मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

गौ ग्रास बनाम गौ का ही ग्रास


             
जब से दादरी में एक मुसलमान की गौवध करने, गौमांस रखने और खाने के सुबहे की बिना पर हत्या कर दी गई, पूरे देश में गौेमांस खाने या न खाने पर सियासी उबाल आया हुआ है। विकास की बातें और विश्व महाशक्ति देखने वाले एक देश के लिए यह विवाद सामाजिक या मजहबी या धार्मिक नहीं बल्कि पूरी तरह सियासी हैं। यह बेहद शर्मनाक बात है कि एक उन्मादी भीड़ ने एक इंसान की जान ले ली और उसकी राजनीतिक प्रतिक्रिया में सरेआम गौमांस की पार्टियां दी जाने जैसी घटनाएं हो रही हैं। मांसाहार बनाम शाकाहार के मुद्दे पर नफा-नुकसान की बात हो तो समझ में भी आती है, लेकिन बकरे को मारना गलत नहीं है, गाय को मारना गलत है, इस पर बहस पूरी तरह मूर्खता से भरी है। आखिर जो मांसाहार या जीव हत्या के खिलाफ हैं वे पूरी तरह से जीव हत्या के पक्ष में खड़े क्यों नहीं होते। जो कुर्बानी के नाम पर बकरे या किसी और जानवर की बलि देते हैं और समाज को कोई आपत्ति नहीं होती, उनसे केवल गाय को बक्श देने की उम्मीद करना एक तरह की बेईमानी ही है। जैसे गाय नहीं बोल सकती, वैसे दूसरे जानवर भी अपनी हत्या को रोकने के लिए इंसानोें से न्याय की गुहार नहीं लगा सकते। ये मनुष्य की नृशंसता और स्वार्थ ही हैं जो अन्य जीव को मारकर खाने के बहाने तलाशते हैं और इससे कहीं ज्यादा बेईमानी इस बात में है कि किसी जीव विशेष की रक्षा के लिए मरने मारने पर उतारू होने वालों को अन्य जीवों की हत्या पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
मैं अपनी बात अपने ही सामाजिक अनुभव के जरिए कहना चाहता हूं। मैं मध्यप्रदेश के जिस ग्रामीण और कस्बाई समाज जीवन में जन्मा, पला, बढ़ा और पढ़ा लिखा हूं, उसमें गाय का अपने आप में अत्यंत महत्व है। लोग कसम खाने के लिए भी गाय को ईश्वर की तरह पवित्र मानते हैं, जैसे भगवान और अन्न की कसम खाई जाती हैं वैसे भी गऊ यानी गाय की कसम भी सत्य बोलने की गारंटी की तरह मानी जाती है। गाय को खाने से ज्यादा बड़ा पाप शायद ही कोई और माना जाता हो। यहां तक कि मनुष्य की हत्या से ज्यादा गौहत्या का दोष समाज मानता है। मुझे अपने बाल्यकाल का वो वक्त याद है जब में तीन या चार साल का रहा होऊंगा, मेरी मां के नानाजी अत्याधिक गुस्से में होते थे तो किसी के लिए गाली गौखाने यानी गाय खाने वाला कहकर व्यक्त करते थे। ऐसा कोई घर नहीं होता जहां पंगत या श्राद्ध भोज की पंगत में बैठा हर व्यक्ति ईश्वर को अर्पित भोग गौ ग्रास अर्थात गाय को भोजन कराने के लिए नहीं निकालता हो। अभी मेरी बुआजी के निधन के बाद छह अक्टूबर को उनका त्रयोदशी संस्कार था यानी तेरहवीं और गंगापूजन। पूजा के बाद भोज था। इसमें भी गौ ग्रास निकाला गया। एक तरफ अपने भोजन से पहले गाय के भोजन का ग्रास निकालने और हर रोज पहली रोटी गाय के लिए बनाने वाला समाज है और दूसरी तरफ गाय को ही भोजन बनाने वाली मानसिकता लेकिन क्या गाय की हत्या या अन्य किसी जीव की हत्या करने वालों की हत्या को जायज ठहराया जा सकता है? जाहिर है नहीं, यह भारतीयता नहीं है। हां गाय की हत्या करने वाले या गौमांस भक्षण करने वाले को भारतीय समाज खासकर जो सनातनी है यानी बोलचाल की भाषा में हिंदू है वह सम्मान नहीं कर सकता बल्कि उसे सहजता से भाईचारगी के साथ नहीं ले सकता। यह तथ्य उनको भी समझना चाहिए जो बहुलतावाद के नाम पर सब कुछ चलाना चाहते हैं और उन्हें भी समझना चाहिए जो गौहत्या के शक में किसी इंसान को मार देने की तरफदारी करने की कोशिश कर रहे हैं। एक दूसरे की भावना, परंपरा को समझकर जीवन व्यवहार करना ही असल में बहुलवादी समाज की जरूरत और ताकत है। गौ ग्रास निकालने के बाद ही भोजन करने वाले और गौ को ही ग्रास बनाने और उनकी तरफदारी करके आधुनिक बनने का ढोंग करने वालों को यह बात समझनी ही होगी।
                                                                                                         - सतीश एलिया