बचपन में प्राथमिक विद्यालय की हिन्दी पाठ्यपुस्तक में एक बोध कथा थी" नाम बड़ा या काम" । जिसका निचोड़ था कि नाम में क्या है, काम प्रभावी लोक हितकारी होना चाहिए। यह कहानी बालमन में ऐसी पैठती है कि जीवन भर नहीं भूलती। नाम राम, कृष्ण, महावीर, गणेश, महादेव आदि जिनके होते हैं या फिर शेर सिंह क्या वे वैसै होते हैं? खैर हमारे शहर बासौदा का नाम "वासुदेव नगर" रखने का ऐलान हुआ है तो जिस नगर में मेरी मातामही ( नानी) , माता और मेरा खुद का जन्म हुआ जहाँ तब तक उपलब्ध उच्चतम शिक्षा बीएससी मैनै पाई, जो मेरे लिए दुनिया की सबसे प्रिय नगरी है बासौदा। बासौदा के साथ पास का गांव "गंज" भी जुड़ा है गंजबासौदा। वो इसलिए कि एक गाँव है जिसका नाम है " दाऊद बासौदा"। एक और जगह है जिसका नाम है हैदरगढ लेकिन एक जमाने तक "छोटा बासौदा" कहलाता था, जिसके पास मोहम्मदगढ है, जिस बोलचाल में मम्मदगढ कहा जाता है, जिसके मिडिल स्कूल में मेरे पिताजी शिक्षक रहे ( 1974-76) में दूसरी कक्षा मोहम्मदगढ स्कूल में ही पढ़ा। अब बात बासौदा ( हम बासौदा वाले बासदा कहते हैं, लिखते गंजबासौदा हैं और विधानसभा क्षेत्र है बासौदा) की। तो जनाब ये नाम बदलने की बात सबसे पहले 1977 हलधर किसान चुनाव चिन्ह पर जनता पार्टी के विधायक बने एडवोकेट जमना प्रसाद चौरसिया जी ( अब दिवंगत) ने उठाई थी। अब रविवार को मुख्यमंत्री डा.मोहन यादव के मुख से पूर्ति का ऐलान क्षेत्रीय सांसद अत्यंत लोकप्रिय नेता सर्वाधिक समय मप्र के मुख्यमंत्री रहे वर्तमान केन्द्रीय कृषि मंत्री शिवराजसिंह चौहान की मौजूदगी में हुआ। बासौदा का नाम प्रयागराज को इलाहाबाद से फिर प्रयागराज करने जैसा नहीं है, न ही जगदीशपुर से इस्लाम नगर बनाने और भैरून्दा से औबेदुल्लागंज बनाने की क्रूरता को दुरुस्त करने जैसा है। इस्लाम नगर फिर जगदीशपुर बनना स्तुत्य और गौरवपूर्ण है लेकिन हलाली नदी, हलाली डैम अब भी कायम हैं, जैसै हबीबगंज रेलवे स्टेशन रानी कमलापति बन गया लेकिन कोई माई का लाल थाना हबीबगंज का नाम नहीं बदल रहा, जबकि हबीबगंज नामक कोई जगो भोपाल में हैई नई भाई। बासौदा का लिखित भू अभिलेख एक शिलालेख में मिलता है करीब साढ़े चार सौ साल पहले। यह शिलालेख हमारे बासौदा के गनगौर वाला बाग ( अब यह नाम भी कोई याद नहीं रखता, लोग जमीन खाने लगे, नाम भी हजम करने लगे) की प्राचीन बावड़ी की शुरुआती सीढियों की दीवार पर लगा है। इसमें लिखा है- *मौजा- बासौदा, परगना- उदयपुर) संवत 1632 या आसपास का है, इस वक्त पक्की तारीख स्मरण में नही हैं।* खैर मौजा बासौदा अपनी मौज में ही रहा, तहसील बना, नगरपालिका बनी, आसपास और दूर दूर तक के आसपास के जिलों के ग्राम्य अंचलों के लिए बाजार और व्यापार का पसंदीदा शहर, जहाँ से सौदा लेना अति उत्तम इसलिए " बासौदा"। ए श्रेणी की मंडी और पत्थर के कारोबार तथा बाकी व्यापार और मेहनती किसानों के श्रम से चमका और यहाँ की प्रतिभाओं ने शहर, प्रदेश, देश , विदेश में शहर का नाम स्थापित किया। यहाँ की जन आकांक्षा बासौदा को वासुदेव नगर या कुछ और नाम देने की कभी नहीं रही। जन आकांक्षा है सब योग्यताएं, अहर्ता पूरी करने वाले बासौदा को जिला बनाया जाए। आगर- मालवा, अनूपपुर, डिण्डोरी, अशोकनगर, बुरहानपुर, हरदा, बड़वानी, नीमच, श्योपुर, उमरिया, निवाडी,...लगातार नये जिला बनते गए तो बासौदा किस पैमाने पर कम है? कब तक न्याय न होगा? नाम बदलने से क्या बदल जाएगा? सवाल अब यह है कि नाम बदलने से युवाओं पर नशे की गिरफ्त कम होगी? उद्योग लग जाएंगे? जमीनों पर अतिक्रमण कम होंगे? अपराध कम हो जाएँगे? छुद्र राजनीति और भ्रष्टाचार से मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर होकर विकास और शहर हित में एकजुटते हो जाएगी? *- सतीश एलिया ( वरिष्ठ पत्रकार)*
सोमवार, 24 नवंबर 2025
शनिवार, 3 मई 2025
पहलगाम इस्लामिक आतंकवादी नरसंहार और हमारी 'कायरता'...
- सतीश एलिया
कश्मीर के पहलगाम में 27 पर्यटकों की हिन्दू होने पर गोली मारकर हत्या ने देश में भारी गुस्से और पाकिस्तान से एक और युद्ध की नौबत के हालात हैं। 1947 में अधूरे भारत-पाकिस्तान विभाजन से अब तक हुए भारत पाकिस्तान के बीच चार युद्धों और पाकिस्तानी प्रशिक्षित आतंकवाद की पहलगाम जैसी सैकड़ों वारदात में कुछ नया है तो ये कि गोली मारने से पहले एक सवाल पूछा गया और उसका सही जबाव देने पर भी मौत और गलत जबाव देने पर जांच में फेल होने पर भी मौत। भारत सरकार की बदला लेने या मरने वालों के परिवारों को न्याय मिलकर रहेगा की प्रतिज्ञा और विपक्ष के नेताओं की पहले एकजुटता और चार दिन बाद ही साजिश कर्ता पाकिस्तान की हिमायत करती सी बयानबाजी के बीच कुछ बुनियाद सवाल हमें अपने आप से करने का भी वक्त है। जो कलमा न पढ़ पाने और खतना न होने के कारण मारे गए, उनके प्रति पूरी सहानुभूति और उनके परिवारों के दुख के साथ पूरी संवेदना होने के बावजूद सवाल ये भी है कि चार बंदूकधारी जाहिल 27 लोगों पर भारी पड़ गए। आतंकियों के आदेश पर पेन्ट उतारने वाले किसी ने भी मर्दानगी नहीं दिखाई, बंदूक छीनने की कोशिश क्यों नहीं की? कोई तानाजी, संभाजी क्यों नहीं बना? किसी की भी पत्नी ने अपने सुहाग को बचाने जाहिल इस्लामिक आतंकियों से भिड़ने की हिम्मत क्यों नहीं दिखाई? अभी अभी तो पूरे देश ने वीर शिवाजी के पुत्र संभाजी के जीवन पर बनी फिल्म ' छावा' देखी थी। आतताई विदेशी आक्रांता इस्लामिक जिहादी औरंगजेब के खिलाफ आक्रोश से भर गए थे और संभाजी के जयकारे पापकार्न खाते हुए थियेटरो में लगाए थे। ये जो 27 मारे गए, उनमें से ज्यादातर ने ' छावा' , बार्डर इत्यादि देखी ही होगीं न! अपने पतियों को मारे जाते देख रोने वाली वारांगनाएँ वीरांगनाएँ क्यों नहीं बनीं? एक आदिल हुसैन विदेशी आतंकवादियों से कैसै भिड़ गया? क्या तत्कालीन सरसंघचालक प्रो. राजेन्द्र सिंह ' रज्जाक भैया' ने एक बार हिन्दुओं को कायर कहा था, तो सच ही कहा था। विचार करके देखिए तरह तरह जाहिल विदेशी आक्रांताओ ने भारत पर तकरीबन 1200 साल राज किया तो इसके पीछे जाहिलियत का वीरता से मुकाबला न कर पाना ही अहम और सबसे प्रमुख कारण रहा था। शिवाजी, महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान, राणा सांगा , लक्ष्मीबाई जैसै अप्रतिम शौर्य के प्रेरक उदाहरणों से कई गुना ज्यादा उदाहरण गद्दारी और कायरता के हैं। आज भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान में जितने तरह के और जितने मुसलमान हैं उनमें से 99 फीसदी वे ही हैं जिनके पूर्वज किसी आध्यात्मिक स्वीकार्यता या राजी खुशी से नहीं बल्कि ऐसे ही कायरता के चलते कन्वर्ट हुए थे। जब तक हम भारत के सदियों गुलाम रहने, भारत के विभाजन की असल जड़ को नहीं समझेंगे तब तक 'पहलगाम ' होते ही रहेंगे। सेना की सुरक्षा समूचे देश को नहीं सीमा पर ही होनी चाहिए, देश में तो नागरिको को ही वीरता से आतंकवाद से दो दो हाथ करने लायक बनना होगा। स्कूलों, कालेजों, विश्वविद्यालयों में सैनिक प्रशिक्षण अनिवार्य करे बिना ये संभव नहीं। राष्ट्रीय कैडेट कोर ( एनसीसी) की अभी क्या स्थिति है? बीते 78 साल में स्कूल, कालेज, विवि और कुल विद्यार्थियों की संख्या में जितनी वृध्दि हुई है, उसकी तुलना में एनसीसी कैडेट्स की संख्या कितनी बढी? आज 140 करोड़ आबादी वाले हमारे देश में स्कूल कालेजों में करीब 31 करोड़ विद्यार्थी हैं। इनमें से करीब 12 लाख एनसीसी कैडेट्स हैं। यानी देश की आबादी में एनसीसी कैडेट्स करीब 1.11 प्रतिशत हैं और विद्यार्थियों की संख्या में से 2.58 फीसदी विद्यार्थी ही कैडेट्स हैं। हमारे देश में उच्च शिक्षा संस्थान लगातार बढ़ते जा रहे हैं। उनमें प्रवेश की परीक्षाओं की तैयारी के संस्थान और फीस भी लगातार बढते जा रहे हैं। माता पिता बच्चो के अच्छे संस्थानों में प्रवेश, विदेश में पढ़ाई के बाद देशी विदेशी कंपनियों में पैकैज और नौकरियों को जीवन का लक्ष्य बना रहे हैं और बच्चे भी वही कर रहे हैं। बच्चों को प्रतियोगी प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए कोचिंग को प्राथमिकता देने उनके हायर सेकंडरी स्कूलो के लिए डमी स्कूल में एडमिशन कराए जाते हैं। ऐसे प्रवेशकामी और पैकैजकामी माता-पिता और युवा जिहाद ट्रेंड जाहिल आतंकवादियों से कैसै मुकाबला कर सकते हैं? अखाड़े व्यायामशाला अतीत की बात हो रहे हैं, जिम और स्ट्रायड से दिखलौट देह का आकर्षण बढ़ रहा। युवाओ के विवाह का आधार पैकैज बन रहे हैं, हनीमून मनाते जोड़ों से कलमा सुनाने की फरमाइश करने और पेन्ट उतरवाकर सुन्नत( खतना) चेक करने वाले जाहिल इस्लामिक जिहादियो के हाथों मारे जाने के अलावा लडकर मरने का विकल्प कैसै उनके जेहन में आता, उन्होंने आतंकवाद के आगे हार मान ली और मारे गए। 27 लोग बंदूक छीनने का प्रयास करते एकाध को मार पाते पकड़ पाते भले ही सब मारे जाते तो एक मिसाल बनती, लेकिन आतंकवादियो से भिड़ने की हिम्मत दिखाई और वीर की तरह जो अट्ठाइसवा मारा गया वो कलमा भी जानता था, सुन्नत भी थी, लेकिन वो उसी की तरह कलमे वाले आतंकियों जैसा नहीं था, न ही आतंकवाद को पैसे के लिए कलमे के लिए साथ देने वाले स्थानीय गद्दारो की तरह था। काश ! वे 27 भी लडकर मरते या अब विलाप कर रही उनकी पत्नियाँ वीरांगना बनती और पतियों को बचाती या खुद भी शहीद हो जाती। हम अपनी संतानों को कब वीरता का मंत्र , प्रशिक्षण और हौसला दे सकेंगे? सरकार को अब सैनिक प्रशिक्षण अनिवार्य करना ही होगा। तभी हम मुक्कमल जबाव दे सकेंगे तब ऐसे "पहलगाम " नहीं होगें, वीरता भरे होगें, सेना की तरह हर भारतीय पाकिस्तान या भारत के किसी और दुश्मन को सटीक जबाव दे पाएगा।
बुधवार, 19 मार्च 2025
संभल, महू, नागपुर.....दंगे अनेक, जड़ एक...अधूरा बंटवारा, पूरा वोट बैंक ! - सतीश एलिया
जो संभल में हुआ, तमाम ऐहतियात, चौकसी, सख्ती, चाक-चौबंद सुरक्षा इंतजाम के दावों के बावजूद वही महू में हुआ और ठीक वैसा ही अब नागपुर में भी हुआ। तीन अलग अलग राज्य उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और अब महाराष्ट्र , तीनों जगह 'डबल इंजन' सरकार और बुलडोज़र की नजीरें, नागपुर में तो विश्व के सबसे बड़े सामाजिक संगठन का मुख्यालय भी है, लेकिन पिटा कौन, संपत्ति किसकी लुटी, नष्ट हुई ? जो डबल इंजन चलाने बुलडोज़र चलाने में अपने वोट की आहूति देता है। भारी कौन? वो वर्ग जो ' गंगा- जमुनी ' जैसै फर्जी जुल्मों को जूते की नोंक पर रखकर ठोकर मारता है और भारत की टीम के हारने का जश्न मनाता है, शोभायात्राओ पर पथराव करता है और गाय काटते है, जो औरंगजेब और बाबर को अपना पुरखा मानता और उनके कुकर्मो पर फख्र महसूस करता है, जो लाल किला, ताजमहल को अपने मालिकाना हक के सुबूत बताता है। जो जमींदोज हो चुकी ' बाबरी' को फिर तामीर करने के नारे पर सोशल मीडिया पर ऐलानिया खुद को कुर्बान करने की बात कर रहा है जबकि सच्चाई यही है कि जो वर्ग खुद को आततायी मुगलों समेत अन्य विदेशी आक्रांताओ से खुद को जोड़कर देख रहा है, उसके पुरखों को उन्हीं आक्रांताओ ने धर्म भ्रष्ट कर, अपमानित कर मा मारकर कन्वर्ट किया था। आज जो उनकी असल पहचान नहीं है। वे एक तरह से उस विचार, उस आक्रांता पहचान के साथ खड़े है जो उनके पुरखों की गुनहगार है। वे उनके खिलाफ कर दिए गए हैं या बरगलाकर किए जा रहे हैं जो आक्रांताओ के आगे झुके नहीं अपने धर्म पर टिके रहे। जिन्होंने अपने मठ, मंदिर, गुरुद्वारे, धर्म बचाने कष्ट सहे, बलिदान दिए और अपने राष्ट्र को बचाए रखा। संभल, महू, नागपुर से पहले बीते करीब 90 बरस में जो दंगे भारत भूमि में हुए उनकी जड़ एक ही है। इस जड़ को पूरी तरह से उखाड़ने का इकलौता अवसर 78 साल पहले आया था जब मजहब के नाम पर भारत के एक भूभाग को अलग कर उसे पाकिस्तान नाम देकर एक अलग मुलुक बनाया गया। लेकिन जिस बिना पर मुल्क तकसीम किया गया उस पर ही मुकम्मल अमल नहीं किया गया, बल्कि होने ही नहीं दिया। उस मुल्क में उस जमीन के मूल बाशिंदे जो मुसलमान नहीं थे, अपनी मिट्टी से मुहब्बत और जिन्नाह के सेक्युलर फरेब में आकर वहीं रह गए, दोयम दर्जे में जी जीकर या मर मरकर 23 फीसद से चार पांच फीसद रह गए। जो मुसलमान यहाँ से पाकिस्तान को जन्नत मिलना समझकर गए, उनकी तीसरी पीढ़ी मुहाजिर की जलील पहचान के साथ वहाँ रहती है। भुखमरी और आटे के लाले में मुब्तिला पाकिस्तानी आबादी में इन्हीं की तादाद ज्यादा है। हालांकि पाकिस्तान से अलग बांग्लादेश बनने और 55 साल बाद बांग्लादेश के फिर पाकिस्तान कई तरह बन जाने की कहानी बंटवारे मुकम्मल न होने के गुनाह का ही बड़ा हिस्सा है लेकिन बलूचिस्तान के हालात फिर वही साबित कर रहे हैं जो 1971 में अलग बांग्लादेश बनने से साबित हुआ था। अलग बलूचिस्तान बन भी गया तो भविष्य में वो भी आज के बांग्लादेश की तरह नहीं हो जाएगा, इसकी गारंटी कोई नहीं ले सकता। लेकिन अब सवाल बांग्लादेश या बलूचिस्तान का नहीं है। सवाल 78 साल से जारी भारत की एक बड़ी आबादी का भारत विरोधी दंगाई होने का है। मुकम्मल बंटवारा यानी एक एक मुसलमान को पाकिस्तान भेजना और एक एक गैर मुसलमान को 1947 में अलग मुलुक पाकिस्तान बना दी गई जमीन से भारत लाना था। यही न होना 78 साल से मुसलसल दंगों की जड़ है। सरकार को अब पूरी तैयारी के साथ एक देश एक कानून यानी सेक्युलर सिविल कोड या समान नागरिक संहिता लानी और लागू करनी ही होगी। हर दंगे को जाने देने और होने के बाद बुलडोजर या अन्य एक्शन से वास्तव में कोई नतीजा निकलने वाला नहीं है। सुरक्षा बलों, जरूरत पड़े तो सेना को देश के भीतर उसी तरह मुस्तैद रखना होगा, जैसा हम देश की सीमाओं पर करते हैं। सबका विश्वास नारे में उन लोगों को पहचान कर अलग थलग करना होगा जो इस विश्वास में ' विष' की तरह शामिल हैं और देश को दंगों का विषपान करने पर विवश कर रहे हैं। 1947 में जिनके लिए पाकिस्तान बना उनको 100 फीसदी वहाँ न भेजकर जो भयंकर भूल उस वक्त के लीडरान ने की , उसे दुरुस्त करने के उपाय खोजने ही होगें, ये आज के नेतृत्व की ही जिम्मेदारी है, भारत अपना पूरा समर्थन इस वक्त के नेतृत्व को दे रहा है। भारत के भीतर फल फूल रहे और खुली आँखों से दिख रहे ' छोटे छोटे पाकिस्तान ' दीर्घकालीन बहुआयामी रणनीति बनाकर नेस्तनाबूद करने ही होंगे। सबका विकास में अनजाने, अनचाहे ही इनका भी विकास होने की भूल गलती को दुरूस्त करना होगी। ये न हुआ तो संभल, महू, नागपुर.....यह फेहरिस्त विष बेल बढती ही रहेगी। अगर हम अगले 22 बरस में 1947 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था बनना चाहते हैं, विश्व गुरु कहलाना चाहते हैं तो भारत को दंगामुक्त बनाए बिना यह कैसै संभव होगा? भारत की बहुसंख्यक आबादी भारत में वैसै रहेगी जैसी पाकिस्तान में अल्पसंख्यक आबादी रहने को मजबूर है तो भारत परम वैभव के लक्ष्य को हासिल कर पाएगा क्या? दंगों को जन्म देने वाली विष बेलों को समूल नष्ट करना ही होगा।
