- सतीश एलिया
लोकसभा में भारी हंगामे और एनडीए कुनबे के प्रमुख और सबसे पुराने दल के विरोध के बावजूद कृषि संबंधी तीनों बिल पास होने के बाद इस मामले पर सियासत और विराेध की आखिर क्या प्रमुख वजह है? खेती घाटे का धंघा और लगातार किसानों की आत्महत्याओं के करीब ढाई तीन दशक के जारी दौर के बीच खेती से किसानों की आय को दाेगुना करने के दावे वाले तीनों अध्यादेशों के विधेयकों का विरोध सियासी कारणों से तो ही रहा है लेकिन इसको किसानों के संगठनों का समर्थन और किसानों के मन में आशंका का प्रमुख कारण उन्हें हर हाल में समर्थन मूल्य से कम पर खरीदी नहीं होने की स्पष्ट गारंटी नहीं मिल रही है। सरकार की मंशा किसानों को अपनी फसल बेचने के अधिक अवसर और नकदी पाने की सुनिश्चितता के भले हों लेकिन मल्टी नेशनल कंपनियों को लेकर किसानों के अब तक के अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं। यही वजह है कि इन विधेयकों को विरोध हो रहा है। सरकार को किसानों की आशंकाओं का निवारण और सियासी कारणों का खुलासा भी स्पष्ट रूप से कराना होगा और यह भी जरूरी है कि किसानों को फसल बेचने के बाद के संभावित विवादों से निपटने की सरकार की तरफ से गारंटी भी मिले। देखना यह है कि उच्च सदन यानी राज्य सभा में इन विधेयकों को लेकर हंगामा किस रंग में नजर आएगा। यह भी देखना होगा कि क्या इन विधेयकों को लेकर उठे सवाल और चिंताओं को लेकर सरकार सियासी विरोध को सीएए, जम्मू कश्मीर से 370 हटाने और तीन तलाक को गैर कानूनी बनाने की तरह दरकिनार कर पाएगी। यह तो तय है कि सरकार किसी भी सूरत में किसानों की नाराजी को अपने खिलाफ हथियार नहीं बनने देगी। किसानों की आशंकाएं दूर करने मंडियों के बाहर भी एमएसपी बनाए रखने पर सरकार को जोर देना होगा। कोरोनाकाल में लाए गए थे अध्यादेश इसलिए असर पर प्रतिक्रिया नहीं मिली.....
लोकसभा में पास तीनों विधेयकों को उन अध्यादेशोंं के जगह लाया गया है जो कोरोनाकाल के लॉकडाउन वाले काम में लाए गए थे। इसलिए सरकार उन पर किसानों, सियासी दलाें, राज्य सरकारोें की प्रतिक्रिया को भांप नहीं पाई। कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य संवर्धन और सुविधाएं विधेयक 2020, मूल्य के आश्वासन पर किसान बंदोबस्ती और सुरक्षा समझाैता विधेयक 2020 तथा कृषि सेवा विधेयक 2020 को लेकर सरकार का दावा है कि इनसे किसानों की आय लागत से दो गुनी करने का लक्ष्य वर्ष 2022 तक हासिल किया जा सकेगा। विधेयकोें को लेकर एनडीए के सबसे पुराने सहयोगी अकाली दल का सरकार से अलग होने जैसे सख्त विरोध के बावजूद सरकार अपने कदम के फलीभूत होने को लेकर आश्वस्त दिख रही है। हर सिमरत कौर बादल का इस्तीफा मंजूर किए जाने से यह स्पष्ट है कि भाजपा इस मामले में एनडीए की भी परवाह नहीं कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि कई शक्तियां किसानों को भ्रमित करने में लगी हैं। विधेयक किसानों और बिचौलियों और अन्य अवरोधों से मुक्त करेंगे। उन्हें उपज बेचने के नए अवसर मिलेंगे। सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर की जाने वाली सरकारी खरीद जारी रखने का आश्वासन दिया है। यानी किसान के पास मंडी और समर्थन मूल्य पर उपज खरीदी के लिए बनाए जाने वाले खरीदी केंद्रों पर अपनी उपज बेचने का अधिकार बना रहेगा। लेकिन मंडियों और खरीदी केंद्रों से बाहर खरीदी के लिए एमएसपी की अनिवार्यता के बारे में न विधेयक में और न ही सरकार के वक्तव्य में ठोस वादा है। अकाली दल और अन्य दलों की क्या हैं दलीलें...... भाजपा और एनडीए के प्रमुख सहयोग शिरोमणि अकाली दल के मुखिया सांसद सुखबीर सिंह बादल ने इन विधेयकों को लेकर आशंका जताई है कि इससे प्रभावी और जमी जमाई किसान हितैषी मंडी व्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी। यही आशंका कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस आदि दल और किसान संगठन भी जता रहे हैं। केंद्र सरकार को क्षेत्रीय दलों, राज्य सरकारों की आशंकाओं को दूर करना चाहिए। किसान और खेती इस देश की अर्थ व्यवस्था और सियासत दोनों का केंद्र बिंदु है। देखना ये है कि एनडीए कुनबे के जद-यू जैसे दलों की इस मामले में क्या प्रतिक्रिया सामने आती है। क्योंकि बिहार चुनाव सामने है। मप्र में 28 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव सामने और उसके नतीजे राज्य सरकार का भविष्य तय करेंगे। इन उपचुनाव में किसानों के मामले पहले से ही चुनावी मुद्दा बने हुए, ऐसे में ये विधेयक कांग्रेस के हाथ में एक और मामला लगने जैसा है। हालांकि 2018 में कर्ज माफी वादा कर सत्ता में आई कांग्रेस अपने दल में टूट होने से सत्ता गंवाने वाली कांग्रेस पर भाजपा वादा खिलाफी का आरोप लगा रही है तो कांग्रेस वादा पूरा करने करने के साथ ही भाजपा पर किसान विरोधी होने का आरोप लगा रही है। राज्य सरकारों की आय का बढ़ा स्त्राेत हैं मंडियां.... देश के कृषि कारोबार में कृषि उपज मंडियों की प्रमुख भूमिका है। पंजाब, हरियाणा, मप्र, उप्र, राजस्थान समेत लगभग सभी प्रमुख कृषि प्रधान राज्यों में अनाज मंडियां सरकारी क्षेत्र में हैं। सभी सरकारों की आय का बढ़ा जरिया मंडी टैक्स है। यह दो से आठ फीसदी तक वसूला जाता है। कई राज्यों में यह प्रमुख राजस्व स्त्रोत है। पंजाब में यह साढ़े चार फीसदी है। मप्र समेत कई राज्यों में तो मंडियों की सुप्रीम संस्था मंडी बोर्ड जो सरकारी उपक्रम ही है, राज्य पर आर्थिक संकट के वक्त कर्मचारियों के वेतन बांटने के लिए रकम पाने का साधन बनते रहे हैं। मंडी टैक्स से होने वाली आय ग्रामीण क्षेत्रों में सडक इत्यादि तथा अन्य विकास कार्यों और गौधन सेवा जैसे कामों में भी उपयोग में लाई जाती रही है। ऐसे में मंडी टैक्स में कमी की चपत को लेकर भाजपा शासित राज्यों की सरकारें भले ही खुले तौर पर कुछ न बोलें लेकिन यह मामला भी जीएसटी की ही तरह केंद्र राज्य तनातनी का कारण बन सकता है। केंद्र सरकार को मंडी के बाहर बिना टैक्स के ही कृषि उपज कंपनियों और व्यापारियों को बेचने का इंतजाम करने को लेकर राज्योें की सहमति लेनी चाहिए थी और इसके लिए राज्य सरकारों को जीएसटी लागू होने से होने वाले नुकसान की भरपाई की ही तरह कोई फार्मूला भी खोजना चाहिए। मप्र में हुआ था इसी तरह का प्रावधान और भारी विरोध...... करीब दो दशक पहले मप्र में भी सरकारी कृषि उपज मंडियों से बाहर किसानों से अनाज खरीदी का प्रावधान किया गया था। तब मल्टी नेशनल कंपनी आईटीसी ने प्रदेश में कई जगह अपनी अनाज खरीदी मंडी खोली थीं। विदिशा और विदिशा समेत कई जगह यह आईटीसी चौपाल अब भी काम कर रहे हैं, जहां किसान के लिए सुपर मार्केट भी बने हैं। किसानों और राजनीतिक दलों न तब प्रदेश भर में विरोध प्रदर्शन और मंडी बंद आंदोलन किए थे। लेकिन मप्र में अब भी सरकारी मंडी और समर्थन मूल्य पर खरीदी के केंद्र ही प्रभावी बने हुए हैं।