जो संभल में हुआ, तमाम ऐहतियात, चौकसी, सख्ती, चाक-चौबंद सुरक्षा इंतजाम के दावों के बावजूद वही महू में हुआ और ठीक वैसा ही अब नागपुर में भी हुआ। तीन अलग अलग राज्य उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और अब महाराष्ट्र , तीनों जगह 'डबल इंजन' सरकार और बुलडोज़र की नजीरें, नागपुर में तो विश्व के सबसे बड़े सामाजिक संगठन का मुख्यालय भी है, लेकिन पिटा कौन, संपत्ति किसकी लुटी, नष्ट हुई ? जो डबल इंजन चलाने बुलडोज़र चलाने में अपने वोट की आहूति देता है। भारी कौन? वो वर्ग जो ' गंगा- जमुनी ' जैसै फर्जी जुल्मों को जूते की नोंक पर रखकर ठोकर मारता है और भारत की टीम के हारने का जश्न मनाता है, शोभायात्राओ पर पथराव करता है और गाय काटते है, जो औरंगजेब और बाबर को अपना पुरखा मानता और उनके कुकर्मो पर फख्र महसूस करता है, जो लाल किला, ताजमहल को अपने मालिकाना हक के सुबूत बताता है। जो जमींदोज हो चुकी ' बाबरी' को फिर तामीर करने के नारे पर सोशल मीडिया पर ऐलानिया खुद को कुर्बान करने की बात कर रहा है जबकि सच्चाई यही है कि जो वर्ग खुद को आततायी मुगलों समेत अन्य विदेशी आक्रांताओ से खुद को जोड़कर देख रहा है, उसके पुरखों को उन्हीं आक्रांताओ ने धर्म भ्रष्ट कर, अपमानित कर मा मारकर कन्वर्ट किया था। आज जो उनकी असल पहचान नहीं है। वे एक तरह से उस विचार, उस आक्रांता पहचान के साथ खड़े है जो उनके पुरखों की गुनहगार है। वे उनके खिलाफ कर दिए गए हैं या बरगलाकर किए जा रहे हैं जो आक्रांताओ के आगे झुके नहीं अपने धर्म पर टिके रहे। जिन्होंने अपने मठ, मंदिर, गुरुद्वारे, धर्म बचाने कष्ट सहे, बलिदान दिए और अपने राष्ट्र को बचाए रखा। संभल, महू, नागपुर से पहले बीते करीब 90 बरस में जो दंगे भारत भूमि में हुए उनकी जड़ एक ही है। इस जड़ को पूरी तरह से उखाड़ने का इकलौता अवसर 78 साल पहले आया था जब मजहब के नाम पर भारत के एक भूभाग को अलग कर उसे पाकिस्तान नाम देकर एक अलग मुलुक बनाया गया। लेकिन जिस बिना पर मुल्क तकसीम किया गया उस पर ही मुकम्मल अमल नहीं किया गया, बल्कि होने ही नहीं दिया। उस मुल्क में उस जमीन के मूल बाशिंदे जो मुसलमान नहीं थे, अपनी मिट्टी से मुहब्बत और जिन्नाह के सेक्युलर फरेब में आकर वहीं रह गए, दोयम दर्जे में जी जीकर या मर मरकर 23 फीसद से चार पांच फीसद रह गए। जो मुसलमान यहाँ से पाकिस्तान को जन्नत मिलना समझकर गए, उनकी तीसरी पीढ़ी मुहाजिर की जलील पहचान के साथ वहाँ रहती है। भुखमरी और आटे के लाले में मुब्तिला पाकिस्तानी आबादी में इन्हीं की तादाद ज्यादा है। हालांकि पाकिस्तान से अलग बांग्लादेश बनने और 55 साल बाद बांग्लादेश के फिर पाकिस्तान कई तरह बन जाने की कहानी बंटवारे मुकम्मल न होने के गुनाह का ही बड़ा हिस्सा है लेकिन बलूचिस्तान के हालात फिर वही साबित कर रहे हैं जो 1971 में अलग बांग्लादेश बनने से साबित हुआ था। अलग बलूचिस्तान बन भी गया तो भविष्य में वो भी आज के बांग्लादेश की तरह नहीं हो जाएगा, इसकी गारंटी कोई नहीं ले सकता। लेकिन अब सवाल बांग्लादेश या बलूचिस्तान का नहीं है। सवाल 78 साल से जारी भारत की एक बड़ी आबादी का भारत विरोधी दंगाई होने का है। मुकम्मल बंटवारा यानी एक एक मुसलमान को पाकिस्तान भेजना और एक एक गैर मुसलमान को 1947 में अलग मुलुक पाकिस्तान बना दी गई जमीन से भारत लाना था। यही न होना 78 साल से मुसलसल दंगों की जड़ है। सरकार को अब पूरी तैयारी के साथ एक देश एक कानून यानी सेक्युलर सिविल कोड या समान नागरिक संहिता लानी और लागू करनी ही होगी। हर दंगे को जाने देने और होने के बाद बुलडोजर या अन्य एक्शन से वास्तव में कोई नतीजा निकलने वाला नहीं है। सुरक्षा बलों, जरूरत पड़े तो सेना को देश के भीतर उसी तरह मुस्तैद रखना होगा, जैसा हम देश की सीमाओं पर करते हैं। सबका विश्वास नारे में उन लोगों को पहचान कर अलग थलग करना होगा जो इस विश्वास में ' विष' की तरह शामिल हैं और देश को दंगों का विषपान करने पर विवश कर रहे हैं। 1947 में जिनके लिए पाकिस्तान बना उनको 100 फीसदी वहाँ न भेजकर जो भयंकर भूल उस वक्त के लीडरान ने की , उसे दुरुस्त करने के उपाय खोजने ही होगें, ये आज के नेतृत्व की ही जिम्मेदारी है, भारत अपना पूरा समर्थन इस वक्त के नेतृत्व को दे रहा है। भारत के भीतर फल फूल रहे और खुली आँखों से दिख रहे ' छोटे छोटे पाकिस्तान ' दीर्घकालीन बहुआयामी रणनीति बनाकर नेस्तनाबूद करने ही होंगे। सबका विकास में अनजाने, अनचाहे ही इनका भी विकास होने की भूल गलती को दुरूस्त करना होगी। ये न हुआ तो संभल, महू, नागपुर.....यह फेहरिस्त विष बेल बढती ही रहेगी। अगर हम अगले 22 बरस में 1947 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था बनना चाहते हैं, विश्व गुरु कहलाना चाहते हैं तो भारत को दंगामुक्त बनाए बिना यह कैसै संभव होगा? भारत की बहुसंख्यक आबादी भारत में वैसै रहेगी जैसी पाकिस्तान में अल्पसंख्यक आबादी रहने को मजबूर है तो भारत परम वैभव के लक्ष्य को हासिल कर पाएगा क्या? दंगों को जन्म देने वाली विष बेलों को समूल नष्ट करना ही होगा।
बुधवार, 19 मार्च 2025
रविवार, 9 फ़रवरी 2025
इंद्रप्रस्थ' में 27 साल बाद फिर भगवा ध्वज* * *सतीश एलिया*
* *मोदी की गारंटी पर मुहर और कांग्रेस के बदले ने ढहा दिया केजरीवाल का ' शीशमहल* '...
* *सतीश एलिया*
लगभग 27 वर्ष का सूखा समाप्त करते हुए भारतीय जनता पार्टी ने नई दिल्ली विधानसभा के चुनाव में प्रचंड बहुमत के साथ विजय हासिल की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उठी भारतीय जनता पार्टी की आंधी में न सिर्फ बड़े-बड़े किले ढह गए बल्कि इंद्रप्रस्थ से आप का तंबू ही उखड़ गया। भाजपा के लिए यह बड़ी उपलब्धि है क्योंकि अपने गढ़ में भाजपा वर्षों से स्वयं को बेगाना महसूस कर रही थी। लोकसभा चुनाव में लगातार दिल्ली में सफलता का परचम फहराने के बाद भी विधानसभा चुनाव में सफलता दूर की कौड़ी हो गई थी। इस बार सत्ता की हेट्रिक कर चुकी आप पार्टी को जहां सत्ता विरोधी लहर ने डुबोया, दूसरी तरफ सफल रणनीति के चलते भाजपा के पक्ष में चली लहर ने मानों तूफान का काम किया। नतीजा यह रहा कि अन्ना आंदोलन को हाईजैक कर बनी और एक एक कर नामचीन साथियो को जलील कर निकालने से वन मैन आर्मी बन।गई 'आप' के 'शिखर पुरुष' शीशमहल वाले अरविंद केजरीवाल का सशक्त किला ही ढह गया। केजरीवाल की तरह तिहाड़ याफ्ता पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया सुरक्षित सीट ढूंढने के बावजूद खेेत रहे, तो सौरभ भारद्वाज, सोमनाथ भारती, सत्येंद्र जैन और दुर्गेश पाठक भी किनारे नहीं लग सके। जैन भी तिहाड़ी हैं। और तो और लोकप्रिय ‘शिक्षक’ से आप नेता बने अवध ओझा भी पहली ही डुबकी से उभर नहीं पाए। मुख्यमंत्री आतिशी मार्लेना ही एकमात्र दिग्गज आप नेता रहीं जो मोदी के तूफान में अपनी किश्ती बामुश्किल किनारे ला सकीं।अब ही नेता प्रतिपक्ष बनेगी ऐसा तय माना जा सकता है।
राष्टीय राजधानी दिल्ली विधानसभा की 70 में से इस बार 68 सीटों पर चुनाव लड़ी भाजपा (दो सीट एनडीए सहयोगी जद (यू) और एलजेपी को दी थीं) 48 सीट पर विजय पताका फहराने में सफल रही। वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले उसने अपनी ताकत में आठ गुना इजाफा किया। वर्ष 2020 के चुनाव में उसे मात्र आठ सीट से संतोष करना पड़ा था। वहीं आम आदमी पार्टी 62 से 22 पर सिमट आई। भ भाजपा का स्ट्राइक रेट 71 प्रतिशत रहा और आप का 31 प्रतिशत रहा। कांग्रेस को लगातार तीन विधानसभा और लगातार तीन लोकसभा चुनाव में शून्य सीट मिलने से उसकी शर्मनाक डबल हैट्रिक लग चुकी है। एक पार्टी जिसका नेता खुद भी और जिसके बचे खुचे कार्यकर्ता भी उसे देश का भावी प्रधानमंत्री सोशल मीडिया पर अब भी बता रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी को हालांकि लोकसभा चुनाव 2024 के मुकाबले वोट प्रतिशत चार फीसदी घट गया है। लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव (2020) के मुकाबले लगभग नौ प्रतिशत वोट बैंक बढ़ा है। उधर, आप का वोट बैंक बीते विधानसभा चुनाव के मुकाबले दस प्रतिशत घटा है। इस चुनाव में मोदी की गारंटी ने तो काम किया ही, सीएम चेहरा घोषित न करना भी भाजपा की रणनीतिक जीत भी है। अरविंद केजरीवाल लंबे समय से सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को टारगेट करते रहे हैं, ताकि स्वयं को प्रधानमंत्री पद का दावेदार साबित कर सकें। लेकिन यही महत्वाकांक्षा इस बार उनके लिए हानिकारक साबित हुई। इस बार भाजपा ने मुख्यमंत्री चेहरा घोषित न करते हुए बार-बार प्रधानमंत्री मोदी से केजरीवाल पर हमले करवाए। आप को आप‘दा’ घोषित करने के अलावा मोदी ने ‘शीशमहल’ जैसी लोकप्रिय शब्दावली का भी प्रयोग किया। वहीं जनता जनार्दन से ‘मोदी को सेवा का अवसर देने’ की विनम्र अपील भी की। जो कारगर साबित हुई। भाजपा ने केजरीवाल के शीशमहल की वाीडियो क्लिप भी जारी की और बताया कि इस पर 45 करोड़ रूपए खर्च किए गए हैं।
उधर, मतदान के चार दिन पूर्व केंद्रीय बजट में मध्यम वर्ग को राहत देते हुए बारह लाख तक की आय टैक्स फ्री करना भी तुरुप का पत्ता साबित हुआ। दिल्ली में 67 फीसदी आबादी मध्यम वर्ग की बताई जाती है। साथ ही भाजपा ने सैद्धांतिक असहमति के बावजूद मुफ्त रेवडी बांटो प्रतियोगिता का मप्र, महाराष्ट्र की ही तरह हिस्सा बनते हुए चुनावी घोषणा-पत्र में गरीबों, महिलाओं और बुजुर्गों के लिए अनेक प्रकार की आर्थिक मदद की भी घोषणा की। जिसे मोदी की गारंटी मानते हुए जनता ने सहर्ष समर्थन दिया। फिर अपनी परंपरा कायम रखते हुए भाजपा ने 67 प्रतिशत उम्मीदवार भी बदल दिए, जिनमें से एक तो वर्तमान विधायक ही थे। इसके साथ आम आदमी पार्टी के एकछत्र नेता अरविंद केजरीवाल के ‘कट्टर ईमानदार’ के दावे को ‘कट्टर बेईमान’ साबित करने में भी भाजपा सफल रही। जिसमें केजरीवाल का 177 दिन जेल में रहना, शराब घोटाला, शीशमहल और जल बोर्ड घोटाले ने आग में घी का काम किया।
*कांंग्रेस में भी खुशी का माहौल*
भारतीय जनता पार्टी के साथ कांग्रेस भी दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणामों पर जश्न मना रही है। भाजपा तो विजय का जश्न मना रही है, लेकिन पराजय के देशव्यापी सिलसिले के कायम रहने के बावजूद कांग्रेस को आम आदमी पार्टी की पराजय की खुशी है। कांगेस और आप में अदावत लोकसभा चुनाव के बाद से ही शुरू हो गई थी, जो चुनाव का कारवाँ बढ़ने के साथ-साथ तीखी कटुता में बदलती चली गई। इंडी गठबंधन के अन्य दलों दकि आप को समर्थन मिलने के बाद तो यह लड़ाई कांग्रेस के अस्तित्व का सवाल बन गई थी। ऐसे में अकेले ही चुनाव लड़ना उसकी मजबूरी बन गई। हालांकि कांग्रेस के लिए प्रसन्नता का विषय यह है कि उसके पास खोने के लिए कुछ था भी नहीं और उसने खोया भी नहीं। उसने अपने 2020 के चार प्रतिशत वोट बैंक में दो प्रतिशत का इजाफा जरूर किया। निश्चित ही यह राहुल प्रियंका के परिश्रम का प्रतिफल हर्ष है। लेकिन लगता है कांग्रेस में इससे अधिक खुशी इस बात की है कि कांग्रेस आम आदमी पार्टी की चौदह सीटें हरवाने में कामयाब रही, जिसमें स्वयं अरविंद केजरीवाल की नईदिल्ली सीट भी शामिल है। यहां केजरीवाल चार हजार से अधिक मतों से भाजपा के प्रवेश वर्मा से चुनाव हारे। तीसरे स्थान पर रहे कांग्रेस उम्मीदवार पूर्व सांसद संदीप दीक्षित को 4,500 से अधिक वोट मिले। इस तरह उन्होंने तीन बार सीएम रहीं अपनी माँ शीला दीक्षित की हार का बदला केजरीवाल से ले लिया। यह परिणाम बताते हैं कि यदि दिल्ली में आप और कांग्रेस मिलकर लड़ते तो 36 सीट जीत सकते थे क्योंकि 22 पर आप जीती है और 14 पर कांंग्रेस के कारण पराजित हुई। इसे इस तरह भी देखा जा सकता है कि कांग्रेस ने अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा के लिए बी-टीम का काम किया है और इस बात की कांग्रेस को खुशी भी है क्योंकि वह आप से बदला लेने में सफल रही। इस प्रकार दिल्ली में आप और कांग्रेस की आमने-सामने की लड़ाई भाजपा को बहुत भायी। यह बात अलग है कि कांग्रेस के कुल सत्तर में से नब्बे फीसदी उम्मीदवार जमानत भी नहीं बचा पाए जो कि एक राष्ट्रीय पार्टी के लिए दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही कही जाएगी।
कुल मिलाकर 27 वर्ष बाद भाजपा दिल्ली में अपना परचम फहराने में सफल रही है। उसके दुर्भाग्य की शुरूआत 1993 से प्रारंभ हुई थी जब नईदिल्ली राज्य गठन के बाद पार्टी को सफलता हासिल हुई और दिल्ली के लोकप्रिय नेता मदनलाल खुराना मुख्यमंत्री बने। लेकिन आंतरिक गुटबाजी के चलते साहिब सिंह वर्मा मुख्यमंत्री बना दिए गए। अगले 1998 के चुनाव आने के पूर्व सुषमा स्वराज भी दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकी थीं। पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बनने के बाद 1998 में कांग्रेस की शीला दीक्षित मुख्यमंत्री बनीं और चुनाव जीतकर लगातार तीन बाद मुख्यमंत्री बनीं। बाद में 2013 से केजरीवाल की नवगठित पार्टी ने दिल्ली की सत्ता संभाल ली।
बहरहाल, लंबे वनवास के बाद भाजपा को एक बार फिर इंद्रप्रस्थ हाथ आया है। उसके सामने मुख्यमंत्री चयन की चुनौती है। अपनी परंपरा को बरकरार रखते हुए लगता है कि वह कोई चौंकाने वाला नाम ही देगी। वैसे पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के पुत्र प्रवेश वर्मा भी केजरीवाल को हराकर जाइंट किलर कहे जा रहे हैं। वैसे भी वे पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं तथा पूर्व सांसद भी हैं। उनका मध्यप्रदेश से भी नाता है, वे वरिष्ठ भाजपा नेता पूर्व मंत्री , पूर्व नेता प्रतिपक्ष, पूर्व भाजपा प्रदेश अध्यक्ष, पूर्व राज्य सभा सदस्य विक्रम वर्मा के दामाद हैं। उधर दिल्ली के पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया को हराकर तरविंदर सिंह मारवाह भी जाइंट किलर बन गए हैं। इससे इतर दिल्ली प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेव की मेहनत भी कमतर नहीं आँकी जा सकती। पूर्व अध्यक्ष मनोज तिवारी भी पूर्वांचलियों के नेता बनकर दावेदारों की सूची में शामिल हैं। देखना यह है कि इंद्रप्रस्थ का सिंहासन किसे मिलता है। सीएम कुर्सी मिले किसी को लेकिन दिल्ली में चलेगी मोदी की ही जिन्होंने अपने विजय संदेश में यमुना की सफाई और आप के भ्रष्टाचार की धुलाई को प्राथमिकता के तौर पर जाहिर कर दिया है। उम्मीद की जाना चाहिए कि दिल्ली अब भारत की विश्व स्तरीय राजधानी बनने की यात्रा शुरू करेगी।
शुक्रवार, 31 जनवरी 2025
स्वजनों का ह्रदय से आभार, थैंक्स जेन कूम, ब्रायन एक्टन और मार्क जुकरबर्ग...... स्वजनों का ह्रदय से आभार, थैंक्स जेन कूम, ब्रायन एक्टन और मार्क जुकरबर्ग......
पिताजी शिक्षक, ज्योतिषविद और भागवत कथाचार्य थे, वे कहते थे नारायण ने देह धरी तब वे श्रीकृष्ण रूप में 119 वर्ष ही धरती पर रहे तो मनुष्य की देह तो विदा होनी है, मेरी भी होगी, तुम शोक मत करना। सब यहीं बने रहे तो धरती पर चलना असंभव हो जाएगा, मनुज मनुज को खाएगा। ये दर्शन यथार्थ है लेकिन माता- पिता की देह का विदा होना कोई ऐसा बिछोह नहीं है जिसे सहज ही सहन किया जा सके। अम्मा के गोलोकगमन ( 3 नवंबर 2016) के 8 बरस 2 माह 10 दिन बाद बीती पौष पूर्णिमा 13 जनवरी 2025 को जब पिता की देह पंचतत्व में विलीन हुई और 15 जनवरी 2025 को तीर्थराज प्रयाग में महाकुंभ में त्रिवेणी संगम में अस्थि विसर्जन किया तो मन के भीतर एक विराट शून्य आच्छादित हो गया। अम्मा की ही तरह वे भी मेरे हाथों में स्वर्ग सिधारे। मैं उनका 'भैया', श्याम सुंदर और राजकुमार था, सतीश तो शायद ही पुकारा हो। वे मेरे पिता, गुरु, शिक्षक, मित्र सब कुछ थे। पिता के अचानक विदा होने के संताप की घड़ी में इष्ट मित्रो, परिजनों, परिचितो और पिताजी के शिष्यों ने मुझे बहुत संबल दिया। एक समय था जब संचार और आवागमन के साधन इतने कम थे और परिजनो को अंतिम संस्कार की न जाने क्यों इतनी जल्दी होती थी कि पिताजी अपने पिता और पिता तुल्य दादा बड़े भाई की अंत्येष्टि में शामिल न हो सके थे। पिता के निधन की सूचना तो उन्हें तीसरे दिन मिली थी, अपने पैतृक गाँव बरवाई से महज 70 किमी दूर मिडिल स्कूल मोहम्मदगढ़ में पदस्थ थे वे। आज संचार के साधनों की पहुँच लगभग हर व्यक्ति तक होने से पिताजी के लगभग सभी शिष्यों, मित्रों, स्वजनों तक उनके गोलोकगमन की सूचना समय से पहुँच सकी और जो आत्मीय थे, वे सभी यथासमय भोपाल और फिर बासौदा पहुँचे भी। अंतिम दर्शन कर सके, अंतिम उत्तर क्रियाओ में शामिल हो सके, जो नहीं आना चाहते थे या असमर्थ थे केवल वही नहीं पहुँचे। रिश्तों के नकलीपन की पहचान और कृतघ्नो के असल मंतव्य जाहिर होने की भी यही घड़ी थी। मुझे सांत्वना देने वाले सभी स्वजनों का ह्रदय से आभार, दोऊ कर जोरि प्रणाम, स्नेह बनाए रखिएगा। व्हाटसएप के सर्जक जेन कूम और ब्रायन एक्टन तथा फ़ेसबुक और व्हाटसएप के मालिक मार्क जुकरबर्ग का भी दिल से शुक्रिया जिनकी वजह से यह संभव हुआ कि जिन तक यह सूचना पहुँचाना थी ' पिताजी, गुरुजी नहीं रहे' मैं संदेश तत्काल पहुँच सका।