिमों को न केवल तत्कालीन सरकारों ने भाग जाने दिया बल्कि बाद की सरकारों ने नाकाफी हजार्ना लेकर समझौता करने से लेकर आपराधिक मामले में धाराएं कमजोर करने जैसे अक्षम्य अपराध कर कानूनी पक्ष को कमजोर किया। इससे प्राकृतिक न्याय की मूल भावना कमजोर हुई। आर्थिक हजार्ना कभी मौत के मामले में न्याय नहीं हो सकता, फिर यह तो सामूहिक नरसंहार का मामला है। उच्चतम न्यायालय ने 13 सितंबर 1996 के फैसले में यूनियन कारबाइड से जुड़े अभियुक्तों के खिलाफ आईपीसी की दफा 304 के स्थान पर 304- ए के तहत मुकदमा चलाने का निर्देश दिया। इसके तहत यूका के खिलाफ फैसला होने पर अभियुक्तों को दो वर्ष कैद और पांच हजार रुपए जुमार्ने की सजा होगी। इस मामले में यूनियन कारबाइड के तत्कालीन अध्यक्ष वारेन एंडरसन, यूका ईस्टर्न हांगकांग तथा यूका इंडिया लिमिटेड के तत्कालीन अध्यक्ष केशव महिंद्रा समेत 10 अन्य अभियुक्त बनाए गए थे। एंडरसन प्रमुख अभियुक्त होने के बावजूद भारत में अदालत के सामने पेश नहीं हुआ। उसकी मौत हो चुकी है और अब जाकर उस वक्त उसे सेफ पैसेज देने के मामले में तत्कालीन कलेक्टर मोती सिंह के खिलाफ केस दर्ज हुआ है। लेकिन उन्होंने जिनके आदेश पर यह सब किया उनके खिलाफ कुछ नहीं हो सका। उस वक्त के प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी अब इस दुनिया में नहीं हैं। कांड के दोषी और उन्हें बचाने के दोषी भी काल कवलित हो गए और हादसे में काल कवलित हुए बेकसूरों के खून का इंसाफ नहीं हो सका। भाजपा की सरकार ने भी एक और आयोग बनाया लेकिन यह भी लगातार त्रासदी झेल रहे लोगों के किसी काम न आ सका। गैस पीड़ितों की मदद में 32 साल पहले उठे हाथ अब चंद पीड़ितों के हाथों में मोमबत्ती की रस्म पूरी करने तक सीमित रह गए हैं। गैस पीड़ितों के झंडाबरदार संगठनों की संख्या बढ़ती गई और उनके बीच भी झंडारबरदारी की आरोप प्रत्यारोप की सियासत तल्ख हो चुकी है। आलम ये है कि भोपाल के एडीएम ने तीन दिसंबर को त्रासदी के रोज सरकारी छुट्टी पर सवालिया निशान लगा दिया है। न सरकार, न गैर पीड़ित जनता और न ही झंडाबरदारों, सियासतदानों को कोई फिक्र है। भोपाल हादसे से किसी भी तरह का सबक नहीं लिया गया है। आज भी भोपाल में और देश भर में घनी आबादियों के बीच घातक कारखाने धड़ल्ले से चल रहे हैं। हर कहीं हर कभी छोटे छोटे भोपाल घट रहे हैं। ढाई दशक बाद न भोपाल ने न मप्र ने न भारत ने और न ही दुनिया ने भोपाल से कोई सबक लिया है।
इधर भोपाल शहर में करोड़ों की लागत से बनीं भव्य इमारतें जिन्हें अस्पताल नाम दिया गया है, में करोड़ों रुपए खर्च कर विदेशों से लाई गई मशीनें धूल खा रही हैं। अगर इन अस्पतालों में सब कुछ ठीक से चलने लगे तो भोपाल देश का सर्वाधिक स्वास्थ्य सुविधा संपन्न शहर हो सकता है। लेकिन दो दशक में ऐसा होने के बजाय हालात और बदतर हो गए हैं। दवाएं खरीदने के नाम पर घोटालों के बीच अपने सीने में घातक गैस का असर लिए गैस पीड़ित आज भी तिल तिलकर मर रहे हैं। दवाओं का टोटा न अस्पतालों में नजर आता है और न ही आंकड़ों में। लेकिन लोग दवाओं के लिए भटकते रहते हैं।
विश्व की सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी का तमगा हासिल कर चुके इस भोपाल हादसे के मुजरिमों को न केवल तत्कालीन सरकारों ने भाग जाने दिया बल्कि बाद की सरकारों ने नाकाफी हजार्ना लेकर समझौता करने से लेकर आपराधिक मामले में धाराएं कमजोर करने जैसे अक्षम्य अपराध कर कानूनी पक्ष को कमजोर किया। इससे प्राकृतिक न्याय की मूल भावना कमजोर हुई। आर्थिक हजार्ना कभी मौत के मामले में न्याय नहीं हो सकता, फिर यह तो सामूहिक नरसंहार का मामला है। उच्चतम न्यायालय ने 13 सितंबर 1996 के फैसले में यूनियन कारबाइड से जुड़े अभियुक्तों के खिलाफ आईपीसी की दफा 304 के स्थान पर 304- ए के तहत मुकदमा चलाने का निर्देश दिया। इसके तहत यूका के खिलाफ फैसला होने पर अभियुक्तों को दो वर्ष कैद और पांच हजार रुपए जुमार्ने की सजा होगी। इस मामले में यूनियन कारबाइड के तत्कालीन अध्यक्ष वारेन एंडरसन, यूका ईस्टर्न हांगकांग तथा यूका इंडिया लिमिटेड के तत्कालीन अध्यक्ष केशव महिंद्रा समेत 10 अन्य अभियुक्त बनाए गए थे। एंडरसन प्रमुख अभियुक्त होने के बावजूद भारत में अदालत के सामने पेश नहीं हुआ। उसकी मौत हो चुकी है और अब जाकर उस वक्त उसे सेफ पैसेज देने के मामले में तत्कालीन कलेक्टर मोती सिंह के खिलाफ केस दर्ज हुआ है। लेकिन उन्होंने जिनके आदेश पर यह सब किया उनके खिलाफ कुछ नहीं हो सका। उस वक्त के प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी अब इस दुनिया में नहीं हैं। कांड के दोषी और उन्हें बचाने के दोषी भी काल कवलित हो गए और हादसे में काल कवलित हुए बेकसूरों के खून का इंसाफ नहीं हो सका। भाजपा की सरकार ने भी एक और आयोग बनाया लेकिन यह भी लगातार त्रासदी झेल रहे लोगों के किसी काम न आ सका। गैस पीड़ितों की मदद में 32 साल पहले उठे हाथ अब चंद पीड़ितों के हाथों में मोमबत्ती की रस्म पूरी करने तक सीमित रह गए हैं। गैस पीड़ितों के झंडाबरदार संगठनों की संख्या बढ़ती गई और उनके बीच भी झंडारबरदारी की आरोप प्रत्यारोप की सियासत तल्ख हो चुकी है। आलम ये है कि भोपाल के एडीएम ने तीन दिसंबर को त्रासदी के रोज सरकारी छुट्टी पर सवालिया निशान लगा दिया है। न सरकार, न गैर पीड़ित जनता और न ही झंडाबरदारों, सियासतदानों को कोई फिक्र है। भोपाल हादसे से किसी भी तरह का सबक नहीं लिया गया है। आज भी भोपाल में और देश भर में घनी आबादियों के बीच घातक कारखाने धड़ल्ले से चल रहे हैं। हर कहीं हर कभी छोटे छोटे भोपाल घट रहे हैं। ढाई दशक बाद न भोपाल ने न मप्र ने न भारत ने और न ही दुनिया ने भोपाल से कोई सबक लिया है।
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