मुकेश जी का गाया ये गीत इस पूरे महीने से मेरे जेहन में गूंज रहा है। आया है मुझे फिर याद वो जालिम गुजरा जमाना बचपन का.......। इस बार सावन करीब करीब सूखा बीता है लेकिन फिर भी उसका असर तो है ही, यह महीना, यह गाना हमें सावन के महीने और राखी के त्योहार की सुखद स्म्रतियों में ले जाता है। जब हम छोटे थे और घर में, मोहल्ले में और पूरे शहर में त्योहार का माहौल फिजां से लेकर हमारे दिलों तक पर पूरी शिददत से अपना साम्राज्य कर लेता था। लडकियां मेंहदी की झाडियों से पत्ते खुद चुनकर लाती थीं और सहेलियां या बहनें मिलकर उसे पीसती थीं, घर के लडके भी उनका हाथ बंटाते थे। मेरी तो पांच में से तीन बहनें बडी हैं और इकलौते भाई का जलवा किसी राजकुमार से कम न था। पूरे मोहल्ले में सबसे ज्यादा राखी बंधवाने वाले चंद सुपर स्टार्स में हम भी थे। हाथ कंधे तक भर जाता था। फिर पिताजी को राखी बांधने के समय बुआजी भी हमें राखी बांधती थीं। हम तो जगत भैया थे, पिताजी अम्मा भी मोहल्ले वाले भी और घर के किरायेदार भी सभी के भैया। दोस्तों की संख्या इतनी की अब याद करते हैं तो लगता है, क्या बेहतरीन दिन थे। सावन के महीने में भौंरे यानी लकडी के लटटू जिन्हें डोरी मढकर फिर उसे खींचकर जमीन पर नचाया जाता था। पूरे मोहल्ले के लडके रंग बिरंगे लटटू लेकर कौन कितना भौंरा घुमाता है, जमीन से भौंरे को घूमते हुए ही हथेली पर लेने में महारथ हासिल करने वाला इस प्रदर्शन में प्रिंस की तरह सम्मान पाता था। हमने भी भारी प्रेक्टिस के बाद यह गुर सीख ही लिया था। चकरी, जिसमें धागा या तांत की डोरी होती थी, उसे उंगली में फंसाकर घंटो फिराते रहते थे लडकों के हुजूम। लडकियां झूला झूलने और चपेटे खेलने में मग्न रहती थीं। हम जैसे ठसियल लडके चपेटे खेलने में भी पीछे नहीं रहते थे। बेचारी बहनें अपनी सहेलियों के साथ चपेटे खेलने में अपने प्रिय भाई के ठसने से खूब नाराज होतीं थी लेकिन रोने के सिवाय कुछ कर नहीं पाती थीं। सभी बहनों और भाईयों के बीच इस किस्म के झगडे लगे रहते थे। लडकियों का एक डायलाॅग लडकों को मूलतः लडकियों के माने जाने वाले खेलों से भगाने के लिए रामबाण का काम करता था। वे समवेत स्वर में कहती थीं- मोडियों में मोडा खेले वाको बाप चपेटा खेले। लेकिन जब वे चपेटे के खेल में ऐसा कहती थीं तो ढीट बनते हुए लडके कहते बाप नहीं हम खुद ही खेल रहे हैं चपेटे, लो हम चपेटे ही फेंके देते हैं। लडकियांे में चीख पुकार गुहार मच जाती है- ये भैया चपेटे फेकियो मत। चपेटे लाख के मिलते थे बाजार में लेकिन लडकियां पत्थरों को चोकोर घिसकर खुद बनाने में ज्यादा यकीन करती थीं। हमारे मोहल्ले में झूले डालते थे हम लोग लेकिन बहनें ज्यादा झूलती थीं, हम लोगों का मूड हुआ तो लडकियांे को फिर हटना ही पडता था, उन बिचारियों को घरों में मांओं के साथ पकवान बनाने की तैयारी भी करना पडती थी। मेंहदी लडके भी हाथों में रचवाते थे बहनों से। जिन लडकियों को खूब रचती वे कहती भैया खूब चाहता है हमें इसलिए रचती है, और भाई कहते हमारी बहनें खूब चाहती हैं इसलिए देखो खूब सुर्ख रची है मेंहदी। जिनको न रचती तो उनसे कहते अच्छी नहीं थी मेंहदी, अब हाथ में चूना लगा लो फिर तेल मल लेना, मेंहदी का रंग गहरा हो जाएगा। अनगिनत यादें हैं, अनगिनत अनुभव हैं सावन और राखी त्योहार के। दोस्तों के भाई बहनों के खेल खिलौनों के मेंहदी के झूले के राखी के चकरी के भौंरों के चपेटों के। बहनें अब भी हैं, राखी अब भी बंधती है, दोस्त अब भी मिलते हैं, लेकिन न अब वो झूले हैं, न वो चकरी भौंेरे हैं, न मेहंदी की पत्तियां तोडना पीसना रचाना है, न घर में वैसे पकवान बनते हैं और न ही राखी के दूसरे दिन की भुजरिया यानी कजलियों का उत्सव है। लगता है अब सब कुछ मशीनी या औपचारिकता होता जा रहा है, न बच्चों में उस शिददत वाला उत्साह दिखता है। लेकिन बाजारों मंे बसों में रेलों में भीड हैं लोगों को त्योहार मनाने की दिलचस्पी बरकरार है। सब बहनों को सब भाईयों को राखी का पर्व शुभ हो यही कामना है।
ये पोस्ट बीते साल लिखी गयी थी इस साल भी सावन मप्र में सूखा ही है.इसलिए फिर दी है