बुधवार, 19 अगस्त 2009

जो कर रहे थे, यही चाहते थे जसवंत......

अटल सरकार में विदेश और वित्त मंत्री रहे जसवंत, कंधार कांड के खास पात्र रहे जसवंत हाल ही में दूसरे राज्य से जीते जसवंत, राजस्थान में भैरों सिंह शेखावत के बाद दूसरे क्रम के नेता रहे जसवंत, जिन्ना की तरफदारी के चलते भाजपा के घर से बाहर धकेल दिए गए। लेकिन क्या वे केवल जिन्ना प्रेम की बलि चढ़ गए, अगर ऐसा है तो फिर आडवाणी क्यों पीएम इन वेटिंग बना दिए गए। जसवंत ने तो किताब लिखी, आडवाणी तो जिन्ना की मजार की जियारत कर आए थे और उन्हें सेक्युलरिज्म का मसीहा बता आए थे। दरअसल जिन्ना पर किताब चिंतन बैठक के ऐन पहले आने की वजह से सतह पर कारण की तरह तैर रही है। किसी भी मुददे को चलताऊ ढंग से मचा देने में माहिर मीडिया भी ऐसा ही प्रचारित कर रहा है। लेकिन असल में जसवंत का निष्कासन जिन्ना पर किताब की वजह से नहीं है बल्कि इसके पहले पार्टी की हार पर बुनियादी सवाल उठाने की हिमाकत की वजह से है। हालांकि यशवंत सिन्हा भी ऐसा ही रुख दिखा चुके हैं। पार्टी विद डिफरेंस का भ्रम पालने भाजपा में भी लोकतांत्रिक तरीके से अपनी बात कहने को हिमाकत ही माना जाता है। हालांकि भाजपा इसी रवैये को लेकर कांग्रेस की आलोचना करती रही है, करती है और करती भी रहेगी। अन्य दलों में भी कमोबेश यही आलम है, भले धुर दक्षिण पंथी शिवसेना हो धुर वामपंथी भाकपा, माकपा हों या व्यक्तिपंथी डीएमके, एआईडीएमके, तेलगुदेशम हो या फिर बाल्यकाल वाले टीआरएस या प्रजाराज्यम जैसे दल। विरोध के सुर को दबा दिया जाता है। भले कोई नया नेता हो या फिर जसवंत सिंह जैसा वरिष्इ और पुराना नेता हो। लेकिन इतना तय है कि वसुंधरा राजे मामले से ठीक से नहीं निपट पा रहे भाजपा नेतृत्व ने जसवंत को निष्कासित कर फिलहाल दादागिरी भले दिखा दी हो, उसे इसका भी खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा। हाल ही में लोकसभा चुनाव में मुहं की खा चुकी भाजपा ने मप्र में उमा भारती के साथ भी यही किया और गुजरात में नरेंद्र भाई की दादागिरी का समर्थन कर केशुभाई के साथ भी यही किया। नतीजे में भाजपा को राजस्थान में तो पटखनी खाना ही पड़ी, मप्र में भी उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा है। भाजपा के लगभी सभी निष्कासन प्रकरणों को देखकर लगता है, भाजपा में एक किस्म का असंतोष नेताओं के लेबल पर पिछले एक दशक में धीरे धीरे पनपता, उभरता और दिखता रहा है। उसका इलाज जिस ढंग से किया गया, वह असल में इलाज नहीं बल्कि मर्ज को बिगाडऩे की ही तरह नतीजे वाला रहा। लोकसभा चुनाव के हार का ठीकरा फोडऩे के लिए भाजपा को सर नहीं मिलने के संकट के चलते अब एक दूसरे के सरों का इस्तेमाल करने की हिकमत अमली आजमाई जा रही है। देखना ये है कि शीर्ष पर चल रहे इस प्रहसन को कार्यकर्ता और समर्थक अर्थात वोटर किस तरह से लेते हैं, क्योंकि लोकसभा, विधानसभा चुनाव के अलावा स्थानीय स्तर के चुनावों मेंं भी बिखराब का रंग दिखता है। गुजरात में जूनागढ़ में मोदी की भद पिटने, लोकसभा चुनाव में मप्र में शिवराज का असर बिखरने और राजस्थान में विपक्ष में बैठने के बाद गृह कलह चरम पर आने का असर इन राज्यों में फिर स्थानीय चुनावों में देखने को मिल सकता है। संघ पुत्री भाजपा को अपने बुजुर्ग नेताओं को निष्कासित करने के बजाय उनके लिए नई भुमिकाएं तलाश कर युवा नेतृत्व को आगे बढ़ाने की रणनीति पर काम करना चाििहए, संघ प्रमुख मोहन भागवत भी यही कह रहे हें। भाजपा को चिंतन इस पर भी करना चाहिए कि वह डेढ़ दशक पहले जनता की जितनी तेजी से चहेती बन रही थी, उन मुददों को छोडने से उसे कितना नुकसान हुआ और वह नई जनरेशन में वही भाव किन मुद्दों की ताकत पर जगाया जाए।

2 टिप्‍पणियां:

sanjeev persai ने कहा…

किताब में ऐसा कुछ भी नहीं है जो भाजपा के लिए सिरदर्द हो
इस निष्काशन से लगता है की अन्दर की बात कुछ और ही है..............

Praveen Aliya (Niraj) ने कहा…

BJP ki Halat khisyani Billi jiase ho gaye hai aapna hi Khamba Noch rahe hai