अमिताभ बच्चन की फिल्म डॉन में एक गाना था किशोर दा का गाया- ई है बंबई नगरिया तू देख बबुआ..। इसके एक अंतरे में आता है कोई बंदर नहीं है फिर भी नाम बांदरा। बबुआ अमिताभ बच्चन जब बांद्रा वर्ली सी लिंक के उदघाटन समारोह में लोक निर्माण मंत्री के न्यौते पर विशेष अतिथि बने तो कांग्रेस की दो तरह की राजनीति का झंडा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने उठा लिया। कार्यक्रम में अमिताभ से गुफ्तगू की और बाद में सोनिया गांधी को खुश करने और अपनी पार्टी में अपने विरोधियों को मुददा बनाने से रोकने कह दिया की अमिताभ के आने का पता होता तो मैं न आता। बांद्रा एरिया के सिपाही से बड़ापाव वाले तक को मालूम था मेगा स्टार अमिताभ बच्चन पहुंच रहे हैं, भोले मुख्यमंत्री को नहीं पता था? क्या खूब हैं चव्हाण साब की मासूमियत, क्या इतने ही अनभिज्ञ मुख्यमंत्री की जरूरत किसी भी प्रदेश को होती है? अगर नहीं तो फिर चव्हाण कैसे जमे हुए हैं, देशमुख को बेदखल करवाकर. अमिताभ बाबू ने भी गजब पलटवार किया है। क्यों भाई रतन टाटा नैनो प्लांट बंगाल से गुजरात में लगाते हैं तो बायकाट क्यों नहीं करते चव्हाण, बच्चन गुजरात के ब्रांड एंबेसेडर हैं तो उन्हें महाराष्ट्र सरकार के बुलावे पर भी नहीं जाना चाहिए क्या.शिवसेना के बूढ़े शेर चुनाव में पिटे पिटाये बाल ठाकरे ने अमिताभ का पक्ष लेने में फिर शाहरूख को मोहरा बनाने की कोशिश की है। यह भी बदनीयती है। महाराष्ट्र या मुंबई से बाहर वाले सब चले भी जाएं और ठाकरे से लेकर चव्हाण तक की मंशा पूरी भी हो जाए तो कल्पना कीजिये की क्या होगा, आमची मुंबई और जय महाराष्ट्र का .अच्छी बात ये है की महाराष्ट्र में बहुमत जनता वैसा नहीं सोचती जैसा ठाकरे कुनबा या congress के नेता सोचते हैं। हां मुलायम सिंह के सीटी वाले फूहड़ coment का जया भादुड़ी बचाव करती नजर आ रही हैं, यह जरूर शेमफुल है। आखिर बच्चन परिवार राजनीति और उनके नेताओं में इस तरह क्यों रूचि लेता है की उनके विरोध और समर्थन में सच बात भी ढंकने की कोशिश की जाती है। भोपाल में शत्रुघ्न सिन्हा ने जरूर पते की बात कही कि बच्चन बाबू हाजमोला से लेकर तेल मालिश, बोरो प्लस और बांद्रा वर्ली सी लिंक समारोह में आखिर क्यों नजर आते हैं? यह व्यक्ति कि स्वतंत्रता कि बात है जो संविधान में हम आपकी तरह अमिताभ को भी हासिल है। लेकिन अमिताभ बच्चन मेगा स्टार, मिलिनियम स्टार जैसे दर्जनों तमगो से नवाजे जा चुके हैं, उन्हें गरिमा बनाए रखने पर विचार करना होगा। क्या हम कलाम साहब को विधानसभा चुनाव लड़ते या अटलजी को पार्षद उम्मीदवार बनते देख सकते हैं, अमिताभ असल में विज्ञापनों में पैसा बटोरते ऐसे ही लगते हैं। उन्हें सिलेक्टिव तो होना चाहिए, क्योंकि वे आज भी लाखों लोगों के चहेते हैं, उनका स्तर गिरते देख अच्छा नहीं लगता।
उन्हें पैसे के लिए कुछ भी करेगा स्लोगन त्याग देना चाहिए और कुछ क्रिएटिव करना चाहिए देश के लिए.
रविवार, 28 मार्च 2010
शनिवार, 27 मार्च 2010
अर्थ आवर मूवमेंट में मप्र अव्वल
बड़ी अच्छी बात है कि दुनिया भर में आज रात एक घंटे बिजली बंद कर धरती और पर्यावरण को बचाने की मुहिम चलाई जाएगी। निश्चित ही काबिले तारीफ है यह अभियान। दुनिया भर में पर्यावरण बचाने की कई तरह की कोशिशों में से एक यह अर्थ आवर मूवमेंट भी है। बिजली गुल करने से पर्यावरण बचाने में हमारा हिंदुस्तान दुनिया के विकासशील देशों को तो छोडि़ए विकसित देशों में भी अव्वल है। इसमेंं भी हमारा मप्र तो सिरमौर ही कहा जाना चाहिए। क्योंकि यहां जिला मुख्यालयों में रोज चार घंटे, तहसील मुख्यालय वाले छोटे शहरों में 11 घंटे और संभाग मुख्यालय वाले शहरों में एक घंटे रंोज घोषित कटौती होती है। अघोषित बिजली गुल होने के घंटे अलग से हैं जो तय नहीं हैं। औसतन दो से 18 घंटे तक बिजली गुल करने वाला हमारा मप्र अर्थ आवर मूवमेंट वालों के लिए आदर्श हो सकता है। दस साल तक कांग्रेसी मुख्यमंत्री दिगिवजय सिंह ने यह मूवमेंट चलाया। बिजली गुल होने को मुददा बनाकर कांग्रेस को सत्ता से हटाने वाली भाजपा सरकार के तीन मुख्यमंत्रियों उमा भारती, बाबूलाल गौर और अब लगातार दूसरी दफा सीएम बने शिवराज सिंह चौहान के राज में भी मप्र में बिजली कटौती के घंटे करीब करीब उतने ही हैं। भारत में अर्थ आवर मूवमेंट के समर्थकों और मीडिया से अनुरोध है कि आज 27 मार्च को वे मप्र के योगदान को भी याद रखें और जब मौका लगे हमारे प्रदेश की सरकार और उसके कर्ताधर्ताओं को सम्मानित भी करें। क्योंकि उन्होंने भरपूर बिजली का चुनावी वादा पूरा करने के बजाय अर्थ आवर मूवमेंट को नया अर्थ देकर खासा सपोर्ट देने का रास्ता चुना है। चुनावी वादों का क्या है, अगले चुनाव में फिर नया वादा कर देंगे, धरती और पर्यावरण बचना चाहिए, सो वे बचा रहे हैं।
रविवार, 7 मार्च 2010
क्या क़तर में न्युड बना पाएंगे मकबूल मियां
कतर के नागरिक और अप्रवासी भारतीय हो गए एमएफ हुसैन को लेकर इन दिनों पूरे देश में और अंतरराष्टीय कला जगत में चर्चा है। हमारे मप्र में इंदौर में जन्मे पले बढ.े मकबूल भाई ने जो कदम उठाया है, उसके समर्थन में अब तक तो किसी ने कोई बयान नहीं दिया है। क्योंकि उन्होंने कतर जैसे देश की नागरिकता ली है, जो उनके जैसे स्वच्छंद पेंटर के विचारों वाला देश तो कतई नहीं है। वे फ्रांस, जर्मनी या अमेरिका की नागरिकता पा लेते तो बात समझ में भी आती। क्योंकि वहां चित्रकार की स्वतंत्रता और काफी हद तक समर्थन मिलता है लेकिन कतर! जाहिर है वे वहां वो सब नहीं कर पाएंगे जिसकी वजह से वे मकबूल हुए हैं। उन्हें सेलिब्रिटी पेंटर भारत की जनता ने ही बनाया और माना है, जाहिर है भारत कोई अनडेमोक्रेटिक और कटटर मुल्क नहीं है इसीलिए यह संभव हो पाया। कटटर पंथी और प्रतिक्रियावादी किस देश में नहीं होते सो भारत में भी हैं, और उन्हें भी विरोध का हक है। हुसैन ने सरस्वती, दुर्गा और भारतमाता को जिस ढंग से चित्रित किया और अपनी खुद की मां की जो तस्वीर बनाईं उनका फर्क लोगों की नाराजगी की मूल वजह है। देवी देवताओं को नग्न चित्रित करना और मां को सहज चित्रित करने की बात लोगों को दोगलापन लगी, और उन्होंने गलत तरीके से विरोध किया। इन तरीकों का न तो मुखयधारा का भारतीय समाज समर्थन करता है और न ही कानून। तो फिर इंदौर के मकबूल फिदा हुसैन क्या हासिल करने कतरी हो गए! विरोध शाहरूख खान का भी हुआ और सचिन तेंदुलकर को भी फतवे सुनाए गए लेकिन पूरा देश इन सेलिब्रिटी के साथ उठ खड.ा हुआ, फतवे कूड.ा हो गए। इस देश में कटटरपन ज्यादा नहीं चलता, यह बात कभी जलालुददीन मोहम्मद अकबर ने समझी थी, भाजपा ने थोडा बहुत समझने की चेष्टा की है, शिवसेना और उसी कुनबे के राज ठाकरे खुद को खत्म करने की तरफ बढ रहे हैं। मकबूल भाई ने सरस्वती और दुर्गा को जिस ढंग से चित्रित किया था उससे मेरे जैसे करोडों लोग अप्रसन्न हुए थे लेकिन हम लोग ठाकरे या ऐसे ही किसी कटटरपंथी के साथ नहीं हैं, कानून अपना काम करेगा। मकबूल मियां को यहां वापस लौटकर कानून के निजाम को मानना चाहिए था, कटटरपंथी न शाहरूख का कुछ कर पाए और न वे हुसैन का कुछ कर पाएंगे।
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