गुरुवार, 3 जून 2021

एक शब्द ' भावई' और कोरोना महामारी

....                    सतीश एलिया                                                               मेरा  मन सदैव देसज शब्दोँ की रम्यता और उनके देसज बनने  की यात्रा को जानने को उत्सुक रहता है बचपने से ही। पिताजी की ग्राम्य पृष्ठभूमि और मेरा जन्म कस्बे में होने से सदा देसज बोली, शब्द मन में रचे बसे रहते हैं। आज इस शब्द भावई की बात। बचपन से गाँव में, कस्बे में हर किसी से यह शब्द सुनता आया हूँ। पिताजी, ताऊजी जिन्हें हम सब दादा कहते थे, यह शब्द बोलते थे खासकर किसी मुसीबत के आ टपकने पर। इस शब्द की देसज उत्पत्ति की कथा अब उदघाटित हुई कोरोनाकाल में। पिताजी इन दिनों करीब करीब रोज ही यह कथा सुनाते हैं, आँखो देखी और भोगी हुई। उन्हीं की जुबानी- 'संवत 2013 (ई. सन 1956 ) में आषाढ़-सावन-भादों (जून-जुलाई-अगस्त) में ऐसी बीमारी फैली की देश भर में लाखों लोग मर गए थे। एक तो इलाज, डाक्टर, अस्पताल थे ही नहीं, कोसों एकाध छोटी सरकारी अस्पताल थी भी तो सुविधाएं न थी, फिर बीमारी ने मौका भी न दिया। लोग झाड़ फूंक के भरोसे भगवान के सहारे बचने का प्रयास करते। हमारे गाँव बरबाई (तहसील कुरवाई, जिला विदिशा- मप्र) की आबादी तब 500 से कम ही थी, तीन दर्जन से अधिक मौतें हुई थी। लोग मौत से आतंकित थे, इसे नाम दिया भावई मने भयावह। पिताजी दूसरे गाँव में थे, दोनों बड़े भाई दो अलग अलग गाँवो में भागवत कथा कह रहे थे। भावई पड़ी तो हर गाँव में मौत ही मौत। तीनों गाँवो के बाहर झोपड़ी बनाकर रहे और तीन माह घर नहीं लौटे। यहाँ हम करीब 17-18 साल के और 8- 9 साल उम्र के छोटे भाई। भाई की आँखो में बीमारी हो गई, आँखे चिपक गई। देसी घरेलू इलाज जारी था। घर के बाहर गुरसी में कंडे की आग में गुड डालकर लगातार धूनी देते रहते थे। हमारा घर गाँव के चंद सौभाग्यशाली घरों में था, जहाँ इस भावई में सब सुरक्षित रह पाए। घर के सामने ' बंगला' में कष्ट निवारण के लिए संकीर्तन चल रहा था, उन लोगों में से एक तो बीमार होकल ऊपर से लुडके और खतम हो गए। तीन लघुशंका को गए और वहीं गिरकर मर गए। उधर एक घर में कोई दामाद अपनी पत्नी को लिवाने आए थे, सास ससुर पत्नी और वे खुद एक ही दिन में चटपट हो गए..छोटा सा बेटा ही जीवित रहा। गाँव में महामायी के चबूतरे पर बैठा पंडा लोगों को भावई से मुक्त करने नीम के झौरे से झाड़नी दे रहा था, आसपास के गाँव से आई जातरू यानी भीड़ लगी थी, भीड़ में से तीन चार चक्कर खाकर गिरे और मर गए। पंडा चबूतरे पर से गिरा और मरा तो भगदड मच गई। भादों के महीने में भारी।और लगातार बारिश...कैसै अंतिम संस्कार हो, नाले में लाशे बहाने के अलावा कोई चारा नहीं। कुछ दिन बाद स्वास्थ्य कर्मियों की टीम जिसमें तीन लोग थे, आई तो लोग उन्हे भगा देते..उसमें से भी एक की मौत हो गई। वैसै महामारी फिर कभी नहीं देखी, अब 65 साल फि, मौतें लेकिन यह भावई से फिर कम है, इलाज तो मिल पा रहा है, फिर भी कोरोना भावई सा ही है। '  पिताजी की इस भावई व्यथा कथा को अगर सरकारी रिकार्ड रिपोर्ट्स में देखें तो 1956- 57 के एशियन फ्लू में भारत में मौतों की अधिक्रत संख्या 10 लाख थी, प्रधानमंत्री थे पंडित जवाहरलाल नेहरू। सरकार कोई भी हो जनता को पक्का यकीन है कि संख्या दो गुनी से ज्यादा होती है कम नहीं। नेहरू इसके सात साल बाद तक आजीवन प्रधानमंत्री रहे। भावई का पूरा सच शायद कभी पता ही न चले। आज मीडिया, सोशल, अनसोशल तमाम तरह  का मीडिया है, स्वतंत्र, गुलाम सर्वे, जाँच एजेंसियां हैं, श्मशानघाट, कब्रिस्तानो को गूगल मैप से लेकर कई तरीके से देखा निगरानी में रखा जा सकता है। कोरोना से मौतों का सरकारी आकड़ा करीब तीन लाख हो चुका है...यानी भावई मने एशियन फ्लू का करीव 30-35 प्रतिशत..। तीसरी लहर की आशंका....वैरियंट्स की कतार...साइड इफेक्ट्स...भावई तो है... उस भावई से बचने का वक्त और बचाव, इलाज न था, इस भावई से बचने के उपाय, वक्त, इलाज सब मौजूद है,, बच सकते हैं....खुद बचिए, दूसरों को सचेत कीजिए...बचाइए। मास्क लगाइए, फिजिकल डिस्टेंस रखिए, सेनेटाइज कीजिए...बारी आने पर वैक्सीन लीजिए...भावई मत बनिए।

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