हमारे छह भाई बहनों में सबसे बड़ी और दिल से मासूम सीधी सबसे छोटी सी सहज...। 64 की उम्र में दिल ने साथ छोड़ दिया। आखिरी समय अस्पताल जाने से इन्कार...शब्द थे बरवाई जाना है...जन्म स्थान था उनका, पिता का, दादा परदादा प्रप्रपितामह का भी...जिस गाँव को पिता ने करीब 68 वर्ष पहले आजीविका (शासकीय सेवा) के लिए गंजबासौदा में स्थायी निवास के निर्माण के बाद बतौर स्थायी निवास छोड दिया था। पूरे कुनबे ने बाद के सालों में एक एक कर गांव छोड़ दिया, ज्यादातर ने आजीविका के लिए। उन्होंने भी छोड़ दिया जिनकी आजीविका अब भी पुरखों के उसी गांव में है, वे जाते हैं और शहर लौट जाते हैं क्या धरा है गांव में। उषा जीजी करीब 200 किलोमीटर दूर रायसेन जिले के सिलवानी में आखिरी सांस में जीवन के अंतिम समय में अपने पैतृक गाँव अपनी जन्म भूमि को याद कर वहाँ जाने की जिद कर रही थीं, मानो करीब एक साल का अबोध शिशु जीवन के 63 वर्ष के भटकाव का वर्तुल पूरा करना चाहता था.
शुक्रवार 10 मई 2024, तिथि अक्षय तृतीया, माता पिता के विवाह की 70 वी सालगिरह के दिन उषा जीजी नहीं रहीं, मां सात साल पहले 2016 में नहीं रहीं थीं। पिता सुबह से विवाह की सालगिरह को याद कर मां को याद कर रहे थे, तभी भांजे के फोन काल से यह ह्रदय विदारक सूचना मिली, पिता को बताने की हिम्मत ही न जुटा सका। उनकी बात सुनता रहा और बीच-बीच में परिवार को सूचना देता रहा। सभी बहनों के साथ सिलवानी पहुँचे तो पार्थिव हो चुकी देह वैसी ही दिखी जैसी सात बरस पहले मां को देखा था चारों तरफ महिलाएँ क्रंदन करती बेटियों को ढाढस बंधाने का प्रयास करती हुई। इसी घर में ब्याह कर आई थीं, में तब 7- 8 बरस का था। शादी के बाद जब पहली बार मायके आई तो संदूक से काँच की अंटियो ( कंचे) की छोटी सी पोटली निकाल कर मुझे दी, देवरो से अपने भैया के लिए छीनकर जमा कर लाई थीं। कितने दिनो तक अपनी निक्कर के जेबो में भरकर सब दोस्तो को दिखाता फिरा था मैं। दौड़ता तो छन छन आवाज आती, मानो जीजी भाई के लिए खजाना ही ले आई थी। और अब यंत्र लिखित सा स्तब्ध मैं उनकी पार्थिव देह के सामने खड़ा अब तक सायास नियंत्रित अश्रुधार बह चली निशब्द, जमीन पर बैठ गया। मैं तुम्हारे लिए कुछ न कर पाया जीजी। कुछ ही पलों में अंतिम यात्रा ....अंत्येष्टि....चिता के सम्मुख चित्र लिखित सा मैं मानो सात वर्ष और 200 मील का फासला शून्य हो गया वेत्रवती तट पर 3 नवंबर 2016 को मां की चिता के सामने खड़ा हूँ....शरीर में मानो रक्त की एक बूँद न बची, तेज स्वर में कंठ से विलाप फूटा पीछे जीजाजी खड़े थे, थाम लिया गले से लगाया...विलाप तेज हुआ कंठ अवरूद्ध श्मशान में मौजूद सब हतप्रभ...इन दिनो श्मशान रुदन भला कौन करता है...! धीरे धीरे कदमों से मंझले जीजाजी का हाथ थामे हुए श्मशान भूमि से उषा जीजी के घर की तरफ...उषा जीजी जो अब नहीं है उनकी देह अभी अभी अग्नि को समर्पित की है, चिता की आंच से अब तक मेरा शरीर दग्ध है, मन विदग्ध है, मेघ घुमड घुमड रहा है , मेरा मन भी, मेघ की बूँदें शरीर को भिगो रही हैं, जीवन क्या है? उसकी सारता निस्सारता क्या है? क्यों आपाधापी है ? सवाल भी घुमड रहे हैं, मां का आवाज लगाना सुनाई दे रहा है, मानो उषा जीजी ने पुकारा है - भैया ए भैय्या....। - सतीश एलिया, सिलवानी ( रायसेन मप्र), 10 मई शाम 5.45 बजे