आज मेरा ' भोपाल दिवस ' है.... 9.9.1991 को अमृतसर दादर एक्सप्रेस से बोरिया बिस्तर लेकर हबीबगंज स्टेशन पर उतरा था... माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पहले बैच में प्रवेश पहले ही ले चुका था, छात्रावास सुविधा मिली तो एक साल का डेरा जमा। फिर सतत पत्रकारिता के तीन दशक, छह संस्थान, अन्य दर्जनों असाइनमेंट। बीजेएमसी के बाद पत्रकारिता के 12 से 18 घंटे तक की रोज की आपाधापी के साथ एमए हिन्दी, एमजेएमसी, एलएलबी भी कर सका। अध्यावसाय कभी नहीं छोड़ा। अखबार, रेडियो, टीवी पत्रकारिता और पत्रकारिता शिक्षण, पुस्तक लेखन हर विधा में भरपूर मौका और संतोष मिला। इन तीन दशक के दौरान मिला मान सम्मान, स्नेह अपार। गंजबासौदा और भोपाल जैसै घर आंगन। कभी करियर बनाने भोपाल नहीं छोड़ा, अवसर और प्रस्ताव विनम्रता से अस्वीकार किए, लेकिन इसका नुकसान भी उठाना पड़ा, सहर्ष उठाया कोई अफसोस नहीं। न नैहर छोड़ा न भोपाल। न आतंक से न प्रलोभन से खोजी, भ्रष्टाचार को बेनकाब करती, जनहित की पत्रकारिता को प्रभावित होने दिया। धमकियां, हमले, अन्य नुकसान झेले, टिका रह सका, प्रभु की कृपा है। मौद्रिक धन संग्रह नहीं किया, संतोष धन भरपूर मिला, सहयोग की पूंजी से मालामाल रहता आया, प्रोत्साहन अपार मिला। इन तीन दशक के दौरान साथ रहे, पल पल उंगली पकड़कर संभालते रहे, भूलों को क्षमा करते रहे सभी आत्मीय मित्रों, वरिष्ठजनों का ह्रदय से आभार, जो बिछुड़ गए उन दिवंगत मार्गदर्शक अग्रज, गुरुजनों को नमन, सबको दोऊ कर जोरि प्रणाम।
शुक्रवार, 9 सितंबर 2022
असल में हम गोसेवक नहीं, भैंस सेवक
आज..प्रजातंत्र अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर..
हम गोसेवक नहीं, असल में भैंस सेवक हैं.... - सतीश एलिया कोरोनाकाल कोरोनाकाल के संकट के बीच बीते करीब तीन माह के दौरान मजबूरी में अपरिहार्य कारणों से एकाधिक सड़क मार्ग यात्राएं करनी पड़ी। इनमें से एक तो भोपाल से गाजियाबाद की थी, जिसे दिल्ली वाले एनसीआर में शुमार किए हुए हैं। खासकर वे नौकरी दिल्ली में करते हैं, लेकिन मजबूरन बसेरा गाजियाबाद, गुडगाँव या नोएडा में है। खैर, इस यात्रा और मप्र की अन्य सड़क मार्ग यात्राओं में एक चीज कामन है। वो है राष्ट्रीय और राज्य राजमार्गों से लेकर प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क नामना सभी किसिम की सड़कों पर जगह जगह बीच सड़क पर दर्ज़नों से लेकर सैकड़ों की तादाद में गायें खड़ी या बैठी मिलतीं हैं। भारी ट्रैफिक वाले मार्गो पर कई जगह वाहन दुर्घटना के मंजर भी मिलते हैं और गायों की सड़ती म्रत देहे भी, जिन्हें कोई नहीं उठाता। इन सभी श्रेणी के मार्गो पर एक बात और कामन है, जो नजर न आने वाली समानता है। किसी भी मार्ग पर भैंस या भैंस परिवार का कोई सदस्य नजर आता। इसका मतलब क्या है? क्या हमारे देश में गायें बहुतायत में हैं और भैंसें बची ही नहीं? असल में हम भैंसो को सहेजकर रखते हैं और गायों को मरने छोड़ देते हैं। जबकि जगह जगह सरकारी खर्च पर बनीं गौशालाए हैं, राज्य सरकारों के गौपालन बोर्ड हैं, उनके मंत्री दर्जे वाले अध्यक्ष, उपाध्यक्ष से लेकर सदस्य हैं। गौशालाओ को अनुदान मिलता है, उनके नाम पर सरकारी जमीनो पर कब्जे हैं, इसका कारोबार है। पूरे देश से बार बार कई बार गायों के भूखों मरने की खबरें आती रहती हैं। भैंसो के बारे में ऐसा नहीं है। क्योंकि दरअसल भैंस पालने वाले उन्हें सहेजकर रखते हैं। वे ज्यादा दूध देती हैं, उनकी कीमत गाय से कई गुना ज्यादा होती हैं। कोई भी उन्हें मरने नहीं छोड़ता सड़क पर,
गायों को छोड़ देते हैं। गौ माँस के सुबहे में इंसानो को मार डालने वाली भीड़ में शामिल लोगों में से कितने? गायों की जान खतरे में डालने उन्हें सड़क पर छोड़ने वालों से उलझते हैं? शायद कोई नहीं। अन्यथा सड़कों पर हजारों गायें न होतीं और न ही वाहनों से कुचली जा रही होतीं। मप्र की बात करें तो यहाँ गायों की सड़कों पर भीड़ सर्वाधिक नजर आती हैं। यह बीते करीब दो दशक पहले तक नहीं थी, तब सड़क ही न दिखती थीं। जैसै जैसै सड़कों का जाल बढ़ता गया, गायों का काल भी बढ़ता गया। साल 2018 में जब कांग्रेस की कमलनाथ सरकार आई तो कांग्रेस नेता पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने सड़क पर गायों के झुंड की फोटो ट्वीट की थी, तत्कालीन सीएम कमलनाथ ने उसी दिन इस मामले पर बैठक की लेकिन हल कुछ न निकला। निकलता भी कैसै? इसकी जड़ तो खुद दिग्विजय सरकार ने रोपी थी। बतौर मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने गावों की चरनोई भूमि 5 से घटाकर दो फीसदी कर दी थी, चरनोई की 3 फीसदी भूमि दलित एजेंडे पर अमल के तहत भूमिहीन दलितों को पट्टे में खेती के लिए दे दी गई थी। लेकिन ज्यादातर गाँवो में यह पट्टे की जमीन दलितों के बजाए कथित रसूखदारों या दबंगो के कब्जे में है। गाँव की चरनोई की भूमि स्थाई रूप से सिकुड़ गई, गोठान खत्म हो गए सो सड़क पर आ गए। गो भक्ति का नारा लगाने, गौशालाओ का शोर मचाने वालों से लेकर गाय के नाम पर सियासत चमकाने वालों तक किसी को सड़क पर खड़ी, बैठी और कुचली जा रही गायों की फिक्र नहीं है, होती तो जैसै सड़कों पर भैंस नजर नहीं आती, गाय भी न दिखती। वह भी भैंस की तरह ससम्मान घर में रखी जाती, उसकी भी सेवा होती। दिल पर हाथ रखिए और कहिए की हम गौ भक्त, गोसेवक नहीं, भैंस सेवक समाज हैं।
इस गौ हत्या के खिलाफ भी बने कानून..... हमारे देश में गाय हमेशा धर्म, संस्कृति और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की धुरी रही है। हम गोपाल क्रष्ण की पूजा करते हैं, गाय की पूजा करते हैं। गौ हत्या निषेध कानून बनवाने के लिए कितने बलिदानी आंदोलन हुए हैं, दिल्ली की सड़कों का खून बहा है। उन घटनाओं की तस्वीरो का अब भी उपयोग किया जाता है, लेकिन आज की आज की हालत की असल तस्वीर से हम और हमारे हुक्मरां मुँह कैसै मोड़ लेते हैं? वे भी इन्हीं सड़कों से ही गुजरते हैं न। देश के कई राज्यों में जिनमें मप्र भी शामिल है, गौवंश वध निषेध लागू है। इस अपराध के लिए गंभीर और कड़ी सजा के प्रावधान हैं। लेकिन क्या सड़कों पर गायों को यूँ मरने छोड़ने वालों के लिए भी सजा का कोई प्रावधान नहीं होना चाहिए? हर गाँव में आरक्षित हो गोठान भूमि, बने सायेदार पक्के गोठान........ अगर हम और हमारी सरकारें वाकई गाय को महत्व देते हैं तो हर गाँव में खासकर सड़क किनारे के गाँव में गोठान की भूमि आरक्षित कर उन पर पक्के छायादार निमार्ण करने होंगे। ताकि मौसम और दुर्घटना की मार से गायों को बचाया जा सके। इस काम में राजनीतिक श्रेय और स्वार्थ परे रखना चाहिए। जहाँ जहाँ गोठान की भूमि सरकारी दस्तावेजों में है, उसे बेजा कब्जे से मुक्त कराकर पशुओं को उनका देने की मुहिम की दरकार है। इस तरह गायों को भी बचाया जा सकता है और सड़कों पर यातायात भी सुगम किया जा सकेगा।