सबसे पहले तो इस शीर्षक के लिए ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी के प्रवर्तकों, फालोअरों और पक्षधरों से क्षमायाचना करता हूं, जैसे कि पूर्वज गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखने की शुरूआत में वंदउ खलव्रंद कहते हुए दुष्टों को नमन किया था, क्योंकि गुसांई जी का मानना था कि उनकी कृपा के बिना मानस का लेखन नहीं हो पाता। तो मित्रों मैं ईमानदारी के झंडाबरदारों से क्षमा याचना करते हुए नए जमाने की नई बात यानी नए युग के स्लोगन बेशर्मी इज द बेस्ट पॉलिसी के प्रमोशन के लिए आपसे रूबरू हूं। क्यांेकि वो जमाना लद चुका है जब ईमानदारों की कद्र होती थी, मेरी बात को यूं समझें कि अब लाल साबुन से नहाने और तंदुरूस्त रहने के विज्ञापनों का जमाना लद गया है और संदल समेत एक दर्जन खुश्बुओं में आने वाले साबुनों का जमाना है। इस नए स्लोगन के प्रमोशन के लिए मैं क्यों आगे आया इसकी भी रोचक और प्रेरक दास्तां है। मेरे एक परिचित हैं, मित्र कहलाने लायक कोई योग्यता उनमें न तो है और न ही वे इस तरह की वाहियात बातों में यकीन ही रखते हैं। उनकी खूबी ये है कि वे सफल हैं, और उसकी जड. वे बेशर्मी को मानते हैं, गुनते हैं और धारण करते हैं। वे शरीर विज्ञान की इस धारणा के भी खिलाफ हैं कि रीढ. की हडडी शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग है, वे यहां तक मानते हैं कि इसकी जरूरत ही क्या है! तो जनाब वे कहते हैं सफल होने के लिए चमचागिरी महत्वपूर्ण गुर है, लेकिन मूल मंत्र तो बेशर्मी है। एक दफा यह जीवन का अविभाज्य अंग बन जाए तो चमचागिरी, चुगलखोरी, टांग खिंचाई इत्यादि सहयोगी गुणों के जरिए सफलता मिल ही जाती है। उनका जीवन प्रत्यक्षं किं प्रमाणं की तरह मेरे सामने है। अपेक्षाकृत कम शिक्षित, कम अक्ल और अविश्वसनीय होने के बावजूद वे न केवल सफल हैं, बल्कि राह में आने वाले हर किस्म के रोड.े को हटाने में सक्षम हैं। उनकी पूरी सफलता में अहम किरदार बेशर्मी का ही है। वे अपनी कीर्ति के ऐसे ऐसे किस्से सहजता से सुनाते रहते हैं कि सुनने वाले हर शख्स की आंखों में परिहास की चमक कौंध जाती है, वे इसे भांप लेते हैं, जान लेते हैं लेकिन इस सबके बावजूद उन्हें इस सबसे कोई फर्क नहीं पड.ता, इसीलिए तो वे सफल हैं। जब केंद्र में फिर यूपीए की सरकार आई थी तो वे बोले देखा बेशर्मी ही सफलता का एकमात्र पैमाना है, हमने कहा कैसे! तो कहने लगे लोकतंत्र में परिवारवाद को कोई जगह नहीं होना चाहिए, हमने कहा हां, वे बोले, लेकिन हकीकत में क्या है, नेहरू जी के कुनबे से चार सांसद चुने गए, इनमें से राहुल सुपर पीएम और सोनियाजी अल्ट्रा सुपर पीएम हैं। फारूख अब्दुल्ला और उनके दामाद सचिन पायलट मंत्री बन गए, बेटा उमर पहले ही मुख्यमंत्री बन चुके हैं। करूणानिधि मुख्यमंत्री, बेटा एम स्टालिन उपमुख्यमंत्री, दामाद एवं भानजा दयानिधि मारन केंद्र में मंत्री, बेटा अझागिरी भी केंद्र में मंत्री, बेटी कणिमोझी को मंत्री नहीं बनवा पाए तो क्या उनके लिए और कोई पद दिला देंगे। संगमा की बेटी अगाथा भी मंत्री बन गई।
मैंने पूछा ईमानदारी इज बेस्ट पॉलिसी को खारिज करने का इस वंशवाद से क्या ताल्लुक! वे बोले, ताल्लुक है। वो ये कि जो होना चाहिए वह नहीं होना ही सफलता है, इसी तरह ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी होना चाहिए के पीछे पड.े रहोगे तो सफल कैसे होगे? सफलता पाना है तो बेशर्मी इज बेस्ट पॉलिसी पर अमल करो, भले ही हर ओर दफतर की दीवाल पर ऑनेस्टी की तारीफ वाला स्लोगन लिखवा लो और उसे रोज अगरबत्ती भी लगाओ, लेकिन उसे दिल में मत बसाओ। दिल में जो बसा हो उसका जिक्र भी कोई करता है भला। श्रीमान सफल के इस दर्शन ने मुझे झकझोरा डाला, लेकिन मेरे शरीर के वर्तमान डीएनए में तो इस पर अमल मेरे लिए नितांत असंभव लग रहा है, इसलिए में उनके प्रभावी भाषण से हिल गया हूं। मैं असपफल ही रहना चाहता हूं, हो सकता है यही मेरी नियति हो। इस कथा ने आपके मन में भी हलचल मचाई हो तो लिखिएगा जरूर, आमीन!
शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011
बुधवार, 13 अप्रैल 2011
अन्ना से कौन डरता है उर्फ अन्ना से हम सब डरते हैं
शनिवार की रात करीब 11 बजे मेरे गृहनगर से एक अजीज दोस्त का फोन आया, वह बिना किसी भूमिका के सीधे मूल बात या सवाल पूछने के लिए कुख्यात है, मेरी ही तरह, शायद इसी वजह से मेरा दोस्त है। तो उसने पूछा क्यों सतीश, ये अन्ना हजारे क्या दूध के धुले हैं? मैंने भी बिना किसी भूमिका के पलटवार किया कि नहीं अन्ना का तो पता नहीं आडवाणी से लेकर प्रभात झा तक और सोनिया से लेकर दिगविजय और रामदेव से लेकर सिब्बल तक कोई दूध के धुले नहीं हैं। इसलिए अन्ना का अभी विरोध भले न करें लेकिन बाद में सब एकसुर से बोलेंगे जैसे सांसदों, विधायकों के वेतन भत्ते बढ़वाने के मामले में एकजुट रहते हैं, दलों की राजनीति से उपर। मित्र चुप होगया, अर्थात फोन डिसकनेक्ट हो गया। असल में मेरा मित्र इन दिनों पार्षद पति है, अर्थात उसकी पत्नी को भाजपा की ओर से ेटिकिट मिला और मेहनती, कर्मठ और अच्छी छवि वाला दोस्त पार्षद पति बन गया, हालांकि सभी उसी को बतौर पार्षद तवज्जो देते हैं, उस शहर में अभी तीन पार्षद पति हैं, इसके पहले नगरपालिका अध्यक्ष पति भी शहर के भागय विधाता रह चुके हैं। खैर यहां मैं मित्रनिंदा का पापकर्म करने के बजाय असल बात पर आना चाहता हूं। क्योंकि जो बात दो दिन पहले मेरा मित्र कह रहा था, लगभग वही बात दूसरे शब्दों में लालकृष्ण आडवाणी ने ब्लॉग में लिखी और बड़बोले मप्र भाजपा प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा ने कह दी। अन्ना ईमानदारी का प्रमाणपत्र बांटने वाले विवि नहीं हैं। यही अन्ना संघ कुनबे और भाजपा को दो दिन पहले भा रहे थे क्योंकि नरेंद्र मोदी और नितीश कुमार की तारीफ कर रहे थे। अब यह विचित्र राजनीति है कि नितीश बिहार चुनाव के वक्त मोदी को बिहार में आने नहीं देने पर आमादा थे। खैर अन्ना दूध के धुले हैं क्या? यह सवाल एक पार्षद पति पूछे कि वे विवि हैं क्या, यह सवाल प्रभात झा पूछें या फिर दिगिवजय सिंह अन्ना पर सवाल उठाएं। इन सबका मकसद एक ही है कि जिस राजनीतिक भ्रष्ट तंत्र के सहारे उनका राजनीतिक कैरियर परवान चढ़ा उसे वे कैसे एक आदमी के हाथों स्खलित होते देख सकते हैं। मैं किसी एक दल या नेता की बात नहीं कर रहा, जिसके लिए राजनीति सत्ता पाने और उसका बेजा इस्तेमाल करने, कमाउ धंधे की तरह है, वह बना बनाया सिस्टम टूटने की कल्पना कैसे कर सकता है? मेरे दोस्त ने मुझे ईमानदारी से बताया कि डेढ़ लाख रुपए खर्च हुए तब चुनाव जीत पाए थे, अब तक 10 प्रतिशत भी हिसाब बराबर नहीं हो पाया, ऐसे में कोई ईमानदारी की बात करता है तो लगता है,दिवालिया करना चाहता है हमें। अब सोचिए जो प्रदेश अध्यक्ष बना है, राष्ट्रीय महासचिव बना है, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री बना है, किस बूते, किस खर्चे और किस तरह के समझौते से बना होगा। ऐसे में अब पूरा भ्रष्टाचार मिटा डालने पर तुल जाओगे तो शुरूआती जन समर्थन के बाद सियासी तंत्र का विरोध झेलना ही पड़ेगा। अन्ना साहब आखिर लोगों को अपनी रोज रोटी और मीडिया को कोई दूसरा तमाशा ढूंढना ही पड़ेगा, अगर ऐसा नहीं होता तो आपको अनशन करने की जरूरत ही क्यों पड़ती। गांधी के आंदोलन का हमने क्या किया? जेपी का क्या किया? आपका भी वही करेंगे। मध्य वर्ग को चीयर अप कर सकता है, लेकिन कुछ देर, बाकी उसका विश्व कप, आईपीएल इत्यादि ही व्यस्त रखते और भाते हैं। चंद एनजीओ उनमें भी ज्यादातर आपके नाम पर अपनी दुकान जमाने के इच्छुक थे, इस शमां को रोशन नहीं रख पाएंगे, आंदोलन गरीब और मेहनतकश वर्ग के सपोर्ट से लंबा चल सकता है, क्या ऐसा हो पाएगा।
बुधवार, 6 अप्रैल 2011
क्रिकेटरों के साथ जमीन से जुडि़ए
शीर्षक से चौंकिए मत, हालांकि मैं अपने उस अनुभव को बयान कर रहा हूं जिसकी शुरूआत चौंकने से ही हुई थी। हाल ही में मुझे एक पारिवारिक कार्यक्रम में उत्तरप्रदेश के उस इलाके में जाना पड़ा जिसे दिल्ली वालों की जुबान में एनसीआर कहते हैं, मतलब उत्तरप्रदेश के नोएडा और गाजियाबाद इलाके में दो दिन रहा। दिल्ली सूबे की सरहदों के इर्द गिर्द हरियाणा और उत्तरप्रदेश के इलाकों को दिल्ली की आबादी का दवाब झेलना पड़ रहा है। इन दोनों सूबों की सरकारों की कमाई के सबसे बड़े जरिए भी यही इलाके हैं। यहां के जमींदार भी करोड़ और अरबपति हो चुके हैं। खैर मैं तो क्रिकेटमय देश के सितारे क्रिकेटरों के नए रूप से परिचय होने के अनुभव को बताना चाहता हूं। न्यू ओखला इंडस्ट्रियल डवलपमेंट अथारिटी उर्फ नोएडा से जैसे ही मैं गाजियाबाद के उस इलाके की ओर मुड़ा जिसे डवलप होने को आतुर कहते हैं, मेरा स्वागत बड़े बड़े होर्डिंगस, बैनरों और पोस्टरों से हुआ। हर पोस्टर, होर्डिंग पर आज और कल के सुपर क्रिकेट सितारों की तस्वीरें हैं, होर्डिगस का न तो क्रिकेट विश्वकप जीतने की खुशी से कोई मतलब है और न ही बाइक, शेविंग क्रीम, सीमेंट, कुकिंग आइल, इंजन ऑयल के विज्ञापनों से कोई नाता, जिनके हम लोग आदी हो चुके हैं। जो क्रिकेटर शून्य पर आउट होता है, उसके बाद उसी वक्त ब्रेक में उसके बल्ले की चमक के साथ किसी प्रोडक्ट का इंड्रोस्मेंट आ जाता है। गाजियाबाद के लिए जाने वाले मोड़ से 15 किलोमीटर का वह सिलसिला शुरू हो जाता है, जहां हजारों होर्डिंग लगे हैं। वहां वीरेंद्र सहवाग किसी स्टेट में फ्लैट की बुकिंग कराने की सलाह देते नजर आ रहे हैं तो कहीं महेंद्र सिंह धोनी, गौतम गंभीर तो कहीं कपिलदेव एक करोड़ रुपए के फ्लैट बुक कराने के फायदे बता रहे हैं। दर्जनों क्रिकेटर जमीन और मकान बुक कराने के लिए बिल्डर्स की ध्वजा उठाए दिखे। ट्रकों की आवाजाही, धूल का बवंडर और इसके बीच खेतों में आखिरी सांसें गिनती गेहूं की फसल और आसपास पंद्रह और 20 माले के फ्लैट्स की हाइराईस बिल्डिंगस का निर्माण जारी है। यह मायावती का उप्र है, विकास के नए प्रतिमान गढ़ता और खेती का मर्सिया पढ़ता विकास। रास्ते में एक नदी का पुल पड़ता है, नदी का अस्तित्व समाप्त प्राय है, हिंडेन नाम की यह नदी कभी कभी कल रही होगी, अब तो यह हिडन हो गई है। वापसी में शिप्रा भी दिखी, नदी नहीं एक टाउनशिप। शिप्रा नदी तो उज्जैन में ही बदहाल है। कपिलदेव पंचतत्व का विज्ञापन कर रहे हैं, ये पंचतत्त्व क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा अर्थात धरती, पानी, आग, आसमान और हवा अर्थात पर्यावरण की चिंता के नहीं बल्कि बिल्डिंग बेचने के लिए इन पांचों तत्वों की बर्बादी में सहभागिता है। यहां आकर लगता है कि आबादी के बढ़ते दबाव, अकूत धन कमाने की अकूत संभावनाओं, नेताओं और सरकारों की उसमें अपने स्वार्थों में सहभागिता के साथ ही हमारे राष्ट्रीय नायकों की भी मिलीभगत पर्यावरण और धरती को कितना खतरा पैदा कर रही है। खेती और पर्यावरण का क्या होगा, यह चिंता भी करना होगी। यह अकेले गाजियाबाद, नोएडा, गुडग़ांव का किस्सा नहीं हैं। बेंगलुरू हो कि मुंबई, चैन्ने हो कि भोपाल, अगरतला हो कि गुवाहाटी, सब तरफ खेती बिल्डिर्स और सरकार के निशाने पर है, पर्यावरण ताक पर रख दिया गया है। विज्ञापनों के जरिए धन बटोरने में आगे रहने वाले क्या हमारे हीरोज इस बारे में भी सोचेंगे। आमीन
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