गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

लो खेती बन गई मुफ्त में बांटने का धंधा

बीते एक दशक में मध्यप्रदेश दहाई अंक में कृषि विकास दर, चार बार कृषि कर्मण अवार्ड पाने वाला और खेती को लाभ का धंधा बनाने के मिशन की तरफ तेजी से दौड़ता राज्य बनकर उभरा प्रचारित हो रहा है, पांच साल में किसानों के मुनाफे को दोगुना करने का हलफ भी उठा लिया गया है। लेकिन हकीकत क्या है? विदिशा में खुद मुख्यमंत्री के खेत में भरपूर पैदा हुए टमाटर उनके सिपहसालार लोगों को मुफ्त में बांटकर वाहवाही लूटने के फोटो खिंचाते दिख रहे हैं। यह क्या रास्ता हुआ भला? दाम नहीं मिल रहे तो मुफ्त में बांटो, गजब का उदाहरण पेश किया जा रहा है। किसान भी ऐसे ही मुफ्त में अपनी उपज बांटने लगे या माटी मोल बेचने को मजबूर हो तो फिर क्या रास्ता उसके पास बचता है, सल्फास? फांसी का फंदा, कीटनाशक? क्या करे, फिर वो बच्चों को क्या खिलाए, खुद क्या खाए? एक दशक से खेती को लाभ का धंधा बनाने का प्रचार करने वाली सरकार किसान की उपज की मार्केटिंग की क्या व्यवस्था बना पाई? टमाटरों का कैचप बनाने के बड़े बड़े वादों का कचमूर कैसे निकल गया? जैसी टमाटर की बंपर पैदावार की दशा 1980 में हुई थी, 10 पैसे किलो बिका फिर फ्री में भी कोई लेना वाला नहीं मिलता था उस वक्त। छत्तीस बरस बाद भी वही हालात क्यों? किसानों से बार बार कहा गया और अब भी कहा जा रहा है कि वे केवल पारंपरिक फसलों गेहूं, चना, सोयाबीन के भरोसे न रहे, फल, सब्जी, फूल इत्यादि की भी खेती साथ में करें। फलां साब के खेत के फूल इतने लाख के बिके, फलां ने टमाटर, प्याज की खेती से इतना मुनाफा कमाया। अब टमाटर और प्याज के दाम दो कौड़ी के कैसे हो गए? और वे कैसे फिंक रहे हैं या मुफ्त बाँटने की हैसियत वाले लग्जरी किसान मुफ्त बांट रहे हैं और असल किसान दो दो आंसू रोने की स्थिति में है। खाद्य प्रसंस्करण के उद्योगों के सपनों का क्या हुआ? क्या होगा खेती के अलावा अन्य तरह की खेती की राहों का? आपको इन सवालों के जबाव देने वाला कोई जिम्मेदार आदमी मिले तो मुझे भी मिलवाइए, कुछ सवाल करने हैं।                                                                                - सतीश एलिया

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