इस स्वीकारोक्ति के पीछे की तकलीफ से रूबरू होंगे तो आप शायद रो ही पड़ेंगे या फिर हो सकता है मेरे गवांरपन पर ठठाकर हंस ही पड़ें। जो भी हो मुझे कनफेस करना है कि मैं एक बार फिर गवांर हो गया हूं। तीन तीन विषयों में स्रातक और इतने ही विषयों में परा स्रातक यानी पोस्ट ग्रेजुएट होने के बावजूद मुझे अपने निपट अज्ञानी और करीब करीब अपढ़ होने का अहसास अपराधबोध की हद तक खाए जा रहा है। वजह है मैं व्हाटस-एप पर जो नहीं हूं। जी हां इन दिनों मैं इसी प्रश्न से दो चार हूं कि अरे आप व्हाटस अप पर नहीं हैं? गोया मैं इंसान ही नहीं हूं और इंसान हूं भी तो दोस्ती के काबिल नहीं हूं। मुख पुस्तिका अर्थात फेस बुक और ट्विटर पर उपस्थिति के बावजूद में आभासीय दुनिया के इस एप से नहीं जुड़ा होने की वजह से गवांर मान लिया जा रहा हूं। अब आप ही बताइए कि व्हाटस अप पर नहीं होने का अर्थ मेरे लिए अज्ञान का प्रतीक ही बन गया है। मैं जिस पेशे में हूं उसमें नए नवेले से लेकर बड़ी प्रेस कांफ्रेंसों के लिए चंद बाल और आधे सिर को कालिख से पोतकर हाजिर रहने वाले वरिष्ठजन तक व्हाटस एप पर हैं। मेरे कॉलेज और विवि के जमाने के साथी भी ताने देते हैं कि अरे यार तुम व्हाटस एप पर नहीं हो, कितने पिछड़े हो। उनकी तकलीफ ये है कि मैं उनके ग्रुप में जुड़कर फूहड़ चुटकुलों के आदान प्रदान का हिस्सा क्यों नहीं बन रहा हूं। पत्रकार मित्रों को ऐतराज इस बात का है कि मैं अफवाह तंत्र और बिना रोजगार वाले पत्रकारों की बे-पर की बातों को खबरों में तब्दील करने के इस नए औजार का शिकार क्यों नहीं बन रहा हूं। तो मित्रों मैं व्हाट्स एप पर नहीं हूं इसलिए गवांर मान लिया गया हूं, क्या आप भी ऐसा ही मानते हंै कि जो व्हाट्स एप पर नहीं है वो गवांर है। अगर आपका उत्तर हां है तो मुझे कुछ नहीं कहना।
मंगलवार, 9 दिसंबर 2014
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