मित्रों, छह महीने पहले मैंने गंवारपन की श्रेणी में मान लिए गए अपने
व्हाट्सएप पर न होने का रोना आपके समक्ष रोया था। जब में यह जलालत न सह
सका और मेरी पत्नी के सौजन्य से मुझे फिर एंड्रायड फोन सुलभ हो गया तो
मैं न न करके व्हाट्स पर आ ही गया। लेकिन अब मेरा दुख नए सिरे से उभर आया
है, वजह है यह व्हाट्स एप की ग्रुपबाजी फूहड़ चुटकुलों, कट पेस्ट के गटर
और भ्रमित करने वाले नकारा पत्रकारों की अफवाहबाजी के रूप में मेरे माथे
पर है। जो कुछ भी नहीं थे, कुछ भी नहीं हैं और कुछ भी हो सकने की जिनमें
तनिक सी भी संभावना नहीं है, वे इस एप के जरिए अच्छे अच्छे पत्रकारों को
नचा रहे हैं। तर्क यह दिया जाता है कि यह सूचना के आदान प्रदान का साधन
तो है। है भाई इससे इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन उस पर दिया क्या जा
रहा है? हर ग्रुप में लगभग वही चुटकुले, वहीं वीडियो, वही स्टिकर। हमारे
एक ग्रुप में तो एक सदस्य ने ऐसा कुछ डाल दिया कि सब शर्मसार हुए। ग्रुप
से रवानगियां हो गर्इं, जिसे लेफ्ट करना कहा जाता है। मुख पुस्तिका की ही
तरह व्हाट्स एप भी हमारे एक पुराने क्राइम रिपोर्टर साथी के जुमले- बंदर
के हाथ में उस्तरा, अब तू मुस्करा। की तरह इस्तेमाल हो रहा है। इधर देश
में आलम ये है कि बात बात में ट्वीट करने वाली एक मादाम ट्वीटर से ेलेकर
फेसबुक और व्हाट्सएप पर जो फेस कर रही हैं, उसके बचाव में विश्व की
सर्वाधिक सदस्यों वाली पार्टी और हिंदुस्तान में तूफानी बहुमत से बनी
सरकार के उतरने के बावजूद उनकी खुद की हिम्मत ट्वीट कर सफाई देने की नहीं
हो रही। तो मित्रों में छह साल पहले ट्वीटर, फेसबुक, ब्लॉक और इसी साल
मार्च में व्हाट्सएप पर आ गया लेकिन मुझे न जाने क्यों ऐसा लग रहा है कि
मेरा गंवारापन ही ठीक था, इन आधुनिक संचार माध्यमों से लैस लोगों से तो
घबराहट होने लगी है। मेरे जेहन में लगातार श्री अमिताभ बच्चन अभिनीत और
श्रद्धेय किशोर दा के गाए एक गीत का अंतरा गूंज रहा है- जाने कौन घड़ी में
पड़ गया पढ़े लिखों से पाला...।